प्राचीनकाल में सारस्वत और वरमित्र नामक दो मित्र रहा करते थे। सारस्वत का पुत्र सोमवंत था और वरमित्र का पुत्र सुमेध। उन दोनों के बीच गहरी मैत्री थी। वे एक ही गुरुकुल में पढ़ते थे। दोनों ने कालांतर में समस्त शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया। दोनों मित्र बाद में पति-पत्नी बन गए। कैसे? आइए जानें..
सोमवंत और सुमेध जब वयस्क हुए, तब एक दिन उनके माता-पिता ने उन्हें समझाया, "सुनो बेटे! तुम्हारा विवाह करने के लिए हमारे पास पर्याप्त धन नहीं है, इसलिए तुम विदर्भ राज्य में जाओ। वहां के राजा को अपनी विद्या से प्रसन्न करके पुरस्कार और सम्मान प्राप्त करो।"
माता-पिता की सलाह पाकर सोमवंत और सुमेध विदर्भ नरेश की राजसभा में गए। राजा ने उन वटुओं को देख परिहासपूर्वक कहा, "निषध देश की रानी सीमंतिनी सोमवार का व्रत रखती हैं और दंपतियों की पूजा करके उन्हें धन, सुवर्ण, वस्तु और वाहन पुरस्कार रूप में दे रही हैं। इसलिए तुम दोनों में से एक स्त्री का वेष धारण कर लो और दंपति के रूप में उनके दर्शन करो। वह तुम्हें पर्याप्त संपदा दे देंगी।"
"महाराज! हम ऐसे कपट वेष कभी धारण नहीं करेंगे। हमने वेद-शास्त्रों का अध्ययन किया है। ज्योतिषशास्त्र की भी जानकारी रखते हैं। केवल धन-सम्पत्ति पाने के लिए हम ऐसे नीच कार्य नहीं करेंगे।" दोनों युवकों ने उत्तर दिया।
राजा ने क्रोध में आकर कहा, "यह मेरा आदेश है। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे, तो तुम्हें कठिन दंड मिलेगा।"
बेचारे दोनों युवक डर गए। विवश होकर सोमवंत ने नारी का वेष धर लिया और सुमेध पति के रूप में। दोनों निषध देश पहुंचे। वहां पर रानी सीमंतिनी महेश्वर की अर्चना करके उस वक्त आए हुए दंपतियों की पूजा कर रही थीं। सुमेध और सोमवंत भी दंपति के रूप में उस व्रत में सम्मिलित हुए। नारी के वेषधारी सोमवंत को देख रानी सीमंतिनी ने सोचा कि वह सचमुच नारी ही है, इसलिए उसका भी विशेष रूप से सत्कार किया। इसके बाद वे युवक इस आशंका से कि उनका कपट प्रकट न हो जाए, वे उसी रात अपने नगर की ओर चल पड़े।
परंतु आश्चर्य की बात थी कि मध्य मार्ग में सोमवंत सचमुच नारी के रूप में बदल गया। सुमेध के प्रति उसके मन में मोह उत्पन्न हुआ। अंत में वे सुमेध और सोमवती के रूप में अपने घर पहुंचे। अपने एकमात्र पुत्र को नारी के रूप में परिवर्तित देख सारस्वत और उनकी पत्नी अत्यंत दु:खी हुए। सारस्वत ने भांप लिया कि यह अनहोनी घटना विदर्भ नरेश के कारण ही घटित हुई है। वे अत्यंत क्रोधित हुए। तत्काल राजदरबार में प्रवेश करके सारस्वत ने तीव्र शब्दों में राजा से कहा, "राजन्! आप ही के कारण मेरा एकमात्र पुत्र नारी बन गया है। इसका कुफल आपको भोगना ही पड़ेगा।"
विदर्भ राजा यह वृत्तांत सुनकर विस्मित हो गए। उन्हें इस घटना पर अपार दुख और पश्चाताप हुआ। उन्होंने सोमवंत के प्रति न्याय करने के विचार से पार्वती और परमेश्वर की घोर तपस्या की। पार्वती ने प्रत्यक्ष हाकर पूछा, "मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं। कोई वर मांग लो।" राजा ने सोमवती को पुन: पुरुष के रूप में परिवर्तित करने का वर मांगा।
पार्वती ने कहा, "यह कदापि संभव नहीं है। रानी सीमंतिनी को सोमवंत नारी के रूप में दिखा था, इसलिए उसका यही रूप रहेगा। सोमवंत अब सोमवती है, उसका विवाह सुमेध से करवा दो। इस दंपति के एक सुयोग्य पुत्र पैदा होगा।" पार्वती के आदेश को शिरोधार्य कर सारस्वत ने सुमेध के साथ सोमवती का विवाह कर दिया।
