जानिए किस तरह हुआ द्रोपदी का जन्म और क्यों मिले थे पांच पति..?

महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत जैसा अन्य कोई ग्रंथ नहीं है। यह ग्रंथ बहुत ही विचित्र और रोचक है। विद्वानों ने इसे पांचवां वेद भी कहा है। महाभारत में अनेक पात्र हैं, लेकिन एक पात्र है द्रोपदी का| क्या आप द्रोपदी के बारे में जानते हैं की कैसे हुआ था इनका जन्म और किस तरह से इन्हें मिले थे पांच पति? महाभारत ग्रंथ के अनुसार एक बार राजा द्रुपद ने कौरवो और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य का अपमान कर दिया था। गुरु द्रोणाचार्य इस अपमान को भूल नहीं पाए। इसलिए जब पण्डवों और कौरवों ने शिक्षा समाप्ति के पश्चात गुरु द्रोणाचार्य से गुरु दक्षिणा माँगने को कहा तो उन्होंने उनसे गुरु दक्षिणा में राजा द्रुपद को बंदी बनाकर अपने समक्ष प्रस्तुत करने को कहाँ। पहले कौरव राजा द्रुपद को बंदी बनाने गए पर वो द्रुपद से हार गए। कौरवों के पराजित होने के बाद पांडव गए और उन्होंने द्रुपद को बंदी बनाकर द्रोणाचार्य के समक्ष प्रस्तुत किया। द्रोणाचार्य ने अपने अपमान का बदला लेते हुए द्रुपद का आधा राज्य स्वयं के पास रख लिया और शेष राज्य द्रुपद को देकर उसे रिहा कर दिया।


इस तरह द्रौपदी पांच पांडवों की पत्नी पांचाली बन गई


गुरु द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुये कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट याज तथा उपयाज नामक महान कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई। राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य के मारने का उपाय पूछा। उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा, "इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके अग्निदेव को प्रसन्न कीजिये जिससे कि वे आपको वे महान बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे।" महाराज ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार यज्ञ करवाया। उनके यज्ञ से प्रसन्न हो कर अग्निदेव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था। उसके पश्चात् उस यज्ञ कुण्ड से एक कन्या उत्पन्न हुई जिसके नेत्र खिले हुये कमल के समान देदीप्यमान थे, भौहें चन्द्रमा के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था। उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के सँहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है। बालक का नाम धृष्टद्युम्न एवं बालिका का नाम कृष्णा रखा गया जो की राजा द्रुपद की बेटी होने के कारण द्रौपदी कहलाई।


तो इसलिए महाभारत युद्ध में कृष्ण को क्यों उठाना पड़ा था चक्र?


द्रौपदी पूर्व जन्म में एक बड़े ऋषि की गुणवान कन्या थी। वह रूपवती, गुणवती और सदाचारिणी थी, लेकिन पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण किसी ने उसे पत्नी रूप में स्वीकार नहीं किया। इससे दुखी होकर वह तपस्या करने लगी। उसकी उग्र तपस्या के कारण भगवान शिव प्रसन्न हए और उन्होंने द्रौपदी से कहा तू मनचाहा वरदान मांग ले। इस पर द्रौपदी इतनी प्रसन्न हो गई कि उसने बार-बार कहा मैं सर्वगुणयुक्त पति चाहती हूं। भगवान शंकर ने कहा तूने मनचाहा पति पाने के लिए मुझसे पांच बार प्रार्थना की है। इसलिए तुझे दुसरे जन्म में एक नहीं पांच पति मिलेंगे। तब द्रौपदी ने कहा मैं तो आपकी कृपा से एक ही पति चाहती हूं। इस पर शिवजी ने कहा मेरा वरदान व्यर्थ नहीं जा सकता है। इसलिए तुझे पांच पति ही प्राप्त होंगे।


इस तरह हुआ द्रोणाचार्य का जन्म...?


विवाह के बाद में द्रोपदी पांचों पांडव के एक-एक पुत्र को जन्म दिया। युधिष्ठिर के पुत्र का नाम प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से उत्पन्न पुत्र का नाम सुतसोम, अर्जुन के पुत्र का नाम श्रुतकर्मा, नकुल के पुत्र का नाम शतानीक, सहदेव के पुत्र का नाम श्रुतसेन रखा गया।


गंगा ने क्यों बहाया अपने पुत्रों को नदी में...?


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हनुमान जी के एक पुत्र भी था, जानिए कौन था वह....?

पवनपुत्र हनुमानजी के विषय में यह सभी जानते हैं कि वह बाल ब्रह्मचारी थे| प्रभु श्रीराम की सेवा में लीन होकर उन्होंने विवाह नहीं किया| लेकिन मकरध्वज को उनका पुत्र कहा जाता है। अब प्रश्न उठता है कि जब विवाह नहीं की तो हनुमान जी का बेटा कहां से आया? वाल्मीकि रामायण के अनुसार, हनुमानजी सीता की खोज में लंका पहुंचे और मेघनाद द्वारा पकड़े जाने पर उन्हें रावण के दरबार में प्रस्तुत किया गया, तब रावण ने उनकी पूंछ में आग लगवा दी थी और हनुमान ने जलती हुई पूंछ से लंका जला दी। लंका जलाते समय आग की तपिश के कारण हनुमानजी को बहुत पसीना आ रहा था। इसलिए लंका दहन के बाद जब उन्होंने अपनी पूँछ में लगी आग को बुझाने के लिए समुद्र में छलाँग लगाई तो उनके शरीर से पसीने के एक बड़ी-सी बूँद समुद्र में गिर पड़ी। उस समय एक बड़ी मछली ने भोजन समझ वह बूँद निगल ली। उसके उदर में जाकर वह बूँद एक शरीर में बदल गई।

एक दिन पाताल के असुरराज अहिरावण के सेवकों ने उस मछली को पकड़ लिया। जब वे उसका पेट चीर रहे थे तो उसमें से वानर की आकृति का एक मनुष्य निकला। वे उसे अहिरावण के पास ले गए। अहिरावण ने उसे पाताल पुरी का रक्षक नियुक्त कर दिया। यही वानर हनुमान पुत्र ‘मकरध्वज’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जब राम-रावण युद्ध हो रहा था, तब रावण की आज्ञानुसार अहिरावण राम-लक्ष्मण का अपहरण कर उन्हें पाताल पुरी ले गया। उनके अपहरण से वानर सेना भयभीत व शोकाकुल हो गयी। लेकिन विभीषण ने यह भेद हनुमान के समक्ष प्रकट कर दिया। तब राम-लक्ष्मण की सहायता के लिए हनुमानजी पाताल पुरी पहुँचे।

जब उन्होंने पाताल के द्वार पर एक वानर को देखा तो वे आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने मकरध्वज से उसका परिचय पूछा। मकरध्वज अपना परिचय देते हुआ बोला-“मैं हनुमान पुत्र मकरध्वज हूं और पातालपुरी का द्वारपाल हूँ।” मकरध्वज की बात सुनकर हनुमान क्रोधित होकर बोले- “यह तुम क्या कह रहे हो? दुष्ट! मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ। फिर भला तुम मेरे पुत्र कैसे हो सकते हो?” हनुमान का परिचय पाते ही मकरध्वज उनके चरणों में गिर गया और उन्हें प्रणाम कर अपनी उत्पत्ति की कथा सुनाई। हनुमानजी ने भी मान लिया कि वह उनका ही पुत्र है।

लेकिन यह कहकर कि वे अभी अपने श्रीराम और लक्ष्मण को लेने आए हैं, जैसे ही द्वार की ओर बढ़े वैसे ही मकरध्वज उनका मार्ग रोकते हुए बोला- “पिताश्री! यह सत्य है कि मैं आपका पुत्र हूँ लेकिन अभी मैं अपने स्वामी की सेवा में हूँ। इसलिए आप अन्दर नहीं जा सकते।” हनुमान ने मकरध्वज को अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास किया, किंतु वह द्वार से नहीं हटा। तब दोनों में घोर य़ुद्ध शुरु हो गया। देखते-ही-देखते हनुमानजी उसे अपनी पूँछ में बाँधकर पाताल में प्रवेश कर गए। हनुमान सीधे देवी मंदिर में पहुँचे जहाँ अहिरावण राम-लक्ष्मण की बलि देने वाला था। हनुमानजी को देखकर चामुंडा देवी पाताल लोक से प्रस्थान कर गईं। तब हनुमानजी देवी-रूप धारण करके वहाँ स्थापित हो गए।

कुछ देर के बाद अहिरावण वहाँ आया और पूजा अर्चना करके जैसे ही उसने राम-लक्ष्मण की बलि देने के लिए तलवार उठाई, वैसे ही भयंकर गर्जन करते हुए हनुमानजी प्रकट हो गए और उसी तलवार से अहिरावण का वध कर दिया। उन्होंने राम-लक्ष्मण को बंधन मुक्त किया। तब श्रीराम ने पूछा-“हनुमान! तुम्हारी पूँछ में यह कौन बँधा है? बिल्कुल तुम्हारे समान ही लग रहा है। इसे खोल दो।” हनुमान ने मकरध्वज का परिचय देकर उसे बंधन मुक्त कर दिया। मकरध्वज ने श्रीराम के समक्ष सिर झुका लिया। तब श्रीराम ने मकरध्वज का राज्याभिषेक कर उसे पाताल का राजा घोषित कर दिया और कहा कि भविष्य में वह अपने पिता के समान दूसरों की सेवा करे।

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गर्भावस्था के दौरान स्तन दर्द को कैसे करें दूर......

मां बनना सबसे बड़े सौभाग्य की बात है। लेकिन जब महिलाएं गर्भावस्था के दौर से गुजरती हैं तो उनको स्वास्थ्य से सम्बंधित कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसमें से एक समस्या है स्तनों में दर्द। बहुत सी महिलाओ को गर्भावस्था के दौरान ये समस्या रहती है| अक्सर महिलाये शिकायत करती है की उन्हें स्तन दर्द हो रहा है| 

डॉक्टरों के अनुसार, गर्भावस्था के दौरान शरीर में कुछ बदलाव आते है| ब्लड सर्कुलेशन और स्तन का साइज भी बढ जाता है| डॉक्टरों की सलाह है कि गर्भावस्था के दिनों में स्तनों को भली प्रकार धोना चाहिए| यदि निप्पल्स बैठे हुए और ढीले हों तो उन्हें आहिस्ता से अंगुलियों से पकड़कर खींचना व मालिश द्वारा उन्नत व पर्याप्त उठे हुए बनाना चाहिए, ताकि नवजात शिशु के मुंह में भलीभांति दिए जा सकें। 

इसके अलावा डॉक्टरों का यह भी कहना है कि कभी-कभी निप्पल्स में कट लग जाता है और इसकी वजह से भी स्तनों में दर्द होता है। इसके लिए थोड़ा सा शुद्ध घी या गाय के दूध का लें, सुहागा फुलाकर पीसकर इसमें मिला दें। एक चुटकी गंधक भी मिला लें। इन तीनों को अच्छी तरह मिलाकर पेस्ट जैसा कर लें और स्तनों के निप्पल्स पर दिन में 3-4 बार लगाएं। ताजे मक्खन में थोड़ा सा कपूर मिलाकर लगाने से भी लाभ होता है।

हो सके तो ज्यादा तली हुई चीजे ना खाए| कपडे हमेशा अपने सुविधानुसार पहने ना ज्यादा टाइट पहने, ना ज्यादा ढीले। अगर आपको ज्यादा ही दर्द हो रहा है तो अपने डॉक्टर के पास जाये और जाँच कराये।

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सर्दियों में कुछ इस तरह करें पैरों की देखभाल

सर्दी शुरू हो गई है| सर्दी आते ही त्वचा संबधी परेशानियां जैसे रूखापन, त्वचा का फटना और त्वचा की रौनक चली जाना कई ऐसी समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है। खासतौर पर सर्दियों में पैरों को कई प्रकार की समस्याओं से गुजरना पड़ता है। ऐसे में पैरो की विशेष देखभाल की जरूरत होती है। इसलिए सर्दियों में पैरों की देखभाल के आप इन बातों का ध्यान रखें:

सर्दियों के दिनों में पैरों की त्‍वचा को सूखा न रहने दें। उस पर क्रीम आदि लगाते रहें ताकि उनकी नमी बरकरार रहें। दिन में 3 से 4 बार पैरों पर मॉश्‍चराइजर लगाएं। यदि आपकी एडियां फट रही हैं तो रात को सोने से पहले पैरों को गुनगुने पानी में कुछ देर के लिए डुबो कर रखें और फटी एडियों को प्यूमिक स्टोन से रगडकर साफ करें। इससे मृत त्वचा बाहर निकल जाएगी और आपकी एडियां मुलायम बनी रहेंगी।

पैरों पर जीम धूल-मिट्टी व गंदगी को साफ करने के लिए एक टब में हल्का गरम पानी लेकर उसमें 3 चम्मच नमक व सुहागा डाल लें। अब इस पानी में पैरों को डुबोकर 10 मिनट बैठ जाएं। ऐसा कर आप देखेंगे कि कुछ देर बाद आपके पैरों की थकान दूर होने के साथ आपके पैरों में जीम धूल-मिट्टी भी पानी में ऊपर आज जाएगी। हमेशा आरामदायक जूते ही पहनें जिससे आपके पैरो को काफी जगह मिल सके। एडियां फटी होने पर या पैरों में खुश्की होने पर सख्त जूतों से दर्द बढ़ सकता है।

