इसी तालाब का पानी पीकर राजा सूरजसेन को मिला था जीवनदान


मध्य प्रदेश का एक प्रमुख शहर है ग्वालियर| ग्वालियर अपने पुरातन ऎतिहासिक संबंधों, दर्शनीय स्थलों और एक बड़े सांस्कृतिक, औद्योगिक और राजनीतिक केंद्र के रूप में जाना जाता है। इसीलिए यहाँ हर वर्ष यहाँ देश- विदेश से हज़ारों की संख्या में पर्यटक आते हैं| इस शहर को उसका नाम उस ऐतिहासिक पत्थरों से बने क़िले के कारण दिया जाता है, जो एक अलग-थलग, सपाट शिखर वाली 3 किलोमीटर लंबी तथा 90 मीटर ऊँची पहाड़ी पर बना है। लेकिन क्या आप जानते है इस शहर का नाम ग्वालियर कैसे पड़ा?


जनश्रुति के अनुसार, आठवीं शताब्दी में एक राजा हुए सूरजसेन| एक दिन राजा जंगल में रास्ता भटक गए तो उन्हें जोरों की प्यास लगी| पानी की तलाश में राजा सूरजसेन इधर-धरा भटक रहे थे कि अचानक उनकी भेंट एक संत से हो गई जिसका नाम था ग्वालिपा| सूरजसेन उस संत से मिलकर बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने संत से कहा कि महत्मन मैं बहुत प्यासा हूँ| इस पपर संत राजा को एक तालाब के पास ले गया| तालाब का पानी पीकर राजा सूरजसेन ने अपनी प्यास बुझाई| उस तालाब का पानी पीकर कुष्ठ रोग से पीड़ित राजा को जीवनदान मिल गया| जिस तालाब में पानी पीने से राजा को जीवनदान मिला उसी तालाब को आज सूरजकुंड के नाम से जाना जाता है| 

जीवनदान मिलने के बाद जब राजा ने उस संत को कुछ देने के लिए कहा तो संत ने कहा महाराज जंगल में इस पहाड़ी पर साधना कर रहे कई साधुओं के यज्ञ में जंगली जानवर विघ्न पैदा करते हैं, इसलिए उनकी सुरक्षा के लिए पहाड़ी पर एक दीवार बनवा दो। इसके बाद सूरज सेन ने किले के अंदर एक महल बनवाया, जिसका नाम संत गालिप से प्रभावित होकर उनके नाम पर ग्वालियर रखा। 

यह शहर सदियों से राजपूतों की प्राचीन राजधानी रहा है, चाहे वे प्रतिहार रहे हों या कछवाहा या तोमर। इस शहर में इनके द्वारा छोडे ग़ये प्राचीन चिह्न स्मारकों, क़िलों, महलों के रूप में मिल जाएंगे। सहेज कर रखे गए अतीत के भव्य स्मृति चिह्नों ने इस शहर को पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बनाता है। यह नगर सामंती रियासत ग्वालियर का केंद्र था। जिस पर 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मराठों के सिंधिया वंश का शासन था। रणोजी सिंधिया द्वारा 1745 में इस वंश की बुनियाद रखी गई और महादजी (1761-94) के शासनकाल में यह अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा।

इस मंदिर में सम्राट अकबर ने भी टेका था माथा!

जहाँ आज लोग मंदिर निर्माण करवाकर पुण्य कमाना चाहते हैं वहीँ एक ऐसा मंदिर जहाँ जिसे बड़ा बनवाने के लिए जब भी लोग पहल शुरू करते हैं तो आस- पास के क्षेत्र में अनिष्ठ घटनाएं शुरू हो जाती हैं| यह मंदिर माता वनखंडी देवी का है जो उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात के कालपी कस्बे में स्थित है| कहा जाता है कि मुगलकालीन वनखंडी देवी की महिमा से अभिभूत मुगल बादशाह अकबर ने भी देवी के दरबार में माथा टेका था।

बादशाह के नवरत्नों में शामिल बीरबल यहां के निवासी थे जिनका किला आज भी खंडहर की शक्ल में यमुना नदी के तट पर स्थित है। इस बारे में वयोवृद्ध बुद्धिजीवी बृजेन्द्र निगम बताते हैं कि बादशाह अकबर बीरबल से मिलने के लिये जल मार्ग से आगरा से कालपी आये थे।

इस मंदिर के विषय में मान्यता है कि यहां आकर जो भी भक्त श्रद्धापूर्वक माँ को हलवा पूड़ी का भोग लगाता है तो उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं| इस मंदिर के बारे में एक कथा है, "प्राचीन काल से ही योगमाया माता कालपी अम्बिका वन में निवास करती हैं। वनक्षेत्र में निवास करने के कारण माता को वनखंडी देवी के नाम से जाना जाता है। मान्यता यह भी है कि वनखंडी देवी का चमत्कार देखकर ब्रम्हा, विष्णु और महेश भी हैरान हो गये थे और अपने लोक से अम्बिका वन में आकर माता की शक्ति को प्रणाम किया था। 

आपको बता दें कि वनखंडी देवी के मंदिर का प्रांगण करीब एक एकड़ में फैला हुआ है किंतु देवी एक बेहद छोटे मठ में निवास करती हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि जब भी माता के मंदिर को बड़ा करने का प्रयास किया जाता है तब आस पास के क्षेत्र में अनिष्ट घटनाएं होने लगती हैं। 

माँ वनखंडी की कथा-

प्राचीन काल में सुधांशु नाम के एक ब्राह्मण थे जिनके कोई संतान नही थी | एक बार देवर्षि नारद मृत्युलोक में घूमते हुए उनके घर के सामने से निकले | अपने घर के बाहर उन्होंने सुधांशु ब्राम्हण को दुखी: अवस्था में बैठे हुए देखा | उस अवस्था में बैठे देख देवर्षि को उस पर दया आयी | उन्होंने उससे दुखी होने का कारण पूछा | ब्राम्हण ने संतान सुख न होने की अपनी व्यथा कही एवं संतान प्राप्ति हेतु प्रार्थना की | नारद ने कहा कि वह उसकी बात को भगवान से कहकर उसके दुःख को मिटाने की प्रार्थना करेंगे |

उस ब्राम्हण की बात को सुनकर नारद जी विष्णुलोक पहुंचे एवं भगवान् विष्णु से उस ब्राम्हण की बात कही | भगवान् विष्णु ने कहा कि इस जन्म में उसके कोई संतान योग नही है | यही बात नारद जी ने ब्रम्हा एवं भगवान् शंकर से पूछी | उन्होंने ने भी यही जवाब दिया | यह बात नारद जी वापस लौटकर उस ब्राम्हण को बताई | निसंतान ब्राम्हण यह सुनकर दू:खी हुआ पर भावी को कौन बदल सकता है |

कुछ वर्षोपरांत एक दिन सात वर्ष की एक कन्या उसके द्वार के सामने से यह कहते हुए निकली कि " जो कोई मुझे हलुआ-पूड़ी का भोजन कराएगा वह मनवांछित वर पायेगा |" यह बात उस सुधांशु ब्राम्हण की पत्नी ने सुनीं तो दौड़कर बाहर आयी | ब्राम्हण पत्नी ने उस कन्या को बुलाया, उस आदर से बैठाकर पूछा कि " मै यदि आपको हलुआ-पूड़ी खिलाऊं तो क्या मेरी मनोकामना पूर्ण होगी ?" उस कन्या ने कहा, "हाँ अवश्य पूर्ण होगी |" 

तत्पश्चात उस ब्राम्हण पत्नी ने पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ उस कन्या को हलुआ-पूड़ी का भोजन कराया | भोजनोपरांत ब्राम्हण पत्नी ने कहा- देवी मेरे कोई संतान नही है ,कृपया मुझे संतान सु:ख का वर दीजिये | कन्या ने ब्राम्हण पत्नी से "तथास्तु" कहा | इसके बाद ब्राम्हण पत्नी ने उस कन्या से उसका नाम व धाम के बारे में पूछा | उस कन्या ने अपना नाम जगदम्बिका तथा अपना धाम अम्बिकावन बताया |

समय पर ब्राम्हण को पुत्र प्राप्ति हुई | पुत्र धीरे-धीरे जब कुछ बड़ा हुआ कुछ समय पश्चात एक दिन देवर्षि नारद जी का पुन: आगमन हुआ | नारद जी ने उस ब्राम्हण से पूछा ये पुत्र किसका है ? तो ब्राम्हण ने बताया कि यह पुत्र मेरा है |

