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टैगोर ने दिया था 'महात्मा गांधी' नाम

भारतीय जीवन को जिन मनीषियों ने गहरे रूप से प्रभावित किया, उनमें महात्मा गांधी का नाम अग्रणी है। उनके विराट व्यक्तित्व का असर यह है कि उन्हें धर्म, जाति, भाषा, प्रांत की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। वे इन सबसे परे देश-काल की सीमाओं को लांघ जाते हैं। शायद यही वजह है कि भारतीय जनमानस ने उन्हें 'राष्ट्रपिता' माना है। 

महात्मा गांधी का पूरा नाम मोहन दास करमचंद गांधी था। हम उन्हें महात्मा गांधी के नाम से जानते हैं। महात्मा का अर्थ होता है; जिसके पास महान आत्मा हो। उन्हें इस उपनाम से विश्वप्रसिद्ध कवि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने नवाजा था। 

गांधी का जन्म गुजरात के पोरबंदर में 2 अक्टूबर, 1869 को हुआ था। उनके पिता करमचंद गांधी पोरबंदर के तत्कालीन राजा के दीवान थे। 13 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह कस्तूरबा के साथ हुआ था। गांधी पर भारतीय पुराकथाओं खास तौर से राजा हरिश्चंद्र की कथा का गहरा असर पड़ा था। इस बात का जिक्र गांधी ने अपनी आत्मकथा में भी किया है।

1888 में गांधी उच्च शिक्षा के लिए लंदन चले गए और वहां उन्होंने कानून की पढ़ाई की। वहां शाकाहार के आग्रही गांधी को कई दिनों तक भूखे ही रहना पड़ा और अंतत: उन्होंने शकाहारी भोजन तलाश लिया। हेनरी साल्ट के लेखन से प्रभावित गांधी ने वहां शाकाहार समुदाय की सदस्यता ग्रहण की और अपने आग्रही स्वभाव के कारण इसकी कार्यकारिणी में शामिल किए गए।

1891 में गांधी अपनी कानून की पढ़ाई पूरी कर भारत लौटे और बम्बई (मुंबई) में वकील के रूप में काम करना शुरू किया, लेकिन बोलने में झिझकने वाले गांधी यहां असफल साबित हुए। 1893 में वे एक वर्ष के करार पर दक्षिण अफ्रीका चले गए, जहां उन्हें दादा अब्दुल्ला एंड को. ने उन्हें अपना कानूनी सलाहकार नियुक्त किया था।

दक्षिण अफ्रीका में उन दिनों नस्लभेद चरम पर था। प्रथम दर्जे का टिकट होते हुए भी गांधी को ट्रेन से अपमानजनक तरीके से उतार दिया गया। इस एक घटना ने गांधी के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया और उन्होंने वहां रंगभेद के खिलाफ लड़ने की ठान ली। उसी लड़ाई ने गांधी को पहचान दिलाई जिसके बाद वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत बने।

गांधीजी ने जीवन में सत्य की अनुभूति करने के लिए तमाम तरह की नकारात्मक प्रवृत्तियों से बचाते हुए उन्होंने स्वयं पर ही कई तरह के प्रयोग किया। गांधीजी न तो शिक्षाविद् थे, न सिद्धांतकार। खुद को ज्ञानी पंडित की तरह पेश करने के लिए उन्होंने कभी शब्दाडंबर का सहारा नहीं लिया। 

उन्हें भलिभांति मालूम था कि उनकी कही हर बात को भारत और दुनिया भर के करोड़ों लोग गंभीरता से लेते हैं, उन्होंने कभी भी अपने विचारों को सिद्धांत रूप देने की कोशिश नहीं की। 

वे एक स्वप्नदर्शी, एक व्यावहारिक आदर्शवादी और इन सबसे भी ऊपर एक कर्मयोगी थे। उन्होंने दुनिया को दिखाया कि किस तरह शुद्ध इच्छाशक्ति से आदमी हर तरह की दासता; चाहे वह राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या नैतिक हो, से मुक्ति पा सकता है। सत्य का पालन करने के लिए वे शहादत देने तक की इच्छाशक्ति से लैस थे और इसी ताकत ने उन्हें उस रूप में खड़ा किया जिसे आज हम गर्व और आदर से देखते हैं।

शब्द और कर्म के जरिए गांधीजी का दुनिया में अवदान कोई मामूली उपलब्धि नहीं है। उनका सत्याग्रह हालांकि साधारण आदमी के लिए सहज बोधगम्य नहीं है, फिर भी इस का व्यापक अर्थ परिणाम की चिंता किए बगैर हर हाल में सत्य का दामन थामे रहने के अलावा कुछ और नहीं है। इसी के प्रति आग्रह रखने के कारण गांधीजी आज भी पूजे और याद किए जाते हैं। उनका यही आग्रह 'गांधीवाद' के नाम से महात्मा की विरासत के तौर पर दुनिया में उपलब्ध है। 

वे एक चिंतक के साथ-साथ कर्मयोगी भी थे। अपनी अपर्याप्तता के लिए वे अक्सर आलोचना के पात्र बनते थे, लेकिन अपने आदर्श के साथ समझौता करने के लिए कभी भी वे दबाव में नहीं आए। 

गांधी के अपने सिद्धांतों के प्रति समर्पण को इसी से समझा जा सकता है कि विभाजन के बाद मिली आजादी का जब देश जश्न मना रहा था तब वे नूआखाली में सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ उपवास कर रहे थे। इस विराटा व्यक्तित्व का अत्यंत दारुण अंत 30 जनवरी 1948 को तब हुआ जब एक सिरफिरे नाथूराम गोडसे ने दिल्ली में प्रार्थना सभा के लिए जाते समय उनके सीने में तीन गोलियां दाग दीं। गांधी 'हे राम' बोलकर सदा के लिए सो गए।

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