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भष्मासुर से बचने के लिए यहीं छुपे थे भगवान भोेलनाथ

बिहार के प्राचीन शिवलिंगों में शुमार रोहतास जिले के गुप्तेश्वर धाम गुफा स्थित शिवलिंग की महिमा का बखान आदिकाल से ही होता आ रहा है। मान्यता है कि प्राकृतिक सुषमा से सुसज्जित वादियों में स्थित इस गुफा में जलाभिषेक करने के बाद भक्तों की सभी मन्नतें पूरी हो जाती हैं। पौराणिक आख्यानों में वर्णित भगवान शंकर व भस्मासुर से जुड़ी कथा को जीवंत रखे हुए ऐतिहासिक गुप्तेश्वरनाथ महादेव का गुफा मंदिर आज भी रहस्यमय बना हुआ है। 

देवघर के बाबाधाम की तरह गुप्तेश्वरनाथ यानी 'गुप्ताधाम' श्रद्धालुओं में काफी लोकप्रिय है। यहां बक्सर से गंगाजल लेकर शिवलिंग पर चढ़ाने की परंपरा है। रोहतास में अवस्थित विंध्य श्रृंखला की कैमूर पहाड़ी के जंगलों से घिरे गुप्ताधाम गुफा की प्राचीनता के बारे में कोई प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। इसकी बनावट को देखकर पुरातत्वविद अब तक यही तय नहीं कर पाए हैं कि यह गुफा मानव निर्मित है या प्राकृतिक। 

'रोहतास के इतिहास' सहित कई पुस्तकों के लेखक श्यामसुंदर तिवारी का कहना है कि गुफा के नाचघर व घुड़दौड़ मैदान के बगल में स्थित पताल गंगा के पास दीवार पर उत्कीर्ण शिलालेख, जिसे श्रद्धालु 'ब्रह्मा के लेख' के नाम से जानते हैं, को पढ़ने से संभव है, इस गुफा के कई रहस्य खुल जाएं। तिवारी ने कहा, "केंद्र सरकार को चाहिए कि पुरातत्ववेत्ताओं एवं भाषाविदों की मदद से अब तक अपाठ्य रही इस लिपि को पढ़वाया जाए, ताकि इस गुफा के रहस्य पर पड़ा पर्दा हट सके।" 

गुफा में गहन अंधेरा होता है, बिना कृत्रिम प्रकाश के भीतर जाना संभव नहीं है। पहाड़ी पर स्थित इस पवित्र गुफा का द्वार 18 फीट चौड़ा एवं 12 फीट ऊंचा मेहराबनुमा है। गुफा में लगभग 363 फीट अंदर जाने पर बहुत बड़ा गड्ढा है, जिसमें सालभर पानी रहता है। श्रद्धालु इसे 'पातालगंगा' कहते हैं। गुफा के अंदर प्राचीन काल के दुर्लभ शैलचित्र आज भी मौजूद हैं। 

इसके कुछ आगे जाने के बाद शिवलिंग के दर्शन होते हैं। गुफा के अंदर अवस्थित प्राकृतिक शिवलिंग पर हमेशा ऊपर से पानी टपकता है। इस पानी को श्रद्धालु प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। इस स्थान पर सावन महीने के अलावा सरस्वती पूजा और महाशिवरात्रि के मौके पर मेला लगता है। जनश्रुतियों के मुताबिक, कैलाश पर्वत पर मां पार्वती के साथ विराजमान भगवान शिव ने जब भस्मासुर की तपस्या से खुश होकर उसे किसी के सिर पर हाथ रखते ही भष्म करने की शक्ति का वरदान दिया था। भस्मासुर मां पार्वती के सौंदर्य पर मोहित होकर शिव से मिले वरदान की परीक्षा लेने उन्हीं के सिर पर हाथ रखने के लिए दौड़ा। वहां से भागकर भोले यहीं की गुफा के गुप्त स्थान में छुपे थे। 