पैरो को हर रोज रात को इस प्रकार साफ कर सुखायें और सुखाने के बाद अपने पैरों पर लोशन लगाएं और उससे इन्हें पूरी तरह से नम कर लें| सूखी त्वचा को कैंची से काटने को कोशिश न करें क्योंकि इससे आप अपनी काफी त्वचा निकाल सकते हैं, जो कि काफी दर्दभरी होगी और इससे आपके पैरों में संक्रमण होने की भी आशंका होती है। एक चम्मच तेल में दो चम्मच चीनी मिला कर हाथों और पैरों पर रगड़े, ऐसा करने से पैर नरम हो जाते हैं। इसके लिए सूरजमुखी का तेल भी बहुत लाभकारी होता है।

नारियल, जैतून या सरसों जैसे किसी भी प्राकृतिक तेल की मालिश करना पैरों की त्वचा के लिए बहुत फायदेमंद होता है। एक चम्मच नारियल तेल में दो चम्मच चीनी मिला कर पैरों पर रगडें। इससे त्वचा मुलायम हो जाती है। इसके लिए जैतून का तेल भी बहुत लाभकारी होता है। रात को सोने से पहले एक चम्मच मलाई में नीबू का रस मिलाकर उसे पैरों पर अच्छी तरह रगडें और बीस मिनट बाद गीले कॉटन से पोंछकर साफ कर लें। त्वचा को कोमल बनाने के लिए अच्छी क्वॉलिटी के फुटक्रीम का इस्तेमाल करें।

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माहवारी के दर्द में आराम दिलाए ये उपाय

महिलाओं के लिए हर माह के कुछ दिन कष्टप्रद होते हैं। हालांकि प्रजनन क्षमता व स्त्री स्वास्थ्य के लिए यह जरूरी भी है। बदलती जीवनशैली, प्रदूषण और खानपान में बदलाव की वजह से ज्यादातर महिलाएं माहवारी के दिनों में दर्द की समस्या से परेशान रहती हैं लेकिन शर्म या झिझक के कारण डॉक्टर से परामर्श लेने के बजाय पेन किलर का इस्तेमाल करती रहती हैं जो हानिकारक भी साबित हो सकती है| ऐसे में इस समस्या से आराम के लिए ऐसे कई घरेलू उपाय हैं जिन्हें मासिक धर्म के समय होने वाले तेज दर्द में आराम के लिए अपनाया जा सकता है। 

मासिक चक्र के समय अक्सर महिलाओं में गैस्ट्रिक की समस्या बढ़ जाती हैं, जिसकी वजह से भी पेट में तेज दर्द होने लगता है। इससे निपटने के लिए अजवाइन का सेवन बेहद कारगर विकल्प है। ऐसा होने पर आधा चम्मच अज्वाइन और आधा चम्मच नमक को मिलाकर गुनगुने पानी के साथ पीने से दर्द से तुरंत राहत मिल जाती है। 

इसके अलावा पीरियड्स के दौरान पपीते का सेवन करने से लाभ होता है। दरअसल कई बार पीरियट्स के दौरान फ्लो ठीक प्रकार से नहीं हो पाता है, जिस कारण महिलाओं को अधिक दर्द होता है। ऐसे में पपीते का सेवन से पीरियड्स के दौरान फ्लो ठीक से होता है जिससे दर्द नहीं होता। इसके अलावा पीरियड्स में दर्द होने पर एक कप पानी में अदरक को बारीक काटकर उबाल लें। अगर स्वाद अच्छा न लगे तो इसमें स्वादानुसार शक्कर भी मिला सकती हैं। अब दिन में तीन बार भोजन के बाद इसका सेवन करें। दर्द में राहत मिलेगी।

दूध कैल्शियम का अच्छा स्रोत है, मासिक धर्म के दर्द से छुटकारा पाने के लिए एक गिलास दूध जरूर पिए यह आपकी कैल्शियम की कमी को भी पूरा करेगी साथ ही दर्द में भी आराम दिलाएगी। तुलसी एक बेहतरीन नैचुरल पेन किलर है जिसे पीरियड्स के दर्द में बेझिझक ले सकते हैं। इसमें मौजूद कैफीक एसिड दर्द में आराम पहुंचाता है। ऐसे में दर्द के समय तुलसी के पत्ते को चाय में मिलाकर पीने से भी आराम मिलता है।


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महाभारत के युद्ध में क्यों नहीं शामिल हुए बलराम....?



महाभारत वह महाकाव्य है जिसके बारे में जानता तो हर कोई है लेकिन आज भी कुछ ऐसे चीजें हैं जिसे जानने वालों की संख्या कम है| क्या आपको पता है महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम क्यों नहीं शामिल हुए थे? महाभारत युद्ध में देश-विदेश की सेना ने भाग लिया था। माना जाता है कि कौरवों के साथ कृष्ण की सेना सहित कई जगहों के योद्धा शामिल थे, तो पांडवों के साथ सिर्फ कृष्ण और उनके मित्र राजाओं की सेना थी। लेकिन इस युद्ध में दो राजा शामिल नहीं हुए थे इनमें से एक तो बलराम और दूसरे भोजकट के राजा और रुक्मणि के बड़े भाई रुक्मी थे।

तो इसलिए महाभारत युद्ध में कृष्ण को क्यों उठाना पड़ा था चक्र?


भगवान कृष्ण को उनके बड़े भाई बलराम ने कई बार समझाया कि हमें युद्ध में शामिल नहीं होना चाहिए, क्योंकि दुर्योधन और अर्जुन दोनों ही हमारे मित्र हैं। ऐसे धर्मसंकट के समय दोनों का ही पक्ष न लेना उचित होगा। ऐसे में दोनों भाई धर्मसंकट में पड़ गए, लेकिन कृष्ण ने इस समस्या का भी हल निकाल लिया था। उन्होंने दुर्योधन से ही कह दिया था कि तुम मुझे और मेरी सेना दोनों में से किसी एक का चयन कर लो। दुर्योधन ने कृष्ण की सेना का चयन किया।

इस तरह हुआ द्रोणाचार्य का जन्म...?

महाभारत में वर्णित है कि जिस समय युद्ध की तैयारियां हो रही थीं और उधर एक दिन भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम, पांडवों की छावनी में अचानक पहुंचे। दाऊ भैया को आता देख श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर आदि बड़े प्रसन्न हुए। सभी ने उनका आदर किया। सभी को अभिवादन कर बलराम, धर्मराज के पास बैठ गए। उन्होंने कहा कि मैंने कृष्ण को न जाने कितनी बार समझाया हमारे लिए तो पांडव और कौरव दोनों ही एक समान हैं। दोनों को मूर्खता करने की सूझी है। इसमें हमें बीच में पड़ने की आवश्यकता नहीं, पर कृष्ण ने मेरी एक न मानी।

गंगा ने क्यों बहाया अपने पुत्रों को नदी में...?

कृष्ण को अर्जुन के प्रति स्नेह इतना ज्यादा है कि वे कौरवों के विपक्ष में हैं। अब जिस तरफ कृष्ण हों, उसके विपक्ष में कैसे जाऊं? भीम और दुर्योधन दोनों ने ही मुझसे गदा सीखी है। दोनों ही मेरे शिष्य हैं। दोनों पर मेरा एक जैसा स्नेह है। इन दोनों कुरुवंशियों को आपस में लड़ते देखकर मुझे अच्छा नहीं लगता अतः में तीर्थयात्रा पर जा रहा हूं।

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हनुमान जी के विवाह का रहस्य...

 कहते हैं भगवान रामभक्त हनुमान की उपासना से जीवन के सारे कष्ट, संकट मिट जाते है। माना जाता है कि हनुमान एक ऐसे देवता है जो थोड़ी-सी प्रार्थना और पूजा से ही शीघ्र प्रसन्न हो जाते है। इतिहास साक्षी है जब-जब भक्तों पर संकट के बादल मंडराए भगवान ने अपने भक्तो की रक्षा के लिए किसी न किसी रूप में अवतार लेकर उनकी रक्षा की है। हनुमान जी को बाल ब्रह्मचारी माना जाता है इसलिए हनुमान जी लंगोट धारण किए हर मंदिर और तस्वीरों में अकेले दिखते हैं। कभी भी अन्य देवताओं की तरह हनुमान जी को पत्नी के साथ नहीं देखा होगा। लेकिन अगर आप हनुमान के साथ उनकी पत्नी को देखना चाहते हैं तो आपको आंध्र प्रदेश जाना होगा।

हैदराबाद से करीब 220 किलोमीटर दूर तेलंगाना के खम्मन जिले में एक ऐसा मंदिर है जहाँ पवनपुत्र हनुमान अपनी पत्नी सुर्वचला के साथ विराजमान हैं| किंवदंती है कि सुवर्चला सूर्य देव की पुत्री हैं। जिनका विवाह पवनपुत्र हनुमानजी के साथ हुआ था। मान्यता है कि जो भी हनुमानजी और उनकी पत्नी के दर्शन करता है, उन भक्तों के वैवाहिक जीवन की सभी परेशानियां दूर हो जाती हैं और पति-पत्नी के बीच प्रेम बना रहता है।

पाराशर संहिता के अनुसार हनुमानजी अविवाहित नहीं, विवाहित हैं। हनुमानजी ने सूर्य देव को अपना गुरु बनाया था। सूर्य देव के पास 9 दिव्य विद्याएं थीं। इन सभी विद्याओं का ज्ञान बजरंग बली प्राप्त करना चाहते थे। सूर्य देव ने इन 9 में से 5 विद्याओं का ज्ञान तो हनुमानजी को दे दिया, लेकिन शेष 4 विद्याओं के लिए सूर्य के समक्ष एक संकट खड़ा हो गया। शेष 4 दिव्य विद्याओं का ज्ञान सिर्फ उन्हीं शिष्यों को दिया जा सकता था जो विवाहित हों।

हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी थे, इस कारण सूर्य देव उन्हें शेष चार विद्याओं का ज्ञान देने में असमर्थ हो गए। समस्या के निराकरण के लिए सूर्य देव ने हनुमानजी से विवाह करने की बात कही। पहले तो हनुमानजी विवाह के लिए राजी नहीं हुए, लेकिन उन्हें शेष 4 विद्याओं का ज्ञान पाना ही था। तब हनुमानजी ने विवाह के लिए हां कर दी। जब हनुमानजी विवाह के लिए मान गए तब उनके योग्य कन्या के रूप में सूर्य देव की पुत्री सुवर्चला को चुना गया। सूर्य देव ने हनुमानजी से कहा कि सुवर्चला परम तपस्वी और तेजस्वी है और इसका तेज तुम ही सहन कर सकते हो।

सुवर्चला से विवाह के बाद तुम इस योग्य हो जाओगे कि शेष 4 दिव्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर सको। सूर्य देव ने यह भी बताया कि सुवर्चला से विवाह के बाद भी तुम सदैव बाल ब्रह्मचारी ही रहोगे, क्योंकि विवाह के बाद सुवर्चला पुन: तपस्या में लीन हो जाएगी। इस तरह हनुमानजी और सुवर्चला का विवाह सूर्य देव ने करवा दिया। विवाह के बाद सुवर्चला तपस्या में लीन हो गईं और हनुमानजी से अपने गुरु सूर्य देव से शेष 4 विद्याओं का ज्ञान भी प्राप्त कर लिया। इस प्रकार विवाह के बाद भी हनुमानजी ब्रह्मचारी बने हुए हैं। 

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जानिए कैसे हुआ पवनसुत हनुमान का जन्म.....?

कलियुग में बहुत जल्दी प्रसन्न होने वाले देवी-देवताओं में से एक हैं हनुमान जी। आपको बता दें कि जीवन में जब भी कोई अत्यधिक मुश्किल प्रतीत हो रहा हो या लाख कोशिशों के बाद भी वह पूर्ण नहीं हो पा रहा हो या बार-बार बाधाएं उत्पन्न हो रही हों तब हनुमानजी को प्रसन्न कर उन रुकावटों को दूर किया जा सकता है। हनुमान जी को हिन्दू धर्म में कष्ट विनाशक और भय नाशक देवता के रूप में जाना जाता है| हनुमान जी अपनी भक्ति और शक्ति के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं| सारे पापों से मुक्त करने ओर हर तरह से सुख-आनंद एवं शांति प्रदान करने वाले हनुमान जी की उपासना लाभकारी एवं सुगम मानी गयी है। पुराणों के अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी मंगलवार, स्वाति नक्षत्र मेष लग्न में स्वयं भगवान शिवजी ने अंजना के गर्भ से रुद्रावतार लिया। क्या आप जानते हैं कि हनुमान जी का जन्म कैसे हुआ अगर नहीं जानते हैं तो आज हम आपको बताते हैं कि कैसे जन्मे पवनसुत हनुमान- आपको बता दें कि हनुमान के जन्म के संबंध में धर्मग्रंथों में कई कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार-

भगवान विष्णु के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर अपना वीर्यपात कर दिया। सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहित कर वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए। हनुमान जी सब विद्याओं का अध्ययन कर पत्नी वियोग से व्याकुल रहने वाले सुग्रीव के मंत्री बन गए। उन्होंने पत्नीहरण से खिन्न व भटकते रामचंद्रजी की सुग्रीव से मित्रता कराई। सीता की खोज में समुद्र को पार कर लंका गए और वहां उन्होंने अद्भुत पराक्रम दिखाए। हनुमान ने राम-रावण युद्ध ने भी अपना पराक्रम दिखाया और संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण के प्राण बचाए। अहिरावण को मारकर लक्ष्मण व राम को बंधन से मुक्त कराया।

हनुमान जी के विवाह का रहस्य...

