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हिन्दू के लिए ‘देव’ और सपेरों की ‘रोजी-रोटी’ हैं नाग!

नागपंचमी में हिन्दू समाज जिस नाग को ‘देवता’ मान पूजा-अर्चना करता है, वह हिन्दू समाज के ही अनुसूचित वर्गीय सपेरा समुदाय की सिर्फ ‘रोजी-रोटी’ है। इनके मासूम बच्चे जहरीले सांपों के साथ खेल कर अपना सौख पूरा करते हैं और स्कूल जाने की जगह ‘पिटारी’ और ‘बीन’ बजाने के गुर सीखने को मजबूर हैं।

इस देश में हिन्दू समाज में एक वर्ग ऐसा भी है जो बेहद मुफलिसी का जीवन गुजार रहा है। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड़ की सीमा से सटे इलाहाबाद जिले के शंकरगढ़ इलाके में आधा दर्जन गांवों में अनुसूचित वर्गीय सपेरा समाज के करीब साढ़े चार सौ परिवार आबाद हैं, इनका सुबह से शाम तक दैनिक कार्य जहरीले सांप पकड़ना और ‘बीन’ के इशारे पर नचा कर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना है। सपेरा समुदाय का आर्थिक ढांचा बेहद कमजोर होने वह अपने बच्चों को खिलैनों की जगह जहरीले सांप और स्कूली बस्ते के स्थान पर सांप पालने वाली ‘पिटारी’ और ‘बीन’ थमा देते हैं, ताकि आगे चल कर इस पुश्तैनी पेशे से जुड़े रहें।

शंकरगढ़ के सहने वाला सपेरा बाबा दिलनाथ बताता है कि ‘करीब आधा दर्जन गांवों में उनकी बिरादरी के साढ़े चार सौ परिवार पीढि़यों से आबाद हैं। सरकार ने सांप पकड़ने और उनके प्रदर्शन करने में रोंक तो लगा दी है, मगर रोटी का अन्य ‘सहारा’ नहीं दिया, जिससे चोरी छिपे सांप नचाना मजबूरी बना हुआ है।’ वह बताता है कि ‘सांप मांसाहारी जीव है, यह कभी दूध नहीं पीता, भगवान शिव का श्रंगार मान अधिकांश हिन्दू इसे देवता मानते हैं, लेकिन हमारे लिए यह सिर्फ ‘रोजी-रोटी’ है।

सपेरों का एक कुनबा बांदा जिले के अतर्रा कस्बे में नागपंचमी के त्योहार में बरसाती की पन्नी डाल कर डेरा जमाए है, इस कुनबे के 13 वर्षीय बालक चंद्रनाथ को ‘पिटारी’ और ‘बीन’ उसके पिता ने बिरासत में दिया है। वह कस्बे में घूम-घूम कर जहरीले सांपों का प्रदर्शन कर रहा है, उसने बताया कि ‘वह भी पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बनना चाहता है, लेकिन परिवार की माली हालत उसे पुश्तैनी पेश में खींच लायी है। यह संवाददाता शनिवार की सुबह जब सपेरों की इस झोपड़ी में गया तो वहां नजारा देख भौंचक्का रह गया। मासूम बच्चे शनि, बली और चंदू मिट्टी के खिलौनों से नहीं, बल्कि जहरीले सांप और विषखापर से खेल रहे थे। कुनबे में मौजूद महिला सोमवती ने बताया कि ‘मिट्टी के खिलौना खरीदने के लिए पैसे नहीं है, सो बच्चे इन्हीं सांपों से खेल कर अपना सौख पूरा कर लेते हैं।’

pardaphash

बुंदेलखंड में अब नहीं सुनाई देते सावन के गीत

'झूला तो पड़ गयो अमवा की डार मा.' सावन का महीना आते ही बुंदेलखंड के हर बगीचे में झूले पड़ जाया करते थे और बुंदेली महिलाएं 'ढोल-मंजीरे' की थाप में इस तरह के सावन के गीत गाया करती थीं। लेकिन, अब जहां एक ओर बगीचे नहीं बचे, वहीं दूसरी ओर सावन गीत के स्वर दूर-दूर तक नहीं सुनाई दे रहे। 

बुंदेलखंड पुरानी परम्पराओं व रिवाजों का गढ़ रहा है। यहां हर तीज-त्यौहार बड़े ही हर्षोल्लास और भाईचारे के साथ मनाने का रिवाज रहा है। सावन का महीना आते ही बाग-बगीचों में झूले पड़ जाया करते थे और बुंदेली महिलाएं दो गुटों में बंट कर 'ढोल-मंजीरे' की थाप में मोरों की आवाज के बीच सावन गीत गाया करती थीं। 

इन्हीं गीतों के साथ ससुराल से नैहर वापस आईं बेटियां झूलों में 'पींग' भरती थीं। अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है। बुंदेलखंड के लोग अपने हरे-भरे आम के बागों का नामोशिान मिटा रहे हैं। इससे न तो झूले डालने की गुंजाइश बची है और न ही महिलाएं गीत गाती नजर आ रहीं हैं। रही बात राष्ट्रीय पक्षी मोर की तो वह यदा-कदा ही दिखाई दे रहे हैं।

बांदा जिले के तेन्दुरा गांव की बुजुर्ग महिला सुरतिया कहती हैं, "एक दशक पूर्व तक इस गांव के चारों तरफ बस्ती से लगे हुए कई आम के बगीचे थे, जहां सावन मास में झूले लगा करते थे।" 

इसी गांव के एक अन्य बुजुर्ग देउवा माली ने बताया, "पहले हर किसी के मन में बेटियों के प्रति सम्मान हुआ करता था, अब राह चलते छेड़छाड़ की घटनाएं हो रही हैं। साथ ही आपसी सामंजस्य व भाईचारा नहीं रह गया, जिससे बेटियों को दूर-दराज बचे बगीचों में भेजने से डर लगता है।"