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आखिर क्यों मनाया जाता है मोहर्रम

नई दिल्ली: दुनिया के विभिन्न धर्मो के बहुत से त्योहार खुशियों का इजहार करते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी त्योहार हैं जो हमे सच्चाई और मानवता के लिए दी गई शहादत की याद दिलाते हैं। ऐसा ही त्योहार है मुहर्रम, जो पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद में मनाया जाता है। यह हिजरी संवत का प्रथम मास है। मुहर्रम एक महीना है जिसमें दस दिन इमाम हुसैन का शोक मनाया जाता है। इसी महीने में मुसलमानों के आदरणीय पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलही वसल्लम ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिजरत किया था।

रसूल मोहम्मद साहब की वफात के लगभग 50 वर्ष बाद इस्लामी दुनिया में ऐसा घोर अत्याचार का समय आया जब 60 हिजरी में हमीद मावीय के पुत्र याजीद राज सिंहासन पर बैठे। सिंहासन पर बैठते ही याजीद ने मदीना के राज्यपाल वलीद पुत्र अतुवा को फरमान लिखा कि तुम इमाम हुसैन को बुलाकर मेरी आज्ञाओं का पालन करने और इस्लाम के सिद्धांतों को ध्यान में लाने के लिए कहो। यदि वह न माने तो इमाम हुसैन का सिर काट कर मेरे पास भेजा जाए। 

वलीद पुत्र अतुवा ने 25 या 26 रजब 60 हिजरी को रात्रि के समय हजरत इमाम हुसैन को राजभवन में बुलाया और उनको यजीद का फरमान सुनाया। इमाम हुसैन ने वलीद से कहा, "मैं एक व्यभिचारी, भ्रष्टाचारी, दुष्ट विचारधारा वाले, अत्याचारी, खुदा रसूल को न मानने वाले, यजीद की आज्ञाओं का पालन नहीं कर सकता।" इसके बाद इमाम हुसैन साहब मक्का शरीफ पहुंचे ताकि हज की पवित्र प्रथा को पूरा कर सकें। लेकिन वहां पर भी इमाम हुसैन साहब को किसी प्रकार चैन नहीं लेने दिया गया। शाम को बादशाह यजीद ने अपने सैनिकों को यात्री बना कर हुसैन का कत्ल करने भेज दिया। 

हजरत इमाम हुसैन को पता चल गया कि यजीद ने गुप्त रूप से सैनिकों को मुझे कत्ल करने के लिए भेजा है। मक्का एक ऐसा पवित्र स्थान है कि जहां पर किसी भी प्रकार की हत्या हराम है। यह इस्लाम का एक सिद्धांत है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए कि मक्का में किसी प्रकार का खून-खराबा न हो, इमाम हुसैन ने हज की एक उप प्रथा जिसको इस्लामिक रूप से उमरा कहते हैं, अदा किया। हजरत हुसैन इसके बाद अपने परिवार सहित इराक की ओर चले गए। 

मुहर्रम मास की 2 तारीख 61 हिजरी को इमाम हुसैन अपने परिवार और मित्रों सहित कर्बला की भूमि पर पहुंचे और 9 तारीख तक यजीद की सेना को इस्लामिक सिद्धांतों को समझाया। लेकिन हजरत इमाम हुसैन की बातों का यजीद की फौज पर कोई असर नहीं हुआ। जब वह किसी प्रकार भी नहीं माने तो हजरत इमाम हुसैन ने कहा कि तुम मुझे एक रात की मोहलत दे दो ताकि मैं उस सर्व शक्तिमान ईश्वर की इबादत कर सकूं। यजीद की फौजों ने किसी प्रकार इमाम हुसैन साहब को एक रात की मोहलत दे दी। उस रात को आसुर की रात कहा जाता है। 

हजरत इमाम हुसैन साहब ने उस पूरी रात अपने परिवार तथा साथियों के साथ अल्लाह की इबादत की। मुहर्रम की 10 तारीख को सुबह ही यजीद के सेनापति उमर बिल साद ने यह कहकर एक तीर छोड़ा कि गवाह रहे सबसे पहले तीर मैंने चलाया है। इसके बाद लड़ाई शुरू हो गई।  सुबह नमाज से असर तक इमाम हुसैन के सब साथी जंग में मारे गए। इमाम हुसैन मैदान में अकेले रह गए। खेमे में शोर सुनकर इमाम साहब खेमे में गए तो देखा कि उनका 6 महीने का बच्चा अली असगर प्यास से बेहाल है। हजरत इमाम हुसैन ने अपने बच्चे को अपने हाथों में उठा लिया और मैदाने कर्बला में ले आए।

हजरत इमाम हुसैन साहिब ने यजीद की फौजों से कहा कि बच्चे को थोड़ा सा पानी पिला दो किंतु यजीद की फौजों की तरफ से एक तीर आया और बच्चे के गले पर लगा और बच्चे ने बाप के हाथों में तड़प कर दम तोड़ दिया। इसके बाद तीन दिन से भूखे-प्यासे हजरत इमाम हुसैन साहब का कत्ल कर दिया गया। हजरत इमाम हुसैन ने इस्लाम पर तथा मानवता पर अपनी जान कुर्बान की जो अमर है। 

...इसी रात को भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों संग रचाया था रास

नई दिल्ली: आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं। इसे रास पूर्णिमा भी कहा जाता है ऐसा इसलिए क्योंकि शरद पूर्णिमा की रात को ही भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रास रचाया था। यूं तो हर माह में पूर्णिमा आती है लेकिन शरद पूर्णिमा का महत्व उन सभी से कहीं अधिक है। हिंदू धर्म ग्रंथों में भी इस पूर्णिमा को विशेष बताया गया है। इस बार शरद पूर्णिमा 26 अक्टूबर को पड़ रही है| 

पौराणिक मान्यताएं एवं शरद ऋतु, पूर्णाकार चंद्रमा, संसार भर में उत्सव का माहौल। इन सबके संयुक्त रूप का यदि कोई नाम या पर्व है तो वह है 'शरद पूनम'। वह दिन जब इंतजार होता है रात्रि के उस पहर का जिसमें 16 कलाओं से युक्त चंद्रमा अमृत की वर्षा धरती पर करता है। वर्षा ऋतु की जरावस्था और शरद ऋतु के बाल रूप का यह सुंदर संजोग हर किसी का मन मोह लेता है। सम्पूर्ण वर्ष में आश्विन मास की पूर्णिमा का चन्द्रमा ही षोडस कलाओं का होता है। शरद पूर्णिमा से जुड़ी कई मान्यताएं हैं। ऐसा माना जाता है कि इस दिन चंद्रमा की किरणें विशेष अमृतमयी गुणों से युक्त रहती हैं जो कई बिमारियों का नाश कर देती हैं। 

आपको बता दें की एक यह भी मान्यता है कि इस दिन माता लक्ष्मी रात्रि में यह देखने के लिए घूमती हैं कि कौन जाग रहा है और जो जाग रहा है महालक्ष्मी उसका कल्याण करती हैं तथा जो सो रहा होता है वहां महालक्ष्मी नहीं ठहरतीं। शरद पूर्णिमा के बाद से मौसम में परिवर्तन की शुरुआत होती है और शीत ऋतु का आगमन होता है। कहते हैं कि इस दिन चन्द्रमा अमृत की वर्षा करता है। शरद पूर्णिमा के दिन शाम को खीर, पूरी बनाकर भगवान को भोग लगाएँ । भोग लगाकर खीर को छत पर रख दें और रात को भगवान का भजन करें। चाँद की रोशन में सुईं पिरोएँ । अगले दिन खीर का प्रसाद सबको देना चाहिए । 

इस दिन प्रात:काल आराध्य देव को सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुशोभित करें । आसन पर विराजमान कर गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेध, ताम्बूल, सुपारी, दक्षिणा आदि से पूजा करनी चाहिए| सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर घी के 100 दीपक जलाए। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूंगी। इस प्रकार यह शरद पूर्णिमा, कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं मां लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अंत होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं।