नारद जी को पहले तो विश्वास नही हुआ, फिर उस ब्राम्हण की बात सुनकर भगवान विष्णु के लोक में जाकर उनसे ब्राम्हण पुत्र के बारे में चर्चा की | भगवान ने कहा ऐसा हो ही नही सकता कि ब्राम्हण को कोई संतान हो | यही बात ब्रम्हा और भगवान शंकर ने भी कही | तब नारद जी ने त्रिदेवों से स्वयं चलकर देखने के लिए प्रार्थना की | नारद जी की प्रार्थना पर त्रिदेव नारद जी के साथ ब्राम्हण के यहाँ पधारे |

ब्राम्हण से पुत्र प्राप्ति का सम्पूर्ण वृतांत जानकार त्रिदेव नारद जी एवं वह ब्राम्हण के साथ अम्बिकावन को प्रस्थान किये | अम्बिकावन में उन्हें वह देवी एक वृक्ष के नीचे बैठी हुई दिखी | उस समय सर्दी का मौसम था एवं शीत लहर ले साथ वर्षा भी हो रही थी | अत्यंत शीत लहर के कारण इन्हें ब्राम्हण के साथ-साथ सर्दी का बहुत तेजी से अनुभव हो रहा था |

ये सभी उस देवी को देख कर पहुंचे तो देखा कि देवी के सिर पर बहुत बड़ा जूड़ा बंधा हुआ है एवं पास में ही एक पात्र में घृत(घी) रखा हुआ है | उस कन्या ने इन्हें ठण्ड से कांपते हुए देखा तो पास में रखे हुए घी को अपने बालों में लगाकर उसमे अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी ताकि इनकी ठण्ड दूर हो सके | परन्तु यह दृश्य देखकर सभी अत्यंत भयभीत हो गए एवं देवी से अग्नि शांति हेतु प्रार्थना करने लगे, तब देवी ने अग्नि को शांत कर पूछा कि आप किस लिए यहाँ आये हुए हैं ? त्रिदेव अपने आने का सम्पूर्ण कारण बताते हुए बोले; "देवी हम सब कुछ जान चुके हैं कि आप सर्व समर्थ हैं | जो हम नही कर सकते है वो आप कर सकती हैं | यह अम्बिका वन ही अपना कालपी धाम है और माता जगदम्बिका ही माँ वनखंडी हैं | कोई-कोई इन्हें योग माया के नाम से जानते हैं | "

यह भी एक कथा है कि वर्तमान काल में झांसी कानपुर रेलवे लाइन ब्रिटिश काल के समय जब बिछाई जा रही थी , उस समय के अंग्रेज अधिकारी तथा कालपी के पटवारी कानूगो आदि उस स्थान का सर्वेक्षण कर रहे थे उस समय ब्रिटिश अधिकारी को दो सफ़ेद शेर दिखाई दिए | ब्रिटिश अधिकारी ने उनका शिकार करना चाहा तो साथ के लोगो ने ऐसा न करने का विनय किया | उनकी बात सुनकर कुछ क्षण के लिए अधिकारी हिचका इतने में वो शेर आगे निकल गए | किन्तु अधिकारी का मन नही माना एवं उसने उन शेरों का पीछा किया | अधिकारी के साथ दूसरे अन्य लोग भी उनके साथ चले| जंगल में विचरते हुए वे शेर एक झड़ी की तरफ आकर गम हो गए| जब सभी लोग घूम कर उस घनी झाडी के सामने आये तो वे शेर पत्थर के बने हुए वहां पर बैठे थे | उनके (शेरों के) पीछे झाड़ियों के अन्दर माँ की पिण्डी का दर्शन हो रहा था | उस समय यह पूरा क्षेत्र घनघोर जंगल के रूप में था माँ की पिण्डी झाड़ियों में एक टीले के ऊपर दबी हुई थी | जो अपना हल्का सा आभास दे रही थी | उस दृश्य को देखकर वह अंग्रेज अधिकारी एवं उनके साथ के सभी लोग भयभीत एवं चकित हो गए एवं आश्चर्य-चकित अवस्था में उलटे पैरों वापस लौट पड़े| जिस विवरण को उस समय के पटवारी ने अपनी दैनिक डायरी में लिपिबद्ध किया |

कुछ समय तक यह घटना चन्द ही लोगो तक रही लेकिन उसी समय एक और घटना घटी | आस-पास क्षेत्र के चरवाहे जंगल में अपने जानवर चराया करते थे | उनमे से एक चरवाहे की गाय जो बछड़े को जन्म देने के उपरांत जंगल में चरने को आती थी किन्तु शाम को जब पहुँचती तो उसके थनों में दूध नही रहता था | चरवाहा इस बात को देख कर कुछ दिन हैरान रहा | उसके बाद इसकी जांच करने का निश्चय किया कि इस गाय का दूध कौन निकाल लेता है | यह सोच कर दुसरे दिन उसने जंगल में चरते समय उस गाय का पीछा किया | तो उसने देखा की गाय एक टीले पर जाकर झाड़ियों के बीच में खड़ी हुई तथा उस टीले पर दिखाई दे रहे एक पत्थर पर गाय के थनों से दूध निकल कर बहने लगा | जैसे वह गाय उस दूध से उस पत्थर का अभिषेक कर रही हो | उस दृश्य को देखकर चरवाहा अत्यंत आश्चर्य-चकित हुआ एवं उसने अपने साथियों को बुला कर यह दृश्य दिखाया | उन सबने यह दृश्य देख कर उस पत्थर को निकलना चाह किन्तु जितना वो खोदते उतना ही वो पत्थर गहरा होता जाता था | अंत में उस पत्थर को उसी स्थान पर छोड़ दिया गया एवं सभी अपने-अपने घर को आ गए | रात में उस चरवाहे को माँ ने स्वप्न में बताया कि मैं जगतजननी जगदम्बा हूँ

अपने प्रवाह के द्वारा आनंद की अनुभूति कराती हैं 'नर्मदा'

 हिंदुस्तान के नक्शे को यदि उल्टा पकड़ें, तो उसका आकार शिवलिंग के जैसा मालूम होगा। उत्तर का हिमालय उसका पाया है और दक्षिण की ओर का कन्याकुमारी का हिस्सा उसका शिखर है। 

गुजरात के नक्शे को जरा-सा घुमाएं और पूर्व के हिस्से को नीचे की ओर और सौराष्ट्र के छोर यानी ओखा मंडल को ऊपर की ओर ले जाएं तो यह भी शिवलिंग के जैसा ही मालूम होगा। हमारे यहां पहाड़ों के जितने भी शिखर हैं, सब शिवलिंग ही हैं। कैलाश के शिखर का आकार भी शिवलिंग के समान ही है।

इन पहाड़ों के जंगलों से जब कोई नदी निकलती है, तब कवि लोग यह कहे बिना नहीं रहते कि "शिवजी की जटाओं से गंगाजी निकलती है!" कुछ लोग पहाड़ों से आने वाली पानी के प्रवाह को अप्सरा (अप्-सरा) कहते हैं और कुछ लोग पर्वत की इन तमाम लड़कियों को पार्वती कहते हैं।

ऐसी ही अप्सरा-जैसी एक नदी के चर्चा इस लेख में की गई है। महादेव के पहाड़ के समीप मेकल या मेखल पर्वत की तलहटी में अमरकंटक नामक एक तालाब है। वहां से नर्मदा का उद्गम हुआ है। जो अच्छा घास उगाकर गायों की संख्या में वृद्धि करती है, उस नदी को 'गो-दा' कहते हैं। यश देनेवाली को 'यशो-दा', और जो अपने प्रवाह तथा तट की सुंदरता के द्वारा 'नर्म' यानी 'आनंद' देती है, वह है नर्म-दा। इसके किनारे घूमते-घामते जिसको बहुत ही आनंद मिला, ऐसे किसी ऋषि ने इस नदी को यह नाम दिया होगा। उसे मेखल-कन्या या मेखला भी कहते हैं।

जिस प्रकार हिमालय का पहाड़ तिब्बत और चीन को हिंदुस्तान से अलग करता है, उसी प्रकार हमारी यह नर्मदा नदी उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच आठ सौ मील की एक चमकती, नाचती, दौड़ती सजीव रेखा खींचती है और कहीं इसको कोई मिटा न दे, इस ख्याल से भगवान ने इस नदी के उत्तर की ओर विंध्य तथा दक्षिण की ओर सतपुड़ा के लंबे-लंबे पहाड़ों को नियुक्त किया है। ऐसे समर्थ भाइयों की रक्षा के बीच नर्मदा दौड़ती-कूदती अनेक प्रांतों को पार करती हुई भृगुकच्छ यानी भड़ौंच के समीप समुद्र से जा मिलती है।

