जाने लक्ष्मी के होते हुए श्रीविष्णु के साथ किस तरह हुआ कलावती का विवाह

धर्मशास्त्र में दशविध विवाहों की चर्चा है। इनमें से प्रमुख हैं गांधर्व विवाह, राक्षस विवाह और माता-पिता द्वारा निर्धारित विवाह। इस विधान के बावजूद कन्या का विवाह प्राचीन काल से ही एक प्रश्नचिह्न् बना रहा है। आज भी यह समस्या प्रासंगिक है। पुराण युग में यह समस्या कितनी जटिल थी, स्कंद पुराण की इस कथा से यह पता चलता है : 

महर्षि अगत्स्य ने तपस्या करने आई कलावती से पूछा, "बेटी, तुम कहां से आ रही हो? इस अल्पायु में तपस्या करने का कारण क्या है?"

महर्षि के इस प्रश्न पर कलावती ने वृत्तांत सुनाया कि प्राचीन काल में कांपिल्य नगर में धर्मसेतु नामक राजा शासन करते थे। उनकी सहधर्मिणी कुमुद्धती के कोई संतान न थी। धर्मसेतु ने संतान प्राप्ति के लिए अनेक दान, धर्म, व्रत और उपवास किए, तीर्थाटन भी किया, परंतु उनकी मनोकामना पूरी नहीं हुई।

एक बार राजमहल में भिक्षा के लिए एक योगिनी आई, परंतु भिक्षा ग्रहण किए बिना लौटने लगी। रानी कुमुद्धती ने योगिनी से पूछा, "आप भिक्षा पाने के लिए आईं, किंतु भिक्षा ग्रहण किए बिना क्यों लौट रही हैं?

योगिनी ने कहा, "आप पुत्रवती नहीं हैं, इसीलिए मैं आपके हाथ की भिक्षा नहीं ग्रहण करूंगी।" इस पर रानी ने योगिनी से विनती की कि वह भोजन ग्रहण करके ही राजमहल से लौटे।

योगिनी ने रानी कुमुद्धती की प्रार्थना सुन ली। बहुविध मिष्ठान्न ग्रहण करके संतुष्ट होकर वरदान दिया, "कुमुद्धती, यह उत्तम फल ग्रहण करो। इमली के वन में इस फल का सेवन करके संतान लाभ करो।"

तपस्विनी ने महर्षि से कहा, "रानी ने योगिनी के आदेशानुसार इमली वन में प्रवेश किया तो एक पेड़ पर फल देखा। उस फल का सेवन करके एक पुत्र तथा एक पुत्री को जन्म दिया। रानी ने अपने पुत्र का नाम इंद्रकीर्ति तथा पुत्री का नाम कलावती रखा। मैं वही कलावती हूं।"

कलावती ने आगे का वृत्तांत सुनाया, "मेरे वयस्क होते ही राजा धर्मसेतु ने मेरा विवाह करने का संकल्प किया। मनीषियों का मानना है कि कन्या के वयस्क होने पर उसका विवाह न करने से उसका दोष माता-पिता को लगता है। अलावा इसके मातृवंश, पितृवंश तथा श्वसुरवंश के उद्धार के लिए कन्या का विवाह अनिवार्य होता है। यह दायित्व कन्या के पिता का बनता है। इसीलिए कन्या माता-पिता के लिए दुख का कारणभूत बन जाती है। मेरे विवाह को लेकर मेरे पिता राजा धर्मसेतु चिंतित थे। आखिर समस्त राजाओं के पास आमंत्रण-पत्र भेजकर मेरे स्वयंवर का प्रबंध किया।"

"उस स्वयंवर में अंग, वंग, कलिंग इत्यादि अनेक देशों के राजा पधारे। मेरे सौंदर्य पर मुग्ध हो सभी राजा मोहजाल में फंस गए। एक राजा ने स्वयंवर मंडप में आगे बढ़कर कहा, "यह राजकन्या मेरी है। मैं इसके साथ विवाह करना चाहता हूं।" दूसरे ने इसका प्रतिवाद करते हुए कहा, "नहीं, इस कन्या को मैं अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं।" तीसरे ने कहा, "मैं तुम दोनों से कहीं अधिक पराक्रमी हूं और मेरा राज्य बड़ा है।" 

"इस तरह प्रत्येक राजा ने अभिमान में आकर परस्पर द्वंद्व युद्ध किया। आखिर स्वयंवर में आए हुए सभी राजा आपस में लड़ मरे। परिणामस्वरूप स्वयंवर भंग हुआ। इसी चिंता में मेरे पिताजी ने प्राण त्याग दिए, मेरी माताजी ने अपने पति का अनुगमन किया। इस पर वृद्ध मंत्रियों ने मंत्रणा करके मेरे भाई इंद्रकीर्ति का राज्याभिषेक किया। मैं माता-पिता से वंचित होकर अनाथ बन गई।"