बहुत ही गुणकारी है अलसी

अलसी, तीसी, अतसी, कॉमन फ्लेक्स और वानस्पतिक लिनभयूसिटेटिसिमनम नाम से विख्यात तिलहन अलसी के पौधे बागों और खेतों में खरपतवार के रूप में तो उगते ही हैं, इसकी खेती भी की जाती है। इसका पौधा दो से चार फुट तक ऊंचा, जड़ चार से आठ इंच तक लंबी, पत्ते एक से तीन इंच लंबे, फूल नीले रंग के गोल, आधा से एक इंच व्यास के होते हैं। इसके बीज और बीजों का तेल औषधि के रूप में उपयोगी है। अलसी की पुल्टिस का प्रयोग गले एवं छाती के दर्द, सूजन तथा निमोनिया और पसलियों के दर्द में लगाकर किया जाता है। इसके साथ यह चोट, मोच, जोड़ों की सूजन, शरीर में कहीं गांठ या फोड़ा उठने पर लगाने से शीघ्र लाभ पहुंचाती है। 

अलसी आधुनिक युग में स्त्रियों की यौन-इच्छा, कामोत्तेजना, चरम-आनंद विकार, बांझपन, गर्भपात, दुग्धअल्पता की महान औषधि है। स्त्रियों की सभी लैंगिक समस्याओं के सारे उपचारों से सर्वश्रेष्ठ और सुरक्षित है अलसी। ( व्हाई वी लव और ऐनाटॉमी ऑफ लव)  की महान लेखिका, शोधकर्ता और चिंतक हेलन फिशर भी अलसी को प्रेम, काम-पिपासा और लैंगिक संसर्ग के लिए आवश्यक सभी रसायनों जैसे डोपामीन, नाइट्रिक ऑक्साइड, नोरइपिनेफ्रीन, ऑक्सिटोसिन, सीरोटोनिन, टेस्टोस्टिरोन और फेरोमोन्स का प्रमुख घटक मानती है|

सबसे पहले तो अलसी आप और आपके जीवनसाथी की त्वचा को आकर्षक, कोमल, नम, बेदाग व गोरा बनायेगी। आपके केश काले, घने, मजबूत, चमकदार और रेशमी हो जायेंगे। अलसी आपकी देह को ऊर्जावान और मांसल बना देगी।शरीर में चुस्ती-फुर्ती बनी गहेगी, न क्रोध आयेगा और न कभी थकावट होगी। मन शांत, सकारात्मक और दिव्य हो जायेगा। अलसी में ओमेगा-3 फैट, आर्जिनीन, लिगनेन, सेलेनियम, जिंक और मेगनीशियम होते हैं जो स्त्री हार्मोन्स, टेस्टोस्टिरोन और फेरोमोन्स ( आकर्षण के हार्मोन) के निर्माण के मूलभूत घटक हैं। टेस्टोस्टिरोन आपकी कामेच्छा को चरम स्तर पर रखता है। अलसी में विद्यमान ओमेगा-3 फैट और लिगनेन जननेन्द्रियों में रक्त के प्रवाह को बढ़ाती हैं, जिससे कामोत्तेजना बढ़ती है।

इसके अलावा ये शिथिल पड़ी क्षतिग्रस्त नाड़ियों का कायाकल्प करती हैं जिससे मस्तिष्क और जननेन्द्रियों के बीच सूचनाओं एवं संवेदनाओं का प्रवाह दुरुस्त हो जाता है। नाड़ियों को स्वस्थ रखने में अलसी में विद्यमान लेसीथिन, विटामिन बी ग्रुप, बीटा केरोटीन, फोलेट, कॉपर आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अलसी को धीमी आँच पर हल्का भून लें। फिर मिक्सर में पीस कर किसी एयर टाइट डिब्बे में भरकर रख लें। रोज सुबह-शाम एक-एक चम्मच पावडर पानी के साथ लें। इसे अधिक मात्रा में पीस कर नहीं रखना चाहिए, क्योंकि यह खराब होने लगती है। इसलिए थोड़ा-थोड़ा ही पीस कर रखें। अलसी सेवन के दौरान पानी खूब पीना चाहिए। इसमें फायबर अधिक होता है, जो पानी ज्यादा माँगता है।

अलसी हमारी पाचन शक्ति बढ़ाती है और हमारे शरीर को ऊर्जा देने में सहायता करती है। अलसी के बीजों में फाइबर, विटामिन्स तथा प्रोटीन्स प्रचुर मात्रा में मौजूद होते हैं। प्रोटीन्स शरीर के सही विकास  में सहायक होते हैं। अलसी में फाइबर की मात्रा उच्च होने के कारण कोलोन का स्वास्थ्य बरकरार रहता है और आंतडिय़ों की गतिविधि में सुधार होता है। अलसी के बीजों में मौजूद फाइटो-एस्ट्रोजैन्स महिलाओं में रजोनिवृत्ति के बाद के लक्षणों से लडऩे में सहायक होते हैं। माहवारी के दौरान जिन महिलाओं को अत्यधिक पेट दर्द होता है, वे अलसी के बीजों से इस दर्द से राहत पा सकती हैं। एक छोटा चम्मच अलसी के बीजों को चबाने से आपको पेट संबंधी समस्याओं तथा पैप्टिक अल्सर से छुटकारा मिल सकता है। 

अलसी के नियमित सेवन से स्त्रियों के स्तनों में वृद्धि होती है। गर्भवती स्त्री के स्तनों में दूध बढ़ाने के लिए भी इसे खाने की सलाह दी जाती है। साथ ही अलसी के बीज महिलाओं में सेक्स के प्रति दिलचस्पी जाग्रत करते हैं। यौनांगों में जलन और योनि संकुचन जैसी बीमारियों के लिए तो इसे अचूक औषधि माना गया है। इसके अलावा मासिक धर्म से संबंधित परेशानियों में भी इसके द्वारा इलाज किया जाता है। अलसी के लगातार सेवन से चेहरे पर भी कांति आती है।

दूसरा एक तरीका है कि आप अलसी को सूखी कढ़ाई में डालिये, रोस्ट कीजिये (अलसी रोस्ट करते समय चट चट की आवाज करती है) और मिक्सी से पीस लीजिये| इन्हें थोड़े दरदरे पीसिये, एकदम बारीक मत कीजिये| भोजन के बाद सौंफ की तरह इसे खाया जा सकता है| लेकिन आप इसे जादा मात्रा में बना के न रक्खे क्युकि ये खराब हो जाती है| एक हफ्ते के लिए बनाना ही चाहिए| अलसी आपको अनाज बेचने वाले तथा पंसारी या आयुर्वेदिक जड़ी बूटी बेचने वालो के यहाँ से मिल जायेगी|

यह पथरी, मूत्र शर्करा और कष्ट से मूत्र आने पर गुणकारी है। अलसी के तेल का धुआं सूंघने से नाक में जमा कफ निकल आता है और पुराने जुकाम में लाभ होता है। यह धुआं हिस्टीरिया रोग में भी गुण दर्शाता है। अलसी के काढ़े से एनिमा देकर मलाशय की शुद्धि की जाती है। उदर रोगों में इसका तेल पिलाया जाता हैं। अलसी के तेल और चूने के पानी का इमल्सन आग से जलने के घाव पर लगाने से घाव बिगड़ता नहीं और जल्दी भरता है। पथरी, सुजाक एवं पेशाब की जलन में अलसी का फांट पीने से रोग में लाभ मिलता है। अलसी के कोल्हू से दबाकर निकाले गए (कोल्ड प्रोसेस्ड) तेल को फ्रिज में एयर टाइट बोतल में रखें। स्नायु रोगों, कमर एवं घुटनों के दर्द में यह तेल पंद्रह मि.ली. मात्रा में सुबह-शाम पीने से काफी लाभ मिलेगा।

बवासीर, भगदर, फिशर आदि रोगों में अलसी का तेल (एरंडी के तेल की तरह) लेने से पेट साफ हो मल चिकना और ढीला निकलता है। इससे इन रोगों की वेदना शांत होती है। अलसी के बीजों का मिक्सी में बनाया गया दरदरा चूर्ण पंद्रह ग्राम, मुलेठी पांच ग्राम, मिश्री बीस ग्राम, आधे नींबू के रस को उबलते हुए तीन सौ ग्राम पानी में डालकर बर्तन को ढक दें। तीन घंटे बाद छानकर पीएं। इससे गले व श्वास नली का कफ पिघल कर जल्दी बाहर निकल जाएगा। मूत्र भी खुलकर आने लगेगा। इसकी पुल्टिस हल्की गर्म कर फोड़ा, गांठ, गठिया, संधिवात, सूजन आदि में लाभ मिलता है। कई असाध्य रोग जैसे अस्थमा, एल्ज़ीमर्स, मल्टीपल स्कीरोसिस, डिप्रेशन, पार्किनसन्स, ल्यूपस नेफ्राइटिस, एड्स, स्वाइन फ्लू आदि का भी उपचार करती है अलसी। कभी-कभी चश्में से भी मुक्ति दिला देती है अलसी। दृष्टि को स्पष्ट और सतरंगी बना देती है अलसी।

अलसी शर्करा ही नियंत्रित नहीं रखती, बल्कि मधुमेह के दुष्प्रभावों से सुरक्षा और उपचार भी करती है। अलसी में रेशे भरपूर 27% पर शर्करा 1.8% यानी नगण्य होती है। इसलिए यह शून्य-शर्करा आहार कहलाती है और मधुमेह के लिए आदर्श आहार है। अलसी बी.एम.आर. बढ़ाती है, खाने की ललक कम करती है, चर्बी कम करती है, शक्ति व स्टेमिना बढ़ाती है, आलस्य दूर करती है और वजन कम करने में सहायता करती है। चूँकि ओमेगा-3 और प्रोटीन मांस-पेशियों का विकास करते हैं अतः बॉडी बिल्डिंग के लिये भी नम्बर वन सप्लीमेन्ट है अलसी।


ध्यान रहे -आयुर्वेदिक  चिकित्सक से विचार - विमर्श  ज़रूर कर ले।


जानिए महिलायें क्यों नहीं फोड़ती नारियल?