सोमवंत और सुमेध जब वयस्क हुए, तब एक दिन उनके माता-पिता ने उन्हें समझाया, "सुनो बेटे! तुम्हारा विवाह करने के लिए हमारे पास पर्याप्त धन नहीं है, इसलिए तुम विदर्भ राज्य में जाओ। वहां के राजा को अपनी विद्या से प्रसन्न करके पुरस्कार और सम्मान प्राप्त करो।"
माता-पिता की सलाह पाकर सोमवंत और सुमेध विदर्भ नरेश की राजसभा में गए। राजा ने उन वटुओं को देख परिहासपूर्वक कहा, "निषध देश की रानी सीमंतिनी सोमवार का व्रत रखती हैं और दंपतियों की पूजा करके उन्हें धन, सुवर्ण, वस्तु और वाहन पुरस्कार रूप में दे रही हैं। इसलिए तुम दोनों में से एक स्त्री का वेष धारण कर लो और दंपति के रूप में उनके दर्शन करो। वह तुम्हें पर्याप्त संपदा दे देंगी।"
"महाराज! हम ऐसे कपट वेष कभी धारण नहीं करेंगे। हमने वेद-शास्त्रों का अध्ययन किया है। ज्योतिषशास्त्र की भी जानकारी रखते हैं। केवल धन-सम्पत्ति पाने के लिए हम ऐसे नीच कार्य नहीं करेंगे।" दोनों युवकों ने उत्तर दिया।
राजा ने क्रोध में आकर कहा, "यह मेरा आदेश है। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे, तो तुम्हें कठिन दंड मिलेगा।"
बेचारे दोनों युवक डर गए। विवश होकर सोमवंत ने नारी का वेष धर लिया और सुमेध पति के रूप में। दोनों निषध देश पहुंचे। वहां पर रानी सीमंतिनी महेश्वर की अर्चना करके उस वक्त आए हुए दंपतियों की पूजा कर रही थीं। सुमेध और सोमवंत भी दंपति के रूप में उस व्रत में सम्मिलित हुए। नारी के वेषधारी सोमवंत को देख रानी सीमंतिनी ने सोचा कि वह सचमुच नारी ही है, इसलिए उसका भी विशेष रूप से सत्कार किया। इसके बाद वे युवक इस आशंका से कि उनका कपट प्रकट न हो जाए, वे उसी रात अपने नगर की ओर चल पड़े।
परंतु आश्चर्य की बात थी कि मध्य मार्ग में सोमवंत सचमुच नारी के रूप में बदल गया। सुमेध के प्रति उसके मन में मोह उत्पन्न हुआ। अंत में वे सुमेध और सोमवती के रूप में अपने घर पहुंचे। अपने एकमात्र पुत्र को नारी के रूप में परिवर्तित देख सारस्वत और उनकी पत्नी अत्यंत दु:खी हुए। सारस्वत ने भांप लिया कि यह अनहोनी घटना विदर्भ नरेश के कारण ही घटित हुई है। वे अत्यंत क्रोधित हुए। तत्काल राजदरबार में प्रवेश करके सारस्वत ने तीव्र शब्दों में राजा से कहा, "राजन्! आप ही के कारण मेरा एकमात्र पुत्र नारी बन गया है। इसका कुफल आपको भोगना ही पड़ेगा।"
विदर्भ राजा यह वृत्तांत सुनकर विस्मित हो गए। उन्हें इस घटना पर अपार दुख और पश्चाताप हुआ। उन्होंने सोमवंत के प्रति न्याय करने के विचार से पार्वती और परमेश्वर की घोर तपस्या की। पार्वती ने प्रत्यक्ष हाकर पूछा, "मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं। कोई वर मांग लो।" राजा ने सोमवती को पुन: पुरुष के रूप में परिवर्तित करने का वर मांगा।
पार्वती ने कहा, "यह कदापि संभव नहीं है। रानी सीमंतिनी को सोमवंत नारी के रूप में दिखा था, इसलिए उसका यही रूप रहेगा। सोमवंत अब सोमवती है, उसका विवाह सुमेध से करवा दो। इस दंपति के एक सुयोग्य पुत्र पैदा होगा।" पार्वती के आदेश को शिरोधार्य कर सारस्वत ने सुमेध के साथ सोमवती का विवाह कर दिया।
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