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दया, करुणा की साक्षात मूर्ति थीं मदर टेरेसा

दया, प्रेम और वात्सल्य का असली चेहरा मदर टेरेसा, जिन्होंने यूगोस्लाविया से निकल कर भारत में अपने सेवाभाव से जुड़े कार्यक्रम की शुरुआत की और विश्व भर में इसके सफल संचालन से लोगों के बीच मां का दर्जा पाया। 12 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने अपने हृदय की आवाज पर समाज को अपना जीवन समर्पित करने का फैसला कर लिया था। "शांति की शुरुआत मुस्कुराहट से होती है।" इस विचार में विश्वास रखने वाली मदर टेरेसा यानी एग्नेस गोंझा बोयाजीजू का जन्म यूगोस्लाविया के एक साधारण व्यवसायी निकोला बोयाजीजू के घर 26 अगस्त 1910 में हुआ था लेकिन रोमन कैथोलिक मदर टेरेसा का बापतिज्मा 27 अगस्त को होने की वजह से उनका वास्तविक जन्मदिन इसी दिन पूरे विश्व में मनाया जाता है। 

वह 18 वर्ष की आयु में 1928 में भारत के कोलकाता शहर आईं और सिस्टर बनने के लिए लोरेटो कान्वेंट से जुड़ीं और इसके बाद अध्यापन कार्य शुरू किया। उन्होंने 1946 में हुए सांप्रदायिक दंगे के दौरान अपने मन की आवाज पर लोरेटो कान्वेट की सुख सुविधा छोड़ बीमार, दुखियों और असहाय लोगों के बीच रह कर उनकी सेवा का संकल्प लिया। 

मदर टेरेसा ने एक दशक तक कोलकाता के झुग्गी में रहने वाले लाखों दीन दुखियों की सेवा करने के बाद वहां के धार्मिक स्थल काली घाट मंदिर में एक आश्रम की शुरुआत की। लारेटो कान्वेंट छोड़ने के वक्त उनके पास सिर्फ पांच रुपये ही थे लेकिन उनका आत्मबल ही था जिससे उन्होंने 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की शुरुआत की और आज 133 देशों में इस संस्था की 4,501 सिस्टर मदर टेरेसा के बताए मार्ग का अनुसरण कर लोगों को अपनी सेवाएं दे रही हैं। 

मदर टेरेसा ने भारत में कार्य करते हुए यहां की नागरिकता के साथ सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्राप्त (1980) किया और यहां के साथ-साथ पूरे विश्व में अछूतों, बीमार और गरीबों की सेवा की। लेकिन उन्होंने कोलकाता में विशेष रूप से काम किया और फुटपाथ पर रहने वाले लोगों के लिए घर बनाने की शुरुआत यहीं से की। उनके आश्रम का दरवाजा हर वर्ग के लोगों के लिए हमेशा खुला रहता था। 

मदर टेरेसा ने अपने कार्यक्रम के जरिए गरीब से गरीब और अमीर से अमीर लोगों के बीच भाईचारे और समानता का संदेश दिया था। उन्होंने किसी भी धर्म के लोगों के बीच कोई भेद नहीं किया। विश्व में मां का दर्जा पा चुकीं मदर टेरेसा गर्भपात के सख्त खिलाफ थीं और एक बार ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में एक सम्मेलन में उन्होंने कहा था, "मैं किसी भी ऐसी महिला को कोई बच्चा गोद लेने नहीं दे सकती जिसने कभी भी अपना गर्भपात करवाया हो। ऐसी महिला बच्चे से प्यार कर ही नहीं सकती।"

समाज में दिए गए उनके अद्वितीय योगदान की वजह से उन्हें पद्मश्री (1962), नोबेल शांति पुरस्कार (1979) और मेडल ऑफ फ्रीडम (1985) प्रदान किए गए। पांच दशक से भी अधिक वर्षों तक दुखियों की सेवा से जुड़ी रहीं मदर टेरेसा ने पांच सितम्बर 1997 को दुनिया को अलविदा कह दिया। दुनिया भर के लोगों की तरह पोप जॉन पाल द्वितीय भी उनके प्रशंसकों में से एक थे। उन्हें उनकी मृत्यु के छह साल बाद ही इटली की राजधानी रोम में 'धन्य' यानी धार्मिक शब्दावली के अनुसार 'बिएटीफिकेशन' घोषित कर दिया गया। इसका तात्पर्य यह था कि वेटिकन ने यह मान लिया कि उनका व्यक्तित्व दिव्य था और उनकी प्रार्थना भर से लोगों को रोगों से मुक्ति मिल जाती है।

