शबरिमला : शबरिमला मंदिर दक्षिण भारत के प्रमुख मन्दिरों में से है।भगवान अय्यप्पन के दर्शनार्थ दिसम्बर से जनवरी में भक्त यहां आते हैं। केरल का ये मंदिर कई मामले में देश के दूसरे मंदिरों से काफी अलग है जहाँ एक ओर रजस्वला महिलाओं का प्रवेश मन है वहीँ दूसरी ओर ये मंदिर हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की शानदार मिसाल है।
तिरुअनंतपुरम से लगभग 180 किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम घाट से सह्यपर्वत शृंखलाओं के घने जंगलों के बीच, समुद्र तल से लगभग 1000 मीटर की ऊंचाई पर शबरिमला मन्दिर है। ‘मला’ मलयालम में पहाड को कहा जाता हैं। उत्तर दिशा से आने वाले यात्री एर्णाकुलम से होकर कोट्टायम या चेंगन्नूर रेलवे स्टेशन से उतरकर वहां से पम्पा आते हैं। पम्पा से पैदल चार-पांच किलोमीटर वन मार्ग से पहाडियां चढकर शबरिमला मन्दिर में अय्यप्पन के दर्शन को जाया जाता है।
दूसरे किसी भी मंदिर की अपेक्षा शबरिमला मन्दिर में रस्म-रिवाज बिल्कुल ही अलग होते हैं।खास बात ये है की यहां जाति, धर्म, वर्ण या भाषा के आधार पर किसी भी भक्त पर कोई रोक नहीं है। यहां कोई भी भक्त अय्यप्पा मुद्रा में अर्थात तुलसी या रुद्राक्ष की माला पहनकर, व्रत रखकर, सिर पर इरुमुटि अर्थात दो गठरियां धारण कर मन्दिर में प्रवेश कर सकता है। माला धारण करने पर भक्त ‘स्वामी’ कहा जाता है और यहां भक्त व भगवान का भेद मिट जाता है। भक्त भी आपस में ‘स्वामी’ कहकर ही सम्बोधित करते हैं। शबरिमला मन्दिर का संदेश ‘तत्वमसि’ है। ‘तत’ माने ‘वह’, जिसका मतलब ईश्वर है और ‘त्वं’ माने ‘तू’ जिसका मतलब जीव से है। ‘असि’ दोनों के मेल या दोनों के अभेद को व्यक्त करता है। ‘तत्वमसि’ से तात्पर्य है कि वह तू ही है। जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं, दोनों अभेद हैं। यही शबरिमला मन्दिर का संदेश है।
पहले शबरिमला जाने वाले भक्त समूह में तीन से चार दिनों में पैदल यात्रा करके ही मन्दिर पहुंच पाते थे। रास्ते में भोजन पकाते थे ,अवश्यक बर्तन, चावल अपनी इरुमुटि में बांध लेते थे। रस्म-रिवाज के साथ, अपने ही घर पर या मन्दिर में, गुरुस्वामी के नेतृत्व में इरुमुटि बांधकर ‘स्वामिये अय्यपो’, ‘स्वामी शरणं’ के शरण मंत्रों का जोर-जोर से उच्चार करते भक्त शबरिमला के लिये चलते हैं।
श्री अय्यप्पन कथा
क्षीर सागर मंथन के बाद मोहिनी वेषधारी विष्णु पर मोहित शिव के दांपत्य से जन्मे शिशु ‘शास्ता’ का उल्लेख कंपरामायण के बालकांड, महाभागवत के अष्टम स्कंध और स्कंधपुराण के असुर कांड में मिलता है। श्री अय्यप्पन को धर्म की रक्षा करने वाले इसी धर्मशास्ता का अवतार माना जाता है। अय्यप्पन के संबंध में केरल में प्रचलित कथा यही है कि संतानहीन पंतलम राजा को शिकार के दौरान, पम्पा नदी के किनारे एक दिव्य, तेजस्वी, कंठ में मणिधारी शिशु मिला जिसे उन्होंने पाला-पोसा, मणिधारी वही शिशु मणिकंठन या अय्यप्पन कहलाये जो पंतलम राजा द्वारा निर्मित शबरिमला मन्दिर में अय्यप्पन के रूप में विराजते हैं।