नई दिल्ली: आपको पता होगा की कोई भी होम हो, कथा हो पूजा हो या फिर विवाह हो नारियल की पूर्ण आहुति के बिना संपन्न नहीं होता है। आपने देखा होगा कि कथा या पूजा या किसी भी कार्य का शुभारंभ करने से पहले नारियल केवल पुरुष ही फोड़ते हैं महिलायें नहीं? क्या आप जानते हैं कि आखिर ऐसा क्या है कि महिलायें नारियल नहीं फोड़ती| 

आपको बता दें कि नारियल ऊपर से जितना कठोर होता है अंदर से उतना मुलायम। नारियल को श्रीफल भी कहा जाता है। पूजा में हम भगवान को श्रीफल अर्पित करते हैं। नारियल तोड़ने का कारण अनिष्ट शक्तियों के संचार पर अंकुश लगाना उन्हें प्रसन्न करना। इसलिए प्रथम नारियल फोडकर स्थान देवता का आवाहन कर वहां की स्थानीय अनिष्ट शक्तियों को नियंत्रित करने की उनसे प्रार्थना की जाती है। 

प्रार्थना द्वारा स्थान देवता के आवाहन से उनकी कृपा स्वरूप नारियल-जल के माध्यम से स्थान देवता की तरंगें सभी दिशाओं में फैलती हैं। इससे कार्यस्थल में प्रवेश करने वाली कष्टदायी स्पंदनों की गति पर अंकुश लगाना संभव होता है।  माना जाता है इससे उस परिसर में स्थान-देवता की सूक्ष्म-तरंगोंका मंडल तैयार होता है व समारोह निर्विघ्न संपन्न होता है। नारियल का एक उपयोग देवी या देवता के स्थान पर फोड़ने में होता है, फोड़ने में ऎसी कुशलता होनी चाहिए चाहिए कि रस छलककर पूरा का पूरा देवता के चरणों पर पड़े, कहीं अन्यत्र नहीं। यह फोड़ना आसान नही होता।

अब आपको बता दें कि महिलायें क्यों नहीं नारियल फोड़ती|  नारियल बीज रूप है, इसलिए इसे प्रजनन क्षमता से जोड़ा गया है। स्त्रियां प्रजनन की कारक हैं और इसी वजह से स्त्रियों के लिए बीज रूप नारियल को फोडऩा वर्जित किया गया है। इसके साथ ही नारियल बलि का प्रतीक है और बलि पुरुषों द्वारा ही दी जाती है। इस कारण से भी महिलाओ द्वारा नारियल नहीं फोड़ा जाता है।

ऐसी मान्यता है की जब भगवान विष्णु ने पृथ्वी पर अवतार लिया तो वे अपने साथ तीन चीजें- लक्ष्मी, नारियल का वृक्ष तथा कामधेनु लाए इसलिए नारियल के वृक्ष को श्रीफल भी कहा जाता है। श्री का अर्थ है लक्ष्मी अर्थात नारियल लक्ष्मी व विष्णु का फल। नारियल में त्रिदेव अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और महेश का वास माना गया है। श्रीफल भगवान शिव का परम प्रिय फल है। मान्यता अनुसार नारियल में बनी तीन आंखों को त्रिनेत्र के रूप में देखा जाता है। श्रीफल खाने से शारीरिक दुर्बलता दूर होती है। इष्ट को नारियल चढ़ाने से धन संबंधी समस्याएं दूर हो जाती हैं।

क्या सच में रावण के 10 सिर थे ?

नई दिल्ली: हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार आश्विन शुक्ल दशमी के दिन विजयदशमी (दशहरा) का त्यौहार मनाया जाता है। इस वर्ष दशहरा 22 अक्टूबर, 2015 को मनाया जाएगा। दशहरे के दिन कहीं-कहीं लंकापति रावण का पुतला जलाया जाता है और कहीं-कहीं रावण की पूजा की जाती है| कहते हैं दशहरे के दिन की भगवान श्रीराम ने असत्य पर सत्य की विजय पाई थी| लंकापति रावण के बारे में कहा जाता हैं कि उनके 10 सिर थे इसीलिए रावण को दशानन कहा जाता हैं| क्या यह सच में सही हैं? 

कुछ विद्वाओं का मानना हैं कि रावण के 10 सिर नहीं थे किंतु वह 10 सिर होने का भ्रम पैदा कर देता था इसी कारण लोग उसे दशानन कहते थे। कुछ विद्वानों के अनुसार रावण 6 दर्शन और चारों वेद का ज्ञाता था इसीलिए उसे दसकंठी भी कहा जाता था। दसकंठी कहे जाने के कारण प्रचलन में उसके 10 सिर मान लिए गए।

जैन शास्त्रों में उल्लेख है कि रावण के गले में बड़ी-बड़ी गोलाकार 9 मणियां होती थीं। उक्त 9 मणियों में उसका सिर दिखाई देता था जिसके कारण उसके 10 सिर होने का भ्रम होता था। हालांकि ज्यादातर विद्वान और पुराणों के अनुसार तो यही सही है कि रावण एक मायावी व्यक्ति था, जो अपनी माया द्वारा 10 सिर होने का भ्रम पैदा कर सकता था। उसकी मायावी शक्ति और जादू के चर्चे जगप्रसिद्ध थे।

रावण के 10 सिर होने की चर्चा रामचरित मानस में आती है। वह कृष्ण पक्ष की अमावस्या को युद्ध के लिए चला था तथा 1-1 दिन क्रमशः 1-1 सिर कटते थे। इस तरह 10वें दिन अर्थात शुक्ल पक्ष की दशमी को रावण का वध हुआ इसीलिए दशमी के दिन रावण दहन किया जाता है।

रामचरित मानस में वर्णन आता है कि जिस सिर को राम अपने बाण से काट देते थे पुनः उसके स्थान पर दूसरा सिर उभर आता था। विचार करने की बात है कि क्या एक अंग के कट जाने पर वहां पुनः नया अंग उत्पन्न हो सकता है? वस्तुतः रावण के ये सिर कृत्रिम थे- आसुरी माया से बने हुए।

मारीच का चांदी के बिन्दुओं से युक्त स्वर्ण मृग बन जाना, रावण का सीता के समक्ष राम का कटा हुआ सिर रखना आदि से सिद्ध होता है कि राक्षस मायावी थे। वे अनेक प्रकार के इन्द्रजाल (जादू) जानते थे। तो रावण के 10 सिर और 20 हाथों को भी मायावी या कृत्रिम माना जा सकता है। 


...यहीं गिरी थी देवी सती के दायें पैर की चारों अंगुलियां

हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। हालांकि देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में ज़रूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं और पूजा-अर्चना द्वारा प्रतिष्ठित हैं।

51 शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है वह यह है राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने जन्म लिया| एक बार राजा प्रजापति दक्ष एक समूह यज्ञ करवा रहे थे| इस यज्ञ में सभी देवताओं व ऋषि मुनियों को आमंत्रित किया गया था| जब राजा दक्ष आये तो सभी देवता उनके सम्मान में खड़े हो गए लेकिन भगवान शंकर बैठे रहे| यह देखकर राजा दक्ष क्रोधित हो गए| उसके बाद एक बार फिर से राजा दक्ष ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया इसमें सभी देवताओं को बुलाया गया, लेकिन अपने दामाद व भगवान शिव को यज्ञ में शामिल होने के लिए निमंत्रण नहीं भेजा| जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए।

नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी।

भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा।

सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। माना जाता जाता है शक्तिपीठ में देवी सदैव विराजमान रहती हैं। जो भी इन स्थानों पर मॉ की पूजा अर्चना करता है उसकी मनोकामना पूरी होती है।

कालीघाट काली मंदिर पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर के कालीघाट में स्थित देवी काली का प्रसिद्ध मंदिर है। कोलकाता में भगवती के अनेक प्रख्यान स्थल हैं। परंपरागत रूप से हावड़ा स्टेशन से 7 किलोमीटर दूर काली घाट के काली मंदिर को शक्तिपीठ माना जाता है, जहाँ सती के दाएँ पाँव की 4 उँगलियों (अँगूठा छोड़कर) का पतन हुआ था। यहाँ की शक्ति 'कालिका' व भैरव 'नकुलेश' हैं। इस पीठ में काली की भव्य प्रतिमा मौजूद है, जिनकी लंबी लाल जिह्वा मुख से बाहर निकली है। मंदिर में त्रिनयना माता रक्तांबरा, मुण्डमालिनी, मुक्तकेशी भी विराजमान हैं। पास ही में नकुलेश का भी मंदिर है।

काली मंदिर में देवी काली के प्रचंड रूप की प्रतिमा स्‍थापित है। इस प्रतिमा में देवी काली भगवान शिव के छाती पर पैर रखी हुई हैं। उनके गले में नरमुण्‍डों की माला है। उनके हाथ में कुल्‍हाड़ी तथा कुछ नरमुण्‍ड है। उनके कमर में भी कुछ नरमुण्‍ड बंधा हुआ है। उनकी जीभ निकली हुई है। उनके जीभ से रक्‍त की कुछ बूंदें भी टपक रही हैं। इस मूर्त्ति के पीछे कुछ अनुश्रुतियाँ भी प्रचलित है। इस अनुश्रुति के अनुसार देवी किसी बात पर गुस्‍सा हो गई थीं। इसके बाद उन्‍होंने नरसंहार करना शुरू कर दिया। उनके मार्ग में जो भी आता‍ वह मारा जाता। उनके क्रोध को शांत करने के लिए भगवान शिव उनके रास्‍ते में लेट गए। देवी ने गुस्‍से में उनकी छाती पर भी पैर रख दिया। इसी समय उन्‍होंने भगवान शिव को पहचान लिया। इसके बाद ही उनका गुस्‍सा शांत हुआ और उन्‍होंने नरसंहार बंद किया।

इस पर्वत पर गिरा था देवी सती का सिर

नई दिल्ली: हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। हालांकि देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में ज़रूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं और पूजा-अर्चना द्वारा प्रतिष्ठित हैं।

51 शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है वह यह है राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने जन्म लिया| एक बार राजा प्रजापति दक्ष एक समूह यज्ञ करवा रहे थे| इस यज्ञ में सभी देवताओं व ऋषि मुनियों को आमंत्रित किया गया था| जब राजा दक्ष आये तो सभी देवता उनके सम्मान में खड़े हो गए लेकिन भगवान शंकर बैठे रहे| यह देखकर राजा दक्ष क्रोधित हो गए| उसके बाद एक बार फिर से राजा दक्ष ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया इसमें सभी देवताओं को बुलाया गया, लेकिन अपने दामाद व भगवान शिव को यज्ञ में शामिल होने के लिए निमंत्रण नहीं भेजा| जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए।

नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी।

भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा।

सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। माना जाता जाता है शक्तिपीठ में देवी सदैव विराजमान रहती हैं। जो भी इन स्थानों पर मॉ की पूजा अर्चना करता है उसकी मनोकामना पूरी होती है।

मसूरी मोटर मार्ग पर तीन हजार मीटर की ऊंचाई पर सुरकुट पर्वत पर सिद्धपीठ सुरकंडा मंदिर स्थित है। मान्यता है कि देवी सती का सिर इस पर्वत पर गिरा था। गंगा दशहरे के मौके पर यहां मेला लगता है, जबकि हर साल नवरात्रि में मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। खास बात यह है कि मंदिर में प्रसाद के रूप में रौंसली (थुनेर) के पत्ते दिए जाते हैं। दूर-दूर से लोग इस सिद्धपीठ के दर्शनों के लिए यहां आते हैं। यहाँ पहुँचने के लिए आप ऋषिकेश से वाय चंबा होते हुए कद्दूखाल करीब 80 किमी की दूरी तय कर कद्दूखाल पहुंचा जाता है। कद्दूखाल से दो किमी की पैदल दूरी तय कर मंदिर तक पहुंचा जाता है। देहरादून से वाय मसूरी होते हुए 55 किमी का सफर तय कर यहां पहुंचा जा सकता है। यहां पहुंचने के लिए वाहन आसानी से मिल जाते हैं। निकटतम रेलवे स्टेशन हरिद्वार व देहरादून हैं और हवाई सेवा जौलीग्रांट तक है।

जानिए हनुमान जी ने क्यों धारण किया पंचमुखी रूप

हिन्दू धर्म में हनुमान जी को कष्ट विनाशक और भय नाशक देवता के रूप में जाना जाता है| बजरंगबली अपनी भक्ति और शक्ति के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं| सारे पापों से मुक्त करने और हर तरह से सुख-आनंद एवं शांति प्रदान करने वाले हनुमान जी की उपासना लाभकारी एवं सुगम मानी गयी है। हनुमान जी ऐसे देवता है जो हर युग में किसी न किसी रूप, शक्ति और गुणों के साथ जगत के लिए संकटमोचक बनकर मौजूद रहते हैं। हनुमान जी के बारे में यह कहा जाता है कि एक बार हनुमाना जी ने पंचमुखी रूप धारण किया| अब सवाल यह उठता है कि ऐसा क्या हुआ कि हनुमान जी को पंचमुखी रूप धारण करना पड़ा? 

भगवान श्रीराम और लंकापति रावण युद्ध में भाई रावण की मदद के लिए अहिरावण ने ऐसी माया रची कि सारी सेना गहरी निद्रा में सो गई। तब अहिरावण श्रीराम और लक्ष्मण का अपहरण करके उन्हें निद्रावस्था में पाताल लोक ले गया। इस विपदा के समय में सभी ने संकट मोचन हनुमानजी का स्मरण किया। हनुमान जी तुरंत पाताल लोक पहुंचे और द्वार पर रक्षक के रूप में तैनात मकरध्वज से युद्घ कर उसे परास्त किया। जब हनुमानजी पातालपुरी के महल में पहुंचे तो श्रीराम और लक्ष्मण बंधक अवस्था में थे। वहा पांच दीपक पांच दिशाओ में मिले जो माँ भवानी के लिए अहिरावन में जलाये थे | इन पांचो दीपक को एक साथ बुझाने पर अहिरावन का वध हो जायेगा इसी कारण वश हनुमान जी पञ्च मुखी रूप धरा | उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिम्ह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख। इन पांच मुखों को धारण कर उन्होंने एक साथ सारे दीपकों को बुझाकर अहिरावण का अंत किया | और फिर राम और लश्मन को मुक्त करवाया |

एक अन्य कथा के अनुसार मरियल नाम का दानव एक बार विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र चुरा ले जाता है | हनुमानजी को जब यह पता चलता है तो वो संकल्प लेते है की वो पुनः चक्र प्राप्त कर के भगवान् विष्णु को सौफ देंगे | मरियल दानव इच्छाअनुसार रूप बदलने में माहिर था अत: विष्णु भगवान हनुमानजी को आशीर्वाद दिया, साथ ही इच्छानुसार वायुगमन की शक्ति के साथ गरुड़-मुख, भय उत्पन्न करने वाला नरसिम्ह-मुख तथा हयग्रीव एवं वराह मुख प्रदान किया। पार्वती जी ने उन्हें कमल पुष्प एवं यम-धर्मराज ने उन्हें पाश नामक अस्त्र प्रदान किया। यह आशीर्वाद एवं इन सबकी शक्तियों के साथ हनुमान जी मायिल पर विजय प्राप्त करने में सफल रहे। तभी से उनके इस पंचमुखी स्वरूप को भी मान्यता प्राप्त हुई। 


