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दुनिया को अलविदा कहा, पर यादों में अमर रहेंगे प्राण

बहुमुखी प्रतिभा के अभिनेता प्राण के स्वाभाविक अभिनय और प्रतिभा की पराकाष्ठा ही थी कि 70-80 के दशक में लोगों ने अपने बच्चों का नाम प्राण रखना बंद कर दिया था। प्राण ने मशहूर हिंदी फिल्मों में खलनायक की भूमिका निभाई थी और वह अपने किरदार के चित्रण में इस कदर निपुण थे कि दर्शकों में उनकी छवि ही नकारात्मक बन गई थी। 

हिंदी सिनेमा जगत के प्रख्यात चरित्र अभिनेता प्राण का शुक्रवार को मुंबई के लीलावती अस्पताल में निधन हो गया। 93 वर्ष के प्राण लम्बे समय से अस्वस्थ चल रहे थे। उन्होंने रात 8.30 बजे अस्पताल में आखिरी सांस ली। 

प्राण को इस साल दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया था। लेकिन वह इतने बीमार थे कि पुरस्कार ग्रहण करने दिल्ली नहीं आ पाए। बाद में सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने उनके घर जाकर उन्हें अवार्ड दिया। इससे पहले साल 2001 में भारत सरकार ने उन्हें देश के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

सन् 1920 के फरवरी माह में पुरानी दिल्ली के बल्लीमरान मुहल्ले में केवल कृष्ण सिकंद के घर पैदा हुए प्राण का पूरा नाम 'प्राण किशन सिकंद' था, लेकिन फिल्म जगत में वह प्राण नाम से ही मशहूर थे। उनके शुरुआती जीवन के कुछ वर्ष और शिक्षा उत्तर प्रदेश और पंजाब के अलग-अलग शहरों में हुई। 

प्राण ने अपनी पेशेवर जिंदगी की शुरुआत लाहौर में बतौर फोटोग्राफर की। साल 1940 में उनके भाग्य ने पलटा खाया, जब संयोग से उनकी मुलाकात मशहूर लेखक वली मोहम्मद वली से एक पान की दुकान पर हुई। वली ने उन्हें दलसुख एम. पंचोली की पंजाबी फिल्म 'यमला जाट' में भूमिका दिलाई और वह खलनायक के रूप में मशहूर हो गए। इसके बाद उन्होंने 'चौधरी' 'खजांची', 'खानदान', 'खामोश निगाहें' जैसी कई पंजाबी-हिंदी फिल्मों में छोटी-बड़ी भूमिकाएं निभाईं। लेकिन तब उनकी शोहरत लाहौर और उसके आस-पास तक ही सीमित थी।

भारत विभाजन के बाद प्राण सपरिवार मुंबई आ गए, तब तक वह तीन बच्चों के पिता बन चुके थे। यहां प्राण को एक बड़ा मौका देव आनंद की फिल्म 'जिद्दी' के रूप में 1948 में मिला और फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपने 74 सालों के फिल्मी करियर में प्राण ने अपनी अभिनय प्रतिभा के साथ कई प्रयोग किए। उन्होंने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही तरह के किरदार निभाए। लेकिन नकारात्मक किरदार उनकी पहचान थे।

फिल्म 'राम और श्याम' का वह दृश्य जिसमें प्राण के हाथों में थमा चाबुक फिल्म के नायक दिलीप कुमार की पीठ पर पड़ता था तो आह दर्शकों के दिल से निकलती थी। इसके अलावा फिल्म 'कश्मीर की कली', 'मुनीमजी' और 'मधुमति' में प्राण ने खलनायक के किरदार को नायक के बराबर ला खड़ा किया था।

अमिताभ बच्चन के साथ फिल्म 'जंजीर' में उनकी यादगार भूमिका के अलावा उन्होंने फिल्म 'हाफ टिकट', 'मनमौजी', 'अमर अकबर एंथनी' जैसी फिल्मों में भी अपने अभिनय का लोहा मनवाया, जिनमें वह खलनायक की भूमिका में नहीं थे। फिल्म 'उपकार' में विकलांग मंगल चाचा की भूमिका उनकी बहुमुखी प्रतिभा की मिसाल है।

प्राण साहब पर फिल्माए गए गीतों को वैसे तो एक से बढ़कर एक गायक कलाकारों ने अपनी आवाज दी, लेकिन मन्ना डे की आवाज और प्राण की अदाकारी लगता था कि जैसे एक-दूसरे के लिए ही बनीं हैं।

फिल्म 'उपकार' का 'कसमें वादे प्यार वफा', 'विश्वनाथ' का 'हाय जिंदड़ी ये हाय जिंदड़ी', 'सन्यासी' का गीत 'क्या मार सकेगी मौत' कुछ ऐसे गीत हैं जहां गीतों व अभिनय दोनों में गजब की गहराई और दर्शन विद्यमान है। वहीं 'जंजीर' का 'यारी है ईमान मेरा' दोस्त के लिए प्यार और समर्पण का चित्रण करता बेहतरीन गाना है और फिल्म 'दस नंबरी' का हास्य गीत 'न तुम आलू, न हम गोभी' और 'विक्टोरिया नम्बर 203' का 'दो बेचारे बिना सहारे' में प्राण की अदाकारी दर्शकों को हंसकर लोट-पोट होने को मजबूर करती है।

प्राण को करीबी रूप से जानने वालों का कहना है वह एक सज्जन, साफ दिल, उदार और बेहद अनुसाशित व्यक्ति थे।"

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