अय्यप्पन मंदिर
शबरिमला में अय्यप्पन की मुख्य मूर्ति के अलावा, मालिकापुरत्त अम्मा, श्री गणेश, नागराजा जैसे उपदेवता भी प्रतिष्ठित हैं। मालिकापुरत्त अम्मा के बारे में लोकुक्ति है कि देवताओं और मनुष्यों को त्रस्त करने वाली महिषी का अय्यप्पन ने वध करके उसे मोक्ष दिया। मोक्ष प्राप्ति पर महिषी ने अपने पूर्व जन्म का रूप (पूर्व जन्म में वह लीला नामक युवती थी) धारण किया और मणिकंठन से विवाह का अनुरोध किया। नित्य ब्रह्मचारी मणिकंठन विवाह नहीं कर सकता था। परन्तु उन्होंने प्रस्ताव रखा कि जिस वर्ष कोई कन्नि (कन्या) अय्यप्पन (पहली बार दर्शन के लिये आने वाला अय्यप्पन) नहीं आयेगा, उस समय वे उनसे शादी करेंगे। साल दर साल वह प्रतीक्षा करती रहती है, मालिकापुरत्त अम्मा की कामना अधूरी ही रह जाती है। अय्यप्पन के मन्दिर में ही अय्यप्पन के मित्र मुसलमान फकीर वावर के लिये भी स्थान दिया गया है।
एरुमेलि
पारम्परिक मार्ग एरुमेलि है| इस से होकर शबरिमला पहुंचना ज़रा कठिन है लेकिन दुर्गम, चढाइयों और ढलानों पर चलना रोमांच पैदा करता है। एरुमेलि में अय्यप्पन के घनिष्ठ मित्र वावर के नाम पर एक मस्जिद भी है।भक्त इस मस्जिद में प्रार्थना करते है तथा दान करके ही अय्यप्पा दर्शन के लिये आगे चलते हैं। वावर मस्जिद हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक है।परम्परागत मार्ग से जाने वाले भक्तों को 18 दुर्गम पहाडों को पैदल ही पार करना पडता है। यहां जंगली जानवरों के आतंक का खतरा भी है।
शबरिमला मन्दिर
मन्दिर परिसर में भक्त 18 सीढियां चढकर प्रांगण में प्रवेश करते हैं। 18 सीढियां अष्टदश सोपान माने जाते हैं, अष्टदश सोपान पंचभूतों, अष्टरागों, त्रिगुणों और विद्या व अविद्या के प्रतीक हैं।पूजा के लिये मण्डल 16 नवम्बर से 27 दिसम्बर तक द्वार खुला रहता है।मन्दिर में मण्डल पूजा के लिये आने वालों को 41 दिन तक कडे नियमों में रहना होता है| मांसाहारी वस्तुओं के प्रयोग,भोग-विलास से दूर रहना होता है। मकरविलक्क (मकरज्योति) के लिये मंदिर दिसम्बर 30 से जनवरी 20 तक खुला रहता है। (मकरज्योति दर्शन 14 जनवरी को होता है) मार्च की 12 तारीख को ध्वजारोहण के साथ 10 दिनों का महोत्सव आरंभ होता है जो की अवभृथ स्नान (मूर्ति को नदी या सागर में स्नान कराना) के साथ 21 को समाप्त होता है। विषु पूजा के लिये अप्रैल महीने में 10 से 18 तक मन्दिर खुला रहता है।
भगवान अय्यप्पन को घी का अभिषेक प्रिय है मंदिर में ‘अरावणा’ (चावल, गुड और घी से तैयार खीर) ही मुख्य प्रसाद माना है। अय्यप्पन ब्रह्मचारी हैं, यही कारण है की 10 और 60 वर्ष के बीच की आयु की औरतों के लिये मन्दिर में प्रवेश मना है।