वहीँ, दूसरी कथानुसार हनुमान की माता अंजना संतान सुख से वंचित थी। कई जतन करने के बाद भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। इस दुःख से पीड़ित अंजना मतंग ऋषि के पास गईं, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-पप्पा सरोवर के पूर्व में एक नरसिंहा आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है वहां जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करना पड़ेगा तब जाकर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी। अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया था बारह वर्ष तक केवल वायु का ही भक्षण किया तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से खुश होकर उसे वरदान दिया जिसके परिणामस्वरूप चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा को अंजना को पुत्र की प्राप्ति हुई। वायु के द्वारा उत्पन्न इस पुत्र को ऋषियों ने वायु पुत्र नाम दिया।

एक अन्य कथा के अनुसार महाराजा दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ से प्राप्त जो हवि अपनी रानियों में बाँटी थी उसका एक भाग गरुड़ उठाकर ले गया और उसे उस स्थान पर गिरा दिया जहाँ अंजनी पुत्र प्राप्ति के लिए तपस्या कर रही थी। हवि खा लेने से अंजनी गर्भवती हो गई और कालांतर में उसने हनुमानजी को जन्म दिया। वहीँ, हनुमान के जन्म-स्थान के बारे में कुछ भी निश्चित नहीं है। मध्यप्रदेश के आदिवासियों का कहना है कि हनुमानजी का जन्म राँची जिले के गुमला परमंडल के ग्राम अंजन में हुआ था। कर्नाटकवासियों की धारणा है कि हनुमानजी कर्नाटक में पैदा हुए थे। पंपा और किष्किंधा के ध्वंसावशेष अब भी हाम्पी में देखे जा सकते हैं। अपनी रामकथा में फादर कामिल बुल्के ने लिखा है कि कुछ लोगों के अनुसार हनुमानजी वानर-पंथ में पैदा हुए थे।

इस तरह बजरंगबली कहलाये हनुमान-

श्रीराम चरित मानस के अनुसार, हनुमानजी की माता का नाम अंजनी और पिता वानरराज केसरी है। केसरी नंदन जब काफी छोटे थे तब खेलते समय उन्होंने सूर्य को देखा। सूर्य को देखकर अजंनीपुत्र ने सोचा कि यह कोई खिलौना होगा और वे सूर्य की उड़ चले। जन्म से ही मारूति को दैवीय शक्तियां प्राप्त थी अत: वे कुछ ही समय में सूर्य के समीप पहुंच गए और अपना आकार बड़ा करके सूर्य को मुंह में निगल लिया।

पवनपुत्र द्वारा जब सूर्य को निगल लिया गया तब सृष्टि में अंधकार व्याप्त हो गया इससे सभी देवी-देवता चिंतित हो गए। सभी देवी-देवता पवनपुत्र के पास विनति करने पहुंचे कि वे सूर्य को छोड़ दें लेकिन बालक मारूति ने किसी की बात नहीं मानी। इससे क्रोधित होकर इंद्र ने उनके मुंह पर वज्र से प्रहार कर दिया। इस वज्र प्रहार से उनकी ठुड्डी टूट गई। ठुड्डी को हनु भी कहा जाता है। जब मारूति की ठुड्डी टूट गई तब पवन देव ने अपने पुत्र की यह दशा देखकर अति क्रोधित हो गए और सृष्टि से वायु का प्रवाह रोक दिया। इससे और अधिक संकट बढ़ गया। तब भी देवी-देवताओं ने बालक मारूति को अपनी-अपनी शक्तियों उपहार स्वरूप दी। तब पवन देव का क्रोध शांत हुआ। तभी से मारूति की ठुड्डी अर्थात् हनु टूट जाने की वजह से सभी देवी-देवताओं ने इनका नाम हनुमान रखा। 

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जानिए रावण ने क्यों नहीं छुआ था सीता जी को.......?

क्या आप जानते हैं कि वह कौन सा क्या था श्राप जिसकी वजह से सीता की अनुमति के बिना लंकापति रावण उनका स्पर्श नहीं कर पाया? नहीं तो आज हम आपको इसकी जानकारी देते हैं कि आखिर रावण ने क्यों नहीं छुआ था सीता को| रामायण के अनुसार काम के वश में होकर जब रावण सीता को लंका ले गया। सीता जी तप्स्विनी के वेष में वहां ही रहती और तप उपवास किया करती थी। रावण ने सीता की रक्षा के लिए राक्षसियों को नियुक्त कर दिया जो बहुत भयानक दिखाई पड़ती थी। वे बहुत ही कठोर तरीके से उन्हें धमकाती और कहती थीं। आओ हम सब मिलकर इसको काट डालें और तिल जैसे छोटे-छोटे टुकड़े करके खा जाएं। उनकी बातें सुनकर सीता ने कहा-तुम लोग मुझे जल्दी खा जाओ। मुझे अपने जीवन का थोड़ा भी लालच नहीं है। मैं अपने प्राण दे दूंगी लेकिन पति के अलावा कोई परपुरुष मुझे छू भी नहीं सकता। अगर ऐसा हुआ तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगी। सीता की बात सुनकर एक राक्षसी रावण को सूचना देने चली गई।

भगवान श्रीराम की एक बहन भी थी, जानिए कौन थी वो...?

उनके चले जाने पर एक त्रिजटा नाम की राक्षसी वहां रह गई। वह धर्म को जानने वाली और प्रिय वचन बोलने वाली थी। उसने सीता को सांत्वना देते हुए कहा सखी तुम चिमा मत करो। यहां एक श्रेष्ठ राक्षस रहता है जिसका नाम अविंध्य है। उसने तुमसे कहने के लिए यह संदेश दिया है कि तुम्हारे स्वामी भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण के साथ कुशल पूर्वक हैं। वे इंद्र के समान तेजस्वी वनराज सुग्रीव के साथ मित्रता करके तुम्हे छुड़वाने की कोशिश कर रहे हैं। अब रावण से तुम्हें नहीं डरना चाहिए क्योंकि रावण ने नल कूबेर की पत्नी रंभा को छुआ था तो उसे शाप मिला था कि वह किसी पराई स्त्री के साथ उस इच्छा बिना संबंध नहीं बना पाएगा और अगर ऐसा किया तो वह भस्म हो जाएगा।

वहीँ, एक और मान्यता के अनुसार सिर्फ सीता के अपहरण के कारण ही राम के हाथों रावण की मृत्यु हुई थी। यह उस समय की बात है, जब भगवान शिव से वरदान और शक्तिशाली खड्ग पाने के बाद रावण और भी अधिक अहंकार से भर गया था। वह पृथ्वी से भ्रमण करता हुआ हिमालय के घने जंगलों में जा पहुंचा। वहां उसने एक रूपवती कन्या को तपस्या में लीन देखा। कन्या के रूप-रंग के आगे रावण का राक्षसी रूप जाग उठा और उसने उस कन्या की तपस्या भंग करते हुए उसका परिचय जानना चाहा। काम-वासना से भरे रावण के अचंभित करने वाले प्रश्नों को सुनकर उस कन्या ने अपना परिचय देते हुए रावण से कहा कि 'हे राक्षसराज, मेरा नाम वेदवती है। मैं परम तेजस्वी महर्षि कुशध्वज की पुत्री हूं।

मेरे वयस्क होने पर देवता, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, नाग सभी मुझसे विवाह करना चाहते थे, लेकिन मेरे पिता की इच्छा थी कि समस्त देवताओं के स्वामी श्रीविष्णु ही मेरे पति बनें।' मेरे पिता की उस इच्छा से क्रुद्ध होकर शंभू नामक दैत्य ने सोते समय मेरे पिता की हत्या कर दी और मेरी माता ने भी पिता के वियोग में उनकी जलती चिता में कूदकर अपनी जान दे दी। इसी वजह से यहां मैं अपने पिता की इच्छा को पूरा करने के लिए इस तपस्या को कर रही हूं। इतना कहने के बाद उस सुंदरी ने रावण को यह भी कह दिया कि मैं अपने तप के बल पर आपकी गलत इच्छा को जान गई हूं। इतना सुनते ही रावण क्रोध से भर गया और अपने दोनों हाथों से उस कन्या के बाल पकड़कर उसे अपनी ओर खींचने लगा। इससे क्रोधित होकर अपने अपमान की पीड़ा की वजह से वह कन्या दशानन को यह शाप देते हुए अग्नि में समा गई कि मैं तुम्हारे वध के लिए फिर से किसी धर्मात्मा पुरुष की पुत्री के रूप में जन्म लूंगी।

महान ग्रंथों में शामिल दुर्लभ 'रावण संहिता' में उल्लेख मिलता है कि दूसरे जन्म में वही तपस्वी कन्या एक सुंदर कमल से उत्पन्न हुई और जिसकी संपूर्ण काया कमल के समान थी। इस जन्म में भी रावण ने फिर से उस कन्या को अपने बल के दम पर प्राप्त करना चाहा और उस कन्या को लेकर वह अपने महल में जा पहुंचा। जहां ज्योतिषियों ने उस कन्या को देखकर रावण को यह कहा कि यदि यह कन्या इस महल में रही तो अवश्य ही आपकी मौत का कारण बनेगी। यह सुनकर रावण ने उसे समुद्र में फिंकवा दिया। तब वह कन्या पृथ्वी पर पहुंचकर राजा जनक के हल जोते जाने पर उनकी पुत्री बनकर फिर प्रकट हुई। और वहीँ रावण के विनाश का कारण बनी|

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भगवान श्रीराम की एक बहन भी थी, जानिए कौन थी वो...?

अभी तक आप सिर्फ यही जानते आए हैं कि भगवान श्रीराम के तीन भाई लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न थे, लेकिन क्‍या आप जानते हैं, भगवान राम की एक बहन भी थी? इस सवाल को पढ़कर शायद आप चौंक गये होंगे, क्योंकि बचपन से जो रामचरित मानस आपने पढ़ी या टीवी पर रामायण देखा होगा लेकिन उसमें तो कहीं भी भगवान राम की बहन का जिक्र नहीं था| अगर दक्षिण की रामायण की मानें तो भगवान राम को मिलाकर चार भाई थे- राम, भरत, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न और एक बहन, जिनका नाम शान्ता था।

शान्ता चारों भाईयों से बड़ी थीं। दक्षिण में लिखी गई रामायण में ऐसा लिखा गया है कि राजा दशरथ और कौशल्या की पुत्री थीं, लेकिन पैदा होने के थोड़े ही दिन के बाद उन्हें अंगदेश के राजा रोमपद ने गोद ले लिया था। भगवान राम की बड़ी बहन का पालन-पोषण राजा रोमपद और उनकी पत्नी वर्षिणी ने किया, जो महारानी कौशल्या की बहन अर्थात राम की मौसी थीं। शांता के बारे में तीन कथाएं वर्णित हैं| पहली कथा के अनुसार, भगवान श्रीराम की मौसी यानी की कौशिल्या की बहन वर्षिणी नि:संतान थीं तथा एक बार अयोध्या में उन्होंने हंसी-हंसी में ही बच्चे की मांग की। दशरथ भी मान गए। रघुकुल का दिया गया वचन निभाने के लिए शांता अंगदेश की राजकुमारी बन गईं। शांता वेद, कला तथा शिल्प में पारंगत थीं और वे अत्यधिक सुंदर भी थीं।

वहीँ, दूसरी कथा के अनुसार, शांता जब पैदा हुई, तब अयोध्‍या में अकाल पड़ा और 12 वर्षों तक धरती धूल-धूल हो गई। चिंतित राजा को सलाह दी गई कि उनकी पुत्री शां‍ता ही अकाल का कारण है। राजा दशरथ ने अकाल दूर करने के लिए अपनी पुत्री शांता को वर्षिणी को दान कर दिया। उसके बाद शां‍ता कभी अयोध्‍या नहीं आई। कहते हैं कि दशरथ उसे अयोध्या बुलाने से डरते थे इसलिए कि कहीं फिर से अकाल नहीं पड़ जाए।


जानिए किसके साथ हुआ शांता का विवाह-

शांता का विवाह महर्षि विभाण्डक के पुत्र ऋंग ऋषि से हुआ। एक दिन जब विभाण्डक नदी में स्नान कर रहे थे, तब नदी में ही उनका वीर्यपात हो गया। उस जल को एक हिरणी ने पी लिया था जिसके फलस्वरूप ऋंग ऋषि का जन्म हुआ था। एक बार एक ब्राह्मण अपने क्षेत्र में फसल की पैदावार के लिए मदद करने के लिए राजा रोमपद के पास गया, तो राजा ने उसकी बात पर ध्‍यान नहीं दिया। अपने भक्‍त की बेइज्‍जती पर गुस्‍साए इंद्रदेव ने बारिश नहीं होने दी, जिस वजह से सूखा पड़ गया। तब राजा ने ऋंग ऋषि को यज्ञ करने के लिए बुलाया। यज्ञ के बाद भारी वर्षा हुई। जनता इतनी खुश हुई कि अंगदेश में जश्‍न का माहौल बन गया। तभी वर्षिणी और रोमपद ने अपनी गोद ली हुई बेटी शां‍ता का हाथ ऋंग ऋषि को देने का फैसला किया।

दक्षिण रामायण में कहा गया है कि राजा दशरथ और इनकी तीनों रानियां इस बात को लेकर चिंतित रहती थीं कि पुत्र नहीं होने पर उत्तराधिकारी कौन होगा। इनकी चिंता दूर करने के लिए ऋषि वशिष्ठ सलाह देते हैं कि आप अपने दामाद ऋंग ऋषि से पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाएं। इससे पुत्र की प्राप्ति होगी।