अमरकंटक के पास नर्मदा का उद्गम समुद्र की सतह से करीब पांच हजार फुट की ऊंचाई पर होता है। अब आठ सौ मील में पांच हजार फुट उतरना कोई आसान काम नहीं है। इसलिए नर्मदा जगह-जगह छोटी-बड़ी छलांगें मारती हैं। इसी पर से हमारे कवि-पूर्वजों ने नर्मदा को दूसरा नाम दिया 'रेवा'। संस्कृत में 'रेव्' धातु का अर्थ है कूदना।

जो नदी कदम-कदम पर छलांगें मारती है, वह नौकानयम के लिए यानी किश्तियों के द्वारा दूर तक की यात्रा करने के लिए काम की नहीं। समुद्र से जो जहाज आता है वह नर्मदा में मुश्किल से तीस-पैंतीस मील अंदर आ जा सकता है। वर्षा ऋतु के अंत में ज्यादा से ज्यादा पचास मील तक पहुंचता है।

जिस नदी के उत्तर और दक्षिण की ओर दो पहाड़ खड़े हैं, उसका पानी भला नहर खोदकर दूर तक कैसे लाया जा सकता है? अत: नर्मदा जिस प्रकार नाव खेने के लिए बहुत काम की नहीं है, उसी प्रकार खेतों की सिंचाई के लिए विशेष काम की नहीं है। फिर भी इस नदी की सेवा दूसरी दृष्टि से कम नहीं है। उसके पानी में विचरने वाले मगरमच्छों और मछलियों की, उसके तट पर चरने वाले ढोरों और किसानों की, और तरह-तरह के पशुओं की तथा उसके आकाश में कलरव करने वाले पक्षियों की वह माता है।

भारतवासियों ने अपनी सारी भक्ति भले गंगा पर उड़ेल दी हो, पर हमारे लोगों ने नर्मदा के किनारे कदम-कदम पर जितने मंदिर खड़े किए हैं, उतने अन्य किसी नदी के किनारे नहीं किए होंगे।
पुराणकारों ने गंगा, यमुना, गोदावरी, कावेरी, गोमती, सरस्वती और नदियों के स्नान-पान का और उनके किनारे किए हुए दान के माहात्म्य का वर्णन भले चाहे जितना किया हो, किंतु इन नदियों की प्रदक्षिणा करने की बात किसी भक्त ने नहीं सोची, जबकि नर्मदा के भक्तों ने कवियों को ही सूझने वाले नियम बनाकर सारी नर्मदा की परिक्रमा या 'परिकम्मा' करने का प्रकार चलाया है।

नर्मदा के उद्गम से प्रारंभ करके दक्षिण-तट पर चलते हुए सागर-संगम तक जाइए, वहां से नाव में बैठकर उत्तर के तट पर जाइए और वहां से फिर पैदल चलते हुए अमरकंटक तक जाइए- एक परिक्रमा पूरी होगी। नियम बस इतना ही है कि 'परिकम्मा' के दरम्यान नदी के प्रवाह को कहीं भी लांघना नहीं चाहिए, न प्रवाह से बहूत दूर ही जाना चाहिए। 

हमेशा नदी के दर्शन होने चाहिए। पानी केवल नर्मदा का ही पीना चाहिए। अपने पास धन-दौलत रखकर ऐश-आराम में यात्रा नहीं करनी चाहिए। नर्मदा के किनारे जंगल में बसने वाले आदिम निवासियों के मन में यात्रियों की धन-दौलत के प्रति विशेष आकर्षण होता है। आपके पास यदि अधिक कपड़े बर्तन या पैसे होंगे, तो वे आपको इस बोझ से अवश्य मुक्त कर देंगे।

हमारे लोगों को ऐसे अकिंचन और भूखे भाइयों का पुलिस द्वारा इलाज करने की बात कभी सूझी ही नहीं और निवासी भाई ही मानते आए हैं कि यात्रियों पर उनका यह हक है। जंगलों में लूटे गए यात्री जब जंगल से बाहर आते हैं, तब दानी लोग यात्रियों को नए कपड़े और अन्न देते हैं।

श्रद्धालु लोग सब नियमों का पालन करके खास तौर पर ब्रह्मचर्य का आग्रह रखकर नर्मदा की परिक्रमा धीरे-धीरे तीन साल में पूरी करते हैं। चौमासे में वे दो-तीन माह कहीं रहकर साधु-संतों के सत्संग से जीवन का रहस्य समझने का आग्रह रखते हैं।

ऐसी परिक्रमा के दो प्रकार होते हैं। उनमें जो कठिन प्रकार है, उसमें सागर के पास भी नर्मदा को लांघा नहीं जा सकता। उद्गम से मुख तक जाने के बाद फिर उसी रास्ते से उद्गम तक लौटना तथा उत्तर के तट से सागर तक जाना और फिर उसी रास्ते से उद्गम तक लौटना यह परिक्रमा इस प्रकार दूनी होती है। इसी का नाम है जलेरी।

मौज और आराम को छोड़कर तपस्यापूर्वक एक ही नदी का ध्यान करना, उसके किनारे के मंदिरों के दर्शन करना, आसपास रहने वाले संत-महात्माओं के वचनों को श्रवण-भक्ति से सुनना और प्रकृति की सुंदरता तथा भव्यता का सेवन करते हुए जीवन के तीन साल बिताना कोई मामूली प्रवृत्ति नहीं है। इसमें कठोरता है, तपस्या है, बहादुरी है, अंतर्मुख होकर आत्म-चिंतन करने की और गरीबों के साथ एकरूप होने की भावना है, प्रकृतिमय बनने की दीक्षा है और प्रकृति के द्वारा प्रकृति में विराजमान भगवान के दर्शन करने की साधना है। इस नदी के किनारे की समृद्धि मामूली नहीं है।

बिहार के माँ मुंडेश्वरी धाम में बलि की सात्विक परम्परा

यूं तो करीब-करीब सभी देवी मंदिरों में बलि चढ़ाने की परम्परा है, लेकिन बिहार में कैमूर जिले के मां मुंडेश्वरी धाम में बलि की सात्विक परम्परा है, जो किसी अन्य मंदिर में नहीं है। यहां बलि अवश्य दी जाती है, लेकिन किसी भी जीव का जीवन नहीं लिया जाता।

मंदिर के एक पुजारी ने बताया, "यहां बकरे की बलि देने की प्रथा है, लेकिन जीव को जान से नहीं मारा जाता। बकरे को माता के चरणों में समर्पित कर पुजारी उस पर अक्षत-पुष्प डालते हैं और उसका संकल्प करवा दिया जाता है। इसके बाद उसे भक्त को वापस दे दिया जाता है।" उन्होंने हालांकि माना कि श्रद्धालु बकरे को घर ले जाकर हत्या कर देते हैं और उसका मांस प्रसाद के रूप में बांट देते हैं। लेकिन उन्होंने कहा कि किसी भी जीव की हत्या यहां मंदिर परिसर में नहीं की जाती।

कैमूर जिला मुख्यालय से करीब 10-11 किलोमीटर दूर पंवरा पहाड़ी पर स्थित मुंडेश्वरी धाम में ऐसे तो सालभर श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है और लोग अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए यहां मां से आर्शीवाद मांगने आते हैं, लेकिन शारदीय एवं चैत्र नवरात्र के मौके पर यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ होती है। माघ और चैत्र महीने में यहां यज्ञ का भी आयोजन किया जाता है।

इस प्राचीन मंदिर के निर्माण काल की जानकारी यहां के शिलालेखों से होती है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, मंदिर परिसर में मिले शिलालेखों से जाहिर होता है कि इसका निर्माण 635-636 ईस्वी के बीच किया गया। ऐसा माना जाता है कि मुंडेश्वरी के इस अष्टकोणीय मंदिर का निर्माण महराजा उदय सेन के शासनकाल में किया गया था।

बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष और भातीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे किशोर कुणाल ने कहा कि वर्ष 2007 में इस ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल का अधिग्रहण न्यास परिषद ने किया। दुर्गा के वैष्णवी रूप को ही मां मुंडेश्वरी धाम में स्थापित किया गया है। मुंडेश्वरी की प्रतिमा वाराही देवी की प्रतिमा के रूप में है, क्योंकि इनका वाहन महिष है।

मंदिर का मुख्य द्वारा दक्षिण की ओर है। 608 फुट ऊंची पहाड़ी पर बने इस मंदिर के बारे में कुछ इतिहासकारों का कहना है कि यह 108 ईस्वी में शक शासनकाल में बनाया गया। यह शासनकाल गुप्त शासनकाल के पूर्व का बताया जाता है।

