यह प्रश्न बड़ा ही विचित्र-सा लगता है कि हम कौन हैं? क्या थे? और क्या होंगे? मनुष्य के भूत, भविष्य और वर्तमान को लेकर अनेक मत-मतांतर हैं। कुछ लोग पूर्वजन्म पर विश्वास करते हैं- बौद्ध धर्म संबंधी जातक कथाएं भी हिंदू धर्म के इस विश्वास की पुष्टि करती हैं, तो ज्योतिष भूत, वर्तमान के साथ भविष्य भी बताता है। पुराणों में पुनर्जन्म संबंधी अनेक कहानियां मिलती हैं। मरक डेय पुराण में वर्णित ऐसी ही एक कहानी है- निशाकर की। यह कहानी महाबली ने शुक्र को सुनाई थी।
प्राचीन काल में मुद्गल नामक एक मुनि थे। इनके कोशकार नाम का एक पुत्र था, जो समस्त शास्त्रों के ज्ञाता थे। वात्स्यायन की पुत्री धर्मिष्ठा उनकी सहधर्मिणी थी। इस दम्पति के एक पुत्र हुआ। वह जन्म से ही जड़ प्रकृति का था। अंधा था और मूक भी। साध्वी धर्मिष्ठा ने सोचा कि वह बालक अचेतन है। इसलिए छठे दिन वह उस शिशु को अपने गृह के द्वार के सामने छोड़ आई।
उन दिनों में समीप के जंगल में 'शूर्पाक्षी' नामक एक राक्षसी निवास करती थी। वह शिशुओं को चुराकर उन्हें मारकर खाया करती थी। शूर्पाक्षी ने कोशकार के द्वार पर एक शिशु को देखा, तब वह अपने एक कृशकाय शिशु को वहां पर छोड़कर कोशकार के पुत्र को उठाकर एक पहाड़ पर ले गई और उस शिशु को खाना ही चाहती थी। शूर्पाक्षी का पति घटोधर अंधा था। उसने शूर्पाक्षी के पैरों की आहट पाकर पूछा, "कैसा आहार ले आई हो?"
शूर्पाक्षी ने उत्तर दिया, "अपने शिशु को कोशकार के द्वार पर छोड़कर उनके शिशु को उठा लाई हूं।" तुमने बड़ा बुरा किया। वे महान तपस्वी और ज्ञानी हैं। वे क्रोध में आकर श्राप देंगे। इसलिए तुम इसी वक्त इस शिशु को कोशकार के द्वार पर छोड़ किसी दूसरे शिशु को उठा लाओ।
कोशकार के द्वार पर राक्षस शिशु अंगूठा मुंह में डाले रोने लगा। शिशु का रुदन सुनकर कोशकार अपनी कुटिया से बाहर आए ओर उस शिशु को देखकर मंदहास करते हुए अपनी पत्नी से बोले, "सुनो, यह कोई भूत है। लगता है कि यह हमें धोखा देने के लिए यहां पर आया है।" यह कहकर कोशकार ने मत्र पठन करके राक्षस के शिशु को बोध दिया। इस बीच शूर्पाक्षी काशकार के शिशु को उठाकर ले आई। परंतु मंत्र के प्रभाव के कारण वह अपने पुत्र गिराकर दुखी हो, अपने पति के पास गई और अपनी करनी पर पछताने लगी।
कोशकार ने दोनों शिशुओं को अपनी पत्नी के हाथ सौंप दिया। मुनि के आश्रम में दोनों बच्चे पलने लगे। जब वे बच्चे सात वर्ष के हुए, तब कोशकार ने उनका नामकरण किया-दिवाकर और निशाकर। यथा समय दोनों का उपनयन करके वेदपाठ आरंभ किया। दिवाकर वेद-पठन करने लगा, परंतु निशाकर उच्चारण नहीं कर पाया- सब कोई उसे देख घृणा करने लगे। आखिर बालक के पिता कोशकार ने क्रोधावेश में आकर उसको एक निर्जन कुएँ में डाल दिया और जगह पर एक चट्टान ढंक दिया।
