..और आसुमल बन गए आसाराम बापू

यौन उत्पीड़न के आरोप में गिरफ्तार स्वयंभू संत आसाराम बापू का पिछले कुछ समय से विवादों से नाता-सा हो गया है। पिछले कुछ अर्से से उनके आश्रम में बच्चों की मौत, जमीन घोटाला, जानलेवा हमला करने के आरोप लगते रहे हैं। कहा जाता है कि संतों को क्रोध शोभा नहीं देता, वे खुद भी लोगों को क्रोध से दूर रहने का उपदेश देते हैं। लेकिन कभी 'ईश्वर की खोज में' घर छोड़ देने वाले 'संत' को क्रोध भी खूब आता है। 2009 में आश्रम के साधकों पर पुलिस कार्रवाई पर उन्हें क्रोध आ गया और उन्होंने कहा कि जब बच्चों पर अन्याय होता है तो मैं दुर्वासा का रूप ले लेता हूं। 

इतना ही नहीं उन्होंने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी तक को चुनौती दे डाली थी| उन्होंने कहा था कि वाह मुख्यमंत्री, देखें तुम्हारी गद्दी कब तक और कैसे रहती है। बहराल, विभाजन के दौरान पाकिस्तान के सिंध प्रांत से विस्थापित होकर उनका परिवार गुजरात के अहमदाबाद पहुंचा था। आज उनका आश्रम देश कई शहरों में मौजूद है और उनके पास करोड़ों रुपये की संपत्ति बताई जाती है। 

आसाराम का जन्म सिंध प्रान्त के नवाबशाह जिले में सिंधु नदी के तट पर बसे बेराणी गांव में नगर सेठ श्री थाऊमलजी सिरुमलानी के घर 17 अप्रैल, 1941 हुआ था। उनका वास्तविक नाम 'आसुमल सिरुमलानी' है। उनके पिता का नाम थाऊमल और माता का नाम महंगीबा है। उस समय नामकरण संस्कार के दौरान उनका नाम आसुमल रखा गया था।

आसाराम के जन्म के कुछ समय बाद उनका परिवार विभाजन की विभीषिका झेलने के बाद सिंध में चल-अचल सम्पत्ति छोड़कर 1947 में अहमदाबाद शहर आ गया। धन-वैभव सब कुछ छूट जाने के कारण परिवार आर्थिक संकट के चक्रव्यूह में फंस गया। यहां आने के बाद आजीविका के लिए थाऊमल ने लकड़ी और कोयले का व्यवसाय आरम्भ किया और आर्थिक परिस्थिति में सुधार होने लगा। तत्पश्चात शक्कर का व्यवसाय भी शुरू किया। 

आसाराम की प्रारम्भिक शिक्षा सिन्धी भाषा से आरम्भ हुई। सात वर्ष की आयु में प्राथमिक शिक्षा के लिए उन्हें 'जयहिन्द हाईस्कूल', मणिनगर, (अहमदाबाद) में प्रवेश दिलवाया गया। माता-पिता के अतिरिक्त आसाराम के परिवार में एक बड़े भाई तथा दो छोटी बहनें थीं।

तरुणाई के प्रवेश के साथ ही घरवालों ने इनकी शादी करने की तैयारी की। वैरागी आसुमल सांसारिक बंधनों में नहीं फंसना चाहते थे, इसलिए विवाह के आठ दिन पूर्व ही 'ईश्वर की खोज में' वह चुपके से घर छोड़ कर निकल पड़े। काफी खोजबीन के बाद घरवालों ने उन्हें भरूच के एक आश्रम में खोज निकाला। सगाई हो जाने और परिवार की काफी दुहाई के बाद वह शादी के लिए तैयार हो गए। 

इसके बाद 23 फरवरी, 1964 को उन्होंने सिद्धि के लिए घर छोड़ दिया। घूमते-घूमते वह केदारनाथ पहुंचे, जहां उन्होंने अभिषेक करवाया। वहां से वह भगवान श्रीकृष्ण की लीलास्थली वृन्दावन पहुंचे। होली के दिन यहां के दरिद्रनारायण में भंडारा कर कुछ दिन वहीं पर रुके और फिर उत्तराखंड की ओर निकल पड़े। इस दौरान वह गुफाओं, कन्दराओं, घाटियों, पर्वतश्रंखलाओं एवं अनेक तीर्थो में घूमे। 

फिर वह नैनीताल के जंगलों में पहुंचे। 40 दिनों के लम्बे इंतजार के बाद वहां उन्हें सदगुरु स्वामी लीलाशाहजी महाराज मिले। लीलाशाहजी महाराज ने आसुमल को ज्ञान दिया और घर में ही ध्यान भजन करने का आदेश देकर 70 दिनों बाद वापस अहमदाबाद भेज दिया।

साबरमती नदी के किनारे की उबड़-खाबड़ टेकरियों (मिट्टी के टीलों) पर भक्तों द्वारा आश्रम के रूप में 29 जनवरी, 1972 को एक कच्ची कुटिया तैयार की गई। इस स्थान के चारों ओर कंटीली झाड़ियां व बीहड़ जंगल था, जहां दिन में भी आने पर लोगों को चोर-डाकुओं का भय बराबर बना रहता था। लेकिन आश्रम की स्थापना के बाद यहां का भयावह एवं दूषित वातावरण बदल गया। 

आसाराम ने साबरमती तट पर ही अपने आश्रम से करीब आधा किलोमीटर दूर 'नारी उत्थान केन्द्र' के रूप में महिला आश्रम की स्थापना की। महिला आश्रम में भारत के विभिन्न प्रान्तों से एवं विदेशों से भी स्त्रियां आती हैं। इसके बाद सत्संग के लिए योग वेदान्त सेवा समिति की शाखाएं स्थापित की गईं। जिसमें लाखों की संख्या में श्रोता और भक्त पहुंचने लगे।

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