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अहोई अष्टमी आज, जानिए व्रत विधि और कथा

नई दिल्ली| कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को अहोई अष्टमी का व्रत किया जाता है| पुत्रवती महिलाओं के लिए यह व्रत अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह व्रत व पूजन संतान व पति के कल्याण हेतु किया जाता है| माताएं अहोई अष्टमी के व्रत में दिन भर उपवास रखती हैं और सायंकाल तारे दिखाई देने के समय अहोई माता का का पूजन किया जाता है। तारों को करवा से अर्ध्य भी दिया जाता है। इस दिन धोबी मारन लीला का भी मंचन होता है, जिसमें श्री कृष्ण द्वारा कंस के भेजे धोबी का वध करते प्रदर्शन किया जाता है। इस वर्ष अहोई अष्टमी का व्रत 3 नवंबर दिन मंगलवार को मनाया जा रहा है|

कहते हैं कि जिन्हें संतान का सुख प्राप्त नहीं हो पा रहा हो उन्हें अहोई अष्टमी व्रत अवश्य करना चाहिए क्योंकि संतान प्राप्ति हेतु अहोई अष्टमी व्रत अमोघफल दायक होता है| इसके लिए, एक थाल मे सात जगह चार-चार पूरियां एवं हलवा रखना चाहिए| इसके साथ ही पीत वर्ण की पोशाक-साडी एवं रूपये आदि रखकर श्रद्धा पूर्वक अपनी सास को उपहार स्वरूप देना चाहिए| शेष सामग्री हलवा-पूरी आदि को अपने पास-पडोस में वितरित कर देना चाहिए सच्ची श्रद्धा के साथ किया गया यह व्रत शुभ फलों को प्रदान करने वाला होता है|

अहोई अष्टमी व्रत विधि-

संतान की शुभता को बनाये रखने के लिये क्योकि यह उपवास किया जाता है इसलिये इसे केवल माताएं ही करती है| इस व्रत को रखने वाली माताएं प्रात: काल उठकर स्नान आदि करके अहोई माता का चित्रांकन करें| चित्रांकन में ज्यादातर आठ कोष्ठक की एक पुतली बनाई जाती है। उसी के पास सेह तथा उसके बच्चों की आकृतियां बना दी जाती हैं। उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अहोई माता का स्वरूप वहां की स्थानीय परंपरा के अनुसार बनता है। सम्पन्न घर की महिलाएं चांदी की अहोई बनवाती हैं। जमीन पर गोबर से लीपकर कलश की स्थापना होती है। अहोईमाता की पूजा करके उन्हें दूध-चावल का भोग लगाया जाता है। तत्पश्चात एक पाटे पर जल से भरा लोटा रखकर कथा सुनी जाती है। तारे निकलने पर इस व्रत का समापन किया जाता है| तारों को करवे से अर्ध्य दिया जाता है. और तारों की आरती उतारी जाती है| इसके पश्चात संतान से जल ग्रहण कर, व्रत का समापन किया जाता है|

पूजा पाठ करके अपनी संतान की दीर्घायु व सुखमय जीवन हेतू कामना करें और माता अहोई से प्रार्थना करें, कि हे माता मैं अपनी संतान की उन्नति, शुभता और आयु वृ्द्धि के लिये व्रत कर रही हूं, इस व्रत को पूरा करने की आप मुझे शक्ति दें| यह कर कर व्रत का संकल्प लें| एक मान्यता के अनुसार इस व्रत को करने से संतान की आयु में वृ्द्धि, स्वास्थय और सुख प्राप्त होता है| साथ ही माता पार्वती की पूजा भी इसके साथ-साथ की जाती है| क्योकि माता पार्वती भी संतान की रक्षा करने वाली माता कही गई है|