हनुमान जी का पांच मुख वाला विराट रूप पांच दिशाओं का प्रतिनिधित्व करता है। प्रत्येक स्वरूप में एक मुख, त्रिनेत्र और दो भुजाएं हैं। इन पांच मुखों में नरसिंह, गरुड़, अश्व, वानर और वराह रूप हैं। इनके पांच मुख क्रमश: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊ‌र्ध्व दिशा में प्रधान माने जाते हैं। पूर्व की ओर का मुख वानर का हैं। जिसकी प्रभा करोडों सूर्यो के तेज समान हैं। इनका पूजन करने से समस्त शत्रुओं का नाश हो जाता है। पश्चिम दिशा वाला मुख गरुड का हैं। जो भक्तिप्रद, संकट निवारक माने जाते हैं। गरुड की तरह इनको भी अजर-अमर माना जाता हैं। उत्तर की ओर मुख शूकर का है। इनकी आराधना करने से अपार धन-सम्पत्ति, ऐश्वर्य, यश, दिर्धायु प्रदान करने वाल व उत्तम स्वास्थ्य देने में समर्थ हैं। दक्षिणमुखी स्वरूप भगवान नृसिंह का है। जो भक्तों के भय, चिंता, परेशानी को दूर करता हैं। श्री हनुमान का ऊ‌र्ध्वमुख घोडे के समान हैं। इनका यह स्वरुप ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर प्रकट हुआ था। मान्यता है कि हयग्रीवदैत्य का संहार करने के लिए वे अवतरित हुए। ऐसे पंचमुखी हनुमान रुद्र कहलाने वाले बडे कृपालु और दयालु हैं।

एक ऐसा मंदिर जहां शिवलिंग के रूप में विराजमान हैं देवी!

अभी तक आपने कई ऐसे मंदिर देखे और सुने होंगे जहां देवता नारी के रूप में और देवियां नर के रूप में पूजी जाती हैं| ऐसा ही एक मंदिर स्थित हैं छत्तीसगढ़ राज्य के आलोर गाँव में एक तो सबसे बड़ी बात है कि यह मंदिर नक्सल प्रभावित एरिया में आता इसीलिए भी लोगों की पहुँच से दूर है तो दूसरी बात यह भी हैं कि यह मंदिर साल में केवल एक ही बार खुलता है इसलिए भी यहाँ पर कम लोग ही पहुँच पाते है I इस मंदिर को लिंगाई माता के नाम से जाना जाता है| यह मंदिर एक प्राकृतिक गुफा के भीतर स्थित है I इस मंदिर में कोई देवी की मूर्ती नहीं है बल्कि यहाँ पर एक प्रकृति निर्मित शिवलिंग है जिसे लोग कहते है कि देवी यहाँ पर शिवलिंग के रूप में विराजमान है |

फरसगांव से लगभग 8 किमी दूर पश्चिम से बड़ेडोंगर मार्ग पर ग्राम आलोर स्थित है। ग्राम से लगभग 2 किमी दूर उत्तर पश्चिम में एक पहाड़ी है जिसे लिंगई गट्टा लिंगई माता के नाम से जाना जाता है। इस छोटी से पहाड़ी के ऊपर विस्तृत फैला हुआ चट्टान के उपर एक विशाल पत्थर है। बाहर से अन्य पत्थर की तरह सामान्य दिखने वाला यह पत्थर स्तूप-नुमा है इस पत्थर की संरचना को भीतर से देखने पर ऐसा लगता है कि मानो कोई विशाल पत्थर को कटोरानुमा तराश कर चट्टान के ऊपर उलट दिया गया है। इस मंदिर के दक्षिण दिशा में एक सुरंग है जो इस गुफा का प्रवेश द्वार है। द्वार इनता छोटा है कि बैठकर या लेटकर ही यहां प्रवेश किया जा सकता है। इसके अलावा कोई अन्य राश्ता नहीं है| गुफा के अंदर 25 से 30 आदमी बैठ सकते हैं। गुफा के अंदर चट्टान के बीचों-बीच निकला शिवलिंग है जिसकी ऊंचाई लगभग दो फुट होगी, श्रद्धालुओं का मानना है कि इसकी ऊंचाई पहले बहुत कम थी समय के साथ यह बढ़ गई।


इस मंदिर में प्रति दिन पूजा अर्चना नहीं होती है। वर्ष में एक दिन मंदिर का द्वार खुलता है और इसी दिन यहां मेला भरता है। संतान प्राप्ति की मन्नत लिये यहां हर वर्ष हजारों की संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं। प्रतिवर्ष भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष नवमीं तिथि के पश्चात आने वाले बुधवार को इस प्राकृतिक देवालय को खोल दिया जाता है, तथा दिनभर श्रद्धालुओं द्वारा पूजा अर्चना एवं दर्शन की जाती है। स्थानीय लोगों की ऐसा मान्यता कि यहाँ पर उन लोगों की मुराद पूरी होती है जो संतान प्राप्ति के लिए यहाँ आते है I उन्हें खीरा अपने साथ लाना होता है और वह खीरा यहाँ चढ़ाया जाता है और पूजा के बाद उस खीरे को उस दंपत्ति को पुजारी वह खीरा वापस कर देता है I दंपत्ति को वह खीरा अपने नाखूनों से फाड़कर वही खाना होता है जिससे उन्हें संतान की प्राप्ति होती है| मन्नत पूरी होने पर अगले साल श्रद्धा अनुसार चढ़ावा चढ़ाना होता है। 

आखिर क्यों शनि की नजर है अशुभ? जानिए रोचक प्रसंग

शनि एक ऐसा नाम है जिसे पढ़ते-सुनते ही लोगों के मन में भय उत्पन्न हो जाता है। ऐसा कहा जाता है कि शनि की कुद्रष्टि जिस पर पड़ जाए वह रातो-रात राजा से भिखारी हो जाता है और वहीं शनि की कृपा से भिखारी भी राजा के समान सुख प्राप्त करता है। यदि किसी व्यक्ति ने कोई बुरा कर्म किया है तो वह शनि के प्रकोप से नहीं बच सकता है। कई ऐसी घटनाएं हैं जहां शनि की कुदृष्टि पडऩे पर भारी संकट उत्पन्न हो गया। आखिर क्यों शनि की नजर अशुभ है? 

ब्रह्मवैवर्तपुराण में इसके पीछे एक कथा का वर्णन है, जो इस प्रकार है- सूर्य पुत्र शनि का विवाह चित्ररथ नामक गंधर्व की कन्या से हुआ था, जो स्वभाव से बहुत ही उग्र थी। एक बार जब शनिदेव भगवान की आराधना कर रहे थे तब उनकी पत्नी ऋतु स्नान के बाद मिलन की कामना से उनके पास पहुंची लेकिन शनि भगवान भक्ति में इतने लीन थे कि उन्हें इस बात का पता ही नहीं चला। 

जब शनिदेव का ध्यान भंग हुआ तब तक उनकी पत्नी का ऋतुकाल समाप्त हो चुका था। इससे क्रोधित होकर शनिदेव की पत्नी ने उन्हें शाप दे दिया कि पत्नी होने पर भी आपने मुझे कभी प्रेम दृष्टि से नहीं देखा अब आप जिसे भी देखेंगे उसका कुछ न कुछ बुरा हो जायेगा। इसी कारण शनि की दृष्टि में दोष माना गया है।

हरितालिका तीज: माता पार्वती ने किया था यह व्रत और पति रूप में मिले थे भगवान भोलेनाथ

हमारे देश में महिलाएं अपने सुहाग की रक्षा के लिए तरह-तरह के व्रत करती हैं। हरितालिका तीज का व्रत उनमें से सबसे प्रमुख है| हरितालिका तीज व्रत भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की तृ्तिया को किया जाता है| कहीं- कहीं इसे कजरी तीज के नाम से भी जाना जाता है| इस व्रत को 'हरितालिका' इसलिये कहा जाता है क्योंकि पार्वती कि सखी उन्हें पिता और प्रदेश से हर कर जंगल में ले गयी थी। 'हरित' अर्थात हरण करना और 'तालिका' अर्थात सखी। इस व्रत को विशेष रुप से विवाहित स्त्रियों के द्वारा किया जाता है| इस दिन उपवास कर भगवान शंकर-पार्वती की बालू से मूर्ति बनाकर पूजा की जाती है| सुंदर वस्त्र धारण किये जाते है तथा कदली स्तम्भों से घर को सजाया जाता है| इसके बाद मंगल गीतों से रात्रि जागरण किया जाता है| इस व्रत को करने वालि स्त्रियों को पार्वती के समान सुख प्राप्त होता है| इस वर्ष यह त्यौहार 16 सितम्बर दिन बुधवार को मनाया जायेगा| 