दशरथ ने उनके मंत्री सुमंत की सलाह पर पुत्रकामेष्ठि यज्ञ में महान ऋषियों को बुलाया। इस यज्ञ में दशरथ ने ऋंग ऋषि को भी बुलाया। ऋंग ऋषि एक पुण्य आत्मा थे तथा जहां वे पांव रखते थे वहां यश होता था। सुमंत ने ऋंग को मुख्य ऋत्विक बनने के लिए कहा। दशरथ ने आयोजन करने का आदेश दिया। पहले तो ऋंग ऋषि ने यज्ञ करने से इंकार किया लेकिन बाद में शांता के कहने पर ही ऋंग ऋषि राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ करने के लिए तैयार हुए थे।

दशरथ ने केवल ऋंग ऋषि को ही आमंत्रित किया लेकिन ऋंग ऋषि ने कहा कि मैं अकेला नहीं आ सकता। मेरी भार्या शांता को भी आना पड़ेगा। ऋंग ऋषि की यह बात जानकर राजा दशरथ विचार में पड़ गए, क्योंकि उनके मन में अभी तक दहशत थी कि कहीं शांता के अयोध्या में आने से फिर से अकाल नहीं पड़ जाए। तब पुत्र कामना में आतुर दशरथ ने संदेश भिजवाया कि शांता भी आ जाए। शांता तथा ऋंग ऋषि अयोध्या पहुंचे। शांता के पहुंचते ही अयोध्या में वर्षा होने लगी और फूल बरसने लगे। शांता ने दशरथ के चरण स्पर्श किए।

दशरथ ने आश्चर्यचकित होकर पूछा कि 'हे देवी, आप कौन हैं? आपके पांव रखते ही चारों ओर वसंत छा गया है।' जब माता-पिता (दशरथ और कौशल्या) विस्मित थे कि वो कौन है? तब शांता ने बताया कि 'वो उनकी पुत्री शांता है।' दशरथ और कौशल्या यह जानकर अधिक प्रसन्न हुए। वर्षों बाद दोनों ने अपनी बेटी को देखा था।

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करवा चौथ: अखंड सुहाग व पारस्परिक प्रेम का प्रतीक

करवा चौथ भारत में मुख्यतः उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और गुजरात में मनाया जाता है। कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाने वाला यह व्रत इस बार 11 अक्टूबर दिन शनिवार को मनाया जायेगा| करवा चौथ का पर्व सुहागिन स्त्रियाँ मनाती हैं| पति की दीर्घायु और अखंड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन चन्द्रमा की पूजा की जाती है| चंद्रमा के साथ- साथ भगवान शिव, पार्वती जी, श्रीगणेश और कार्तिकेय की पूजा की जाती है| करवाचौथ के दिन उपवास रखकर रात्रि समय चन्द्रमा को अर्ध्य देने के उपरांत ही भोजन करने का विधान है|

इस बार करवा चौथ पर बहुत से शुभ संयोग बन रहे हैं। करवा चौथ पर चंद्रोदय करीब सवा आठ बजे होगा। 11 अक्टूबर की सुबह 10.18 बजे पर चतुर्थी तिथि शुरू होगी और अगले दिन 12 अक्टूबर को सुबह 9.33 बजे तक रहेगी। इस दिन कृतिका नक्षत्र रहेगा। करवा चौथ का चंद्रमा वृष लग्न में उदय होगा। वृष लग्न स्थिर लग्न होने से इस समय की गई पूजा पति की आयु और सुख में वृद्धि करने वाली होती है। 

करवा चौथ पर वृषभ का चंद्रोदय हो रहा है, जो चंद्रमा की उच्च राशि है। जिसका स्वामी शुक्र है। शुक्र सौंदर्य एवं आभूषण का अधिपति ग्रह माना गया है, जो कि महिलाओं के जीवन में समृद्घि की वर्षा करेगा एवं शुभता लाएगा। चंद्रमा और शुक्र दोनों स्त्री कारक ग्रह हैं, इस पर्व पर शुक्र-चंद्र के दृष्टि संबंध से शुभ योग भी बनेगा। शुक्र-चंद्रमा का शुभ योग होने से इसका महत्व और भी बढ़ गया है।

करवा चौथ की व्रत विधि- 

कार्तिक माह की कृष्ण चन्द्रोदयव्यापिनी चतुर्थी के दिन किया जाने वाला करक चतुर्थी व्रत स्त्रियां अखंड़ सौभाग्य की कामना के लिए करती हैं| इस व्रत में शिव-पार्वती, गणेश और चन्द्रमा का पूजन किया जाता है| इस शुभ दिवस के उपलक्ष्य पर सुहागिन स्त्रियां पति की लंबी आयु की कामना के लिए निर्जला व्रत रखती हैं| पति-पत्नी के आत्मिक रिश्ते और अटूट बंधन का प्रतीक यह करवाचौथ या करक चतुर्थी व्रत संबंधों में नई ताज़गी एवं मिठास लाता है| करवा चौथ में सरगी का काफी महत्व है| सरगी सास की तरफ से अपनी बहू को दी जाने वाली आशीर्वाद रूपी अमूल्य भेंट होती है|

करवा चौथ व्रत की प्रक्रिया-

करवा चौथ में प्रयुक्त होने वाली संपूर्ण सामग्री को एकत्रित करें| व्रत के दिन प्रातः स्नानादि करने के पश्चात यह संकल्प बोलकर करवा चौथ व्रत का आरंभ करें- 'मम सुखसौभाग्य पुत्रपौत्रादि सुस्थिर श्री प्राप्तये करक चतुर्थी व्रतमहं करिष्ये। करवा चौथ का व्रत पूरे दिन बिना कुछ खाए पिए रहा जाता है| दीवार पर गेरू से फलक बनाकर पिसे चावलों के घोल से करवा चित्रित करें। इसे वर कहते हैं। चित्रित करने की कला को करवा धरना कहा जाता है। उसके बाद आठ पूरियों की अठावरी, हलुआ और पक्के पकवान बनाएं। उसके बाद पीली मिट्टी से गौरी बनाएं और उनकी गोद में गणेशजी बनाकर बिठाएं। ध्यान रहे गौरी को लकड़ी के आसन पर बिठाएं। चौक बनाकर आसन को उस पर रखें। गौरी को चुनरी ओढ़ाएं। बिंदी आदि सुहाग सामग्री से गौरी का श्रृंगार करें। उसके बाद जल से भरा हुआ लोटा रखें। वायना (भेंट) देने के लिए मिट्टी का टोंटीदार करवा लें। करवा में गेहूं और ढक्कन में शक्कर का बूरा भर दें। उसके ऊपर दक्षिणा रखें। रोली से करवा पर स्वस्तिक बनाएं। गौरी-गणेश और चित्रित करवा की परंपरानुसार पूजा करें। पति की दीर्घायु की कामना करें।

'नमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं संतति शुभाम्‌। प्रयच्छ भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे॥' करवा पर 13 बिंदी रखें और गेहूं या चावल के 13 दाने हाथ में लेकर करवा चौथ की कथा कहें या सुनें। कथा सुनने के बाद करवा पर हाथ घुमाकर अपनी सासूजी के पैर छूकर आशीर्वाद लें और करवा उन्हें दे दें। तेरह दाने गेहूं के और पानी का लोटा या टोंटीदार करवा अलग रख लें। रात्रि में चन्द्रमा निकलने के बाद छलनी की ओट से उसे देखें और चन्द्रमा को अर्घ्य दें।इसके बाद पति से आशीर्वाद लें। उन्हें भोजन कराएं और स्वयं भी भोजन कर लें। पूजन के पश्चात आस-पड़ोस की महिलाओं को करवा चौथ की बधाई देकर पर्व को संपन्न करें।

करवा चौथ की कथा- 

इस पर्व को लेकर कई कथाएं प्रचलित है, जिनमें एक बहन और सात बहनों की कथा बहुत प्रसिद्ध है| बहुत समय पहले की बात है, एक लडकी थी, उसके साथ भाई थें, उसकी शादी एक राजा से हो गई| शादी के बाद पहले करवा चौथ पर वो अपने मायके आ गई| उसने करवा चौथ का व्रत रखा, लेकिन पहला करवा चौथ होने की वजह से वो भूख और प्यास बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी| वह बडी बेसब्री से चांद निकलने की प्रतिक्षा कर रही थी| 

उसके सातों भाई उसकी यह हालत देख कर परेशान हो गयें, वे सभी अपने बहन से बेहद स्नेह करते थें| उन्होने अपनी बहन का व्रत समाप्त कराने की योजना बनाई| और पीपल के पत्तों के पीछे से आईने में नकली चांद की छाया दिखा दी| बहन ने इसे असली चांद समझ लिया और अपना व्रत समाप्त कर, भोजन खा लिया| बहन के व्रत समाप्त करते ही उसके पति की तबियत खराब होने लगी| 

अपने पति की तबियत खराब होने की खबर सुन कर, वह अपने पति के पास ससुराल गई और रास्ते में उसे भगवान शंकर पार्वती देवी के साथ मिलें| पार्वती देवी ने रानी को बताया कि उसके पति की मृ्त्यु हो चुकी है, क्योकि तुमने नकली चांद को देखकर व्रत समाप्त कर लिया था|

यह सुनकर बहन ने अपनी भाईयों की करनी के लिये क्षमा मांगी| माता पार्वती ने कहा" कि तुम्हारा पति फिर से जीवित हो जायेगा, लेकिन इसके लिये तुम्हें, करवा चौथ का व्रत पूरे विधि-विधान से करना होगा| इसके बाद माता पार्वती ने करवा चौथ के व्रत की पूरी विधि बताई| माता के कहे अनुसार बहन ने फिर से व्रत किया और अपने पति को वापस प्राप्त कर लिया|

धर्म ग्रंथों में एक महाभारत से संबंधित अन्य पौराणिक कथा का भी उल्लेख किया गया है| इसके अनुसार पांडव पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी पर्वत पर चले जाते हैं व दूसरी ओर पांडवों पर कई प्रकार के संकटों से आन पड़ते हैं| यह सब देख द्रौपदी चिंता में पड़ जाती है वह भगवान श्री श्रीकृष्ण से इन सभी समस्याओं से मुक्त होने का उपाय पूछती हैं| श्रीकृष्ण द्रौपदी से कहते हैं कि यदि वह कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन करवा चौथ का व्रत रहे तो उसे इन सभी संकटों से मुक्ति मिल सकती है| भगवान कृष्ण के कथन अनुसार द्रौपदी विधि विधान सहित करवा चौथ का व्रत रखती हैं जिससे उनके समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं|


पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार

जानिए अग्नि को देवता मानने का कारण

हिन्दू धर्म में अग्नि को देवता माना जाता है। अग्रि यानी आग को धार्मिक दृष्टि से पृथ्वी लोक में सूर्य का रूप माना गया है। जहां ऋग्वेद का पहला शब्द अग्रि बताया गया है। वहीं श्रीमद्भागवत में भी विराट पुरूष के मुंह से अग्रि के जन्म के बारे में लिखा गया है। 

अग्रि को पूर्व और दक्षिण दिशा का स्वामी माना गया है। व्यावहारिक नजरिए से मानव जीवन से जुड़े अनेक कार्य अग्रि की मौजूदगी के बिना शुभ नहीं माने जाते। शास्त्रों में इंसानी जि़दगी में अग्रि की अहमियत को ही बताते हुए अग्रि के अनेक रूप बताए गए हैं जैसे-
- जठराग्नि - यह प्राणियों के शरीर में मौजूद होती है। 
- बडावाग्नि - सागर में लगने वाली आग होती है। 
- दावाग्नि - जंगल लगने वाली आग
- विद्युत - मेघ या बादलों के बीच पैदा बिजली भी आग का ही रूप है। 
- आहावनीय- यज्ञ के दौरान मंत्र शक्ति से पैदा होती है। 
- गार्हस्थ्य- शादी के बाद कुल में प्रतिष्ठित होती है।
- दक्षिणाग्नि - यह मंडप के दक्षिण भाग में प्रतिष्ठित होती है।
- कृव्यादाग्नि - दाह संस्कार में पैदा होने वाली अग्रि

अग्रि के इन रूपों से अग्रि की उपयोगिता साबित होती है। अग्रि का स्वभाव ऊष्णा यानि गर्म होता है। इसमें दहन शक्ति यानि जलाने की ताकत होती है। शास्त्रों के मुताबिक अग्नि को देवता मानने का कारण यही है कि यह प्रकाशित करती यानि ज्ञान प्रदायिनी है। साथ ही यह पुष्टि, शक्ति, यश व अन्न देने वाली है।

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..तो इसलिए भगवान को चढ़ाते हैं प्रसाद

हिन्दू धर्म में देवी देवताओं को प्रसाद चढाने की परंपरा है| भगवान के भक्त भले ही विधि-विधान से उनकी पूजा भले ना करें परंतु अपने घर में भगवान को प्रसाद जरूर चढ़ाते है। क्या आपको पता है कि देवी देवताओं को प्रसाद क्यों चढ़ाते हैं..? 