दस वर्ष बीत गए। किसी कार्य से कोशकार की पत्नी धर्मिष्ठा उस कुएं के पास पहुंची। कुएं पर चट्टान ढंका हुआ देख उसने उच्च स्वर में पूछा, "किसने कुएं को चट्टान से ढंक दिया है? "इसके उत्तर में कुएं के भीतर से ये शब्द सुनाई दिए।" मां, क्रोध में आकर पिताजी ने मुझे इस कुएं में डालकर इस पर चट्टान ढंक दिया है।"
धर्मिष्ठा यह उत्तर सुनकर भयभीत हो गई। उसने पूछा, "यह कंठध्वनि किसकी है?" इस बार स्पष्ट उत्तर मिला, "मैं तुम्हार पुत्र निशाकर हूं।" फिर क्या था, धर्मिष्ठा ने विस्मय में आकर कुएं पर से ढक्कन हटाया। कुएं से बाहर निकलकर निशाकर ने अपनी माता के चरणों में प्रणाम किए।
धर्मिष्ठा निशाकार को घर ले गई और सारा वृत्तांत अपने पति को सुनाया। कोशकार ने आश्चर्य में आकर पूछा, "बेटे, तुम तो मूक थे, कैसे बोल पाते हो?" निशाकर ने अपने पूर्वजन्मों का वृत्तांत सुनाया, "पिताजी, मेरे अंधे, मूक तथा जड़त्व को प्राप्त होने का कारण सुनिए। प्राचीन काल में मैं एक मुनि तथा माला नामक स्त्री का पुत्र था। विप्र वंश में मेरा जन्म हुआ था। उस समय मेरे पिताजी ने मुझे धर्म, अर्थ एवं काम-संबंधी शास्त्रों का अध्ययन कराया। मुझे अपने ज्ञान का अहंकार था।
मैंने सब प्रकार के दुष्कृत्य करके उन पापों के कारण मृत्यु के होते ही एक हजार वर्ष रौरव नरक भोगा। फिर मैंने एक बाघ का जन्म लिया। एक राजा ने जंगल से मुझे पकड़कार ले जाकर पिंजड़े में बंद करके अपने महल में रख लिया। परंतु पूर्वाभ्यास के कारण व्याघ्र जन्म मेुं भी मुझे सभी शास्त्र और अन्य कर्म स्मरण थे। एक दिन राजा की अद्भुत रूपवती पत्नी 'जिता' मेरे निकट आई।
मैं काममोहित हो रानी से बोला, "महारानी, रूप यौवनवती! आपका मधुर स्वर मन को मोह लेता है।" रानी भी कामवासना के वशीभूत हो गई। मेरे अनुरोध पर उसने पिंजड़े का द्वार खोल दिया। पिंजड़े से बाहर निकलकर मैंने बंधन तोड़कर रानी के साथ संयोग करना चाहा। इतने में राजसेवकों ने आकर मेरा वध कर डाला। पर-स्त्री गमन के पापों के विचार से मुझे पुन: एक हजार वर्ष का नरक प्राप्त हुआ।
इसके बाद मैंने एक तोता का जन्म लिया। एक भील युवक ने मुझे जाल में फंसाकर एक पिंजड़े में बंद किया और एक नगर में ले जाकर मुझे एक वणिक्-पुत्र के हाथ बेच डाला। उसने मुझे अपने महल में रखा। वहां की युवतियां मुझे फल आदि खिलाकर प्रेम से मेरा पालन-पोषण करने लगीं।
एक दिन की घटना है। वणिक्-पुत्र की पत्नी चंद्रवती ने मुझे पिंजड़े से बाहर निकाला। अपने कोमल हाथों में लेकर मुझे पुचकारा, प्यार किया और मेरे सुंदर रूप पर मुग्ध हो मुझे अपने वक्ष से लगाया। मैंने कामवासना से प्रेरित होकर उस युवती का संगम चाहा और उसके अधरों का चुंबन किया। कुछ वर्ष के पश्चात् मेरी मृत्यु हुई, परंतु इस पापाचार के कारण मुझे पुन: नरक की प्राप्ति हुई।