अहोई अष्टमी व्रत कथा-

प्राचीन काल में किसी नगर में एक साहूकार रहता था। उसके सात लड़के थे। दीपावली से पहले साहूकार की स्त्री घर की लीपा-पोती हेतु मिट्टी लेने खदान में गई और कुदाल से मिट्टी खोदने लगी। दैव योग से उसी जगह एक सेह की मांद थी। सहसा उस स्त्री के हाथ से कुदाल सेह के बच्चे को लग गई जिससे सेह का बच्चा तत्काल मर गया। अपने हाथ से हुई हत्या को लेकर साहूकार की पत्नी को बहुत दुख हुआ परन्तु अब क्या हो सकता था? वह शोकाकुल पश्चाताप करती हुई अपने घर लौट आई। कुछ दिनों बाद उसके बेटे का निधन हो गया। फिर अकस्मात दूसरा, तीसरा और इस प्रकार वर्ष भर में उसके सभी बेटे मर गए। महिला अत्यंत व्यथित रहने लगी। एक दिन उसने अपने आस-पड़ोस की महिलाओं को विलाप करते हुए बताया कि उसने जान-बूझ कर कभी कोई पाप नहीं किया। हाँ, एक बार खदान में मिट्टी खोदते हुए अंजाने में उससे एक सेह के बच्चे की हत्या अवश्य हुई है और तत्पश्चात मेरे सातों बेटों की मृत्यु हो गई।

यह सुनकर पास-पड़ोस की वृद्ध औरतों ने साहूकार की पत्नी को दिलासा देते हुए कहा कि यह बात बताकर तुमने जो पश्चाताप किया है उससे तुम्हारा आधा पाप नष्ट हो गया है। तुम उसी अष्टमी को भगवती माता की शरण लेकर सेह और सेह के बच्चों का चित्र बनाकर उनकी अराधना करो और क्षमा-याचना करो। ईश्वर की कृपा से तुम्हारा पाप धुल जाएगा। साहूकार की पत्नी ने वृद्ध महिलाओं की बात मानकर कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उपवास व पूजा-याचना की। वह हर वर्ष नियमित रूप से ऐसा करने लगी। बाद में उसे सात पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई। तभी से अहोई व्रत की परम्परा प्रचलित हो गई।

इसके अलावा एक और काठ प्रचलित है जो इस प्रकार है, प्राचीन काल में दतिया नगर में चंद्रभान नाम का एक आदमी रहता था। उसकी बहुत सी संतानें थीं, परंतु उसकी संताने अल्प आयु में ही अकाल मृत्यु को प्राप्त होने लगती थीं। अपने बच्चों की अकाल मृत्यु से पति-पत्नी दुखी रहने लगे थे। कालान्तर तक कोई संतान न होने के कारण वह पति-पत्नी अपनी धन दौलत का त्याग करके वन की ओर चले जाते हैं और बद्रिकाश्रम के समीप बने जल के कुंड के पास पहुंचते हैं तथा वहीं अपने प्राणों का त्याग करने के लिए अन्न-जल का त्याग करके उपवास पर बैठ जाते हैं। इस तरह छह दिन बीत जाते हैं तब सातवें दिन एक आकाशवाणी होती है कि, हे साहूकार! तुम्हें यह दुख तुम्हारे पूर्व जन्म के पाप से मिल रहे है।

अतः इन पापों से मुक्ति के लिए तुम्हें अहोई अष्टमी के दिन व्रत का पालन करके अहोई माता की पूजा-अर्चना करनी चाहिए, जिससे प्रसन्न हो अहोई माता तुम्हें पुत्र प्राप्ति के साथ-साथ उसकी दीर्घ आयु का वरदान देंगी। इस प्रकार दोनों पति-पत्नी अहोई अष्टमी के दिन व्रत करते हैं और अपने पापों की क्षमा मांगते हैं। अहोई मां प्रसन्न हो उन्हें संतान की दीर्घायु का वरदान देती हैं। आज के समय में भी संस्कारशील माताओं द्वारा जब अपनी सन्तान की इष्टकामना के लिए अहोई माता का व्रत रखा जाता है और सांयकाल अहोई मता की पूजा की जाती है तो निश्चित रूप से इसका शुभफल उनको मिलता ही है और सन्तान चाहे पुत्र हो या पुत्री, उसको भी निश्कंटक जीवन का सुख मिलता है।