दरअसल इसके पीछे कारण यह है कि श्रीमद् भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो कोई भक्त प्रेमपूर्वक मुझे फूल, फल, अन्न, जल आदि अर्पण करता है। उसे मैं सगुण प्रकट होकर ग्रहण करता हूं। भगवान की कृपा से जो जल और अन्न हमें प्राप्त होता है। उसे भगवान को अर्पित करना चाहिए और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए ही भगवान को भोग लगाया जाता है। 

मान्यता है कि भोग लगाने के बाद ग्रहण किया गया अन्न दिव्य अन्न हो जाता है क्योंकि उसमें तुलसी दल होता है। भगवान को प्रसाद चढ़े और तुलसी दल न हो तो भोग अधूरा ही माना जाता है। तुलसी को परंपरा से भोग में रखा जाता है। इसका एक कारण तुलसी दल का औषधीय गुण है। एकमात्र तुलसी में यह खूबी है कि इसका पत्ता रोगप्रतिरोधक होता है। यानि कि एंटीबायोटिक है। इस तरह तुलसी स्वास्थ्य देने वाली है। तुलसी का पौधा मलेरिया के कीटाणु नष्ट करता है। तुलसी के स्पर्श से भी रोग दूर होते हैं। 

तुलसी पर किए गए प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि रक्तचाप और पाचनतंत्र के नियमन में तथा मानसिक रोगों में यह लाभकारी है। इसलिए भगवान को भोग लगाने के साथ ही उसमें तुलसी डालकर प्रसाद ग्रहण करने से भोजन अमृत रूप में शरीर तक पहुंचता है|

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दशहरा पर नीलकंठ के दर्शन शुभ

नीलकंठ तुम नीले रहियो, दूध-भात का भोजन करियो, हमरी बात राम से कहियो', इस लोकोक्त‍ि के अनुसार नीलकंठ पक्षी को भगवान का प्रतिनिधि माना गया है। दशहरा पर्व पर इस पक्षी के दर्शन को शुभ और भाग्य को जगाने वाला माना जाता है। जिसके चलते दशहरे के दिन हर व्यक्ति इसी आस में छत पर जाकर आकाश को निहारता है कि उन्हें नीलकंठ पक्षी के दर्शन हो जाएँ। ताकि साल भर उनके यहाँ शुभ कार्य का सिलसिला चलता रहे।

ऐसा माना जाता है कि इस दिन नीलकंठ के दर्शन होने से घर के धन-धान्य में वृद्धि होती है, तथा फलदायी एवं शुभ कार्य घर में अनवरत्‌ होते रहते हैं| सुबह से लेकर शाम तक किसी वक्त नीलकंठ दिख जाए तो वह देखने वाले के लिए शुभ होता है|

भगवान शिव को भी नीलकंठ कहा गया है क्योकिं उन्होंने सर्वकल्याण के लिए विषपान किया था| इसीलिए शिव कल्याण के प्रतीक है| ठीक उसी तरह नीलकंठ पक्षी भी है| इस पक्षी का भी कंठ (गला) नीला होता है| कहते हैं कि दशहरे के दिन जो भी कुंवारी लडकी नीलकंठ के दर्शन करती है उसकी समस्त मनोकामनाएं पूरी होती है|

उत्तरभारत में बहलिए नीलकंठ को घर-घर में लाकर दिखाते हैं। आज भी देश के कई हिस्सों में दशहरे के दिन लोग सुबह से उठकर नीलकंठ के दर्शन करते हैं।

नीलकंठ को किसान का मित्र भी कहा गया है| वैज्ञानिकों के अनुसार यह भाग्य विधाता होने के साथ-साथ किसानों का मित्र भी है, क्योंकि सही मायने में नीलकंठ किसानों के भाग्य का रखवारा भी होता है, जो खेतों में कीड़ों को खाकर किसानों की फसलों की रखवारी करता है।

दशहरा: सत्य, धर्म और शक्ति का प्रतीक

नई दिल्ली| भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है वह है मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। भारतवर्ष वीरता और शौर्य की उपासना करता आया है | और शायद इसी को ध्यान में रखकर दशहरे का उत्सव रखा गया ताकि व्यक्ति और समाज में वीरता का प्राकट्य हो सके। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है| आपको बता दें कि दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुई है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और माँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण-पुतला का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती है| इस वर्ष विजयादशमी (दशहरा) पर्व 3 अक्टूबर को मनाया जायेगा|

विजयदशमी के दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है| प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे|इस दिन जगह- जगह मेले लगते हैं और रामलीला का आयोजन होता है इसके अलावा रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है| दशहरे का सांस्कृतिक पहलू भी है| भारत कृषि प्रधान देश है| जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग की कोई सीमा नहीं रहती| इस प्रसन्नता के अवसर पर वह भगवान की कृपा को मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है| पूरे भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है| महाराष्ट्र में इस अवसर पर सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव मनाया जाता है| इसमें शाम के समय सभी गांव वाले सुंदर-सुंदर नये वस्त्रों से सुसज्जित होकर गांव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के स्वर्ण रूपी पत्तों को लूटकर अपने ग्राम में वापस आते हैं| फिर उस स्वर्ण रूपी पत्तों का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है| इसके अलावा मैसूर का दशहरा देशभर में विख्‍यात है। मैसूर का दशहरा पर्व ऐतिहासिक, धार्मिक संस्कृति और आनंद का अद्भुत सामंजस्य रहा है| यहां विजयादशमी के अवसर पर शहर की रौनक देखते ही बनती है शहर को फूलों, दीपों एवं बल्बों से सुसज्जित किया जाता है सारा शहर रौशनी में नहाया होता है जिसकी शोभा देखने लायक होती है|

मैसूर दशहरा का आरंभ मैसूर में पहाड़ियों पर विराजने वाली देवी चामुंडेश्वरी के मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना के साथ शुरू होता हे विजयादशमी के त्यौहार में चामुंडी पहाड़ियों को सजाया जाता है| पारंपरिक उत्साह एवं धूमधाम के साथ दस दिनों तक मनाया जाने वाला यह उत्सव देवी दुर्गा चामुंडेश्वरी द्वारा महिषासुर के वध का प्रतीक होती है, यानी यह बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है| मैसूर के दशहरे का इतिहास मैसूर नगर के इतिहास से जुड़ा है जो मध्यकालीन दक्षिण भारत के अद्वितीय विजयनगर साम्राज्य के समय से शुरू होता है| इस पर्वो को वाडेयार राजवंश के लोकप्रिय शासक कृष्णराज वाडेयार ने दशहरे का नाम दिया| वर्तमान में इस उत्सव की लोकप्रियता देखकर कर्नाटक सरकार ने इसे राज्योत्सव का सम्मान प्रदान किया है| यहाँ इस दिन पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सज्जित किया जाता है और हाथियों का श्रृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य जुलूस निकाला जाता है।

इस समय प्रसिद्ध मैसूर महल को दीपमालिकाओं से दुल्हन की तरह सजाया जाता है। इसके साथ शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत की शोभा यात्रा का आनंद लेते हैं। द्रविड़ प्रदेशों में रावण-दहन का आयोजन नहीं किया जाता है।

बात करते हैं हिमाचल प्रदेश के कुल्लू के दशहरा की| हिमाचल प्रदेश के कुल्लू का दशहरा सबसे अलग पहचान रखता है। यहां का दशहरा एक दिन का नहीं बल्कि सात दिन का त्यौहार है। जब देश में लोग दशहरा मना चुके होते हैं तब कुल्लू का दशहरा शुरू होता है। यहां इस त्यौहार को दशमी कहते हैं। इसकी एक और खासियत यह है कि जहां सब जगह रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण का पुतला जलाया जाता है, कुल्लू में काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार के नाश के प्रतीक के तौर पर पांच जानवरों की बलि दी जाती है। कुल्लू के दशहरे का सीधा संबंध रामायण से नहीं जुड़ा है। बल्कि कहा जाता है कि इसकी कहानी एक राजा से जुड़ी है। यहां के दशहरे को लेकर एक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार एक साधु कि सलाह पर राजा जगत सिंह ने कुल्लू में भगवान रघुनाथ जी की प्रतिमा की स्थापना की उन्होंने अयोध्या से एक मूर्ति लाकर कुल्लू में रघुनाथ जी की स्थापना करवाई थी| कहते हैं कि राजा जगत सिंह किसी रोग से पीड़ित था अत: साधु ने उसे इस रोग से मुक्ति पाने के लिए रघुनाथ जी की स्थापना की तथा उस अयोध्या से लाई गई मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगा और उसने अपना संपूर्ण जीवन एवं राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया|

एक अन्य किंवदंती अनुसार जब राजा जगतसिंह, को पता चलता है कि मणिकर्ण के एक गाँव में एक ब्राह्मण के पास बहुत कीमती रत्न है तो राजा के मन में उस रत्न को पाने की इच्छा उत्पन्न होती है और व अपने सैनिकों को उस ब्राह्मण से वह रत्न लाने का आदेश देता है| सैनिक उस ब्राह्मण को अनेक प्रकार से सताते हैं अत: यातनाओं से मुक्ति पाने के लिए वह ब्राह्मण परिवार समेत आत्महत्या कर लेता है|

परंतु मरने से पहले वह राजा को श्राप देकर जाता है और इस श्राप के फलस्वरूप कुछ दिन बाद राजा का स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है| तब एक संत राजा को श्रापमुक्त होने के लिए रघुनाथजी की मूर्ति लगवाने को कहता है और रघुनाथ जी कि इस मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे ठीक होने लगता है| राजा ने स्वयं को भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया तभी से यहाँ दशहरा पूरी धूमधाम से मनाया जाने लगा|

कुल्लू के दशहरे में अश्विन महीने के पहले पंद्रह दिनों में राजा सभी देवी-देवताओं को धालपुर घाटी में रघुनाथ जी के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता देते हैं. सौ से ज़्यादा देवी-देवताओं को रंगबिरंगी सजी हुई पालकियों में बैठाया जाता है| इस उत्सव के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती है राजघराने के सब सदस्य देवी का आशीर्वाद लेने आते हैं| रथ यात्रा का आयोजन होता है| रथ में रघुनाथ जी की प्रतिमा तथा सीता व हिडिंबा जी की प्रतिमाओं को रखा जाता है, रथ को एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है जहाँ यह रथ छह दिन तक ठहरता है| उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे आ कर मिलते हैं जिसे 'मोहल्ला' कहते हैं, रघुनाथ जी के इस पड़ाव सारी रात लोगों का नाचगाना चलता है सातवे दिन रथ को बियास नदी के किनारे ले जाया जाता है जहाँ लंकादहन का आयोजन होता है तथा कुछ जानवरों की बलि दी जाती है|

यहाँ नहीं जलता रावण का पुतला -

दशहरे के अवसर पर देशभर में रावण का पुतला जलाया जाता है, लेकिन हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के प्राचीन धार्मिक कस्बा बैजनाथ में दशहरा के दिन रावण का पुतला नहीं जलाया जाता है। स्थानीय लोगों का विश्वास है कि ऐसा करना दुर्भाग्य और भगवान शिव के कोप को आमंत्रित करना है। यहाँ लोगों का मानना है कि इस स्थान पर रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए वर्षो तपस्या की थी। इसलिए यहां उसका पुतला जलाकर उत्सव मनाने का अर्थ है शिव का कोपभंजन बनना।

13वीं शताब्दी में निर्मित बैजनाथ मंदिर के एक पुजारी ने कहा कि भगवान शिव के प्रति रावण की भक्ति से यहां के लोग इतने अभिभूत हैं कि वे रावण का पुतला जलाना नहीं चाहते।

आज भी विरासत के दर्जे के लिए तरस रही भगवान कृष्ण की यह नगरी

अपनी अनूठी समृद्ध परंपरा और भौतिक संपदा के संरक्षण के लिए भगवान कृष्ण की यह नगरी आज भी विरासत के दर्जे के लिए तरस रही है। दुनिया का सबसे लंबा निर्माणाधीन कृष्ण मंदिर, अनगिनत धार्मिक मंदिर, जंगल और ऐतिहासिक पवित्र तलाब देखने हर वर्ष यहां लाखों लोग आते हैं। गैर सरकारी संस्था ब्रज फाउंडेशन के रजनीश कपूर ने कहा, “ब्रज मंडल स्थित सैकड़ों पवित्र तालाब और वृक्ष कृष्ण और राधा की अठखेलियों के गवाह हैं। दुनियाभर में मौजूद करोड़ों भक्त इन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं तथा इसकी पूजा करते हैं। विरासत का दर्जा देकर इनके अस्तित्व को बचाने की जरूरत है।”

सामाजिक कार्यकर्ता राकेश हरिप्रिय ने कहा, “कई पुस्तकों में वृंदावन की चर्चा ब्रज के केंद्र के रूप में की गई है। 117 किलोमीटर के क्षेत्र में फैले वृंदावन में मौजूद अधिकांश गांवों, जलाशयों और स्थलों के जीवंत परंपराओं की चर्चा स्थानीय लोकगीतों में की गई है, जो श्रीमद् भागवत से जुड़ी है।” हर वर्ष लाखों की संख्या में दुनिया भर के वैष्णव वृंदावन आते हैं और कृष्ण तथा राधा से जुड़े मंदिरों की परिक्रमा करते हैं।

मथुरा-वृंदावन-गोवर्धन सर्किट में हर वर्ष दर्जनों मेलों और उत्सवों का आयोजन होता है, जिसमें लाखों तीर्थयात्री आते हैं। अनुमान के मुताबिक, इनकी संख्या आठ लाख से 80 लाख के बीच है। गोपी वल्लभ नामक पंडा ने कहा, “हर महीने लाखों की संख्या में तीर्थयात्री गोवर्धन परिक्रमा करते हैं।” एनजीओ फ्रेंड्स ऑफ वृंदावन के संयोजक जगन नाथ पोद्दार ने कहा, “वृंदावन में सालाना 80 लाख तीर्थयात्री आते हैं, जो ब्रज की भक्ति विरासत का जीवंत प्रदर्शन है। ये तीर्थयात्री गोवर्धन पर्वत की 21 किलोमीटर लंबी परिक्रमा सहित कई तरह की अनूठी और दिल को छू जाने वाली गतिविधियां करते हैं।”