आप को जान कर अचरज होगा मक्का-मदीना के बाद शबरिमला दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तीर्थ माना जाता है|
तिरुअनंतपुरम से लगभग 180 किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम घाट से सह्यपर्वत शृंखलाओं के घने जंगलों के बीच, समुद्र तल से लगभग 1000 मीटर की ऊंचाई पर शबरिमला मन्दिर है। ‘मला’ मलयालम में पहाड को कहा जाता हैं। उत्तर दिशा से आने वाले यात्री एर्णाकुलम से होकर कोट्टायम या चेंगन्नूर रेलवे स्टेशन से उतरकर वहां से पम्पा आते हैं। पम्पा से पैदल चार-पांच किलोमीटर वन मार्ग से पहाडियां चढकर शबरिमला मन्दिर में अय्यप्पन के दर्शन को जाया जाता है।
दूसरे किसी भी मंदिर की अपेक्षा शबरिमला मन्दिर में रस्म-रिवाज बिल्कुल ही अलग होते हैं।खास बात ये है की यहां जाति, धर्म, वर्ण या भाषा के आधार पर किसी भी भक्त पर कोई रोक नहीं है। यहां कोई भी भक्त अय्यप्पा मुद्रा में अर्थात तुलसी या रुद्राक्ष की माला पहनकर, व्रत रखकर, सिर पर इरुमुटि अर्थात दो गठरियां धारण कर मन्दिर में प्रवेश कर सकता है। माला धारण करने पर भक्त ‘स्वामी’ कहा जाता है और यहां भक्त व भगवान का भेद मिट जाता है। भक्त भी आपस में ‘स्वामी’ कहकर ही सम्बोधित करते हैं। शबरिमला मन्दिर का संदेश ‘तत्वमसि’ है। ‘तत’ माने ‘वह’, जिसका मतलब ईश्वर है और ‘त्वं’ माने ‘तू’ जिसका मतलब जीव से है। ‘असि’ दोनों के मेल या दोनों के अभेद को व्यक्त करता है। ‘तत्वमसि’ से तात्पर्य है कि वह तू ही है। जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं, दोनों अभेद हैं। यही शबरिमला मन्दिर का संदेश है।
पहले शबरिमला जाने वाले भक्त समूह में तीन से चार दिनों में पैदल यात्रा करके ही मन्दिर पहुंच पाते थे। रास्ते में भोजन पकाते थे ,अवश्यक बर्तन, चावल अपनी इरुमुटि में बांध लेते थे। रस्म-रिवाज के साथ, अपने ही घर पर या मन्दिर में, गुरुस्वामी के नेतृत्व में इरुमुटि बांधकर ‘स्वामिये अय्यपो’, ‘स्वामी शरणं’ के शरण मंत्रों का जोर-जोर से उच्चार करते भक्त शबरिमला के लिये चलते हैं।
श्री अय्यप्पन कथा
क्षीर सागर मंथन के बाद मोहिनी वेषधारी विष्णु पर मोहित शिव के दांपत्य से जन्मे शिशु ‘शास्ता’ का उल्लेख कंपरामायण के बालकांड, महाभागवत के अष्टम स्कंध और स्कंधपुराण के असुर कांड में मिलता है। श्री अय्यप्पन को धर्म की रक्षा करने वाले इसी धर्मशास्ता का अवतार माना जाता है। अय्यप्पन के संबंध में केरल में प्रचलित कथा यही है कि संतानहीन पंतलम राजा को शिकार के दौरान, पम्पा नदी के किनारे एक दिव्य, तेजस्वी, कंठ में मणिधारी शिशु मिला जिसे उन्होंने पाला-पोसा, मणिधारी वही शिशु मणिकंठन या अय्यप्पन कहलाये जो पंतलम राजा द्वारा निर्मित शबरिमला मन्दिर में अय्यप्पन के रूप में विराजते हैं।
अय्यप्पन मंदिर