हल षष्ठी 3 को, जानिए क्या है व्रत विधि और कथा

भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भैया बलरामजी (बलदाऊ) का जन्म हुआ था| बलरामजी का प्रधान शस्त्र हल तथा मूसल है। इसी कारण उन्हें हलधर भी कहा जाता है। उन्हीं के नाम पर इस पर्व का नाम 'हल षष्ठी' पड़ा। भारत के कुछ पूर्वी हिस्सों में इसे 'ललई छठ' भी कहा जाता है। मान्यता है इस दिन हल से जुते हुए अनाज व सब्जियों का सेवन नहीं किया जाता है| इसलिए महिलाएं इस दिन तालाब में उगे फसही के चावल खाकर व्रत रखती हैं| यह भी मान्यता है कि इस दिन गाय का दूध व दही इस्तेमाल में नहीं लाया जाता है इसदिन महिलाएं भैंस का दूध व दही इस्तेमाल करती है| इस बार हल षष्ठी का व्रत 3 सितम्बर को पड़ रहा है| 

हलछठ व्रत विधि-

इस व्रत को रखने वाली महिलाएं प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त हो जाएं। उसके पश्चात स्वच्छ वस्त्र धारण कर गोबर लाएं। उसके बाद पृथ्वी को लीपकर एक छोटा-सा तालाब बनाएं। इस तालाब में झरबेरी, ताश तथा पलाश की एक-एक शाखा बांधकर बनाई गई 'हरछठ' को गाड़ दें। तपश्चात इसकी पूजा करें। पूजा में सतनाजा (चना, जौ, गेहूं, धान, अरहर, मक्का तथा मूंग) चढ़ाने के बाद धूल, हरी कजरियां, होली की राख, होली पर भूने हुए चने के होरहा तथा जौ की बालें चढ़ाएं। हरछठ के समीप ही कोई आभूषण तथा हल्दी से रंगा कपड़ा भी रखें। पूजन करने के बाद भैंस के दूध से बने मक्खन द्वारा हवन करें। पश्चात कथा कहें अथवा सुनें।

हलछठ व्रत कथा

प्राचीन काल में एक ग्वालिन थी। उसका प्रसवकाल अत्यंत निकट था। एक ओर वह प्रसव से व्याकुल थी तो दूसरी ओर उसका मन गौ-रस (दूध-दही) बेचने में लगा हुआ था। उसने सोचा कि यदि प्रसव हो गया तो गौ-रस यूं ही पड़ा रह जाएगा। यह सोचकर उसने दूध-दही के घड़े सिर पर रखे और बेचने के लिए चल दी किन्तु कुछ दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा हुई। वह एक झरबेरी की ओट में चली गई और वहां एक बच्चे को जन्म दिया।

वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध-दही बेचने चली गई। संयोग से उस दिन हल षष्ठी थी। गाय-भैंस के मिश्रित दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने सीधे-सादे गांव वालों में बेच दिया। उधर जिस झरबेरी के नीचे उसने बच्चे को छोड़ा था, उसके समीप ही खेत में एक किसान हल जोत रहा था। अचानक उसके बैल भड़क उठे और हल का फल शरीर में घुसने से वह बालक मर गया। इस घटना से किसान बहुत दुखी हुआ, फिर भी उसने हिम्मत और धैर्य से काम लिया। उसने झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के चिरे हुए पेट में टांके लगाए और उसे वहीं छोड़कर चला गया।

कुछ देर बाद ग्वालिन दूध बेचकर वहां आ पहुंची। बच्चे की ऐसी दशा देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब उसके पाप की सजा है। वह सोचने लगी कि यदि मैंने झूठ बोलकर गाय का दूध न बेचा होता और गांव की स्त्रियों का धर्म भ्रष्ट न किया होता तो मेरे बच्चे की यह दशा न होती। अतः मुझे लौटकर सब बातें गांव वालों को बताकर प्रायश्चित करना चाहिए। ऐसा निश्चय कर वह उस गांव में पहुंची, जहां उसने दूध-दही बेचा था। वह गली-गली घूमकर अपनी करतूत और उसके फलस्वरूप मिले दंड का बखान करने लगी। तब स्त्रियों ने स्वधर्म रक्षार्थ और उस पर रहम खाकर उसे क्षमा कर दिया और आशीर्वाद दिया।