भगवान विष्णु से शिव की यह विवशता देखी नहीं गई और उन्होंने मोहिनी रूप धारण कर भस्मासुर का नाश किया। उसके बाद गुफा के अंदर छुपे भोले बाहर निकले। सासाराम के वरिष्ठ पत्रकार विनोद तिवारी कहते हैं शाहाबाद गजेटियर में दर्ज फ्रांसिस बुकानन नामक अंग्रेज विद्वान की टिप्पणियों के अनुसार, गुफा में जलने के कारण उसका आधा हिस्सा काला होने के सबूत आज भी देखने को मिलते हैं। 

सावन में एक महीना तक बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और नेपाल से हजारों शिवभक्त यहां आकर जलाभिषेक करते हैं। बक्सर से गंगाजल लेकर गुप्ता धाम पहुंचने वाले भक्तों का तांता लगा रहता है। लोगों बताते हैं कि विख्यात उपन्यासकार देवकी नंदन खत्री ने अपने चर्चित उपन्यास 'चंद्रकांता' में विंध्य पर्वत श्रृंखला की जिन तिलस्मी गुफाओं का जिक्र किया है, संभवत: उन्हीं गुफाओं में गुप्ताधाम की यह रहस्यमयी गुफा भी है। वहां धर्मशाला व कुछ कमरे अवश्य बने हैं, परंतु अधिकांश जर्जर हो चुके हैं। 

गुप्ताधाम गुफा के अंदर ऑक्सीजन की कमी से वर्ष 1989 में हुई आधा दर्जन से अधिक श्रद्घालुओं की मौत की घटना को याद कर आज भी लोग सिहर उठते हैं। बैरिया गांव के प्रो़ उमेश सिंह बताते हैं कि इस घटना के बाद ही प्रशासन की ओर से यहां कुछ ऑक्सीजन सिलेंडर भेजा जाने लगा था। प्रशासन की ओर से चिकित्सा शिविर भी लगता था, परंतु वन विभाग द्वारा इस क्षेत्र को अभ्यारण्य घोषित किए जाने के बाद प्रशासनिक स्तर पर दी जा रही सुविधा बंद कर दी गई है। अब समाजसेवियों के सहारे ही इतना बड़ा मेला चलता है। 

जिला मुख्यालय सासाराम से करीब 60 किलोमीटर दूरी पर स्थित इस गुफा में पहुंचने के लिए रेहल, पनारी घाट और उगहनी घाट से तीन रास्ते हैं जो अतिविकट व दुर्गम हैं। दुर्गावती नदी को पांच बार पार कर पांच पहाड़ियों की यात्रा करने के बाद लोग यहां पहुंचते हैं।

रक्षाबंधन: भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक


रक्षाबंधन हिन्दुओं का सबसे प्रमुख त्यौहार है| श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला यह त्यौहार भाई बहन के प्यार का प्रतीक है| इस दिन सभी बहने अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधती हैं और भाई की लम्बी उम्र की कामना करती हैं| भाई अपनी बहन को रक्षा करने का वचन देता है| इस वर्ष यह त्यौहार 21 अगस्त दिन बुधवार को मनाया जायेगा| 

रक्षा बंधन का त्यौहार भाई बहन के प्रेम का प्रतीक होकर चारों ओर अपनी छटा को बिखेरता सा प्रतीत होता है| सात्विक एवं पवित्रता का सौंदर्य लिए यह त्यौहार सभी जन के हृदय को अपनी खुशबू से महकाता है| इतना पवित्र पर्व यदि शुभ मुहूर्त में किया जाए तो इसकी शुभता और भी अधिक बढ़ जाती है|

किस तरह से बांधें राखी-

रक्षासूत्र के लिए उचित मुहूर्त की चाह हर किसी को होती है| इस त्यौहार की ख़ास बात यह है कि राखी के साथ कुमकुम, हल्दी, चावल, दीपक, अगरबती, मिठाई का उपयोग किया जाता है| कुमकुम, हल्दी और चावल से पहले भाई को टीका करें उसके बाद उसकी आरती फिर भाई की दाहिनी कलाई रक्षासूत्र बांधें| राखी बांधते समय बहनें निम्न मंत्र का उच्चारण करें, इससे भाईयों की आयु में वृ्द्धि होती है. “येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: | तेन त्वांमनुबध्नामि, रक्षे मा चल मा चल ||”