ब्रज विधान हेरिटेज अलायंस (वीव्हीएचए) के संयोजक मधुमंगल शुक्ला ने कहा, “कला-संस्कृति में भी इस क्षेत्र का विशेष दखल है। इस इलाके में हवेली संगीत, समाज गायन, रास लीला संगीत की प्रमुखता है, जबकि चाराकूला नृत्य यहां बेहद प्रचलित है। साहित्य की बात करें, तो ब्रजभाषा में हिंदी साहित्य को महान कवियों रसखान और सूरदास ने समृद्ध किया है।” भारत के सभी दार्शनिक स्कूलों के आश्रम वृंदावन में हैं, जो इसे भारत में मौजूद किसी अन्य तीर्थस्थल की तुलना में हिंदू दर्शन का प्रमुख केंद्र बनाता है।

वृंदावन और ग्रेटर ब्रज में प्रेम से प्रेरित कई वास्तुशिल्प मौजूद हैं। वृंदावन और ब्रज राजकीय संरक्षण का भव्य इतिहास समेटे हुए है। महामंत्र या गोविंदा के रूप में कृष्ण का नाम दुनिया का सबसे ज्यादा रिकॉर्डेड और सबसे ज्यादा बार सुना गया संगीत है। पोद्दार ने कहा, “उम्मीद है मथुरा की सांसद हेमा मालिनी इस मुद्दे पर ध्यान देंगी और जल्द ही बदलाव देखने को मिलेंगे। ब्रज इलाके के विकास के लिए राज्य सरकार पहले ही अलग से एक समिति का गठन कर चुकी है।”

पोद्दार ने यह भी कहा कि इस दिशा में हालांकि किसी भी स्तर पर प्रयास नहीं हुआ है जबकि वृंदावन की जो समृद्ध विरासत है, उसे देखते हुए ऐसा बहुत पहले किया जाना चाहिए था। पोद्दार ने कहा, “वृंदावन के गांव उजड़ रहे हैं। यहां की संस्कृति भूमि माफियाओं के हाथों मर रही है। स्थानीय लोगों तक को इसकी चिंता नहीं क्योंकि वे धन की लालच में अपनी जमीन बेच देते हैं और बिल्डर इस पर फ्लैट्स बना देते हैं। इसके बाद ब्लैक मनी को व्हाइट में बदलने वाले उन्हें खरीद लेते हैं लेकिन यहां रहने कोई नहीं आता। यह बंद होना चाहिए। यह यहां की सांस्कृति विरासत पर हमला है।”

पोद्दार यह भी कहते हैं कि सांसद हेमा मालिनी का विधवाओं को लेकर दिया गया बयान सर्वादा उचित है क्योंकि यह सच को प्रदर्शित करता है। बकौल पोद्दार, “वृंदावन विधवाओं और उपेक्षित महिलाओं के लिए शरणगाह हो सकता है लेकिन यह वैश्यावृति का केंद्र नहीं हो सकता। यहां भजन-कीर्तन के लिए आना गलत नहीं लेकिन उसकी आड़ में यहां आकर कुछ और करना या करवाना गलत है।”

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बिग बॉस 8 : दिलचस्प यात्रियों के साथ बिग बॉस 008 का सफर शुरू


लगभग नौ महीनों के लम्बे इंतज़ार के बाद टीवी के सबसे चर्चित रियलिटी शो बिग बॉस सीजन 8 को एक बार फिर दर्शकों के सामने लेकर आ चुकें इस शो के पायलट सलमान खान| कल रात शो अपने पायलट सलमान खान के साथ अपने 104 दिन के सफर पर निकल चुका है| सलमान अपनी सुपरहिट फिल्म 'किक' के गाने 'हैंगओवर' और 'जुम्मे की रात' पर डांस करते हुए मंच पर आए उनके साथ खूबसूरत और ग्लैमरस एयर होस्टेज भी साथ थीं| उनके इस प्रीमियर परफॉर्मेंस को रेमो डिसूजा ने कोरियोग्राफ किया था|



इस बार बिग बॉस का थीम 'एयरोप्लेन' रखा गया है| इसलिए शो की ओपनिंग में होस्ट और पायलट सलमान खान ने वेलकम इंट्रो नहीं पायलट की तरह अनाउंसमेंट की| बिग बॉस-8 के प्रीमियर में पिछले सीजन की कंटस्टेंट और सलमान की चहेती एली अवराम भी मंच पर मौजूद थीं| प्रीमियर के दौरान सल्लू ने बड़ी गर्मजोशी से एली का स्वागत किया और प्यार से गले लगाया| एली अपनी फिल्म मिकी वायरस के डायलॉग के साथ एंट्री करती नजर आईं| सलमान ने एली के साथ खूब मस्ती की| अरमान कोहली भी मंच पर नजर आये|

बिग बॉस-8 में प्रतिभागी किसी मकान में नहीं बल्कि एक विमान में रहेंगे| यानी सभी प्रतिभागी या फिर यूं कह लें के सभी 'यात्री' विमाननुमा सेट में नजर आएंगे| बिग बॉस-8 में 12 कंटस्टेंटस है| इसके अलावा तीन सदस्यों की एक 'सीक्रेट सोसायटी' है जो घरवालों पर हुकूमत करेगी| सबसे खास बात उन्हें नॉमिनेट नहीं किया जा सकता| बिग बॉस का सीजन तो हमेशा ही सुर्ख़ियों में रहता है लेकिन इससे ज्यादा उसके प्रतिभागी चर्चा में रहते हैं| आइये डालतें हैं एक नजर बिग बॉस 008 की फ्लाइट पकड़ने वाले नए यात्रियों के बारे में|

मिनिषा लांबा
अभिनेत्री मिनिषा लांबा ने वर्ष 2005 में फिल्म 'यहां' से बॉलीवुड में करियर की शुरुआत की| 'बचना ए हसीनों', 'कॉरपोरेट', 'वेल डन अब्बा' और 'जिला गाजियाबाद' समेत कई फिल्मों में नजर आ चुकी हैं| पंजाबी और कन्नड़ फिल्मों में भी किस्मत आजमाने वाली मिनिषा अब 'बिग बॉस' के प्लेन से 3 महीने के सफर पर निकल चुकीं हैं अब देखना है कि उनका ये सफर कहाँ तक पहुँचता है



आर्य बब्बर

राज बब्बर और नादिरा बब्बर के बेटे आर्य बब्बर भी इस फ्लाइट का हिस्सा बने हैं| वर्ष 2002 में फिल्म 'अब के बरस' से हिंदी सिनेमा में करियर की शुरुआत की लेकिन हिंदी फिल्मों अपनी जगह बनाने में कामयाब नहीं रहे| पंजाबी फिल्मों में भी साख बनाने की कोशि‍श कर रहें हैं| खुद को दिल और तौर-तरीकों से पूरी तरह पंजाबी बताते हैं| सलमान ने उनसे पूछा कि वो बिग बॉस में सबसे ज्यादा क्या मिस करने वालें हैं तब आर्य ने साफ शब्दों में उनका जवाब था सेक्स और पिज्जा |



नताशा 
साल 2012 में नतासा सर्बिया से भारत आईं नताशा ने कुछ टेलीविजन विज्ञापनों में भी काम किया है। इतना ही नहीं कुछ ही महीनों पहले वह एक विज्ञापन में वह रणवीर सिंह के साथ भी नजर आई थीं। नताशा प्रकाश झा की फिल्म 'सत्याग्रह' के आइटम नंबर 'आइयो जी हमरी अटरिया में' भी नजर आई थीं। सलमान ने तो नताशा की तुलना एली से कर दी|



सोनाली राउत
वर्ष 2010 में किंगफिशर कैलेंडर का हिस्सा बनने के कारण चर्चा में आईं सोनाली ने 2014 में मैक्सि‍म मैगजीन के लिए भी मॉडलिंग की| उसके बाद रणवीर सिंह के साथ एक एड फिल्म में नजर आ चुकी हैं| हिमेश रेशमिया की फिल्म 'एक्सपोज' से बॉलीवुड में एंट्री भी ले चुकीं हैं|



सुशांत दिवगीकर
मिस्टर गे 2014' सुशांत दिवगीकर बिग बॉस सीजन 8 के खास मेहमान हैं|



उपेन पटेल
ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय मूल के सुपरमॉडल| उपेन वर्ष 2006 में आई '36 चाइना टाउन' से फिल्मी करियर की शुरुआत की थी | जब प्रेम की गजब कहानी में वो कैटरीना कैफ के साथ नजर आये थे| वर्ष 2014 में वो आखरी बार रन भोला रन में नजर आये थे|



डायांड्रा सोरेस
मॉडल, एंकर, फैशन डिजाइनर और एक्ट‍िंग करियर में दिलचस्पी रखने वाली डायांड्रा रैम्प पर अपने बॉल्ड लुक के लिए याद रखी जाती हैं| मधुर भंडारकर की फिल्म 'फैशन' में नजर आ चुकी हैं|



करिश्मा तन्ना
टीवी शो 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' में इंदिरा के किरदार से फेसम हुईं करिश्मा ने 'कुसुम', 'एक लड़की अनजानी सी', 'कोई दिल में है' जैसे शो के जरिए टीवी की दुनिया में खास पहचान बनायी| उसके बाद उन्होंने बड़े परदे का रुख किया 2005 में फिल्म 'दोस्ती' से बड़े पर्दे पर एंट्री की| 2013 में 'ग्रैंड मस्ती' में नजर आई थी|



सोनी सिंह
छोटे पर्दे की जानीमानी 'वैम्प' सोनी सिंह भी इस फ्लाइट में स्वर हो चुकीं हैं| टीवी शो 'बनूं मैं तेरी दुल्हन' से करियर की शुरुआत करने वाली सोनी को 'सरस्वतीचंद्र' में कलिका के नेगेटिव रोल के लिए जाना जाता है|



प्रणीत भट्ट
'महाभारत' में शकुनी मामा के किरदार निभाने वाले परवीन भट्ट भी सफर पर हैं| खुद को सलमान खान का फैन बताते हैं|



सुकीर्ति कांडपाल
'दिल मिल गए' में डॉ. रिधि‍मा बन कर दिलों में छाने वाली सुकीर्ति इसके अलावा 'प्यार की एक कहानी', 'जर्सी नंबर-10', 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' जैसे कई चर्चि‍त शो का हिस्सा रह चुकी हैं|



गौतम गुलाटी
'दीया और बाती हम' में विक्रम राठी का किरदार निभाने वाले विक्रम ने भी उड़ान भर ली है| इसके अलावा विक्रम 'क्रेजी स्टूपिड इश्क' और 'प्यार की एक कहानी' में भी नजर आ चुके हैं| इनका सफर तो शुरू हो चुका है अब देखतें है किसका सफर मुकाम तक पहुँचता है और किसका अधूरा रहता है|



जानिए भगवान को क्यों चढ़ाते हैं अक्षत

घर हो या मंदिर आपने देखा होगा कि पूजा करते वक्त लोग भगवान को चावल यानि की अक्षत चढ़ाते हैं| क्या कभी आपने सोचा है कि आखिर क्या वजह है जो लोग भगवान को अक्षत अर्पित करते हैं?

शास्त्रों और पुराणों में बताया गया है कि अन्न और हवन यह दो साधन है जिनसे ईश्वर संतुष्ट होते हैं। मानव की तरह अन्न से देवता और पितर भी तृप्त होते हैं। इनकी तृप्ति से ही घर में खुशहाली और अन्न धन की वृद्धि होती है। इसलिए भगवान को अक्षत के रुप में अन्न अर्पित किया जाता है।

इसके अलावा शास्त्रों में बताया गया है कि भगवान को वही चावल अर्पित करना चाहिए जो खंडित नहीं हो यानी अक्षत हो ताकि हम भगवान को यह बताएं कि हमारी भक्ति और आस्था में कहीं भी कोई खोट और कमी नहीं है और आप हमारी भक्ति को इसी रुप में स्वीकार करें।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि जो मुझे अर्पित किए बिना अन्न और धन का भोग करता है उसे चोर मानना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों को परलोक में चोरी के अपराध के लिए दंडित किया जाता है। इसलिए अक्षत के रुप में चावल अर्पित करके भगवान से यह प्रार्थना की जाती है कि हम जो भी अन्न धन कमाते हैं या हमारे पास जो कुछ भी है वह आपको अर्पित है। ऐसा करके हम चोरी के अपराध से मुक्त हो जाते हैं।

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वह चीखती चिल्लाती रही, प्रेत भगाने के नाम पर लुक्का बाबा उसके सिर के बाल पकड़कर पीटता रहा

बाराबंकी| उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले में एक ढोंगी बाबा ने प्रेत बाधा के नाम पर एक महिला को अमानवीय तरीके से पीटना शुरू कर दिया| महिला चीखती चिल्लाती बचाने की गुहार करती रही लेकिन बाबा उसके सिर के बाल पकड़कर पीट-पीट कर प्रेत को भगाने का दावा करता रहा|अन्त में कथित ओझा ने उस महिला के बाल उखाड़ना शुरू कर दिया| बाबा की पिटाई व बाल उखाड़ने की असहनीय पीड़ा से महिला बेहोश हो गई। बाद में ग्रामीणों के विरोध पर छुड़ाकर उसे हास्पिटल लाया गया। जहां पर उसकी गम्भीर हालत को देखते हुए ट्रॉमा सेन्टर रेफर कर दिया गया।

प्राप्त जानकारी के अनुसार , रामसनेहीघाट के इटहुआ निवासी राजेन्द्र प्रसाद रावत के पिता मनीराम की मौत एक पखवाडा पूर्व हो जाने के बाद घर में गमी के माहौल के चलते राजेन्द्र की 28 वर्षीय पत्नी कमला देवी बीमार हो गई, कई दिनों तक इलाज कराने के बावजूद कोई फायदा न होने पर कुछ लोगों ने राजेन्द्र को गांव के बाहर काशीदास की समाधि पर रहकर कथित ओझाई करने वाले लुक्का बाबा उर्फ मनोज कुमार को दिखाने की सलाह दी। 