नरकवास के पश्चात् मैंने चंडाल पत्तन में बैल का जन्म लिया। एक बार उस चंडाल ने मुझे एक गाड़ी में जोत लिया। उस गाड़ी में वह अपनी नवोढ़ा पत्नी के साथ, जो अत्यंत सुंदर थी, एक वन की ओर मुझे हांक ले गया। गाड़ी में आगे चंडाल बैठा हुआ था और पीछे उसकी पत्नी।
वह युवती मधुर कंठ से गीत गाने लगी। उस चंडाली का मधुर गीत सुनकर मेरा मन विचलित हो गया। उस मीठी तान को सुनते स्तब्ध हो, मैं पीछे मुड़कर उस रमणी की आंखों में देखता ही रह गया। क्रमश: मेरी चाल धीमी हो गई और मैं चलना भूलकर स्थिर खड़ा रह गया। इस समय एक झटका हुआ। जुए से बंधे रस्सी ने मेरा कंठ कस लिया और मेरे प्राण पंचभूतों में विलीन हो गए। इस पाप-कर्म के लिए मुझे एक हजार वर्ष का रौरव नरक भोगना पड़ा।
अब इस चौथे जन्म में मैं आपके घर में मूक, अंधे और जड़ बनकर पैदा हुआ। परंतु पूर्वजन्म-कृत अभ्यास के कारण इस जन्म में भी मुझे समस्त शास्त्रों का ज्ञान स्मरण है। मैं ज्ञानी था, इस कारण मन, वाणी व कर्मणा द्वारा कृत घोर पापों की स्मृति बनाए रख सका।
पूर्वजन्मों में मैंने जो दुष्कृत्य किए थे, उनके प्रति मैं पश्चाताप करता रहा। फलत: मेरे मन में निर्वेद पैदा हुआ, इसलिए मैं इस जन्म में समस्त पापों से मुक्त होना चाहता हूं। इसलिए आपसे मेरा सादर निवेदन है कि मैं अपने पूर्वजन्मों के पापों के परिहार हेतु वानप्रस्थ में जाना चाहता हूं। आप मेरा निवेदन स्वीकार करके दिवाकर को गृहस्थाश्रम में प्रवेश कराकर संतुष्ट हो जाइए।
इसके पश्चात् निशाकर ने अपने-पिता के चरणों में भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और वानप्रस्थ में प्रवेश करने के लिए बदरिकाश्रम की ओर निकल पड़ा।
प्राचीन काल में मुद्गल नामक एक मुनि थे। इनके कोशकार नाम का एक पुत्र था, जो समस्त शास्त्रों के ज्ञाता थे। वात्स्यायन की पुत्री धर्मिष्ठा उनकी सहधर्मिणी थी। इस दम्पति के एक पुत्र हुआ। वह जन्म से ही जड़ प्रकृति का था। अंधा था और मूक भी। साध्वी धर्मिष्ठा ने सोचा कि वह बालक अचेतन है। इसलिए छठे दिन वह उस शिशु को अपने गृह के द्वार के सामने छोड़ आई।
उन दिनों में समीप के जंगल में 'शूर्पाक्षी' नामक एक राक्षसी निवास करती थी। वह शिशुओं को चुराकर उन्हें मारकर खाया करती थी। शूर्पाक्षी ने कोशकार के द्वार पर एक शिशु को देखा, तब वह अपने एक कृशकाय शिशु को वहां पर छोड़कर कोशकार के पुत्र को उठाकर एक पहाड़ पर ले गई और उस शिशु को खाना ही चाहती थी। शूर्पाक्षी का पति घटोधर अंधा था। उसने शूर्पाक्षी के पैरों की आहट पाकर पूछा, "कैसा आहार ले आई हो?"