बहुत-सी स्त्रियों द्वारा आशीर्वाद लेकर जब वह पुनः झरबेरी के नीचे पहुंची तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गई कि वहां उसका पुत्र जीवित अवस्था में पड़ा है। तभी उसने स्वार्थ के लिए झूठ बोलने को ब्रह्म हत्या के समान समझा और कभी झूठ न बोलने का प्रण कर लिया।

हलछठ आज, पुत्र की लंबी आयु और उसके अच्छे स्वास्थ्य के लिए महिलाएं रखती हैं यह व्रत

भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भैया बलरामजी (बलदाऊ) का जन्म हुआ था| बलरामजी का प्रधान शस्त्र हल तथा मूसल है। इसी कारण उन्हें हलधर भी कहा जाता है। उन्हीं के नाम पर इस पर्व का नाम 'हल षष्ठी' पड़ा। भारत के कुछ पूर्वी हिस्सों में इसे 'ललई छठ' भी कहा जाता है। मान्यता है इस दिन हल से जुते हुए अनाज व सब्जियों का सेवन नहीं किया जाता है| इसलिए महिलाएं इस दिन तालाब में उगे फसही के चावल खाकर व्रत रखती हैं| यह भी मान्यता है कि इस दिन गाय का दूध व दही इस्तेमाल में नहीं लाया जाता है इसदिन महिलाएं भैंस का दूध व दही इस्तेमाल करती है| इस बार हलछठ का व्रत 16 अगस्त दिन शनिवार को पड़ रहा है|

हलछठ व्रत विधि-

इस व्रत को रखने वाली महिलाएं प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त हो जाएं। उसके पश्चात स्वच्छ वस्त्र धारण कर गोबर लाएं। उसके बाद पृथ्वी को लीपकर एक छोटा-सा तालाब बनाएं। इस तालाब में झरबेरी, ताश तथा पलाश की एक-एक शाखा बांधकर बनाई गई 'हरछठ' को गाड़ दें। तपश्चात इसकी पूजा करें। पूजा में सतनाजा (चना, जौ, गेहूं, धान, अरहर, मक्का तथा मूंग) चढ़ाने के बाद धूल, हरी कजरियां, होली की राख, होली पर भूने हुए चने के होरहा तथा जौ की बालें चढ़ाएं। हरछठ के समीप ही कोई आभूषण तथा हल्दी से रंगा कपड़ा भी रखें। पूजन करने के बाद भैंस के दूध से बने मक्खन द्वारा हवन करें। पश्चात कथा कहें अथवा सुनें।

हलछठ व्रत कथा

प्राचीन काल में एक ग्वालिन थी। उसका प्रसवकाल अत्यंत निकट था। एक ओर वह प्रसव से व्याकुल थी तो दूसरी ओर उसका मन गौ-रस (दूध-दही) बेचने में लगा हुआ था। उसने सोचा कि यदि प्रसव हो गया तो गौ-रस यूं ही पड़ा रह जाएगा। यह सोचकर उसने दूध-दही के घड़े सिर पर रखे और बेचने के लिए चल दी किन्तु कुछ दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा हुई। वह एक झरबेरी की ओट में चली गई और वहां एक बच्चे को जन्म दिया।

वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध-दही बेचने चली गई। संयोग से उस दिन हल षष्ठी थी। गाय-भैंस के मिश्रित दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने सीधे-सादे गांव वालों में बेच दिया। उधर जिस झरबेरी के नीचे उसने बच्चे को छोड़ा था, उसके समीप ही खेत में एक किसान हल जोत रहा था। अचानक उसके बैल भड़क उठे और हल का फल शरीर में घुसने से वह बालक मर गया। इस घटना से किसान बहुत दुखी हुआ, फिर भी उसने हिम्मत और धैर्य से काम लिया। उसने झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के चिरे हुए पेट में टांके लगाए और उसे वहीं छोड़कर चला गया।