राजेन्द्र गुरुवार की शाम अपनी पत्नी कमलादेवी को लेकर समाधि स्थल पर पहुंचा जहां पर कथित लुक्का बाबा ने शाम को करीब 7 बजे पहले धूप बत्ती सुलगा कर पूजा पाठ शुरू किया उसके बाद उसने प्रेत भगाने के नाम पर उसकी पत्नी को अमानवीय तरीके से पीटना शुरू कर दिया महिला चीखती चिल्लाती बचाने की गुहार करती रही परन्तु बाबा उसके सिर के बाल पकड़कर पीट पीट कर प्रेत को भगाने का दावा करता रहा अन्त में कथित ओझा ने कमला के बाल उखाड़ना शुरू कर दिया बाबा की पिटाई व बाल उखाड़ने की असहनीय पीड़ा से महिला बेहोश हो गई। महिला के बेहोश होने के बाद कुछ ग्रामीणों ने बाबा की हरकतों का विरोध किया और उसे छुड़ाकर एक नर्सिंग होम ले गए| जहां पर उसकी गम्भीर हालत को देखते हुए ट्रॉमा सेन्टर रेफर कर दिया गया।

गुणों की खान हैं अश्वगंधा, सफेद मूसली, शतावरी, गोखरू आदि

आपने एक कहावत सुनी होगी 'जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन'| यह बात आज वैज्ञानिकों ने भी मान ली| मनुष्य के जीवनकाल में सेक्स का अह्म स्थान होता है। खुशहाल दांपत्य जीवन के लिए अच्छी सेक्सुअल लाइफ का होना भी जरूरी है। यौन सुख के लिए लोग न जाने कितने जतन करते हैं, तरह-तरह की दवाइयां, वनस्पतियां उपयोग में लाते हैं| करें भी क्यों न क्योंकि पुरुषों और महिलाओं के लिए ताकत और ऊर्जा देने वाले उत्पादों की बाज़ार में होड़ सी जो लगी है। इसके चलते कई महत्वपूर्ण औषधीय पौधों जैसे अश्वगंधा, सफेद मूसली, शतावरी, गोखरू, आदि पर तो जैसे ‘सेक्स मेडिसिन’ का ठप्पा लगा है। तथाकथित सेक्स मेडिसिन्स के नाम पर बेची जानी वाली इन जड़ी बूटियों के अन्य महत्वपूर्ण गुण भी हैं जिन्हें दरकिनार कर दिया जाता है| 

सबसे पहले बात करते हैं शतावरी| इसकी जड़ें उंगलियों की तरह दिखाई देती हैं जिनकी संख्या लगभग सौ या सौ से अधिक होती है और इसी वजह से इसे शतावरी कहा जाता है। यह एक बेल है, जिसकी जड़ों मे सेपोनिन्स और डायोसजेनिन जैसे महत्वपूर्ण रसायन पाए जाते हैं। इसके पत्ते भी काम गुणकारी नहीं है| पत्तों का रस (लगभग दो चम्मच) दूध में मिलाकर दिन में दो बार लिया जाए तो यह शक्तिवर्धक होता है। यदि पेशाब के साथ खून आने की शिकायत हो तो शतावरी का सेवन लाभकारी होता है। प्रसूता माता को यदि दूध नहीं आ रहा हो या कम आता हो तो शतावरी की जड़ों के चूर्ण का सेवन दिन में कम से कम चार बार अवश्य करना चाहिए। जानकारों का मानना है कि शतावरी की जड़ों के चूर्ण का सेवन बगैर शक्करयुक्त दूध के साथ लगातार किया जाए तो मधुमेह के रोगियों को काफी फायदा होता है। 

इसके बाद बात करते हैं सफ़ेद मूसली की| इसे बतौर सेक्स मेडिसिन बहुत प्रचारित किया गया लेकिन इसके अन्य औषधीय गुणों पर कम ही चर्चा होती है। यदि जानकारों की माने तो यदि आपको पेशाब में जलन की शिकायत रहती है तो सफेद मूसली की जड़ों के चूर्ण के साथ इलायची मिलाकर दूध में उबालते हैं और पेशाब में जलन की शिकायत होने पर रोगियों को दिन में दो बार पीने की सलाह देते हैं। इन्द्रायण की सूखी जड़ का चूर्ण और सफेद मूसली की जड़ों के चूर्ण की समान मात्रा (1-1 ग्राम) लेकर इसे एक गिलास पानी में डालकर खूब मिलाया जाए और मरीज को प्रतिदिन सुबह दिया जाए। ऐसा सात दिनों तक लगातार करने से पथरी गलकर बाहर आ जाती है। अक्सर बदन दर्द की शिकायत करने वाले लोगों को प्रतिदिन इसकी जड़ों का सेवन करना चाहिए, फायदा होता है। तो आपने देखा कितने काम की चीज है सफ़ेद मूसली| 

अब बात करते हैं अश्वगंधा की| औषधि के रूप में मुख्यत: अश्वगंधा की जड़ों का प्रयोग किया जाता है। प्रतिदिन अश्वगंधा के चूर्ण की एक-एक ग्राम मात्रा तीन बार लेने पर शरीर में हीमोग्लोबिन, लाल रक्त कणों की संख्या में काफी इजाफा होता है और बालों का कालापन भी बढ़ता है। अश्वगंधा के प्रत्येक 100 ग्राम में 789.4 मिलीग्राम लोहा पाया जाता है। लोहे के साथ ही इसमें पाए जाने वाले मुक्त अमीनो अम्ल इसे एक अच्छा हिमोटिनिक (रक्त में लोहा बढ़ाने वाला) टॉनिक बनाते हैं। कफ तथा वात संबंधी दोषों को दूर करने की शक्ति भी इसमें होती है। थायराइड या अन्य ग्रंथियों की वृद्धि में इसके पत्तों का लेप करने से फायदा होता है। यह नींद लाने में भी सहायक होता है। इसके अलावा सड़कों व नहरों के किनारे पाये जाने वाले गोखरू के पौधे को तो देखा ही होगा आपने| यह भी गुणों का खान है| गोखरू के पौधे को पीसकर सूजन वाले स्थान पर लगाने से सूजन दूर होती है और प्रतिदिन दो बार इसके आधे कप काढ़े के सेवन से भूख मर जाती है। इससे मोटापा भी कम होता है। दमा के रोगियों को गोखरू के फल और अंजीर के फल समान मात्रा में लेना चाहिए और दिन में तीन बार लगभग पांच ग्राम मात्रा का सेवन करना चाहिए, दमा ठीक हो जाता है। तो देखा आपने कितने काम की हैं यह वनस्पतियां|

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..यहाँ स्त्री रूप में पूजे जाते हैं शुभ-लाभ के स्वामी भगवान गणेश!

अभी तक आपने भगवान भोलेनाथ को ही सुना था कि उनकी माँ दुर्गा की रूप में पूजा की जाती है| आज आपको उनके बेटे भगवान श्रीगणेश के बारे में बताने जा रहे हैं| एक ऐसा स्थान जहाँ भगवान गणेश की स्त्री के रूप में पूजा की जाती है| हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक प्रथम पूज्य देवता श्री गणेश बुद्धि, श्री यानी सुख-समृद्धि और विद्या के दाता हैं। उनकी उपासना और स्वरूप मंगलकारी माने गए हैं। गणेश के इस नाम का शाब्दिक अर्थ– भयानक या भयंकर होता है। क्योंकि गणेश की शारीरिक रचना में मुख हाथी का तो धड़ पुरुष का है। सांसारिक दृष्टि से यह विकट स्वरूप ही माना जाता है। किंतु इसमें धर्म और व्यावहारिक जीवन से जुड़े गुढ़ संदेश है। 

रिद्धि-सिद्धि के दाता और शुभ-लाभ के स्वामी भगवान गणेश के अनेकों नामों में से उनका एक नाम विनायकी भी है अर्थात गणेश-लक्षणों युक्त स्त्री। धर्म शास्त्रों में गणपति को स्त्री रूप में पूजते हुए उन्हें विनायकी, गजानना, विद्येश्वरी और गणेशिनी भी कहा गया है। ये सभी नाम गणेश जी के संबंधित नामों के स्त्रीलिंग रूप हैं। हथिनी का सिर वाली स्त्री की कई प्रतिमाएं भी मिली हैं, जिनमें गणेश की तरह लंबोदर, फरसा, मोदक, अभय मुद्रा, मूषक जैसे लक्षण भी हैं। हालांकि यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि ये स्त्री गणेश ही हैं। दरअसल, हिन्दू धर्म की तंत्र शाखा में एक योगिनी हथिनी के सिर वाली है। जबलपुर के समीप चौसठ योगिनी मंदिर और उड़ीसा के हीरापुर स्थित योगिनी मंदिर में ऐसी प्रतिमाएं देखी जा सकती हैं।

विदिशा के समीप विनायक और विनायकी के दोनों रूप एक साथ विराजित हैं। कोलकाता के संग्रहालय में वृषभमुखी अष्टभुजी दुर्गा के समीप चतुर्भुजी विनायकी की छोटी-सी प्रतिमा है। मान्यता है कि यह प्रतिमा सतना से प्राप्त हुई थी। इसके अतिरिक्त विंध्य, तमिलनाड़ु के चिदंबरम, मदुरै और सुचिंद्रम, उड़ीसा के रानीपुर झरियाल, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार और असम में भी ऐसी प्रतिमाएं प्राप्त होती रही हैं।

भक्तों का मानना है कि भगवान गणेश के लक्षणों से युक्त स्त्री माता पार्वती की दासी मालिनी हो सकती है, जिन्होंने एक कम प्रचलित कथा के अनुसार गणेश को गर्भ में रखा था। कहीं उन्हें शिव के एक रूप ईशान की पुत्री भी कहा गया है। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, अंधकासुर के वध के लिए देवियों ने अपनी-अपनी शक्तियों का एक सम्मिलित रूप तैयार किया था। मतस्य पुराण और विष्णु धर्मत्तोर पुराण गणपित की शक्ति को योद्धा देवियों के साथ ही सूची बद्ध करते हैं। इसी शक्ति का नाम विनायकी और गणेश्वरी है। स्त्री गणेश को सप्तमातृका में से एक माना जाता है, जबिक कहीं-कहीं उन्हें नव मातृका भी कहा गया है।

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भगवान विश्वकर्मा की पूजा से होती है धन-धान्य की प्राप्ति

शिल्प और यंत्रों के देवता भगवान विश्वकर्मा की जयंती (17 सितंबर) देश के कई हिस्सों में धूमधाम से मनाई जाती है। इस दिन औद्योगिक क्षेत्रों, फैक्ट्रियों, लोहे, मशीनों तथा औजारों से संबंधित कार्य करने वाले, वाहन शोरूम आदि में विश्वकर्मा की पूजा की जाती है। इस अवसर पर मशीनों और औजारों की साफ-सफाई आदि की जाती है और उन पर रंग किया जाता है।

भगवान विश्वकर्मा की जयंती वर्षाऋतु के अंत और शरदऋतु के शुरू में मनाए जाने की परंपरा रही है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, इसी दिन सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करते हैं। चूंकि सूर्य की गति अंग्रेजी तारीख से संबंधित है, इसलिए कन्या संक्रांति भी प्रतिवर्ष 17 सितंंबर को पड़ती है। जैसे मकर संक्रांति अमूमन 14 जनवरी को ही पड़ती है। ठीक उसी प्रकार कन्या संक्रांति भी प्राय: 17 सितंबर को ही पड़ती है। इसलिए विश्वकर्मा जयंती भी 17 सितंबर को ही मनाई जाती है।

कहा जाता है कि प्राचीन काल में जितनी राजधानियां थीं, प्राय: सभी विश्वकर्मा की ही बनाई कही जाती हैं। यहां तक कि सतयुग का ‘स्वर्ग लोक’, त्रेता युग की ‘लंका’, द्वापर की ‘द्वारिका’ और कलयुग का ‘हस्तिनापुर’ आदि विश्वकर्मा रचित ही थे। ‘सुदामापुरी’ की तत्क्षण रचना के बारे में भी यह कहा जाता है कि उसके निर्माता भी विश्वकर्मा थे। इससे यह आशय लगाया जाता है कि धन-धान्य और सुख-समृद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को बाबा विश्वकर्मा की पूजा करना आवश्यक और मंगलदायी है। विश्वकर्मा को देवताओं के शिल्पी के रूप में विशिष्ट स्थान प्राप्त है।

भगवान विश्वकर्मा की महत्ता को सिद्ध करने वाली एक कथा भी है। कथा के अनुसार, काशी में धार्मिक आचरण रखने वाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था। वह अपने कार्य में निपुण तो था, परंतु स्थान-स्थान पर घूमने और प्रयत्न करने पर भी वह भोजन से अधिक धन प्राप्त नहीं कर पाता था। उसके जीविकोपार्जन का साधन निश्चित नहीं था। पति के समान ही पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी।

पुत्र प्राप्ति के लिए दोनों साधु-संतों के यहां जाते थे, लेकिन यह इच्छा पूरी न हो सकी। तब एक पड़ोसी ब्राह्मण ने रथकार की पत्नी से कहा, ‘तुम भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाओ, तुम्हारी अवश्य ही इच्छा पूरी होगी और अमावस्या तिथि को व्रत कर भगवान विश्वकर्मा महात्म्य सुनो।’ इसके बाद रथकार एवं उसकी पत्नी ने अमावस्या को भगवान विश्वकर्मा की पूजा की, जिससे उसे धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे। तभी से विश्वकर्मा की पूजा धूमधाम से की जाने लगी।