इतिहासकार बताते हैं कि मंदिर परिसर में पाए गए कुछ शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं, जबकि गुप्त शासनकाल में पाणिनी के प्रभाव के कारण संस्कृत का उपयोग किया जाता था। यहां 1,900 वर्षो से पूजा हो रही है। यहां अष्टाकार गर्भगृह तब से आज तक कायम है। गर्भगृह के कोने में देवी की मूर्ति है, जबकि बीच में चतुर्मुखी शिवलिंग है।

बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष कुणाल ने बताया कि मंदिर पहाड़ी पर है, जिस कारण समय-समय पर इसे प्राकृतिक आपदा झेलनी पड़ती है, जिससे इस स्थल का क्षरण होता रहा है।

पहाड़ी पर आज भी कई मूर्तियों के भग्नावशेष हैं। उन्होंने बताया कि वर्ष 1968 में पुरातत्व विभाग ने यहां से प्राप्त 68 मूर्तियों को पटना संग्रहालय में रखवा दिया। इसके अतिरिक्त यहां से मिली कुछ मूर्तियां कोलकाता संग्रहालय की भी शोभा बढ़ा रही हैं। बिहार सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग की ओर से जारी कैलेंडर में भी मां मुंडेश्वरी धाम का चित्र है।

कुणाल ने बताया कि पर्यटन विभाग और न्यास परिषद इस क्षेत्र में श्रद्घालुओं को सुविधा देने के लिए कई कार्य कर रहे हैं। मुंडेश्वरी धाम की महिमा वैष्णव देवी और ज्वाला देवी जैसी मानी जाती है।

तो इस तरह बसा अल्मोड़ा शहर

क्या आपको पता है अल्मोड़ा शहर किस तरह बसा यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं| कहा जाता है कि हिमालय के पर्वतीय प्रदेश के कुमायूं नामक स्थान का राजा एक बार अल्मोड़े की घाटी में शिकार खेलने गया। उस समय वह स्थान घने जंगल से ढका था। एक खरगोश झाड़ियों में से निकला। राजा ने उसका पीछा किया, किंतु अचानक वह खरगोश चीते में बदल गया और शीघ्र ही दृष्टि से ओझल हो गया। उस आश्चर्यजनक घटना से स्तम्भित हुए राजा ने पंडितों की एक सभा बुलाई और उनसे इसका अर्थ पूछा।

उन्होंने उत्तर दिया कि इसका अर्थ यह है कि जिस स्थान पर चीता दृष्टि से ओझल हुआ था, वहां आपको एक नया शहर बसाना चाहिए, क्योंकि चीते केवल उसी स्थान से भाग जाते हैं, जहां मनुष्यों को एक बड़ी संख्या में बसना हो।

अतएव, नया शहर बसाने के लिए मजदूर लोग काम पर लगा दिए गए। अंत में जमीन की कठोरता देखने के लिए एक स्थान पर उन्होंने लोहे की एक मोटी कील गाड़ी। उस समय अचानक पृथ्वी में एक हल्का-सा कंपन हो उठा।

"ठहरो!" पंडित लोग चिल्ला पड़े, "इसकी नोक सर्पराज शेषनाग की देह में धंस गई है। अब यहां शहर नहीं बनाना चाहिए।" जब वह लोहे की कील पृथ्वी से बाहर निकाली गई तो वह वास्तव में शेषनाग के रक्त से लाल हो रही थी। "यह तो बड़े दुख की बात है", राजा बोला, "हम यहां शहर बनाने का निश्चय कर चुके हैं, इसलिए अब बनाना ही होगा।"

पंडितों ने क्रोध में आकर भविष्यवाणी की कि शहर पर कोई भारी विपत्ति आएगी और राजा का अपना वंश भी शीघ्र ही नष्ट हो जाएगा। जमीन वहां की उपजाऊ थी और पानी भी खूब था। छह सौ साल से अल्मोड़ा शहर उस पहाड़ पर बसा हुआ है और उसके चारों ओर फैले खेत बढ़िया फसलें पैदा करते हैं।

इस प्रकार बुद्धि रखते हुए भी वे पंडित अपनी भविष्यवाणी में गलत निकले। नि:संदेह वे सच्चे थे और उन्हें विश्वास था कि वे सत्य कह रहे हैं, किंतु लोग ऐसी गलती प्राय: करते हैं और अंधविश्वास को वास्तविकता समझ लेते हैं।

संसार अंधविश्वासों से भरा पड़ा है। सत्य को ढूंढ़ने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि मनुष्य सदा अपने विचारों, कार्यो और वचनों में अधिकाधिक सच्चे और निष्कपट रहें, क्योंकि दूसरों को सब बातों में धोखा देना छोड़कर ही हम अपने-आपको कम से कम धोखा देना सीखते हैं।

यहीं मिला था ब्रह्मदेव के कटे सिर को मोक्ष

हिंदुओं के लिए चारधाम यात्रा का मतलब है स्वर्ग की सीढ़ी। धर्मग्रंथों में इस यात्रा की महिमा का काफी गुणगान किया गया है। कहा जाता है कि जिसने चारधाम देख लिए उसने मानो धरती पर ही स्वर्ग के दर्शन कर लिए। चारधाम यात्रा के बारे में यह भी कहा जाता है कि जिसने चारो धामों के दर्शन कर लिए उसने न केवल पाप से मुक्त हो लिया बल्कि वह व्यक्ति जन्म और मृत्यु के चक्र से परे हो जाता है| 

हिन्दू धर्म के चार पावन धामों में एक बद्रीनाथ तीर्थ की यात्रा पर जहां कुदरत के तमाम खुशनुमा नजारों और पर्वत चोटियों की ऊंचाईयों को देखने का सुखद एहसास मिलता है, वहीं इस स्थान पर आने के बाद हर तीर्थयात्री स्वयं को धर्म और अध्यात्म की गहराइयों में उतरने से रोक नहीं सकता। क्योंकि इस तीर्थ और उसके आस-पास के सभी स्थान बहुत धार्मिक महत्व रखते हैं।

इन स्थानों में एक है बद्रीनाथ मंदिर के उत्तर दिशा में लगभग 100 मीटर दूरी पर स्थित है - ब्रह्मकपाल। यह अलकनंदा नदी के किनारे सिथि है| ब्रह्मकपाल पौराणिक महत्व का स्थान होने के साथ ही धार्मिक कर्मकाण्ड के लिए प्रमुख तीर्थ है। ब्रह्म कपाल श्राद्ध कर्म के लिए सबसे पवित्र तीर्थ माना जाता है। 

ब्रह्मकपाल के बारे में यह कथा प्रचलित है कहते हैं कि एक बार भगवान भोलेनाथ ने जगत के विषय पर ब्रह्मदेव से मतभेद होने पर क्रोधित होकर त्रिशूल से ब्रह्मदेव के पांच सिरों में से एक सिर काट दिया। किंतु ब्रम्हा जी का सिर कटते ही शिव के त्रिशूल से ही चिपक गया। भगवान ने सिर से त्रिशूल को अलग करने की तमाम कोशिश की लेकिन ब्रम्हा जी का सिर त्रिशूल से अलग नहीं हो सका| इससे भगवान भोलेनाथ ब्रह्म दोष से दु:खी होकर बद्री क्षेत्र में आए। यहां शिव ने बद्रीनारायण की आराधना की। जिससे जगत पालक विष्णु प्रसन्न हुए। उनकी कृपा से ब्रह्मदेव का कटा सिर त्रिशूल से निकलकर दूर जा गिरा। भगवान शिव भी ब्रह्मदोष से मुक्त हुए। 

कहते हैं कि ब्रम्हा जी वह सिर जहां गिरा, वह स्थान ही तीर्थ कहलाया। जो बद्रीनाथ धाम के समीप स्थित है। मान्यता है कि इससे ब्रह्मदेव के कटे सिर को भी मोक्ष प्राप्त हुआ। तब से ही यह क्षेत्र श्राद्ध कर्म और पितरों के मोक्ष तीर्थ के रुप में प्रसिद्ध है।

जब एक बच्चे ने महारानी के सामने रखी 3 शर्त

एक रानी सैकड़ों मील चलकर एक बच्चे को अपनी राजधानी लाना चाहती थी तो उस बच्चे ने महारानी के सामने तीन शर्त रख दी| बच्चे ने कहा मैं आपके साथ तभी चल सकता हूँ जब आप अपना सम्पूर्ण राज्य पाठ मुझे सौपेंगी| और तो और नगर पहुँचते ही वहां का राजा आपके पति नहीं बल्कि मैं बनूँगा| अपने इरादों में अडिग महारानी ने बच्चे की शर्तों को स्वीकार कर लिया और नगर पहुँचते ही अपना सम्पूर्ण राज्य पाठ उस बच्चे के नाम कर दिया| 