कुछ देर बाद ग्वालिन दूध बेचकर वहां आ पहुंची। बच्चे की ऐसी दशा देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब उसके पाप की सजा है। वह सोचने लगी कि यदि मैंने झूठ बोलकर गाय का दूध न बेचा होता और गांव की स्त्रियों का धर्म भ्रष्ट न किया होता तो मेरे बच्चे की यह दशा न होती। अतः मुझे लौटकर सब बातें गांव वालों को बताकर प्रायश्चित करना चाहिए। ऐसा निश्चय कर वह उस गांव में पहुंची, जहां उसने दूध-दही बेचा था। वह गली-गली घूमकर अपनी करतूत और उसके फलस्वरूप मिले दंड का बखान करने लगी। तब स्त्रियों ने स्वधर्म रक्षार्थ और उस पर रहम खाकर उसे क्षमा कर दिया और आशीर्वाद दिया।

बहुत-सी स्त्रियों द्वारा आशीर्वाद लेकर जब वह पुनः झरबेरी के नीचे पहुंची तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गई कि वहां उसका पुत्र जीवित अवस्था में पड़ा है। तभी उसने स्वार्थ के लिए झूठ बोलने को ब्रह्म हत्या के समान समझा और कभी झूठ न बोलने का प्रण कर लिया।

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...इस व्रत से होती है पितरों को बैकुंठ की प्राप्ति!

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी को इंदिरा एकादशी कहते हैं। इस बार यह एकादशी एक अक्टूबर दिन मंगलवार को पड़ रही है| 

इंदिरा एकादशी व्रत विधि-

इंदिरा एकादशी के बारे में मान्यता है कि इसका व्रत करने वाले के सात पीढ़ियों तक के पितृ तर जाते हैं। इस एकादशी का व्रत करने वाला स्वयं मोक्ष प्राप्त करता है। इस एकादशी के व्रत और पूजा का विधान वही है जो अन्य एकादशियों का है। अंतर केवल यह है कि इस दिन शालिग्राम की पूजा की जाती है। इस दिन स्नानादि से पवित्र होकर भगवान शालिग्राम को पंचामृत से स्नान कराकर भोग लगाना चाहिए तथा पूजा कर, आरती करनी चाहिए। फिर पंचामृत वितरण कर, ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा देनी चाहिए। इस दिन पूजा तथा प्रसाद में तुलसी की पत्तियों का (तुलसीदल) का प्रयोग अनिवार्य रूप से किया जाता है।

इंदिरा एकादशी व्रत कथा- 

एक बार धर्मराज युधिष्ठिर भगवान् श्रीकृष्ण से कहने लगे कि हे भगवान! आश्विन कृष्ण एकादशी का क्या नाम है? इसकी विधि तथा फल क्या है? सो कृपा करके बताइए। मधुसूदन कहने लगे कि इस एकादशी का नाम इंदिरा एकादशी है। यह एकादशी पापों को नष्ट करने वाली तथा पितरों को अधोगति से मुक्ति देने वाली होती है। हे प्रभु इस कथा के बारे में कृपया विस्तार पूर्वक बताइए| श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहने लगे कि हे राजन! ध्यानपूर्वक इसकी कथा सुनो। इसके सुनने मात्र से ही वायपेय यज्ञ का फल मिलता है।

प्राचीनकाल में सतयुग के समय में महिष्मति नाम की एक नगरी में इंद्रसेन नाम का एक प्रतापी राजा धर्मपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करते हुए शासन करता था। वह राजा पुत्र, पौत्र और धन आदि से संपन्न और विष्णु का परम भक्त था। एक दिन जब राजा सुखपूर्वक अपनी सभा में बैठा था तो आकाश मार्ग से महर्षि नारद उतरकर उसकी सभा में आए। राजा उन्हें देखते ही हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और विधिपूर्वक आसन व अर्घ्य दिया।

सुख से बैठकर मुनि ने राजा से पूछा कि हे राजन! आपके सातों अंग कुशलपूर्वक तो हैं? तुम्हारी बुद्धि धर्म में और तुम्हारा मन विष्णु भक्ति में तो रहता है? देवर्षि नारद की ऐसी बातें सुनकर राजा ने कहा- हे महर्षि! आपकी कृपा से मेरे राज्य में सब कुशल है तथा मेरे यहाँ यज्ञ कर्मादि सुकृत हो रहे हैं। आप कृपा करके अपने आगमन का कारण कहिए। तब ऋषि कहने लगे कि हे राजन! आप आश्चर्य देने वाले मेरे वचनों को सुनो।