इस दिन व्यक्ति को चाहिए कि उसे उस दिन प्रात: काल में स्नान आदि कार्यों से निवृ्त होकर, शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए| इसके बाद अपने इष्ट देव की पूजा करने के बाद राखी की भी पूजा करें साथ ही पितृरों को याद करें व अपने बडों का आशिर्वाद ग्रहण करें|

पौराणिक प्रसंग-

भाई बहन का यह पावन पर्व आज से ही नहीं बल्कि युगों-युगों से चलता चला आ रहा है भविष्य पुराण में भी इसका व्याख्यान किया गया है| एक बार दानवों और देवताओं में युद्ध शुरू हुआ| दानव देवताओं पर भारी पड़ने लगे तब इन्द्र घबराकर वृहस्पतिदेव के पास गए| वहां बैठी इंद्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र कर के अपने पति के हाथ पर बांध दिया। वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इंद्र इस लड़ाई में इसी धागे की मंत्र शक्ति से विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बांधने की प्रथा चली आ रही है। 

इसके अलावा स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान ने वामन अवतार लेकर ब्राम्हण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश,पाताल और धरती नाप कर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकानाचूर कर देने के कारण यह त्योहार 'बलेव' नाम से भी प्रसिद्ध है। 

कहा जाता है कि जब बलि रसातल चला गया तो उसने अपने तप से भगवान को रात- दिन अपने पास रहने का वचन ले लिया| भगवान विष्णु के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को देवर्षि नारद ने एक उपाय सुझाया| नारद के उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी राजा बलि के पास गई और उन्हें राखी बांधकर अपना भाई बना लिया| उसके बाद अपने पति भगवान विष्णु और बलि को अपने साथ लेकर वापस स्वर्ग लोक चली गईं| उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भागवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।

महाभारत में ही रक्षाबंधन से संबंधित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तांत मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबंधन के पर्व में यहीं से आन मिली।

पौराणिक युग के साथ साथ एतिहासिक युग में भी यह त्यौहार काफी प्रचलित था कहते हैं कि राजपूत जब युद्ध के लिए जाते थे तब महिलाएं उनके मस्तक पर कुमकुम का टीका लगाती थी और हाथ में रेशम का धागा बांधती थी| महिलाओं को यह विश्वास होता था कि उनके पति विजयी होकर लौटेंगे|

मेवाड़ की महारानी कर्मवती के राज्य पर जब बहादुर शाह जफ़र द्वारा हमला की सूचना मिली तब रानी ने अपनी कमजोरी को देखते हुए मुग़ल शासक हुमायूँ को राखी भेजी। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए रानी कर्मवती और उसके राज्य की रक्षा की। कहते है सिकंदर की पत्नी ने अपने पति के हिंदू शत्रु पुरूवास को राखी बांध कर अपना मुंहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकंदर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी का और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकंदर को जीवदान दिया। इस तरह से तमाम येसे प्रसंग हैं जो भ्रात्र स्नेह से जुड़े हुए हैं|

कहाँ किस नाम से जाना जाता है यह त्यौहार-

रक्षाबंधन का यह त्यौहार अलग- अलग राज्यों में अलग- अलग नामों से जाना जाता है| उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। इस दिन ब्राह्मण अपने यजमानों को राखी देकर दक्षिणा लेते हैं।

इसके अलावा महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से जाना जाता है| इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं। इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिए नारियल अर्पित करने की परंपरा भी है। वहीँ, अगर राजस्थान की बात करें तो रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बांधने का रिवाज़ है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुंदना लगा होता है और केवल भगवान को बांधी जाती है। चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती है। 
जोधपुर में राखी के दिन केवल राखी ही नहीं बाँधी जाती, बल्कि दोपहर में पद्मसर और मिनकानाडी पर गोबर, मिट्टी और भस्मी से स्नान कर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद धर्म तथा वेदों के प्रवचनकर्ता अरुंधती, गणपति, दुर्गा, गोभिला तथा सप्तर्षियों के दर्भ के चट(पूजास्थल) बनाकर मंत्रोच्चारण के साथ पूजा की जाती हैं। उनका तर्पण कर पितृॠण चुकाया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद घर आकर हवन किया जाता है, वहीं रेशमी डोरे से राखी बनाई जाती है। राखी में कच्चे दूध से अभिमंत्रित करते हैं और इसके बाद भोजन का प्रावधान है।

तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और उड़ीसा के दक्षिण भारतीय ब्राह्मण इस पर्व को अवनि अवित्तम कहते हैं। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिए यह दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस दिन नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्णण कर नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। 

सावन में चढ़ा 'मेहंदी का रंग'


मेहंदी बाजारों में यूं तो महिलाओं का आना पूरे साल लगा रहता है, परंतु सावन में जब प्रकृति स्वयं को हरियाली से संवारती दिखती है तो भारतीय महिलाएं भी अपने साजो-श्रृंगार में हरे रंग की मौजूदगी जरूरी समझती हैं। ऐसे में जब महिलाओं के श्रृंगार की बात हो, तो मेहंदी का जिक्र होना लाजिमी हो जाता है। सावन में मेहंदी का विशेष महत्व है। 

आमतौर पर मान्यता है कि जिसकी मेहंदी जितना रंग लाती है, उसे ससुराल में उतना ही प्यार मिलता है। मेहंदी की सौंधी खुशबू से लड़की का घर-आंगन तो महकता ही है, उसकी सुंदरता में भी चार चांद लग जाते हैं। 

सावन के चलते इन दिनों पटना में मेहंदी बाजारों में विशेष रौनक है। पटना का कोई भी ऐसा मार्केट कांप्लेक्स नहीं है, जहां मेहंदी वाले न हों। 

पटना के डाक बंगला चौराहे के मौर्या लोक कांप्लेक्स में 'अपना मेहंदी वाला' और 'राजा मेहंदी' वाले की दुकानें सजी हुई हैं। बेली रोड के केशव पैलेस में सुरेश मेहंदी वाले और क्लासिक मेहंदी वाले अपनी हुनर से महिलाओं को आकर्षित कर रहे हैं। 

डिजाइनों की मांग के अनुसार अलग-अलग रेट भी हैं। ब्राइडल, बॉम्बे डिजाइन, बैंगल डिजाइन और एरेबिक डिजाइन वाली मेहंदी लगवाने का क्रेज अधिक है। मेहंदी का रंग ज्यादा दिन टिके, इसके लिए काली मेहंदी की मांग हो रही है। 

पटना में तीज त्योहार पर कई ब्यूटी पार्लरों में भी मेहंदी लगाई जाती है। लेकिन वहां अपेक्षाकृत अधिक दाम चुकाने पड़ते हैं। ऐसे में अधिकांश महिलाएं स्थानीय छोटी-छोटी दुकानों का रुख करती हैं। इन दुकानों पर तीन से चार मेहंदी कलाकार बैठे होते हैं, जो सुबह से ही हथेलियों पर अपना हुनर दिखाने में जुट जाते हैं। यह सिलसिला देर शाम तक जारी रहता है। 

क्लासिक मेहंदी वाले बताते हैं कि आमतौर पर सावन में ग्राहकों की संख्या चार गुना बढ़ जाती है। इसे देखते हुए हम भी कारीगरों की संख्या बढ़ा देते हैं। वे बताते हैं कि प्रतिदिन करीब 100 से ज्यादा हाथों पर अपनी कला का नमूना उतारते हैं। आमतौर पर महिलाएं हाथों के दोनों तरफ मेहंदी लगवाती हैं। कई तरह के डिजाइन की भी मांग करती हैं। 

एक अन्य मेहंदी वाले ने बताया कि सिल्वर मेहंदी, गोल्डन मेहंदी, ब्राउन मेहंदी को छोड़कर सारे डिजाइन असली मेहंदी से बनते हैं। इसका रंग भी अपेक्षाकृत अधिक दिन टिकता है। उन्होंने बताया कि सिल्वर, गोल्डन और ब्राउन मेहंदी आमतौर पर शादी समारोह में ही लगवाई जाती है। उनके मुताबिक मारवाड़ी और राजस्थानी मेहंदी की मांग ज्यादा होती है। 