कहानी कुछ इस तरह है- ओरछा के राजा मधुकर शाह (1554-1592) राधा-कृष्ण के अनन्य भक्त थे और रानी गणेश कुंवरी भगवान श्रीराम की परम भक्त थी| जनश्रुति के अनुसार, एक दिन मजाक ही मजाक में मधुकर शाह ने रानी गणेश कुंवरी से कहा कि तुम्हारे राम इतने ही महान है तो उन्हें ओरछा ले आओ| राजा के इस आदेश को रानी नकार न सकी और रानी ने भगवान राम को ओरछा लाने का निश्चय कर लिया और राजा मधुकर शाह को बिना बताए ही एक मंदिर बनवाना शुरू करवा दिया और एक दिन पैदल ही भगवान राम को ओरछा लाने अयोध्या रवाना हो गईं।

अयोध्या पहुंच कर लक्ष्मण घाट पर श्रीराम की तपस्या आरंभ कर दी। रानी को तप करते काफी समय हो गया। हार कर रानी कुंवरी गणेश ने सरयू नदी में प्राण त्यागने का विचार किया। उसी समय भगवान राम बाल रूप में रानी की गोद में बैठ गए और वर मांगने को कहा। रानी ने कहा कि यदि भगवान आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मेरे साथ ओरछा चलें। रानी की बात पर श्रीराम ने ओरछा जाने के लिए रानी के सामने शर्त रखी। मैं तुम्हारे साथ चल पडूंगा, पर जहां बैठ जहां जाऊंगा, वहां से फिर नहीं उठूंगा और वहां का राजा बन कर रहूंगा। और हां मैं पुण्य नक्षत्र में ही चलूंगा। रानी ने शर्त स्वीकार कर ली। अयोध्या में रानी कुंवरी गणेश का समाचार आग की तरह फैल गया। भगवान श्रीराम रानी कुंवरी गणेश के साथ ओरछा चल पड़े। 

ओरछा से पीछे पन्ना नामक स्थान पर भगवान श्रीराम ने रानी को कृष्ण रूप दिखाकर आश्चर्य में डाल दिया। श्रीराम ने कहा कि यहां मेरा जुगल किशोर नाम का स्थान सर्वपूज्य होगा। श्रावण शुक्ल पंचमी वि.स. 1630 को अयोध्या से पुण्य नक्षत्र में प्रस्थान कर चैत्र शुक्ल नवमी मंगलवार वि.स. 1631 को आठ माह 27 दिन की अवधि में श्रीराम बालरूप में पुण्य नक्षत्र के दिन रानी कुंवरी गणेश के रानी वास पहुंचे। भगवान ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि रानी को भगवान श्रीराम को गोद से रानी वास में ही बिठाना पड़ा। भगवान जब भूमि पर बैठे, उसी समय बालरूप लोप हो गया। और वह एक मूर्ति के रूप में तब्दील हो गए| तभी से महल में राम लला विराजमान हैं और उन्हीं के नाम से ओरछा के राज्य का संचालन हो रहा है।

कहते हैं कि भगवान श्रीराम वरदान के अनुसार स्वयं बाल रूप में अयोध्या से ओरछा रानी के साथ आए। जानकी जी का निवास अयोध्या में ही रहा। इसलिए कहा गया है कि दिवस ओरछा रहत हैं, शयन अयोध्या वास। श्री राम आज भी ओरछा के राजा हैं। मान्यता है कि राम दिन में ओरछा में ही रहते हैं। शयन के लिए अयोध्या चले जाते हैं।

इस तरह हुई साप्ताहिक छुट्टी की शुरुआत

"ओ तेजोअसि तेजी मे दा स्वाहा, बलमसि बलं मे दा स्वाहा.."आचार्य मार्कन्डय के आश्रम के ब्रह्मचारी अपने दैनिक कर्म में लगे हुए थे। संध्या-वंदन के बाद उनमें कुछ घुस-पुस-सी होने लगी। 

आचार्य अभी ध्यान में ही थे। और ब्रह्मचारी अपने नये उत्साह और कौतूहल को दबाए, अपनी उत्तेजना को छिपाए, कानाफूसी करते हुए इधर-उधर टहल रहे थे। उनके यहां कुछ अरब देशों के विद्यार्थी आये हुए थे। बाहर के लोगों के साथ पहला संपर्क था। भोले बालकों को उनकी हर बात पर आश्चर्य हो रहा था।

आचार्य मार्कन्डेय जंगल में रहा करते थे और उनका गुरुकुल उन्हीं के चारों ओर रहा करता था। आचार्य कभी-कभी एक वन में से दूसरे में चले जाया करते थे और उनका कुल भी उनके साथ स्थान बदल लेता था। उन लोगों की आवश्यकताएं कम थीं। सभी प्रकृति के बालक थे और उसी की गोद में पल रहे थे। मोटा-झोटा खा लेते थे और एकगाती धोती बांधे अपने काम में लगे रहते थे। उनके लिए भले आंधी आये, मेघ आये, सभी एक समान था।

दजला और फिरात के किनारे के रहने वाले नये विद्यार्थियों और अध्यापकों को देखकर उनके अंदर कुतूहल जागा। उनका जीवन, उनकी चाल-ढाल, उनके रंग-ढंग, इनसे बिल्कुल भिन्न थे। इन्हें शिक्षा दी गई थी प्राणिमात्र को मित्र की दृष्टि से देखने की, पर आगान्तुक तो शिकार करते और उसका मांस खाते थे। इन्हें शिक्षा मिली थी दिन-रात नित्य-कर्म, आचार्य-सेवा और भगवद्-भजन में लगे रहने की। वर्षा ऋतु में जब कुछ काम न कर पाते तो अनध्याय हो जाता। इसके विपरीत नवागन्तुक हर सप्ताह छुट्टी मनाया करते थे और उस दिन खूब हो-हल्ला करते, मानो सारा आसमान ही सिर पर उठा लेंगे।

नवागन्तुकों के साथ परिचय बढ़ा। ब्रह्मचारी पहले तो उनको कुछ आश्चर्य के साथ देखते रहे, जैसे वे कोई अचम्भे की चीज हों। उसके बाद उनकी कई चीजों की सराहना शुरू हुई। मन में विकार जागा। सोचा, हमारा कठोर जीवन भी कभी-कभी बदल जाया करे तो हमें भी कभी अध्याय और नित्य कर्म से अवकाश मिल जाय!.. मजा आ जाय!

पर आचार्य से यह बात कौन कहे? उनके सुकोमल ह्दय को आघात न लगे कहीं! खैर, कुछ दिन इसी प्रकार बीत गये। आपस में बातचीत तो रोज होती, पर वह कानाफूसी की हद से बाहर न निकल पाती। आखिर एक दिन हिम्मत करके दो-चार ब्रह्मचारी आचार्य के पास जा पहुंचे।

आचार्य ने बड़े प्रेम से उन्हें बिठाया और उनके असमय आने का कारण पूछा। ब्रह्मचारियों के मन में खटक रहा था कि शायद उनकी बात आचार्य को पसंद न आए। जी कड़ा करके एक ने कहा, "आचार्यपद! दजला और फिरात के किनारे से जो विद्यार्थी आये हैं, उनके साथ हमारा काफी मेल-जोल हो गया है। वे भी बहुत सभ्य और सुसंस्कृत देश के नागरिक मालूम होते हैं।"

आचार्य बीच में ही बोले, "हां, ये लोग मुसलमान हैं। उस तरफ के देशों में आजकल आर्य धर्म नहीं चलता। उसकी जगह यहूदी धर्म ने ली थी, फिर ईसा आये और लोग ईसाई बन गये और फिर मुहम्मद के अनुयायियों ने इन सब देशों को मुसलमान बना डाला। पर इन तीनों धर्मो में बहुत समानता है। इन लोगों ने भौतिक विद्याओं में काफी प्रगति कर ली है।"

"गुरुवर! एक ब्रह्मचारी ने कहा, "उन विद्यार्थियों का कहना है कि हमारी कार्य-प्रणाली ठीक नहीं है। वे लोग सप्ताह में छ: दिन काम करते हैं और एक दिन अनध्याय रखते हैं। उस दिन वे खूब मौज करते हैं। उनका कहना है कि इस तरह ज्यादा अच्छा काम होता है.. "