हरितालिका तीज व्रत विधि-

इस व्रत में कुछ ना खाने-पीने की वजह से ही इसका नाम हरितालिका तीज पड़ा। व्रती स्त्री को पहले नित्य कर्म स्नानादि क्रियाओं से निवृत्त हो प्रसन्नतापूर्वक वस्त्राभूषणों से श्रृंगार कर व्रत का संकल्प लेना चाहिए, व्रत के दौरान किसी पर क्रोध नहीं करना चाहिए, किसी प्रकार के तामसिक आहार व अन्न, चाय, दूध, फल, रस (जूस) आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। 

प्रात: स्नान आदि करने के बाद, व्रत का संकल्प लिया जाता है और भगवान शंकर व माता पार्वती जी की पूजा की जाती है| इस व्रत को निर्जल रहकर किया जाता है| व्रत के दिन माता का पूजन धूप, दीप व फूलों से करना चाहिए| अंत में व्रत की कथा सुनी जाती है और घर के बडों से आशिर्वाद प्राप्त किया जाता है|

हरितालिका व्रत कथा-

कहते हैं कि इस व्रत के माहात्म्य की कथा भगवान् शिव ने पार्वती जी को उनके पूर्व जन्म का स्मरण करवाने के उद्देश्य से इस प्रकार से कही थी- "हे गौरी! पर्वतराज हिमालय पर गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में अधोमुखी होकर घोर तप किया था। इस अवधि में तुमने अन्न ना खाकर केवल हवा का ही सेवन के साथ तुमने सूखे पत्ते चबाकर काटी थी। माघ की शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश कर तप किया था। वैशाख की जला देने वाली गर्मी में पंचाग्नी से शरीर को तपाया। श्रावण की मुसलाधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न जल ग्रहन किये व्यतीत किया। तुम्हारी इस कष्टदायक तपस्या को देखकर तुम्हारे पिता बहुत दुःखी और नाराज़ होते थे। तब एक दिन तुम्हारी तपस्या और पिता की नाराज़गी को देखकर नारदजी तुम्हारे घर पधारे।

तुम्हारे पिता द्वारा आने का कारण पूछने पर नारदजी बोले - 'हे गिरिराज! मैं भगवान् विष्णु के भेजने पर यहाँ आया हूँ। आपकी कन्या की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर वह उससे विवाह करना चाहते हैं। इस बारे में मैं आपकी राय जानना चाहता हूँ।' नारदजी की बात सुनकर पर्वतराज अति प्रसन्नता के साथ बोले- 'श्रीमान! यदि स्वंय विष्णुजी मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। वे तो साक्षात ब्रह्म हैं। यह तो हर पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-सम्पदा से युक्त पति के घर कि लक्ष्मी बने।'

नारदजी तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर विष्णुजी के पास गए और उन्हें विवाह तय होने का समाचार सुनाया। परंतु जब तुम्हे इस विवाह के बारे में पता चला तो तुम्हारे दुःख का ठिकाना ना रहा। तुम्हे इस प्रकार से दुःखी देखकर, तुम्हारी एक सहेली ने तुम्हारे दुःख का कारण पूछने पर तुमने बताया कि - 'मैंने सच्चे मन से भगवान् शिव का वरण किया है, किन्तु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी के साथ तय कर दिया है। मैं विचित्र धर्मसंकट में हूँ। अब मेरे पास प्राण त्याग देने के अलावा कोई और उपाय नहीं बचा।' तुम्हारी सखी बहुत ही समझदार थी। उसने कहा - 'प्राण छोड़ने का यहाँ कारण ही क्या है? संकट के समय धैर्य से काम लेना चाहिये। भारतीय नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि जिसे मन से पति रूप में एक बार वरण कर लिया, जीवनपर्यन्त उसी से निर्वाह करे। सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो भगवान् भी असहाय हैं। मैं तुम्हे घनघोर वन में ले चलती हूँ जो साधना थल भी है और जहाँ तुम्हारे पिता तुम्हे खोज भी नहीं पायेंगे। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे।'

तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हे घर में न पाकर बड़े चिंतित और दुःखी हुए। वह सोचने लगे कि मैंने तो विष्णुजी से अपनी पुत्री का विवाह तय कर दिया है। यदि भगवान् विष्णु बारात लेकर आ गये और कन्या घर पर नहीं मिली तो बहुत अपमान होगा, ऐसा विचार कर पर्वतराज ने चारों ओर तुम्हारी खोज शुरू करवा दी। इधर तुम्हारी खोज होती रही उधर तुम अपनी सहेली के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन रहने लगीं। भाद्रपद तृतीय शुक्ल को हस्त नक्षत्र था। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण किया। रात भर मेरी स्तुति में गीत गाकर जागरण किया। तुम्हारी इस कठोर तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन हिल उठा और मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास पहुँचा और तुमसे वर मांगने को कहा तब अपनी तपस्या के फलीभूत मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा - 'मैं आपको सच्चे मन से पति के रूप में वरण कर चुकी हूँ। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर यहाँ पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिये। 'तब 'तथास्तु' कहकर मैं कैलाश पर्वत पर लौट गया।

प्रातः होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री नदी में प्रवाहित करके अपनी सखी सहित व्रत का वरण किया। उसी समय गिरिराज अपने बंधु - बांधवों के साथ तुम्हे खोजते हुए वहाँ पहुंचे। तुम्हारी दशा देखकर अत्यंत दुःखी हुए और तुम्हारी इस कठोर तपस्या का कारण पुछा। तब तुमने कहा - 'पिताजी, मैंने अपने जीवन का अधिकांश वक़्त कठोर तपस्या में बिताया है। मेरी इस तपस्या के केवल उद्देश्य महादेवजी को पति के रूप में प्राप्त करना था। आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूँ। चुंकि आप मेरा विवाह विष्णुजी से करने का निश्चय कर चुके थे, इसलिये मैं अपने आराध्य की तलाश में घर से चली गयी। अब मैं आपके साथ घर इसी शर्त पर चलूंगी कि आप मेरा विवाह महादेवजी के साथ ही करेंगे। पर्वतराज ने तुम्हारी इच्छा स्वीकार करली और तुम्हे घर वापस ले गये। कुछ समय बाद उन्होने पूरे विधि - विधान के साथ हमारा विवाह किया।"

भगवान् शिव ने आगे कहा - "हे पार्वती! भाद्र पद कि शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के परिणाम स्वरूप हम दोनों का विवाह संभव हो सका। इस व्रत का महत्व यह है कि मैं इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाली प्रत्येक स्त्री को मन वांछित फल देता हूँ।" भगवान् शिव ने पार्वती जी से कहा कि इस व्रत को जो भी स्त्री पूर्ण श्रद्धा से करेगी उसे तुम्हारी तरह अचल सुहाग प्राप्त होगा।

एक राजा ने अपनी रानी को दिया था ताजमहल से भी प्यारा गिफ्ट

आपने बहुत-से उपवन देखे होंगे। हम आपको एक अद्भुत उपवन के विषय में बताते हैं, जो संसार की सात आश्चर्यजनक वस्तुओं में से एक था। कारण, यह हवा में लटकता था। दक्षिण-पश्चिमी एशिया के इराक (मेसोपोटामिया) देश में फरात नदी के किनारे के मैदान में एक बड़ा सुंदर नगर था। इस नगर के चारो ओर बड़ी ऊंची दीवार का परकोटा था। इस परकोटे में बड़े-बड़े द्वार लगे हुए थे। इस नगर का नाम बैबिलन है।

आज से दो हजार वर्ष पहले बैबिलन संसार का एक बहुत बड़ा और धनी नगर था। वहां नबूचद नाजिर नामक एक बड़ा शक्तिशाली बादशाह राज्य करता था। इस बादशाह ने आक्रमण करके आसपास के देशों को ही नहीं, वरन् संसार के दूर-दूर के देशों को भी जीत लिया था।

जिस समय बादशाह को लड़ने से अवकाश मिल जाता था, वह अपने नगर में रहकर हजारों कारीगरों को मंदिर बनाने और शहर के परकोटे को मजबूत करने में जुटा देता था। एक बार बादशाह की इच्छा एक सुंदर महल बनवाने की हुई। फिर क्या था! उसने इतने लोग जुटा दिये कि महल पंद्रह दिन में बनकर तैयार हो गया।

