आजकल हमें डाकघर में बहुत कम चीजें रोमांचक लगती हैं, लेकिन तकरीबन सौ साल पहले कभी डाक एक जगह से दूसरी जगह ले जाना जोखिम भरा काम हुआ करता था और हरकारे को हाथ में तलवार या भाला साथ लेकर चलना पड़ता था। उस समय डाक लाने, ले जाने के लिए रेल और हवाई सेवा उपलब्ध नहीं थी।
भारत में पहली जन डाक सेवा 1774 ई. में वारेन हेस्टिंग्स ने आरंभ की थी। राजा-महाराजाओं की अपनी निजी डाक व्यवस्था हुआ करती थी। उनका शासन स्पष्टत: संचार से बेहतरीन साधनों के कारण प्रभावशाली था जिसमें डाक को हाथों हाथ हरकारे या घुड़सवार द्वारा आगे भेजा जाता था। जब इब्नबतूता ने चौदहवीं शताब्दी के मध्य में भारत की यात्रा की तो उसने मोहम्मद बिन तुगलक की देश भर में हरकारों की संगठित प्रणाली देखी।
इब्नबूतता ने लिखा, "हर मील की दूरी पर हरकारा होता है और हर तीन मील के बाद आबादी वाला गांव होता है जिसके बाहर तीन पहरेदारों की सुरक्षा में बक्से होते थे, जहां से हरकारे कमर कसकर चलने के लिए तैयार रहते थे। प्रत्येक हरकारे के पास करीब दो क्यूबिक लंबा चाबुक होता है और उसके सिर पर छोटी-घंटियां होती हैं।"
"जब भी कोई हरकारा शहर से निकलता है तो उसके एक हाथ में चाबुक होता है जिसे वह लगातार फटकारता रहता है। इस प्रकार वह सबसे नजदीकी करकारे के पास पहुंचता है। जब वह वहां पहुंचता है तो अपना चाबुक फटकारता है जिसे सुनकर दूसरा हरकारा बाहर आता है और उससे डाक लेकर अगले हरकारे की ओर भागता है। इसी कारण सुल्तान अपनी डाक इतने कम समय में प्राप्त कर लेते हैं।"
नि:संदेह यह प्रणाली सम्राट की सुविधा के लिए बनाई गई थी और इसे बाद में परवर्ती मुगल बादशाहों द्वारा कुछ परिवर्तन के साथ जारी रखा गया। भिजवाने के लिए अपनी निजी डाक प्रणाली स्थापित की थी, लेकिन वारेन हेस्टिंग्स के प्रशासन के दौरान महाडाकपाल की नियुक्ति की गई। अब आम लोग भी अपने पत्रों पर फीस देकर सेवा का लाभ उठा सकते थे।
तब पत्रों को चमड़े के थैलों में डालकर हरकारों की कमर पर लादा जाता था, जिन्हें आठ मील के पड़ाव पर बदला जाता था। रात के समय हरकारों के साथ मशालवाले भी होते थे। जंगली इलाकों में जंगली जानवरों को दूर भगाने के लिए डुग्गी और ढोलक बजाने वालों को साथ रखा जाता था।
जिन स्थानों में बाघों का खतरा होता था, वहां हरकारों को तीर-कमानों से लैस किया जाता था, लेकिन उनका इस्तेमाल बहुत कम किया जाता था और हरकारा अक्सर मनुष्यभक्षी बाघ का शिकार हो जाया करता था। हजारीबाग जिले में (जिससे गुजरकर डाक कोलकाता से इलाहाबाद भेजी जाती थी।) ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्यभक्षी बाघ भारी संख्या में पाए जाते थे।
आदिवासियों को खास तौर से हरकारा बनाया जाता था जिनमें से अधिकांश स्वभाव से जीववादी थे। वे जंगली जानवरों या भटकते हुए अपराधियों का सामना करने के लिए तैयार थे लेकिन पेड़-पौधों में छुपी बैठी किसी बुरी आत्मा से बचने के लिए वे मीलों चलने के लिए तैयार थे।
डाक की डकैती आम बात थी। 1808 ई. में कानपुर और फतेहगढ़ के बीच औसतन सप्ताह में एक बार डाक लूटी जाती थी। हरकारे को रास्ते में मिलने वाले डाकू को भी पछाड़ना होता था। हरकारे को महीने में बारह रुपये का वेतन मिलता था जो उन दिनों भी बहुत अधिक नहीं होता था। अत: उसके साहस और ईमानदारी के गुण प्रशंसनीय थे। हरकारा कभी भी डाक को लेकर चंपत नहीं होता था यद्यपि इसमें अक्सर मूल्यवान सामान और पंजीकृत वस्तुएं हुआ करती थीं।
1822 ई. में घुड़सवारों का स्थान हरकारों ने ले लिया, क्योंकि वे सस्ते पड़ते थे। घुड़सवार रखने से घोड़ों और आदमियों दोनों को खिलाना पड़ता था। हैरानी की बात यह है कि घोड़ों को कोलकाता से मेरठ जाने में बारह दिन लगते थे जबकि हरकारा वहां दस दिन में ही पहुंच जाया करता था क्योंकि वह रास्ते को कम-से-कम पड़ावों पर रुककर पार करता था। नि:संदेह हरकारे अब भी इस्तेमाल किए जाते हैं, क्योंकि डाकगाड़ी को केवल मुख्य राजमार्गो पर ही ले जाया जा सकता है।
1904 ई. में तिब्बत में यंगहजबेंड के अभियान के बाद अंग्रेजों ने सिक्किम से होते हुए भारत और ल्हासा के बीच डाक प्रणाली स्थापित कर दी। यहां भारत-तिब्बती सीमावर्ती जनजातियों के हरकारे होते थे जो बर्फीले मार्गो और तेज नदियों जिन्हें केवल याक की खाल की डोंगी पर चढ़कर या रस्सियों से बने कठिन रास्तों से ही पार किया जा सकता था। हिमालयी भालुओं, बर्फीले क्षेत्र के भेड़ियों और संभवत: खतरनाक हिम मानव के रोमांचक अनुभवों से गुजरते हुए ये हरकारे डाक पहुंचाते थे।
लेकिन अब भी देश के दूरदराज के क्षेत्रों में, अलग-थलग पड़े पर्वतीय क्षेत्रों में, जहां रास्ते नहीं बने हैं वहां डाक पैदल ही भेजी जाती है ओर डाकिया अक्सर प्रतिदिन पांच से छह मील चलता है। सच है कि वह अब भागता नहीं है और कभी-कभार किसी गांव में अपने मित्र के पास हुक्का गुड़गुड़ाने के लिए रुक जाता है, लेकिन वह डाक प्रणाली के उन शुरुआती प्रवर्तकों भारत के हरकारों की याद दिलाता है।
पर्दाफाश से साभार
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nice post vineet ji
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