पटना के जगदेवपथ में एक ब्यूटी पार्लर संचालिका तान्या ने आईएएनएस को बताया कि इन दिनों मेहंदी फैशन का हिस्सा बन चुकी है, इसीलिए इसकी मांग भी बढ़ी है। उनका दावा है कि मेहंदी हार्मोन को प्रभावित करती है। ब्लड प्रेशर भी नियंत्रित रखती है। 

इधर, मेहंदी लगवाने पहुंची कॉलेज छात्रा दीप्ति कहती है कि "मुझे मेहंदी लगवाना पसंद है। सावन में तो इसका अपना महत्व है।" दीप्ति ब्राइडल मेहंदी पसंद करती हैं, क्योंकि इसके डिजाइन से हाथ की खूबसूरती बढ़ जाती है। 

दीप्ति कहती हैं कि आखिरकार मेहंदी सजने की वस्तु है तो महिलाएं-युवतियां सावन में इससे दूर कैसे रह सकती हैं?

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परशुराम ने चलाई थी कांवड़ की परंपरा

भगवान परशुराम ने अपने आराध्य देव शिव के नियमित पूजन के लिए पुरा महादेव में मंदिर की स्थापना कर कांवड़ में गंगाजल से पूजन कर कांवड़ परंपरा की शुरुआत की जो आज भी देशभर में काफी प्रचलित है। यहां के पंडित विनोद पाराशर ने कहा कि कांवड़ की परंपरा चलाने वाले भगवान परशुराम की पूजा भी श्रावण मास में की जानी चाहिए।

उन्होंने बताया कि भगवान परशुराम श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को कांवड़ में जल ले जाकर शिव की पूजा-अर्चना करते थे। शिव को श्रावण का सोमवार विशेष रूप से प्रिय है। श्रावण में भगवान आशुतोष का गंगाजल व पंचामृत से अभिषेक करने से शीतलता मिलती है। 

पंडित विनोद पाराशर ने बताया कि भगवान शिव की हरियाली से पूजा करने से विशेष पुण्य मिलता है। खासतौर से श्रावण मास के सोमवार को शिव का पूजन बेलपत्र, भांग, धतूरे, दूर्वाकुर आक्खे के पुष्प और लाल कनेर के पुष्पों से पूजन करने का प्रावधान है। इसके अलावा पांच तरह के जो अमृत बताए गए हैं उनमें दूध, दही, शहद, घी, शर्करा को मिलाकर बनाए गए पंचामृत से भगवान आशुतोष की पूजा कल्याणकारी होती है।

भगवान शिव को बेलपत्र चढ़ाने के लिए एक दिन पूर्व सायंकाल से पहले तोड़कर रखना चाहिए। पंडित पाराशर ने सोमवार को बेलपत्र तोड़कर भगवान पर चढ़ाने को गलत बताया। उन्होंने भगवान आशुतोष के साथ शिव परिवार, नंदी व भगवान परशुराम की पूजा को भी श्रावण मास में लाभकारी बताया। 

शिव की पूजा से पहले नंदी व परशुराम के पूजन की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि शिव का जलाभिषेक नियमित रूप से करने से वैभव और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है।

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गुजर रहा सावन, न पड़े झूले, न बोले मोर!

"झूला तो पड़ गयो अमवा की डार मा, मोर-पपीहा बोले..!" ऐसे कुछ बुंदेली गीत हैं, जो सावन मास आते ही गली-कूचों और आम के बगीचों में गूंजने लगते थे। साथ ही मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली के बीच युवतियां झूले का लुफ्त उठाया करती थीं। अब न तो पहले जैसे आम के बगीचे रहे और न ही मोर की आवाज सुनाई देती है। यानी बिन 'झूला' झूले ही सावन मास गुजर गया। 