बादशाह उन दिनों एक दूसरे देश की यात्रा करने गया हुआ था। वहां बादशाह की भेंट उस देश के बादशाह की पुत्री से हुई। बादशाह ने शाहजादी से विवाह कर लिया और दोनों बैबिलन लौट आए। शहजादी अब रानी हो गई थी और उसके रहने के लिए एक सुंदर महल भी था, फिर भी वह अनमनी-सी रहती थी, क्योंकि उसे रह-रहकर अपने देश के पर्वतों का ध्यान आता था। यहां के मैदान की हवा बड़ी ही गरम थी। रानी हरदम अपने मन में सोचती, "यदि पिता के घर होती तो पर्वतों की चोटियों पर चढ़कर शीतल वायु का सेवन करती।" धीरे-धीरे उसकी सेहत गिरने लगी।

बादशाह ने यह देखा तो उसे चिंता हुई। एक दिन उसने रानी से पूछा, "दिन-दिन तुम्हारी सेहत क्यों गिर रही है? तुम्हारी यह हालत मुझसे नहीं देखी जाती। जो इच्छा हो, नि:संकोच कहो। मैं तुम्हें प्रसन्न करने के लिए सब कुछ करने को तैयार हूं।" 

रानी ने बादशाह से कहा, "मैं जानती हूं कि आप मेरे लिए सबकुछ करने को तैयार हैं, पर अपने चौरस देश में इच्छा होने पर भी पर्वत और पहाड़ियां तो नहीं बनवा सकते।"

बात सच थी; किंतु बादशाह भी सहज हार माननेवाला नहीं था। उसके पास अनेक कारीगर थे। बादशाह ने तुरंत उन सबको काम पर जुटा दिया। इन लोगों ने सबसे पहले एक वर्गाकार भूमि को ढकने के लिए बड़े-बड़े खंभों की कतारें बनाईं। हर कतार अपने आगे की कतार से ऊंची थी और खंभे पकी हुई इंटों तथा राल से बनाए गए थे। भीतर से वे खोखले थे। उनके भीतर मिट्टी भरी गई। उन खंभों को घुमावों द्वारा एक-दूसरे से मिला दिया गया। घुमावों के ऊपर छतें बनाई गईं।

खंभे इतने बड़े और मजबूत थे कि उनमें से बड़े से बड़े वृक्ष लगाए जा सकते थे। छतों पर भी मिट्टी बिछाई गई थी और उस पर पैधे लगाए जा सकते थे। छतों पर भी मिट्टी बिछाई गई थी और उस पर वृक्ष, झाड़ियां तथा पुष्प लगाए गए थे। इन छतों पर चढ़ने के लिए सीढ़ियां बना दी गई थीं। छतें एक बड़ी सीढ़ी की तरह एक दूसरों से ऊपर निकाली हुई थी। वृक्षों, लताओं और पुष्पों से भर जाने के कारण ये बड़ी मनमोहक लगती थीं।

बाग की सिंचाई के लिए पानी की आवश्यकता होती हैं; किंतु बैबिलन में तो बहुत ही कम वर्षा होती थी। वहां पानी फराद नदी से आता था। बाग की सिंचाई का सवाल उठा। बाग फरात नदी के किनारे पर बनाया गया था। बादशाह ने अपने दास-दासियों को आज्ञा दी कि वे हर समय डोलों में पानी भर भरकर बाग को सींचते रहें।

इस बाग को सींचने में दास-दासियों को कठिन परिश्रम करना पड़ता था, क्योंकि सबसे ऊंचे घुमाव की ऊंचाई 75 गज थी। देखते-देखते ही एक बड़ा ही सुंदर उपवन बन गया। रानी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। अब वह छतों पर चढ़कर वृक्षों के नीचे जा बैठती और इच्छानुसार ठंडक का आनंद लेती। उपवन राजमहल और उसके पिता के बाग से कहीं अधिक ठंडा था।

इन्हीं छतों को लटकते हुए उपवन के नाम से पुकारते थे, किंतु अब तो उनकी याद ही शेष रह गई है। सैकड़ों वर्ष से ये उपवन खंडहरों के रूप में पड़े हैं। किसी समय में इस स्थान को सुंदरता को देखकर लोग दांतों तले उंगली दबाते थे।

दशहरा : बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक

अश्विन शुक्ल पड़िवा (कलश स्थापन) से शुरू होकर दशमी तिथि तक देशभर में मनाया जाने वाला त्योहार देवी दुर्गा शक्ति पूजन का पर्व विजयदशमी बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है। पूरे देश में मनाए जाने के कारण यह देश का प्रमुख त्योहार है। इस त्योहार में 10 दिनों तकदेवी पूजन और रामलीला साथ-साथ चलती है। माना जाता है कि अयोध्या के राजा रामचंद्र ने अपनी धर्मपत्नी का हरण करने वाले रावण को इसी दिन धराशायी किया था। लंका पर आक्रमण से लेकर रावण वध तक दस दिनों तक युद्ध चला था। शक्ति की देवी दुर्गा के उपासक राम ने लगातार देवी की उपासना की और अंत में युद्ध में विजय प्राप्त की थी। उसी युद्ध की याद में यह त्योहार आज भी दस दिनों तक मनाया जाता है और अंत में रावण का पुतला दहन करने का रिवाज है।

इस त्योहार की अवधि में उत्तर भारत में विभिन्न जगहों पर रामलीलाओं का आयोजन बड़े धूमधाम से किया जाता है। रामलीला के आखिरी दिन रावण वध का रिवाज है। किशोर वय के लड़कों को राम और लक्ष्मण के वेश में खुले मैदान में खड़े किए गए रावण मेघनाद के पुतले के सामने लाया जाता है और अग्नि बाण से उसके पुतले को जलाया जाता है।

दशहरा उत्सव की उत्पत्ति के विषय में कई कल्पनाएं की गई हैं। भारत के कतिपय भागों में नए अन्नों की हवि (आहुति) देने, द्वार पर धान की हरी एवं अनपकी बालियों को टांगने तथा गेहूं आदि को कानों मस्तक या पगड़ी पर रखने के कृत्य होते हैं। अत: कुछ लोगों का मत है कि यह कृषि का उत्सव है। 

कुछ लोगों के मत से यह रणयात्रा का द्योतक है, क्योंकि दशहरा के समय वर्षा समाप्त हो जाती है, नदियों की बाढ़ थम जाती है, धान आदि कोष्ठागार में रखे जाने वाले हो जाते हैं। संभवत: यह उत्सव इसी दूसरे मत से संबंधित है। भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी राजाओं के युद्ध प्रयाण के लिए यही ऋतु निश्चित थी। 

पौराणिक मान्यताएं : इस अवसर पर कहीं-कहीं भैंसे या बकरे की बलि दी जाती है। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व देशी राज्यों जैसे बड़ोदा, मैसूर आदि रियासतों में विजयादशमी के अवसर पर दरबार लगते थे और हौदों से युक्त हाथी दौड़ते थे तथा उछ्लकूद करते हुए घोड़ों की सवारियां राजधानी की सड़कों पर निकलती थीं और जुलूस निकाला जाता था। प्राचीन एवं मध्य काल में घोड़ों, हाथियों, सैनिकों एवं स्वयं का नीराजन उत्सव राजा लोग करते थे।

दशहरा का संबंध देवी के विविध रूपों से भी है। नौ दिनों तक देवी के नौ रूपों की पूजा का विधान है। इससे इस त्योहार का संबंध शक्ति से जुड़ता है। अंतिम दिन महिषासुर मर्दनी की पूजा की जाती है। दुर्गा को शक्ति और युद्ध की देवी माना गया है इसलिए इस दिन शस्त्र की पूजा का भी विधान है। 

दस दिनों तक देवी के उपासक विभिन्न उपक्रमों से देवी की उपासना करते हैं। कुछ भक्त अपने शरीर पर कलश स्थापना कर दस दिनों तक कठिन तप की तरह उपासना करते हैं। दसवें दिन देवी के विदा होने का दिन होता है। पश्चिम बंगाल में दसवें दिन स्त्रियां 'सिंदूर खेला' कर देवी को विदा करती हैं। किसी बड़े तालाब या नदी में देवी की प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है।
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जब बापू ने खुद एक लड़के के लिए बनाई रजाई

जाड़े के दिनों में एक दिन गांधीजी आश्रम की गोशाला में पहुंचे। वहां गायों को सहलाया ओर बछड़ों को थपथपाया। तभी उनकी निगाह वहां पर खड़े एक गरीब लड़के पर गई। वह उसके पास पहुंचे और बोले, "तू रात को यहीं सोता है?" 