ब्रह्मचारी कहते-कहते रुक गये। आचार्य की आंखों से स्नेह बरस रहा था। उन्होंने कहा, "हां, ये सेमेटिक धर्म मानते हैं कि भगवान ने छ: दिनों या छ: युगों में सृष्टि बनाई थी और सातवें दिन या सातवें युग में विश्राम किया। इस दिन को भगवान् का दिन कह सकते हैं। इस चीज का अनुसरण करते हुए इन धर्मो के आचार्य इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मनुष्यों के लिए भी कुछ इसी प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए।

"उन्होंने निश्चय किया कि मनुष्य छ: दिन अपना काम-काज करें, अपने व्यक्तिगत कामों में लगा रहे और अहं के द्वारा प्रेरित काम करता रहे, परन्तु सातवें दिन को भगवान् के लिए अलग करके रख दिया जाय। उस दिन अपनी इच्छाओं, कामनाओं और अपने अहं को भूलकर मनुष्य अपने अंदर डुबकी लगाए या अपने ऊपर देखे। उस दिन वह अपने आपको पूरी तरह से अपने स्रोत के साथ, अपने बनाने वालों के साथ, एक कर दे, उसकी चेतना प्राप्त करे और उससे नयी शक्ति का अर्जन करे।

"यह था इन छुट्टियों के आरम्भ का रहस्य। पर इन लोगों ने अपने धर्म की सच्ची सीख को भुला दिया है और इन्होंने यही समझ रखा है कि जीवन का उद्देश्य है खाना-पीना और मौज करना। काम भी करते हैं तो इसी उद्देश्य से और छुट्टी मनाते हैं तो इसी उद्देश्य से। मुझे दिख रहा है कि मानव-जाति इसी गर्त में गिरती जा रही है। वह मौज की, स्वच्छंदता को ही सबकुछ मान बैठी है, परन्तु आर्य लोग जीते हैं तो भगवान् के लिए और मरते हैं तो भी उसी के लिए। हमारा एक-एक काम, चाहे वह पढ़ना हो या लकड़ियां बीनना, वेद-पाठ हो या पानी भरना, भगवान् की सेवा के लिए किया जाता है।

"क्या हम जगज्जननी की सेवा को भार मान सकते हैं? स्वयं भगवान् ने कहा कि जीवन के रहते काम से छुट्टी पाना असम्भव है। काम से छुट्टी पाने का एक ही उपाय है और वह है निर्वाण। पर उसे प्राप्त करने के लिए भी तो सबसे बढ़कर मेहनत करनी पड़ती है। जरा सोचो, भगवान् अगर एक क्षण के लिए छुट्टी ले लें तो!.. हम भी तो उन्हीं का काम कर रहे हैं।" सब ब्रह्मचारी चुप थे। एक शांति का वातावरण छा गया था। अब छुट्टियां कौन मांगता?

जाने अगहन मास को क्यों कहते हैं मार्गशीर्ष

हिन्दू धर्म के अनुसार वर्ष का नवां महीना अगहन कहलाता है| अगहन मास को मार्गशीर्ष नाम से भी जाना जाता है| क्या आपको पता है अगहन मास को मार्गशीर्ष नाम से क्यों जाना जाता है? यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि अगहन मास को मार्गशीर्ष नाम से क्यों जानते हैं| 

आपको बता दें कि अगहन मास को मार्गशीर्ष कहने के पीछे भी कई तर्क हैं। भगवान श्रीकृष्ण की पूजा अनेक स्वरूपों में व अनेक नामों से की जाती है। इन्हीं स्वरूपों में से एक मार्गशीर्ष भी श्रीकृष्ण का ही एक रूप है।

अगहन मास को मार्गशीर्ष क्यों कहा जाता है? इस संबंध में शास्त्रों में कहा गया है कि इस माह का संबंध मृगशिरा नक्षत्र से है। ज्योतिष के अनुसार नक्षत्र 27 होते हैं जिसमें से एक है मृगशिरा नक्षत्र| इस माह की पूर्णिमा मृगशिरा नक्षत्र से युक्त होती है। इसी वजह से इस मास को मार्गशीर्ष मास के नाम से जाना जाता है| 

भागवत के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा था कि सभी महिनों में मार्गशीर्ष श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है। मार्गशीर्ष मास में श्रद्धा और भक्ति से प्राप्त पुण्य के बल पर हमें सभी सुखों की प्राप्ति होती है। इस माह में नदी स्नान और दान-पुण्य का विशेष महत्व है। 

श्रीकृष्ण ने मार्गशीर्ष मास की महत्ता गोपियों को भी बताई थी। उन्होंने कहा था कि मार्गशीर्ष माह में यमुना स्नान से मैं सहज ही सभी को प्राप्त हो जाऊंगा। तभी से इस माह में नदी स्नान का खास महत्व माना गया है।

मार्गशीर्ष में नदी स्नान के लिए तुलसी की जड़ की मिट्टी व तुलसी के पत्तों से स्नान करना चाहिए। स्नान के समय ऊँ नमो नारायणाय या गायत्री मंत्र का जप करना चाहिए। 

इस तरह विश्वामित्र को मिली ब्रह्मज्ञान की शिक्षा

चंद्रमा धीरे-धीरे काले बादलों में से लुकता-छिपता निकल रहा था। वायु के साथ-साथ नदी नाचती,बल खाती जा रही थी। कहीं चांदनी छिटकी थी, कहीं अंधेरा छाया था। बड़ा ही सुंदर दृश्य था। 

चारों ओर ऋषियों के आश्रम थे। एक-एक आश्रम नंदन वन को मात करता था। हर एक ऋषि की कुटिया फूल के पेड़ों और बेलों से घिरी थी। अद्भुत शोभा थी वहां की। ऐसी ही एक रात थी, जब चांदनी छिटकी हुई थी। ब्रह्मर्षि वसिष्ठ अपनी सहधर्मिणी अरुन्धती से कह रहे थे, "देवी! ऋषि विश्वामित्र के यहां जाकर जरा-से नमक की भीख मांग लाओ।"

इस बात से विस्मित होकर अरुन्धती ने कहा, "यह कैसी आज्ञा दी आपने? मैं तो कुछ भी समझ नहीं पाई। जिसने मुझे सौ पुत्रों से वंचित किया.." कहते-कहते उनका गला भर गया। उन्होंने आगे कहा कि मेरे सौ बेटे ऐसी ही ज्योत्स्ना-शोभित रात्रि में वेद-पाठ करते-फिरते थे। मेरे सौ-के-सौ पुत्र वेदज्ञ और ब्रह्मनिष्ठ थे। मेरे उन सौ पुत्रों को नष्ट कर दिया, आप उसी के आश्रम से लवण-भिक्षा करने के लिए कह रहे हैं? मैं कुछ नहीं समझ पातीं।

धीरे-धीरे ऋषि के चेहरे पर एक प्रकाश आता गया। धीरे-धीरे सागर-गंभीर हृदय से यह वाक्य निकला, "लेकिन, देवी, मुझे उससे प्रेम है। अरुन्धती और भी चकरा गईं। उन्होंने कहा कि आपको उनसे प्रेम है तो एक बार 'ब्रह्मर्षि' कह दिया होता। इससे सारा जंजाल मिट जाता और मुझे अपने सौ पुत्रों से हाथ न धोने पड़ते।

ऋषि के मुख पर एक अपूर्व आभा दिखाई दी। उन्होंने कहा कि मुझे उससे प्रेम है, इसलिए उसे 'ब्रह्मर्षि' नहीं कहता। मैं उसे ब्रह्मर्षि नहीं कहता, इसलिए उसके ब्रह्मर्षि होने की आशा है।

आज विश्वामित्र क्रोध के मारे ज्ञान-शून्य हैं। तपस्या में उनका मन नहीं लग रहा। उन्होंने निश्चय किया है कि आज भी वसिष्ठ उन्हें ब्रह्मर्षि न कहें तो उनके प्राण ले लेंगे। अपना संकल्प पूरा करने के लिए वह हाथ में तलवार लेकर कुटी से बाहर निकले।

उन्होंने वसिष्ठ की उपर्युक्त सारी बातचीत सुन ली। तलवार की मूंठ पर हाथ की पकड़ ढीली हो गई। सोचा, "आह! क्या कर डाला मैंने! बिना जाने कितना अन्याय कर डाला! बिना जाने किसके निर्विकार चित्त की व्यथा पहुंचाने की कोशिश की!" हृदय में सैकड़ों बिच्छुओं के काटने की वेदना होने लगी। पश्चताप से हृदय जल उठा। दौड़े-दौड़े गये और वसिष्ठ के चरणों पर गिर पड़े।

कुछ देर तक मुंह से बोल न फूटे। अपने आपे में आये तो विश्वामित्र ने कहा, "क्षमा कीजिये, यद्यपि मैं क्षमा के अयोग्य हूं।" और कोई शब्द मुंह से न निकला। इधर वसिष्ठ ने क्या किया? दोनों हाथ पकड़कर उठाते हुए बोले, "उठो ब्रह्मर्षि, उठो।"