डेढ़ दशक पूर्व तक बुंदेलखंड के गांवों की बस्तियों के नजदीक आम के भारी तादाद में बगीचे हुआ करते थे, जिनकी डाल पर ससुराल से नैहर आईं युवतियां अपनी सहेलियों संग 'झूला' झूल सावनी गीत गाया करती थीं। रिम-झिम बारिश के बीच बगीचों में मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली से माहौल सुहावन हो जाता था।


खासकर नाग पंचमी के दूसरे दिन मनाए जाने वाले 'गुड़िया त्यौहार' में झूला झूलने का रिवाज भी था। इसे बुंदेलखंड में लगातार पड़ रहे प्राकृतिक आपदाओं के कहर का असर माना जाए या वन माफियाओं की टेढ़ी नजर का परिणाम कि गांवों में एक भी बगीचे नहीं बचे, जहां युवतियां झूला डाल सकें या मोर विचरण कर सकें।


बांदा जनपद के तेंदुरा गांव की बुजुर्ग महिला देवरतिया बताती हैं, "गुड़िया त्यौहार के नजदीक आते ही बहन-बेटियां ससुराल से मायके बुला ली जाती थीं और वह आम के बगीचों में झूला डाल कर झूलती थीं। झुंड के रूप में इकट्ठा होकर महिलाएं दर्जनों सावनी गीत गाया करती थीं।" 


वह बताती हैं कि त्यौहार में बेटियों को ससुराल से बुलाने की परम्परा आज भी चली आ रही है, लेकिन बगीचों के अभाव में न तो कोई झूला झूल पाता है और न ही अब मोर, पपीहा व कोयल की सुरीली आवाज ही सुनने को मिलती हैं। 


इसी गांव की अधेड़ उम्र की महिला रानी की मानें तो दस साल पहले तक यहां गुड़िया त्योहार से रक्षाबंधन तक झूले का आनंद लिया जाता रहा है। वह बताती हैं कि गांव के राम जानकी मंदिर के पास के पेड़ में लोहे की जंजीरों से झूला डाला जाया करता था और सारे गांव की बहन-बेटियां झूलती थीं। अब पेड़ ही नहीं हैं तो झूला कहां डाला जाए।


इसी जिले के डभनी गांव के बुजुर्ग रघुराज कुशवाहा बताते हैं कि गांव के मजरे कछिया पुरवा के दनिया बाग में एक दर्जन से अधिक झूला पड़ा करते थे, बहन-बेटियां झूले के बहाने अपनी सहेलियों से मुलाकात करती थीं। जब से बाग नष्ट हो गए हैं, तब से ये सब लोग भूल गए हैं।


कुशवाहा झूला झूलने के खत्म हुए रिवाज के लिए लकड़ी की अवैध कटाई करने वालों से ज्यादा गांवों में फैल रही वैमनष्यता को इसका कारण मानते हैं। वह बताते हैं कि पहले गांव के लोग हर बहन-बेटी को अपनी मानते रहे हैं, अब जमाना बदल गया है। जिसके हाथ में रक्षा सूत्र बांधा जाता है, वही भक्षक बन जाता है। 


कुल मिला कर बुंदेलखंड में बाग-बगीचों के खात्मे के साथ जहां मोर-पपीहों की संख्या घटी है, वहीं समाज में बढ़ रही गैर समझदारी के कारण भाईचारे में बेहद कमी आई है। नतीजतन, झूला झूलने की परंपरा को ग्रहण लग गया है।

सावन में जितना रंग लाती है मेंहदी, उतना मिलता है पति का प्रेम

सावन में जब चारों ओर हरियाली का साम्राज्य रहता है, ऐसे में भारतीय महिलाएं भी अपने साजो-श्रृंगार में हरे रंग का खूब इस्तेमाल करती हैं। और जब महिलाओं के श्रृंगार की बात हो रही हो और उसमें मेंहदी की बात न हो तो बात अधूरी रह जाती है। वैसे भी सावन में मेंहदी का अपना महत्व है।

मान्यता है कि जिसकी मेंहदी जितनी रंग लाती है, उसको उतना ही अपने पति और ससुराल का प्रेम मिलता है। मेंहदी की सोंधी खुशबू से लड़की का घर-आंगन तो महकता ही है, लड़की की सुंदरता में भी चार चांद लग जाते हैं। इसलिए कहा भी जाता है कि मेंहदी के बिना दुल्हन अधूरी होती है। 