"राज्य, धन-संपत्ति, बंधु-बांधव, मित्र, दान-धर्म इत्यादि स्त्री के लिए सुखदायक नहीं हो सकते। दांपत्य जीवन नारी के लिए स्वर्गतुल्य है। इसलिए मैं दांपत्य जीवन प्राप्त करने के लिए व्याकुल रहने लगी। मंत्रियों ने मुझे सांत्वना दी। परंतु समाज मुझे मातृ-पितृ तथा राजहंता कहकर मेरी निंदा करता रहा। आखिर मैं तंग आकर अपने पिता का घर छोड़कर निकल आई। आत्महत्या करने के विचार से प्रयाग क्षेत्र में पहुंची, किंतु आत्महत्या महापाप है, यह पुराणोक्ति सुनकर मैंने अपना विचार बदल लिया।"

"अंत में मुनि भरद्वाज के अनुग्रह से मैं दीक्षित हो गई। भरद्वाज महर्षि ने मुझे बताया कि विंध्याचल के दक्षिण में स्थित विरजा क्षेत्र पापविनाशकारी है। इसलिए मैंने संकल्प किया कि विरजा तीर्थ में घोर तपस्या करके वहीं पर अपना शरीर त्याग दूंगी। मेरी तपस्या का उद्देश्य है- चाहे मुझे अनेक जन्म भले ही धारण करना पड़े, किंतु मैं श्रीमहाविष्णु को ही अपने पति के रूप में प्राप्त करना चाहती हूं। उनके अतिरिक्त मैं किसी अन्य पुरुष को अपने पति के रूप में प्राप्त करने की कामना नहीं रखती।"

महर्षि अगत्स्य ने कलावती से सारा वृत्तांत सुना और सलाह दी, "तुम विरजा तीर्थ में जाकर तप करो।" फिर उन्होंने कंद-मूल, फल देकर उसका अतिथि सत्कार किया। एक रात महर्षि अगत्स्य के आश्रम में बिताकर सुबह होते ही महर्षि की अनुमति लेकर कलावती तपस्या करने निकल पड़ी।

विरजा क्षेत्र में पहुंचकर वैष्णव-मंत्र का जाप करते हुए कलावती ने तप आरंभ किया। शिशिर ऋतु में कटि तक जल में खड़े रहकर तप किया, ग्रीष्म ऋतु और वर्षा काल में खुले मैदान में। हेमंत में गीले वस्त्र धारण कर और वसंत में धूप में खड़े हाकर तप करती रही। जप, तप, उपवास और व्रत के साथ धूप-दीप, पुष्पों से कलावती ने विष्णु की आराधना की। आखिर उसकी तपस्या सफल हुई। 

शंख, चक्र, गदा, वैजयंती एवं पीतांबरधारी विष्णु गरुड़ पर सवार हो लक्ष्मी समेत कलावती के सामने प्रत्यक्ष हुए और वांछित वर मांगने को कहा। कलावती ने जनार्दन को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके निवेदन किया, "भगवन् मैं पति कामिनी हूं। मैं आदि-मध्यांत रहित श्रीमहाविष्णु को अपने पति के रूप में पाना चाहती हूं।"

विष्णु के समीप स्थित लक्ष्मीदेवी ने कुपित होकर कलावती से पूछा, "मेरे रहते तुम मेरे पति को कैसे वरण कर सकती हो? इस जन्म में तुम कभी इनकी पत्नी नहीं हो सकती। अगले जन्म में भी मैं ही श्रीमहाविष्णु की पत्नी बनूंगी।" 

इस पर श्रीमहाविष्णु ने कलावती से कहा, "श्रीमहालक्ष्मी का कथन सत्य होगा। परंतु कलावती सुनो, इस समय कृतयुग चल रहा है। त्रेता युग के पश्चात् द्वापर युग में मैं यदुवंश में जन्म धारण करूंगा। देवकी-वसुदेव पुण्य दंपति हैं। मैं उनके घर में अवतार लूंगा। उस समय लक्ष्मीदेवी भूलोक में रुक्मिणी के नाम से जन्म धारण करेगी। तुम सत्राजित की पुत्री सत्यभामा के रूप में जन्म धारण करोगी। तुम चिंता न करो। द्वापर में तुम मेरे लिए अत्यंत प्रियतमा बनोगी। इस बीच तुम पुण्यलोक प्राप्त करके मेरी पत्नी के रूप में जन्म लोगी।" यह वरदान देकर श्रीमहाविष्णु अंतर्धान हो गए।

कलावती को पुण्यलोक प्राप्त हुआ। द्वापर युग में सत्यभामा के रूम में जन्म धारण करके वह श्रीकृष्ण की पत्नी बनी। इसी प्रकार सती ने कन्या का व्रत करके शंकर को पति के रूप में प्राप्त किया और उनकी अर्धागनी बनी थी।

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