शबरिमला में अय्यप्पन की मुख्य मूर्ति के अलावा, मालिकापुरत्त अम्मा, श्री गणेश, नागराजा जैसे उपदेवता भी प्रतिष्ठित हैं। मालिकापुरत्त अम्मा के बारे में लोकुक्ति है कि देवताओं और मनुष्यों को त्रस्त करने वाली महिषी का अय्यप्पन ने वध करके उसे मोक्ष दिया। मोक्ष प्राप्ति पर महिषी ने अपने पूर्व जन्म का रूप (पूर्व जन्म में वह लीला नामक युवती थी) धारण किया और मणिकंठन से विवाह का अनुरोध किया। नित्य ब्रह्मचारी मणिकंठन विवाह नहीं कर सकता था। परन्तु उन्होंने प्रस्ताव रखा कि जिस वर्ष कोई कन्नि (कन्या) अय्यप्पन (पहली बार दर्शन के लिये आने वाला अय्यप्पन) नहीं आयेगा, उस समय वे उनसे शादी करेंगे। साल दर साल वह प्रतीक्षा करती रहती है, मालिकापुरत्त अम्मा की कामना अधूरी ही रह जाती है। अय्यप्पन के मन्दिर में ही अय्यप्पन के मित्र मुसलमान फकीर वावर के लिये भी स्थान दिया गया है।
एरुमेलि
पारम्परिक मार्ग एरुमेलि है| इस से होकर शबरिमला पहुंचना ज़रा कठिन है लेकिन दुर्गम, चढाइयों और ढलानों पर चलना रोमांच पैदा करता है। एरुमेलि में अय्यप्पन के घनिष्ठ मित्र वावर के नाम पर एक मस्जिद भी है।भक्त इस मस्जिद में प्रार्थना करते है तथा दान करके ही अय्यप्पा दर्शन के लिये आगे चलते हैं। वावर मस्जिद हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक है।परम्परागत मार्ग से जाने वाले भक्तों को 18 दुर्गम पहाडों को पैदल ही पार करना पडता है। यहां जंगली जानवरों के आतंक का खतरा भी है।
शबरिमला मन्दिर
मन्दिर परिसर में भक्त 18 सीढियां चढकर प्रांगण में प्रवेश करते हैं। 18 सीढियां अष्टदश सोपान माने जाते हैं, अष्टदश सोपान पंचभूतों, अष्टरागों, त्रिगुणों और विद्या व अविद्या के प्रतीक हैं।पूजा के लिये मण्डल 16 नवम्बर से 27 दिसम्बर तक द्वार खुला रहता है।मन्दिर में मण्डल पूजा के लिये आने वालों को 41 दिन तक कडे नियमों में रहना होता है| मांसाहारी वस्तुओं के प्रयोग,भोग-विलास से दूर रहना होता है। मकरविलक्क (मकरज्योति) के लिये मंदिर दिसम्बर 30 से जनवरी 20 तक खुला रहता है। (मकरज्योति दर्शन 14 जनवरी को होता है) मार्च की 12 तारीख को ध्वजारोहण के साथ 10 दिनों का महोत्सव आरंभ होता है जो की अवभृथ स्नान (मूर्ति को नदी या सागर में स्नान कराना) के साथ 21 को समाप्त होता है। विषु पूजा के लिये अप्रैल महीने में 10 से 18 तक मन्दिर खुला रहता है।
भगवान अय्यप्पन को घी का अभिषेक प्रिय है मंदिर में ‘अरावणा’ (चावल, गुड और घी से तैयार खीर) ही मुख्य प्रसाद माना है। अय्यप्पन ब्रह्मचारी हैं, यही कारण है की 10 और 60 वर्ष के बीच की आयु की औरतों के लिये मन्दिर में प्रवेश मना है।
आप को जान कर अचरज होगा मक्का-मदीना के बाद शबरिमला दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तीर्थ माना जाता है|
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