अक्सर देखा जाता है कि सावन आते ही महिलाओं की कलाइयों में चूड़ियों के रंग हरे हो जाते हैं तो उनका पहनावा भी हरे रंग में तब्दील होता है। और ऐसे में मेंहदी न हो तो बात पूरी नहीं होती है। यही कारण है कि पटना में सावन में मेंहदी के छोटे से बड़े मेंहदी के दुकानों में लड़कियों और महिलाओं से पटे रहते हैं। 

सावन के महीने में पटना का कोई भी ऐसा मार्केट नहीं होता जहां मेंहदी वाले नहीं होते। पटना के डाक बंगला चौराहे के मौर्या लोक कांप्लेक्स में दिलीप मेंहदी वाला और धोनी मेंहदी वाले की दुकानें सजी हैं तो बेली रोड के केशव पैलेस में सुरेश मेंहदी वाले अपनी मेंहदी लगाने वाले हुनर से महिलाओं को आकर्षित कर रहे हैं। 

वैसे पटना में कई ब्यूटी पार्लरों में भी मेंहदी लगाने का काम होता है परंतु वहां मेंहदी लगाने का मूल्य अधिक होता है इस कारण अधिकांश महिलाएं इन छोटे दुकानों पर ही मेंहदी लगाने पहुंचती हैं। एक स्थान में तीन से चार मेंहदी वाले होते हैं जो अक्सर दिन के 11 बजे के बाद ही मेंहदी लगाने का कार्य प्रारम्भ करते हैं जो देर शाम तक चलता रहता है। 

सुरेश मेंहदी वाले बताते हैं कि आम तौर पर सावन में ग्राहकों की संख्या चार गुनी बढ़ जाती है, इस कारण हम लोग भी कारीगरों की संख्या में इजाफा करते हैं। सुरेश कहते हैं कि प्रतिदिन वह करीब 100 से ज्यादा हाथों में मेंहदी लगाने का काम करता है। उनका यह भी कहना है कि आमतौर पर महिलायें दोनों तरफ हाथ मेंहदी से भरवाती हैं और कई तरह की डिजाइन की भी मांग करती हैं। 

उधर, एक अन्य मेंहदी वाले ने मेंहदी के विषय में बताया कि सिल्वर मेंहदी, गोल्डन मेंहदी, ब्राउन मेंहदी को छोड़कर सारे डिजाइन असली मेंहदी से बनते हैं और इसका रंग भी काफी दिनों तक टिकता है। जबकि सिल्वर, गोल्डन और ब्राउन मेंहदी ग्लीटर का होता है जो अक्सर लोग समारोह में जाने के पूर्व लगवाते हैं और पानी से धोने के बाद पूरी तरह साफ हो जाता है। 

उनका यह भी कहना है कि अक्सर लोग मारवाड़ी और राजस्थानी मेंहदी की मांग करते हैं। वैसे कई महिलायें ऐसी भी होती हैं जो घर में ही मेंहदी लगाती हैं। 

पटना के राजा बजार में एक ब्यूटी पार्लर चलाने वाली रोमा बताती हैं कि इन दिनों मेंहदी फैशन की वस्तु बन गई है जिस कारण मांग भी बढ़ गई है। रोमा कहती हैं कि अक्सर लोग मेंहदी विशेष अवसरों पर ही लगाती हैं। उनका दावा है कि मेंहदी हार्मोन को तो प्रभावित करती ही हैं, रक्त संचार में भी नियंत्रण रखती हैं। वे कहती हैं कि आजकल पिछले कुछ वषों से इसका चलन काफी बढ़ गया है। मेंहदी दिमाग को शांत और तेज भी बनाता है। रोमा यह भी कहती हैं कि आखिर मेंहदी सजने की वस्तु है तो महिलायें सावन में इससे अलग नहीं रह पातीं। आखिर सजना जो है 'सजना' के लिए।

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सावन सोमवार व्रत विधि, कथा व आरती