विश्वामित्र लज्जित हो गये। बोले, "प्रभो! क्यों लज्जित करते हैं?" वसिष्ठ ने उत्तर दिया, "मैं कभी झूठ नहीं बोला करता। आज तुम ब्रह्मर्षि बन गये हो, आज तुमने अभिमान त्याग दिया है। आज तुमने ब्रह्मर्षि-पद पाया है।"

विश्वामित्र ने कहा, "आप मुझे ब्रह्मविद्या-दान दीजिये।" वसिष्ठ बोले, "अनंत देव (शेषनाग) के पास जाओ, वे ही तुम्हें ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देंगे।" विश्वामित्र वहां जा पहुंचे, जहां अनंत देव पृथ्वी को मस्तक पर रखे हुए थे। अनंत देव ने कहा, "मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञान तभी दे सकता हूं जब तुम इस पृथ्वी को अपने सिर पर धारण कर सको, जिसे मैं धारण किये हुए हूं।"

तपोबल के गर्व से विश्वामित्र ने कहा, "आप पृथ्वी को छोड़ दीजिये, मैं उसे धारण कर दूंगा।" अनंत देव ने कहा, "अच्छा, तो लो, मैं छोड़े देता हूं।" और पृथ्वी घूमते-घूमते गिरने लगी। विश्वामित्र ने कहा, "मैं अपनी सारी तपस्या का फल देता हूं। पृथ्वी! रुक जाओ।" फिर भी पृथ्वी स्थिर न हो पाई।

अनंत देव ने उच्च स्वर में कहा, "विश्वामित्र, पृथ्वी को धारण करने के लिए तुम्हारी तपस्या काफी नहीं है। तुमने कभी साधु-संग किया है? उसका फल अर्पण करो।" विश्वामित्र बोले, "क्षणभर के लिए वसिष्ठ के साथ रहा हूं।" अनंत देव ने कहा, "तो उसी का फल दे दो।" विश्वामित्र बोले, "अच्छा, उसका फल अर्पित करता हूं।" और धरती स्थिर हो गयी। तब विश्वामित्र ने कहा, "देव! अब मुझे आज्ञा दें।"

अनंत देव ने कहा, "मूर्ख विश्वामित्र! जिसके क्षण-भर के सत्संग का फल देकर तुम समस्त पृथ्वी को धारण कर सके, उसे छोड़कर मुझसे ब्रह्मज्ञान मांग रहे हो?" विश्वमित्र क्रुद्ध हो गये। उन्होंने सोचा, "इसका मतलब यह है कि वसिष्ठ मुझे ठग रहे थे।" वे तेजी से वसिष्ठ के यहां जा पहुंचे और बोले, "आपने मुझे इस तरह क्यों ठगा?" वसिष्ठ बोले, "अगर मैं उसी समय तुम्हें ब्रह्मज्ञान दे देता तो तुम्हें विश्वास न होता। इस अनुभव के बाद तुम विश्वास करोगे।" विश्वामित्र ने वसिष्ठ से ब्रह्मज्ञान की शिक्षा पाई।

भारत में ऐसे-ऐसे ऋषि, ऐसे-ऐसे साधु थे। हमारे यहां क्षमा का यह आदर्श था। तपस्या का ऐसा बल था, जिसके द्वारा समस्त पृथ्वी को धारण किया जा सके। भारत में फिर से ऐसे ऋषि जन्म ग्रहण कर रहे हैं, जिनकी प्रभा के आगे प्राचीन ऋषियों की ज्योति फीकी होगी, जो भारत को फिर प्राचीन गौरव की अपेक्षा अधिक गौरवमय स्थान पर प्रतिष्ठित करेंगे।

जन्म के वार से जानिए पुरुषों का स्वभाव और उनका भविष्य

हर व्यक्ति एक दूसरे को जानने की कोशिश में लगा होता है कि उस व्यक्ति का स्वभाव कैसा होगा| यदि आप भी किसी बारे में जानने की इच्छा रखते हैं तो आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि सप्ताह के अलग- अलग वार को जन्म लेने पुरुषों का स्वाभाव कैसा होगा| 

आपको बता दें कि व्यक्ति जिस वार को पैदा होता है उस दिन का प्रभाव भी उसके पूरे जीवन पर पड़ता है। ज्योतिष के अनुसार, सप्ताह के सातों दिन के गृह स्वामी अलग- अलग होते हैं| इसलिए अलग दिनों में पैदा हुए लोगों का स्वभाव भी अलग- अलग होता है| जानिए व्यक्ति किस दिन जन्म लिया और उसका स्वभाव कैसा होगा|

सोमवार- 

इस दिन जन्में व्यक्ति हमेशा समाज में चर्चा का विषय बने रहते है लेकिन इनका पारिवारिक जीवन अच्छा नहीं रहता है। हमेशा काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है परन्तु बाहरी लोग समझते हैं कि इनका जीवन सफल चल रहा है। चन्द्र से सम्बन्ध होने के कारण आपका मन चंचल रहेगा तथा निरन्तर आपके विचार बदलते रहेंगे। किसी भी कार्य को पूरा किये बिना ये लोग दूसरे कार्य को आरम्भ कर देते है। यही स्वभाव इनकी सफलता में बाधक बनता है। इस दिन जन्में व्यक्तियों की स्मरण बहुत तेज होती है फिर भी में धैर्य की बहुत कमी होती है। ये पुरुष स्त्रियों के मामलें में आप बहुत शालीन होते हैं|

मंगलवार-

मंगलवार को जन्म लेने वाले व्यक्ति झगड़ालू या क्रोधी, तेजस्वी, पराक्रमी, अनुशासनप्रिय तथा अपार उर्जा से परिपूर्ण, नयें विचारों का समर्थन करने वाले तथा रूढ़वादिता को नष्ट करने वाले तथा सदैव प्रगति के मार्ग पर चलने वाले होते हैं, क्योंकि इस दिन जन्में व्यक्तियों पर मंगल गृह का विशेष प्रभाव रहता है|

इस दिन जन्में व्यक्ति सभी बाधाओं को पार करते हुए सदैव आगे बढ़ने में तत्पर रहते है। ऐसे व्यक्ति बहुत जल्दी आवेश में आ जाते है जिससे कभी-कभी आपको हानि भी उठानी पड़ सकती है। इस दिन जन्में व्यक्ति अनोखे कार्य दिखाकर विश्व में अपना नाम फैलाना चाहेंगे, जिसकी वजह से जीवन में कई बार दुर्घटनाओं का सामना भी करना पड़ सकता है। ये व्यक्ति प्रशंसा सुनने के बहुत इच्छुक रहते है। इनको सभी प्रकार की भौतिक सफलता तो मिलेगी परन्तु लापरवाही करने पर वही सफलता आपके विनाश का कारण भी बन सकती है। इनके दांपत्य जीवन में समय-समय पर विरोधाभास की स्थिति आती रहेगी। पत्नी विचारों से सहमत नहीं रहेगी। इन व्यक्तियों की वाणी में ऐसी दृढ़ता है कि लोग सुनकर आकर्षित हो जाते हैं|

बुधवार-

बुधवार को जन्मे व्यक्ति दोहरे चरित्र, बहुमुखी प्रतिभा, तीक्ष्ण बुद्धिवाले होते हैं| इस दिन जन्म लेने वाले व्यक्ति किसी की भी आलोचना करने में माहिर होते है तथा अपनी वाक्पटुता के द्वारा दूसरे व्यक्ति की बोलती बन्द कर देते हैं| ये व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में प्रसिद्धि पा सकते है लेकिन अपने दोहरे चरित्र के कारण किसी भी क्षेत्र में बहुत दिनों तक टिक नहीं पाते है। इन व्यक्तियों पर बुध ग्रह का विशेष प्रभाव रहता है|

इस दिन जन्में व्यक्ति अपने कार्य से सन्तुष्ट नहीं रहते है, इसलिए कभी- कभी आप स्वयं के द्वारा किये गये कार्यो की आलोचना करने लगते है। ये व्यक्ति अपने मित्रों को बहुत प्रेम तथा आदर करते है तथा अपनी क्षमता से ज्यादा उनकी मदद करने का प्रयास करते हैं। इनका भाग्य पक्ष मजबूत होने के कारण, ये सब प्रकार की विपत्तियों से जल्दी निकल आते है। इन व्यक्तियों का सम्पर्क उंचे तबके के लोगों से रहेगा जिसके कारण ये अच्छा धन कमाने में कामयाब होंगे। इस दिन जन्में व्यक्तियों के जीवन में 15 वें, 24 वें, 33वें वर्ष विशेष परिवर्तनकारी हो सकते है।