शूर्पाक्षी ने उत्तर दिया, "अपने शिशु को कोशकार के द्वार पर छोड़कर उनके शिशु को उठा लाई हूं।" तुमने बड़ा बुरा किया। वे महान तपस्वी और ज्ञानी हैं। वे क्रोध में आकर श्राप देंगे। इसलिए तुम इसी वक्त इस शिशु को कोशकार के द्वार पर छोड़ किसी दूसरे शिशु को उठा लाओ।
कोशकार के द्वार पर राक्षस शिशु अंगूठा मुंह में डाले रोने लगा। शिशु का रुदन सुनकर कोशकार अपनी कुटिया से बाहर आए ओर उस शिशु को देखकर मंदहास करते हुए अपनी पत्नी से बोले, "सुनो, यह कोई भूत है। लगता है कि यह हमें धोखा देने के लिए यहां पर आया है।" यह कहकर कोशकार ने मत्र पठन करके राक्षस के शिशु को बोध दिया। इस बीच शूर्पाक्षी काशकार के शिशु को उठाकर ले आई। परंतु मंत्र के प्रभाव के कारण वह अपने पुत्र गिराकर दुखी हो, अपने पति के पास गई और अपनी करनी पर पछताने लगी।
कोशकार ने दोनों शिशुओं को अपनी पत्नी के हाथ सौंप दिया। मुनि के आश्रम में दोनों बच्चे पलने लगे। जब वे बच्चे सात वर्ष के हुए, तब कोशकार ने उनका नामकरण किया-दिवाकर और निशाकर। यथा समय दोनों का उपनयन करके वेदपाठ आरंभ किया। दिवाकर वेद-पठन करने लगा, परंतु निशाकर उच्चारण नहीं कर पाया- सब कोई उसे देख घृणा करने लगे। आखिर बालक के पिता कोशकार ने क्रोधावेश में आकर उसको एक निर्जन कुएँ में डाल दिया और जगह पर एक चट्टान ढंक दिया।
दस वर्ष बीत गए। किसी कार्य से कोशकार की पत्नी धर्मिष्ठा उस कुएं के पास पहुंची। कुएं पर चट्टान ढंका हुआ देख उसने उच्च स्वर में पूछा, "किसने कुएं को चट्टान से ढंक दिया है? "इसके उत्तर में कुएं के भीतर से ये शब्द सुनाई दिए।" मां, क्रोध में आकर पिताजी ने मुझे इस कुएं में डालकर इस पर चट्टान ढंक दिया है।"
धर्मिष्ठा यह उत्तर सुनकर भयभीत हो गई। उसने पूछा, "यह कंठध्वनि किसकी है?" इस बार स्पष्ट उत्तर मिला, "मैं तुम्हार पुत्र निशाकर हूं।" फिर क्या था, धर्मिष्ठा ने विस्मय में आकर कुएं पर से ढक्कन हटाया। कुएं से बाहर निकलकर निशाकर ने अपनी माता के चरणों में प्रणाम किए।
धर्मिष्ठा निशाकार को घर ले गई और सारा वृत्तांत अपने पति को सुनाया। कोशकार ने आश्चर्य में आकर पूछा, "बेटे, तुम तो मूक थे, कैसे बोल पाते हो?" निशाकर ने अपने पूर्वजन्मों का वृत्तांत सुनाया, "पिताजी, मेरे अंधे, मूक तथा जड़त्व को प्राप्त होने का कारण सुनिए। प्राचीन काल में मैं एक मुनि तथा माला नामक स्त्री का पुत्र था। विप्र वंश में मेरा जन्म हुआ था। उस समय मेरे पिताजी ने मुझे धर्म, अर्थ एवं काम-संबंधी शास्त्रों का अध्ययन कराया। मुझे अपने ज्ञान का अहंकार था।
मैंने सब प्रकार के दुष्कृत्य करके उन पापों के कारण मृत्यु के होते ही एक हजार वर्ष रौरव नरक भोगा। फिर मैंने एक बाघ का जन्म लिया। एक राजा ने जंगल से मुझे पकड़कार ले जाकर पिंजड़े में बंद करके अपने महल में रख लिया। परंतु पूर्वाभ्यास के कारण व्याघ्र जन्म मेुं भी मुझे सभी शास्त्र और अन्य कर्म स्मरण थे। एक दिन राजा की अद्भुत रूपवती पत्नी 'जिता' मेरे निकट आई।