मैं एक समय ब्रह्मलोक से यमलोक को गया, वहाँ श्रद्धापूर्वक यमराज से पूजित होकर मैंने धर्मशील और सत्यवान धर्मराज की प्रशंसा की। उसी यमराज की सभा में महान ज्ञानी और धर्मात्मा तुम्हारे पिता को एकादशी का व्रत भंग होने के कारण देखा। उन्होंने संदेशा दिया सो मैं तुम्हें कहता हूँ। उन्होंने कहा कि पूर्व जन्म में ‍कोई विघ्न हो जाने के कारण मैं यमराज के निकट रह रहा हूँ, सो हे पुत्र यदि तुम आश्विन कृष्णा इंदिरा एकादशी का व्रत मेरे निमित्त करो तो मुझे स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है।

आश्विन कृष्ण एकादशी का क्या नाम है? इसकी विधि तथा फल क्या है? सो कृपा करके कहिए। भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि इस एकादशी का नाम इंदिरा एकादशी है। यह एकादशी पापों को नष्ट करने वाली तथा पितरों को अधोगति से मुक्ति देने वाली होती है। 

इतना सुनकर राजा कहने लगा कि हे महर्षि आप इस व्रत की विधि मुझसे कहिए। नारदजी कहने लगे- आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन प्रात:काल श्रद्धापूर्वक स्नानादि से निवृत्त होकर पुन: दोपहर को नदी आदि में जाकर स्नान करें। फिर श्रद्धापूर्व पितरों का श्राद्ध करें और एक बार भोजन करें। प्रात:काल होने पर एकादशी के दिन दातून आदि करके स्नान करें, फिर व्रत के नियमों को भक्तिपूर्वक ग्रहण करता हुआ प्रतिज्ञा करें कि ‘मैं आज संपूर्ण भोगों को त्याग कर निराहार एकादशी का व्रत करूँगा। 

हे अच्युत! हे पुंडरीकाक्ष! मैं आपकी शरण हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिए, इस प्रकार नियमपूर्वक शालिग्राम की मूर्ति के आगे विधिपूर्वक श्राद्ध करके योग्य ब्राह्मणों को फलाहार का भोजन कराएँ और दक्षिणा दें। पितरों के श्राद्ध से जो बच जाए उसको सूँघकर गौ को दें तथा ध़ूप, दीप, गंध, ‍पुष्प, नैवेद्य आदि सब सामग्री से ऋषिकेश भगवान का पूजन करें।

रात में भगवान के निकट जागरण करें। इसके पश्चात द्वादशी के दिन प्रात:काल होने पर भगवान का पूजन करके ब्राह्मणों को भोजन कराएँ। भाई-बंधुओं, स्त्री और पुत्र सहित आप भी मौन होकर भोजन करें। नारदजी कहने लगे कि हे राजन! इस विधि से यदि तुम आलस्य रहित होकर इस एकादशी का व्रत करोगे तो तुम्हारे पिता अवश्य ही स्वर्गलोक को जाएँगे। इतना कहकर नारदजी अंतर्ध्यान हो गए।

नारदजी के कथनानुसार राजा द्वारा अपने बाँधवों तथा दासों सहित व्रत करने से आकाश से पुष्पवर्षा हुई और उस राजा का पिता गरुड़ पर चढ़कर विष्णुलोक को गया। राजा इंद्रसेन भी एकादशी के व्रत के प्रभाव से निष्कंटक राज्य करके अंत में अपने पुत्र को सिंहासन पर बैठाकर स्वर्गलोक को गया। हे युधिष्ठिर! यह इंदिरा एकादशी के व्रत का माहात्म्य मैंने तुमसे कहा। इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से छूट जाते हैं और सब प्रकार के भोगों को भोगकर बैकुंठ को प्राप्त होते हैं।

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