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मदर टेरेसा: मानव सेवा व शांति का प्रतीक

"मैं कभी भी किसी हिंसा विरोधी रैली में शामिल नहीं हो सकती| अगर आप कोई शांति मार्च का आयोजन करें तो मुझे जरूर आमंत्रित करें| मैं मानती हूं कि अगर आप जो नहीं चाहते है (हिंसा) उसके आप जो चाहते हैं (शांति) अगर उस पर केंद्रित रहें, तो आप उसे प्रचुरता में पा सकेंगे|" यह शब्द हैं उस व्यक्ति के जिसने अपना सारा जीवन मानवता की सेवा में बिता दिया| प्रेम, शान्ति और मानवता की प्रतिक मानी जाने वाली मदर टेरेसा की सोमवार को 104वीं जयंती थी| इस अवसर पर पूरे विश्व ने उन्हें याद किया|

जीवन परिचय

मेसेडोनिया की राजधानी सोप्जे में 26 अगस्त, 1910 को जन्मीं मदर टेरेसा का वास्तविक नाम अग्नेसे गोंकशे बोजशियु था| उन्होंने जीवन को मात्र आठ साल की कम उम्र में करीब से समझना शुरू कर दिया था जब उनके पिता और अल्बानियाई नेता निकोला बोजशियु का निधन हो गया| मात्र 12 साल की उम्र में ही उन्होंने खुद को 'ईश्वर की सेवा' के प्रति प्रतिबद्ध किया और वर्ष 1928 में आयरलैंड के इंस्टिट्यूट ऑफ ब्लेस्ड वर्जिन मैरी में शामिल हुईं अग्नेशे को सिस्टर मैरी टेरेसा का नाम मिला और वर्ष 1929 में उन्हें कोलकाता में सेवा के लिए भेजा गया| 24 मई, 1931 में उन्होंने नन की शपथ ली|

भारत में लगभग 15 सालों तो तत्कालीन कलकत्ता के सैंट मैरीज हाई स्कूल में पढ़ाने के बाद 10 सितंबर, 1946 को अपनी दार्जीलिंग यात्रा में उन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज को अपनी दिशा बनाई और जरूरतमंदों की सेवा में आजीवन जुटने का फैसला लिया| उन्होंने अपने कंधों पर झुग्गियों में रहने वाले बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा लिया|

मिशनरी ऑफ चैरिटी

वर्ष 1950 में उन्होंने कलकत्ता में मिशनरी ऑफ चैरिटी नामक संस्था की नींव रखी जिसका उद्देश्य समाज के निचले वर्गों और जरूरतमंदों की सेवा था| इसकी स्थापना के साथ ही उन्होंने नीली किनारे वाली सफेद साड़ी की वेशभूषा को अपनाया| आज इस मिशनरी की शाखाएं दुनिया के सौ से भी अधिक देशों में है और करीब 4000 नन इससे जुड़ी हैं| इसके बाद उन्होंने ‘निर्मल हृदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’ नामक आश्रम भी खोलें जिसमें कुष्ठ रोग जैसे कई गंभीर रोगों से पीड़ित लोगों और गरीबों की सेवा वह खुद करती थीं|

नोबल शांति पुरस्कार-पद्मश्री से सम्मानित

मदर टेरेसा मानवता की सच्ची अनुयायी थीं जिसने अपना समस्त जीवन असहायों की सेवा को समर्पित किया| समाजसेवा के क्षेत्र में उनके समर्पण के लिए उन्हें वर्ष 1962 में भारत सरकार की ओर से पद्मश्री सम्मान और वर्ष 1980 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया| समाजसेवा की दिशा में इनके प्रयासों को न सिर्फ भारत बलिक पूरे विश्व ने मिसाल माना और वर्ष 1979 में नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया| मदर टेरेस ने सम्मान में मिली सारी राशि को गरीबों की सेवा के लिए फंड में दे दिया|

निधन

मानवता को जीवन का उद्देश्य मानने वाली इस महिला ने आजीवन सेवा, त्याग और सद्भाव के रास्ते को ही अपना मार्ग बनाए रखा| मानवता की सेवा में अपना जीवन अर्पित करने वाली मदर टेरेसा का निधन 5 सितंबर, 1997 को कोलकाता में हो गया| उन्होंने अपने वात्सल्य से पहले कोलकाता तो बाद में पूरे देश के गरीब-असहायों का दुःख दर्द मिटाया| भारत के लिए उनका प्रेम ही था जिसने उन्हें सबके दिल में जगह दिला दी|