लड़के ने जवाब दिया, "हां बापू।" "रात को ओढ़ता क्या है?" बापू ने पूछा।

लड़के ने अपनी फटी चादर उन्हें दिखा दी। बापू उसी समय अपनी कुटिया में लौट आए। बा से दो पुरानी साड़ियां मांगी, कुछ पुराने अखबार तथा थोड़ी सी रुई मंगवाई। रूई को अपने हाथों से धुना। साड़ियों की खोली बनाई, अखबार के कागज और रूई भरकर एक रजाई तैयार कर दी। गोशाला से उस लड़के को बुलाया और उसे उसको देकर बोले, "इसे ओढ़कर देखना कि रात में फिर ठंड लगती है या नहीं?"

दूसरे दिन सुबह बापू जब गोशाला पहुंचे तो लड़का दौड़ता हुआ आया और कहने लगा, "बापू, कल रात मुझे बड़ी मीठी नींद आई।"

बापू के चेहरे पर मुस्कराहट खेलने लगी। वह बोले, "सच! तब तो मैं भी ऐसी ही रजाई ओढ़ूंगा।"

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संतान प्राप्ति के लिए रखें पुत्रदा एकादशी का व्रत

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। हिन्दू पंचांग के अनुसार प्रतिवर्ष पुत्रदा एकादशी का व्रत दो बार कहा जाता है एक बार पौष माह की शुक्ल पक्ष को तो दूसरा श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को रखा जाता है| इस दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है| पौष माह की पुत्रदा एकादशी उत्तर भारतीय प्रदेशों में ज्यादा महत्वपूर्ण जबकि श्रावण माह की पुत्रदा एकादशी दूसरे प्रदेशों में ज्यादा महत्वपूर्ण है। इस बार पुत्रदा एकादशी 17 अगस्त दिन शनिवार को पड़ रही है|

पुत्रदा एकादशी व्रत का महत्व-

इस व्रत के नाम के अनुसार ही इस व्रत का फल है| जिन व्यक्तियों के संतान होने में बाधाएं आती हैं उनके लिए पुत्रदा एकादशी का व्रत बहुत ही शुभफलदायक होता है| इसलिए संतान प्राप्ति के लिए इस व्रत को व्यक्ति विशेष को अवश्य रखना चाहिए, जिससे उन्हें मनोवांछित फल की प्राप्ति हो| इस व्रत को रखने के लिए सबसे पहले सुबह स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करने के पश्चात श्रीहरि का ध्यान करना चाहिए| सबसे पहले धूप दीप आदि से भगवान नारायण की पूजा अर्चना की जाती है, उसके बाद फल- फूल, नारियल, पान सुपारी लौंग, बेर आंवला आदि व्यक्ति अपनी सामर्थ्य अनुसार भगवान नारायण को अर्पित करते हैं| पूरे दिन निराहार रहकर संध्या समय में कथा आदि सुनने के पश्चात फलाहार किया जाता है|

पुत्रदा एकादशी व्रत कथा-

युधिष्ठिर बोले: श्रीकृष्ण ! कृपा करके श्रावण मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का माहात्म्य बतलाइये । उसका नाम क्या है? उसे करने की विधि क्या है ? उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है ?

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: राजन्! श्रावण मास के शुक्लपक्ष की जो एकादशी है, उसका नाम ‘पुत्रदा’ है ।

‘पुत्रदा एकादशी’ को नाम-मंत्रों का उच्चारण करके फलों के द्वारा श्रीहरि का पूजन करे । नारियल के फल, सुपारी, बिजौरा नींबू, जमीरा नींबू, अनार, सुन्दर आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषत: आम के फलों से देवदेवेश्वर श्रीहरि की पूजा करनी चाहिए । इसी प्रकार धूप दीप से भी भगवान की अर्चना करे ।

‘पुत्रदा एकादशी’ को विशेष रुप से दीप दान करने का विधान है । रात को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए । जागरण करनेवाले को जिस फल की प्राप्ति होति है, वह हजारों वर्ष तक तपस्या करने से भी नहीं मिलता । यह सब पापों को हरनेवाली उत्तम तिथि है ।

चराचर जगतसहित समस्त त्रिलोकी में इससे बढ़कर दूसरी कोई तिथि नहीं है । समस्त कामनाओं तथा सिद्धियों के दाता भगवान नारायण इस तिथि के अधिदेवता हैं ।

"पूर्वकाल की बात है, भद्रावतीपुरी में राजा सुकेतुमान राज्य करते थे । उनकी रानी का नाम चम्पा था । राजा को बहुत समय तक कोई वंशधर पुत्र नहीं प्राप्त हुआ । इसलिए दोनों पति पत्नी सदा चिन्ता और शोक में डूबे रहते थे । राजा के पितर उनके दिये हुए जल को शोकोच्छ्वास से गरम करके पीते थे । ‘राजा के बाद और कोई ऐसा नहीं दिखायी देता, जो हम लोगों का तर्पण करेगा …’ यह सोच सोचकर पितर दु:खी रहते थे ।

एक दिन राजा घोड़े पर सवार हो गहन वन में चले गये । पुरोहित आदि किसीको भी इस बात का पता न था । मृग और पक्षियों से सेवित उस सघन कानन में राजा भ्रमण करने लगे । मार्ग में कहीं सियार की बोली सुनायी पड़ती थी तो कहीं उल्लुओं की । जहाँ तहाँ भालू और मृग दृष्टिगोचर हो रहे थे । इस प्रकार घूम घूमकर राजा वन की शोभा देख रहे थे, इतने में दोपहर हो गयी । राजा को भूख और प्यास सताने लगी । वे जल की खोज में इधर उधर भटकने लगे । किसी पुण्य के प्रभाव से उन्हें एक उत्तम सरोवर दिखायी दिया, जिसके समीप मुनियों के बहुत से आश्रम थे । शोभाशाली नरेश ने उन आश्रमों की ओर देखा । उस समय शुभ की सूचना देनेवाले शकुन होने लगे । राजा का दाहिना नेत्र और दाहिना हाथ फड़कने लगा, जो उत्तम फल की सूचना दे रहा था । सरोवर के तट पर बहुत से मुनि वेदपाठ कर रहे थे । उन्हें देखकर राजा को बड़ा हर्ष हुआ । वे घोड़े से उतरकर मुनियों के सामने खड़े हो गये और पृथक् पृथक् उन सबकी वन्दना करने लगे । वे मुनि उत्तम व्रत का पालन करनेवाले थे । जब राजा ने हाथ जोड़कर बारंबार दण्डवत् किया,तब मुनि बोले : ‘राजन् ! हम लोग तुम पर प्रसन्न हैं।’

राजा बोले: आप लोग कौन हैं ? आपके नाम क्या हैं तथा आप लोग किसलिए यहाँ एकत्रित हुए हैं? कृपया यह सब बताइये ।

मुनि बोले: राजन् ! हम लोग विश्वेदेव हैं । यहाँ स्नान के लिए आये हैं । माघ मास निकट आया है । आज से पाँचवें दिन माघ का स्नान आरम्भ हो जायेगा । आज ही ‘पुत्रदा’ नाम की एकादशी है,जो व्रत करनेवाले मनुष्यों को पुत्र देती है ।

राजा ने कहा: विश्वेदेवगण ! यदि आप लोग प्रसन्न हैं तो मुझे पुत्र दीजिये।

मुनि बोले: राजन्! आज ‘पुत्रदा’ नाम की एकादशी है। इसका व्रत बहुत विख्यात है। तुम आज इस उत्तम व्रत का पालन करो । महाराज! भगवान केशव के प्रसाद से तुम्हें पुत्र अवश्य प्राप्त होगा ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: युधिष्ठिर ! इस प्रकार उन मुनियों के कहने से राजा ने उक्त उत्तम व्रत का पालन किया । महर्षियों के उपदेश के अनुसार विधिपूर्वक ‘पुत्रदा एकादशी’ का अनुष्ठान किया । फिर द्वादशी को पारण करके मुनियों के चरणों में बारंबार मस्तक झुकाकर राजा अपने घर आये । तदनन्तर रानी ने गर्भधारण किया । प्रसवकाल आने पर पुण्यकर्मा राजा को तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ, जिसने अपने गुणों से पिता को संतुष्ट कर दिया । वह प्रजा का पालक हुआ ।

इसलिए राजन्! ‘पुत्रदा’ का उत्तम व्रत अवश्य करना चाहिए । मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है । जो मनुष्य एकाग्रचित्त होकर ‘पुत्रदा एकादशी’ का व्रत करते हैं, वे इस लोक में पुत्र पाकर मृत्यु के पश्चात् स्वर्गगामी होते हैं। इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है ।