गुरूवार-

गुरूवार को जन्में व्यक्ति महत्वाकांक्षी, अनुशासन प्रिय गम्भीर स्वभाव तथा किसी भी कार्य का नेतृत्व करने वाले होते है। आपके साहस व तर्क के आगे कोई भी व्यक्ति ठहर नहीं पायेगा और आपका जीवन तानाशाही से भरा रहेगा, यह आपका नकारात्मक पक्ष होगा। अपने विचारों एंव भावनाओं को दूसरे के सामने बहुत अच्छे ढ़ग से पेश करते है, इसी कारण आप से लोग जल्दी प्रभावित हो जाते है। आपका मुख्य कार्य मानवता की सेवा करना है। 

आप सदैव अपने जीवन में दुःखी लोगों की सेवा के लिये तत्पर रहेंगे।मित्रों की संख्या आपके पास अधिक होने के बावजूद विश्वसनीयता की कमी रहेगी। दूसरों से अपना काम निकलवाने के लिये आप कुछ भी कर सकते है, परन्तु कार्य हो जाने पर उसे भूल भी जाते हैं इसलिए आपको स्वार्थी प्रवृत्ति कहा जाता है। आप बहुत ज्यादा शौकीन मिजाज के होंगे, मौज, मस्ती, सजावट, में बेहद खर्चीले होंगे। इसलिये धन आपके पास रूक नहीं पाता है। 

इस दिन जन्में व्यक्तियों का बाल्यावस्था का जीवन बहुत ही कष्टकारी और खराब परिस्थितियों में व्यतीत होता है। किसी भी कार्य में जल्दी-जल्दी बोलना, तर्क देना तथा दूसरों के सभी प्रश्नों का उत्तर आप-अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से दे पाने में पूर्णतया समर्थ रहेंगे। 

शुक्रवार-

इस दिन जन्में व्यक्तियों की वाणी में मधुरता एवं सरलता होती है तथा वाद या विवाद करने वाले से सदैव नफरत करते हैं। झगड़े की जड़ को प्रेम -पूर्वक मिटाने का पूरा प्रयास करते हैं या फिर समझौता करके रफा-दफा कर देते हैं| ऐसे व्यक्ति मनोरंजन के सामानों में अत्यधिक व्यय कर देते हैं जिससे इनका आर्थिक संतुलन बिगड जाता है।

इस दिन जन्में व्यक्ति एकान्त में खुश होकर नहीं बैठते, ये सदैव अपने मित्रों के साथ रहना पसन्द करते हैं इनके मित्रों की संख्या अधिक होती है ये बहुत कुटिल होते हैं और सबके मन के विचार जान लेते हैं तथा अपनी कुशल वाणी से दूसरों के भेद को बाहर निकलवा लेंगे परन्तु आप अपनी बात किसी के सामने प्रकट नहीं होने देते हैं।उनके मन में क्या है? यह तो उनकी पत्नी भी नहीं जान पायेगी। 

इनका स्वभाव चंचलता से परिपूर्ण होता है, ये महिलाओ के प्रति विशेष आकर्षित होते हैं जिसके कारण कभी-कभी दुविधाजनक स्थिति में पड़ जाते हैं। अतः इन्हें अपनी इस आदत को सुधार करने का प्रयास करना चाहिए। प्रेम के मामले में ऐसे लोग एक जगह नहीं टिक पाते परन्तु आप आदर्श प्रेम के पक्ष में रहते हैं। इनके स्वभाव में ईष्र्या अधिक होती है | जिसके कारण ये किसी दूसरे को ऊपर उठते नहीं देख सकते हैं। इनका वैवाहिक जीवन सफल कहा जा सकता है, परन्तु ये एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र नहीं करेंगे। 

शनिवार-

इस दिन जन्में व्यक्ति आलसी व संकोची होते हैं, ये व्यक्ति किसी भी कार्य को करने की सुन्दर योजना बनायेंगे परन्तु उन योजनाओं के अनुरूप आप कार्य नहीं कर पायेंगे, इसलिए संकोच व आलस्य को त्याग कर दें अन्यथा आपको जीवन में काफी कठिनाइयों का सामना करना पडे़गा।

इस दिन जमें व्यक्तियों का कोई अपमान करे तो वे कतई बर्दाश्त नहीं करते, इन व्यक्तियों को हमेशा सभी कार्यों में सफलता हांसिल होगी मगर संघर्ष करते रहेंगे तब| इन व्यक्तियों को संकट, विपत्ति व कठिनाईयां अपने लक्ष्य से भ्रमित नहीं कर पायेंगी| इनके जीवन में कितने ही कष्ट क्यों न आये,परन्तु ये अपने हंसमुख स्वभाव के कारण विचलित नहीं होगे। इनका जितना भी विरोध किया जायेगा ये उतना ही सफलता की ओर आगे बढ़ते जायेगे।

इस दिन जन्में व्यक्तियों की खास बात यह होती है कि एक अच्छे प्रेमी होंगे, अतः प्रेम करने की कला में ये निपुण होगे। इनके अन्दर बाहरी प्रदर्शन की कला नहीं होगी और न ही आप किसी बाहरी दिखावे को पसन्द करेगें आप अपने को जैसा है वैसा ही दिखाना पसन्द करेगें। 

रविवार-

सूर्य सिंह राशि का स्वामी है। सिंह का अर्थ होता है शेर और शेर को स्वतन्त्रता प्रिय होती है। अतः इस दिन जन्में व्यक्ति किसी की अधीनता में कार्य करना पसन्द नहीं करते। इनकी इच्छा शक्ति और सकंल्प शक्ति बहुत अधिक होती है। ऐसे लोग कुशल प्रशासक, कुशल संचालक, कुशल प्रबंधक, समाज सेवी तथा राजनीति में कुशल राजनेता बनते है। यदि इन व्यक्तियों को नेतृत्व का कार्य सौप दिया जाय तो किसी भी क्षेत्र में बेहतर परिणाम देते हैं। 

इस तरह संत ने राजा को दिया सुख का मंत्र

एक राजा था। वह बड़ा निडर और उदार था। उसकी प्रजा उसे बहुत चाहती थी। एक दिन राजा एकांत में बैठा सोच रहा था। सोचते-सोचते वह गहराई में उतर गया। उसे लगा, इतनी सारी सुख-निधि पाकर भी आदमी दु:खी क्यों है? 

एक दिन उसने अपने दरबारियों को आज्ञा दी कि सबसे सुखी और तन्दुरुस्त आदमी को पकड़ कर लाओ। दरबारी और प्रजा हैरान। वे राजा की आज्ञा का पालन करने के लिए बहुत भटके, पर राजा जैसा चाहता था, वैसा एक भी आदमी नहीं मिला। उन्होंने दरबार में आकर राजा से कहा, "हे राजन् इस धरती पर पूर्ण सुखी और स्वस्थ कोई भी इंसान नहीं है। किसी को कोई दुख है तो किसी को कोई।"

सुनकर राजा स्तब्ध रह गया। फिर बोला, "तो क्या मेरे राज्य में सब दुखी और बीमार हैं? इस धरती पर कोई भी सुखी नहीं है। नहीं, ऐसा हो नहीं सकता। जाओ, एक बार फिर खोजो।"

दरबारी क्या करते! फिर निकले। घूमते-घूमते वे एक निर्जन और वीरान जंगल से गुजरे। देखा, एक संत ध्यान में लीन हैं। वे वहीं जाकर बैठ गए। ध्यान खुलने पर संत ने पूछा, "तुम लोग कौन हो? कहां से आए हो?"

दरबारियों ने कहा, "हम राजा की आज्ञा मानकर सबसे सुखी और स्वस्थ प्राणी को खोजने निकले हैं।" सुनकर संत बोले, "क्या तुम्हें अब तक ऐसा कोई आदमी मिला है?"

दरबारियों ने कहा, "नहीं" इसके बाद साधु उनके साथ राजा के पास गए। राजा संत को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। संत ने कहा, "राजन्! तुम व्यर्थ ही परेशान होते हो। क्या तुम्हें पता है कि मनुष्य के हृदय में ही सुख का अपार भंडार भरा पड़ा है? जरा टटोलो तो अपने को। सुख की खोज में जैसे कस्तूरी मृग इधर-उधर भटकता है, वैसे ही तुम भटक रहे हो। सुख के लिए बाहर नहीं, भीतर देखना होता है।"

राजा का हृदय पुलक उठा। उसकी समस्या हल हो गई।