मैं काममोहित हो रानी से बोला, "महारानी, रूप यौवनवती! आपका मधुर स्वर मन को मोह लेता है।" रानी भी कामवासना के वशीभूत हो गई। मेरे अनुरोध पर उसने पिंजड़े का द्वार खोल दिया। पिंजड़े से बाहर निकलकर मैंने बंधन तोड़कर रानी के साथ संयोग करना चाहा। इतने में राजसेवकों ने आकर मेरा वध कर डाला। पर-स्त्री गमन के पापों के विचार से मुझे पुन: एक हजार वर्ष का नरक प्राप्त हुआ।
इसके बाद मैंने एक तोता का जन्म लिया। एक भील युवक ने मुझे जाल में फंसाकर एक पिंजड़े में बंद किया और एक नगर में ले जाकर मुझे एक वणिक्-पुत्र के हाथ बेच डाला। उसने मुझे अपने महल में रखा। वहां की युवतियां मुझे फल आदि खिलाकर प्रेम से मेरा पालन-पोषण करने लगीं।
एक दिन की घटना है। वणिक्-पुत्र की पत्नी चंद्रवती ने मुझे पिंजड़े से बाहर निकाला। अपने कोमल हाथों में लेकर मुझे पुचकारा, प्यार किया और मेरे सुंदर रूप पर मुग्ध हो मुझे अपने वक्ष से लगाया। मैंने कामवासना से प्रेरित होकर उस युवती का संगम चाहा और उसके अधरों का चुंबन किया। कुछ वर्ष के पश्चात् मेरी मृत्यु हुई, परंतु इस पापाचार के कारण मुझे पुन: नरक की प्राप्ति हुई।
नरकवास के पश्चात् मैंने चंडाल पत्तन में बैल का जन्म लिया। एक बार उस चंडाल ने मुझे एक गाड़ी में जोत लिया। उस गाड़ी में वह अपनी नवोढ़ा पत्नी के साथ, जो अत्यंत सुंदर थी, एक वन की ओर मुझे हांक ले गया। गाड़ी में आगे चंडाल बैठा हुआ था और पीछे उसकी पत्नी।
वह युवती मधुर कंठ से गीत गाने लगी। उस चंडाली का मधुर गीत सुनकर मेरा मन विचलित हो गया। उस मीठी तान को सुनते स्तब्ध हो, मैं पीछे मुड़कर उस रमणी की आंखों में देखता ही रह गया। क्रमश: मेरी चाल धीमी हो गई और मैं चलना भूलकर स्थिर खड़ा रह गया। इस समय एक झटका हुआ। जुए से बंधे रस्सी ने मेरा कंठ कस लिया और मेरे प्राण पंचभूतों में विलीन हो गए। इस पाप-कर्म के लिए मुझे एक हजार वर्ष का रौरव नरक भोगना पड़ा।
अब इस चौथे जन्म में मैं आपके घर में मूक, अंधे और जड़ बनकर पैदा हुआ। परंतु पूर्वजन्म-कृत अभ्यास के कारण इस जन्म में भी मुझे समस्त शास्त्रों का ज्ञान स्मरण है। मैं ज्ञानी था, इस कारण मन, वाणी व कर्मणा द्वारा कृत घोर पापों की स्मृति बनाए रख सका।
पूर्वजन्मों में मैंने जो दुष्कृत्य किए थे, उनके प्रति मैं पश्चाताप करता रहा। फलत: मेरे मन में निर्वेद पैदा हुआ, इसलिए मैं इस जन्म में समस्त पापों से मुक्त होना चाहता हूं। इसलिए आपसे मेरा सादर निवेदन है कि मैं अपने पूर्वजन्मों के पापों के परिहार हेतु वानप्रस्थ में जाना चाहता हूं। आप मेरा निवेदन स्वीकार करके दिवाकर को गृहस्थाश्रम में प्रवेश कराकर संतुष्ट हो जाइए।
इसके पश्चात् निशाकर ने अपने-पिता के चरणों में भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और वानप्रस्थ में प्रवेश करने के लिए बदरिकाश्रम की ओर निकल पड़ा।
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