पितृपक्ष पर विशेष: पिंडदान से पितरों की मुक्ति

पुत्र का कर्तव्य तभी सार्थक माना जाता है, जब वह अपने जीवनकाल में माता-पिता की सेवा करे और उनके मरणोपरांत उनकी मृत्युतिथि (बरसी) तथा महालया (पितृपक्ष) में विधिवत श्राद्ध करे| इस वर्ष श्राद्ध का पखवाड़ा (पितृपक्ष) नौ सितंबर से प्रारंभ हो रहा है| श्राद्ध की मूल कल्पना वैदिक दर्शन के कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद पर आधारित है| कहा गया है कि आत्मा अमर है, जिसका नाश नहीं होता| श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओं, पितरों और वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है|

मान्यता है कि जो लोग अपना शरीर छोड़ जाते हैं, वे किसी भी लोक में या किसी भी रूप में हों, श्राद्ध पखवाड़े में पृथ्वी पर आते हैं और श्राद्ध व तर्पण से तृप्त होते हैं| हिंदू मान्यताओं के अनुसार, पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है| यों तो देश के कई स्थानों में पिंडदान किया जाता है, परंतु बिहार के फल्गु तट पर बसे गया में पिंडदान का बहुत महत्व है| कहा जाता है कि भगवान राम और देवी सीता ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था|

महाभारत में लिखा है कि फल्गु तीर्थ में स्नान करके जो मनुष्य श्राद्धपक्ष में भगवान गदाधर (भगवान विष्णु) के दर्शन करता है, वह पितरों के ऋण से विमुक्त हो जाता है| कहा गया है कि फल्गु श्राद्ध में पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोजन-ये तीन मुख्य कार्य होते हैं| पितृपक्ष में कर्मकांड का विधि व विधान अलग-अलग है| श्रद्धालु एक दिन, तीन दिन, सात दिन, पंद्रह दिन और 17 दिन का कर्मकांड करते हैं|

गया को विष्णु का नगर माना गया है| यह मोक्ष की भूमि कहलाती है| विष्णु पुराण और वायु पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है| विष्णु पुराण के मुताबिक, गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और वे स्वर्ग में वास करते हैं| माना जाता है कि स्वयं विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे 'पितृ तीर्थ' भी कहा जाता है| गया के पंडा देवव्रत ने बताया कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान किए बिना पिंडदान हो ही नहीं सकता| पिंडदान की प्रक्रिया पुनपुन नदी के किनारे से प्रारंभ होती है|

किंवदंतियों के अनुसार, भस्मासुर के वंशज में गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या कर ब्रह्मा से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाएं| उसे यह वरदान तो मिला, लेकिन दुष्परिणाम यह हुआ कि स्वर्ग की जनसंख्या बढ़ने लगी और सब कुछ प्राकृतिक नियम के विपरीत होने लगा, क्योंकि लोग बिना भय के पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से पाप मुक्त होने लगे|

इससे बचने के लिए देवताओं ने यज्ञ के लिए पवित्र स्थल की मांग गयासुर से की| गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिए दे दिया| दैत्य गयासुर जब लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया| यही पांच कोस की जगह आगे चलकर गया कहलाई| गयासुर के मन से मगर लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और उसने देवताओं से फिर वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने वाला बना रहे| जो भी लोग यहां पर पिंडदान करें, उनके पितरों को मुक्ति मिले. यही कारण है कि आज भी लोग अपने पितरों को तारने यानी पिंडदान के लिए गया आते हैं|

विद्वानों के मुताबिक, किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है| प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है| पिंडदान के समय मृतक के निमित्त अर्पित किए जाने वाले पदार्थ, जिसमें जौ या चावल के आंटे को गूंथकर बनाया गया गोलाकृति पिंड कहलाता है| दक्षिणाभिमुख होकर, आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है| जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलकार उस जल से विधिपूर्वक तर्पण किया जाता| मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं| इसके बाद श्राद्ध के बाद ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है|

पंडों के मुताबिक, शास्त्रों में पितरों का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है| पितरों की श्रेणी में मृत माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल हैं| व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों की श्रेणी में आते हैं| कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों की 360 वेदियां थीं जहां पिंडदान किया जाता था| इनमें से अब 48 ही बची हैं| हालांकि कई धार्मिक संस्थाएं उन पुरानी वेदियों की खोज की मांग कर रही हैं| इस समय इन्हीं 48 वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं| यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट के नीचे पिंडदान करना जरूरी माना जाता है|

उल्लेखनीय है कि देश में श्राद्ध के लिए हरिद्वार, गंगासागर, जगन्नाथपुरी, कुरुक्षेत्र, चित्रकूट, पुष्कर, बद्रीनाथ सहित 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है| इनमें गया का स्थान सर्वोपरि कहा गया है| गरुड़ पुराण में कहा गया है कि गया जाने के लिए घर से निकलने पर चलने वाले एक-एक कदम पितरों के स्वर्गारोहण के लिए एक-एक सीढ़ी बनाते हैं| संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवनकाल में ही कर लेते हैं| गरुड़ पुराण और मत्स्य पुराण में वर्णित है कि श्रद्धा से अर्पित वस्तुएं पितरों को उस लोक में प्राप्त होती हैं, जिसमें वे रहते हैं| लोग श्राद्ध के दौरान कौवों, कुत्तों और गायों के लिए भी अंश निकालते हैं| मान्यता है कि कुत्ता और कौवा यम के करीबी हैं और गाय वैतरणी पार कराती है| 

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जानिए श्राद्ध में क्यों नहीं इस्तेमाल करते हैं लोहे का बर्तन ?

प्रतिवर्ष आश्विन मास में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते है। इन्हें सोलह श्राद्ध भी कहते हैं। इस वर्ष पितृपक्ष के श्राद्ध 9 सितम्बर से प्रारम्भ होंगे| आखिरी मातामह का श्राद्ध 24 सितम्बर को होगा। पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। पितृपक्ष पक्ष को महालय या कनागत भी कहा जाता है| हिन्दू धर्म मान्यता अनुसार सूर्य के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर कुछ समय के लिए पृथ्वी पर अपने पुत्र- पौत्रों के यहां आते हैं|

श्राद्ध के महत्व के बारे में कई प्राचीन ग्रंथों तथा पुराणों में वर्णन मिलता है| श्राद्ध का पितरों के साथ बहुत ही घनिष्ठ संबंध है| पितरों को आहार तथा अपनी श्रद्धा पहुँचाने का एकमात्र साधन श्राद्ध है| मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड तथा दान ही श्राद्ध कहा जाता है और जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया-कर्म सम्पन्न हो जाते हैं, उसी को पितर कहा जाता है| शास्त्रों के अनुसार जिन व्यक्तियों का श्राद्ध मनाया जाता है, उनके नाम तथा गोत्र का उच्चारण करके मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि उन्हें दिया समर्पित किया जाता है, वह उन्हें विभिन्न रुपों में प्राप्त होता है| जैसे यदि मृतक व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार देव योनि मिलती है तो श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को खिलाया गया भोजन उन्हें अमृत रुप में प्राप्त होता है| यदि पितर गन्धर्व लोक में है तो उन्हें भोजन की प्राप्ति भोग्य रुप में होती है| पशु योनि में है तो तृण रुप में, सर्प योनि में होने पर वायु रुप में, यक्ष रुप में होने पर पेय रुप में, दानव योनि में होने पर माँस रुप में, प्रेत योनि में होने पर रक्त रुप में तथा मनुष्य योनि होने पर अन्न के रुप में भोजन की प्राप्ति होती है|

अब सबसे बड़ी बात यह कि आपने देखा होगा कि श्राद्ध में लोग पूजा के लिए तांबा अथवा कांसे के बर्तनों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन किसी भी दशा में आपने लोहे के बर्तन को इस्तेमाल होते हुए नहीं देखा होगा| क्या आप जानते हैं कि लोहे के बर्तन का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता है| ज्योतिष के अनुसार, लोहा प्रयोग पूजा या श्राद्घ में इसलिए नहीं होता है क्योंकि लोहा निम्न धातु है इसलिए इसे अशुद्घ माना गया है। जबकि सोना-चांदी, तांबा, पीतल और कांसा इन धातुओं को पवित्र और उत्तम माना गया है। इनके अभाव में केले के पत्ते को छोड़कर बाकि अन्य पत्तल का इस्तेमाल किया जा सकता है।

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पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का महापर्व है पितृपक्ष

प्रतिवर्ष आश्विन मास में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते है। इन्हें सोलह श्राद्ध भी कहते हैं। श्राद्ध महापर्व आठ सितंबर से शुरू हो रहा है। यह 23 सितंबर तक सर्वपितृ श्राद्ध तक चलेगा। 24 सिंतबर को केवल स्नान-दान की अमावस्या होगी। पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। पितृपक्ष पक्ष को महालय या कनागत भी कहा जाता है| हिन्दू धर्म मान्यता अनुसार सूर्य के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर कुछ समय के लिए पृथ्वी पर अपने पुत्र- पौत्रों के यहां आते हैं|

श्राद्ध के महत्व के बारे में कई प्राचीन ग्रंथों तथा पुराणों में वर्णन मिलता है| श्राद्ध का पितरों के साथ बहुत ही घनिष्ठ संबंध है| पितरों को आहार तथा अपनी श्रद्धा पहुँचाने का एकमात्र साधन श्राद्ध है| मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड तथा दान ही श्राद्ध कहा जाता है और जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया-कर्म सम्पन्न हो जाते हैं, उसी को पितर कहा जाता है|

शास्त्रों के अनुसार जिन व्यक्तियों का श्राद्ध मनाया जाता है, उनके नाम तथा गोत्र का उच्चारण करके मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि उन्हें दिया समर्पित किया जाता है, वह उन्हें विभिन्न रुपों में प्राप्त होता है| जैसे यदि मृतक व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार देव योनि मिलती है तो श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को खिलाया गया भोजन उन्हें अमृत रुप में प्राप्त होता है| यदि पितर गन्धर्व लोक में है तो उन्हें भोजन की प्राप्ति भोग्य रुप में होती है| पशु योनि में है तो तृण रुप में, सर्प योनि में होने पर वायु रुप में, यक्ष रुप में होने पर पेय रुप में, दानव योनि में होने पर माँस रुप में, प्रेत योनि में होने पर रक्त रुप में तथा मनुष्य योनि होने पर अन्न के रुप में भोजन की प्राप्ति होती है|

पितृ पक्ष का महत्व-

देवताओ से पहले पितरो को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी होता है। देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्व होता है| वायु पुराण ,मत्स्य पुराण ,गरुण पुराण, विष्णु पुराण आदि पुराणों तथा अन्य शास्त्रों जैसे मनुस्मृति इत्यादि में भी श्राद्ध कर्म के महत्व के बारे में बताया गया है| पूर्णिमा से लेकर अमावस्या के मध्य की अवधि अर्थात पूरे 16 दिनों तक पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिये कार्य किये जाते है| पूरे 16 दिन नियम पूर्वक कार्य करने से पितृ-ऋण से मुक्ति मिलती है| पितृ श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है| भोजन कराने के बाद यथाशक्ति दान - दक्षिणा दी जाती है|

श्राद्ध से पितृ दोष शान्ति-

आश्विन मास के कृ्ष्ण पक्ष में श्राद्ध कर्म द्वारा पूर्वजों की मृ्त्यु तिथि अनुसार तिल, कुशा, पुष्प, अक्षत, शुद्ध जल या गंगा जल सहित पूजन, पिण्डदान, तर्पण आदि करने के बाद ब्राह्माणों को अपने सामर्थ्य के अनुसार भोजन, फल, वस्त्र, दक्षिणा आदि दान करने से पितृ दोष से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है| यदि किसी को अपने पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो तो वह लोग इस समय अमावस्या तिथि के दिन अपने पितरों का श्राद्ध कर सकते हैं और पितृदोष की शांति करा सकते हैं| श्राद्ध समय सोमवती अमावस्या होने पर दूध की खीर बना, पितरों को अर्पित करने से पितर दोष से मुक्ति मिल सकती है|

श्राद्ध करते समय इन बातों का रखें विशेष ध्यान-

शास्त्रों में बताए गए विधि -विधान और नियम का सही से पालन श्राद्ध में करना चाहिए| श्राद्ध पक्ष में पितरों के श्राद्ध के समय कुछ विशेष वस्तुओं और सामग्री का उपयोग और निषेध बताया गया है।

1- श्राद्ध में सात पदार्थ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जैसे - गंगाजल, दूध, शहद, तरस का कपड़ा, दौहित्र, कुश और तिल।

2- शास्त्रों के अनुसार, तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णुलोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।

3 - सोने, चांदी कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल का भी प्रयोग किया जा सकता है|

4 - रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं।

5 - आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।

6 - केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है।

7 - चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।

जाने पुत्र के न होने पर कौन-कौन कर सकता है श्राद्ध-

हिन्दू धर्म के मरणोपरांत संस्कारों को पूरा करने के लिए पुत्र का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। शास्त्रों में भी इस बात की पुष्टि की गई है, कि नरक से मुक्ति पुत्र द्वारा ही मिलती है। इसलिए पुत्र को ही श्राद्ध, पिंडदान करना चाहिए| यही कारण है कि नरक से रक्षा करने वाले पुत्र की कामना हर माता- पिता करते है। इसलिए हम आप को बताते है कि शास्त्रों के अनुसार पुत्र न होने पर कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है|

- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए।

- पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।

- पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए।

- एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।

- पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं।

- पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।

- पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।

- पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो।

- पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध का अधिकारी है।

- गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है।

- कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का भी विधान है। 

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