श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को शिव जी के व्रत किए जाते हैं। श्रावण मास में शिव जी की पूजा का विशेष विधान हैं। कुछ भक्त जन तो पूरे मास ही भगवान शिव की पूजा-आराधना और व्रत करते हैं। अधिकांश व्यक्ति केवल श्रावण मास में पड़ने वाले सोमवार का ही व्रत करते हैं। श्रावण मास के सोमवारों में शिव जी के व्रतों, पूजा और शिव जी की आरती का विशेष महत्त्व है। शिव जी के ये व्रत शुभदायी और फलदायी होते हैं। इन व्रतों को करने वाले सभी भक्तों से भगवान शिव बहुत प्रसन्न होते हैं। 

|| सावन सोमवार व्रत विधि ||

प्राचीन शास्त्रों के अनुसार सोमवार के व्रत तीन तरह के होते हैं। सोमवार, सोलह सोमवार और सौम्य प्रदोष। सोमवार व्रत की विधि सभी व्रतों में समान होती है। इस व्रत को श्रावण माह में आरंभ करना शुभ माना जाता है। श्रावण सोमवार के व्रत में भगवान शिव और देवी पार्वती की पूजा की जाती है। 

सावन सोमवार व्रत सूर्योदय से प्रारंभ कर तीसरे पहर तक किया जाता है। शिव पूजा के बाद सोमवार व्रत की कथा सुननी आवश्यक है। व्रत करने वाले को दिन में एक बार भोजन करना चाहिए।

व्रतधारी सावन माह के हर सोमवार ब्रह्म मुहूर्त में सोकर उठें| घर की साफ़- सफाई कर घर में गंगा जल छिडकें| उसके बाद स्नानादि करके पवित्र हो लें तत्पश्चात घर में ही किसी पवित्र स्थान पर भगवान शिव की मूर्ति या चित्र स्थापित करें। पूरी पूजन तैयारी के बाद निम्न मंत्र से संकल्प लें- 

'मम क्षेमस्थैर्यविजयारोग्यैश्वर्याभिवृद्धयर्थं सोमव्रतं करिष्ये'

इसके पश्चात निम्न मंत्र से ध्यान करें-

'ध्यायेन्नित्यंमहेशं रजतगिरिनिभं चारुचंद्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलांग परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्*।
पद्मासीनं समंतात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं विश्वाद्यं विश्ववंद्यं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्*॥

ध्यान के पश्चात 'ऊँ नमः शिवाय' से शिवजी का तथा 'ऊँ नमः शिवायै' से पार्वतीजी का षोडशोपचार पूजन करें। पूजन के पश्चात व्रत कथा सुनें। तत्पश्चात आरती कर प्रसाद वितरण करें। इसकें बाद भोजन या फलाहार ग्रहण करें।

|| सावन सोमवार व्रत फल ||

सोमवार व्रत नियमित रूप से करने पर भगवान शिव तथा देवी पार्वती की अनुकम्पा बनी रहती है। जीवन धन-धान्य से भर जाता है। सभी अनिष्टों का भगवान शिव हरण कर भक्तों के कष्टों को दूर करते हैं।

|| सावन सोमवार व्रत कथा ||

एक कथा के अनुसार जब सनत कुमारों ने भगवान शिव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो भगवान भोलेनाथ ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और उन्हें प्रसन्न कर विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष हो गया। यही कारण है कि सावन के महीने में सुयोग्य वर की प्राप्ति के लिए कुंवारी लड़कियों व्रत रखती हैं|

|| शिव जी की आरती ||

जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा ।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, अर्द्धांगी धारा ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

एकानन चतुरानन पंचानन राजे ।
हंसासन गरूड़ासन वृषवाहन साजे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अति सोहे ।
त्रिगुण रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

अक्षमाला वनमाला मुण्डमाला धारी ।
त्रिपुरारी कंसारी कर माला धारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

श्वेतांबर पीतांबर बाघंबर अंगे ।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूलधारी ।
सुखकारी दुखहारी जगपालन कारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका ।
प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

लक्ष्मी व सावित्री पार्वती संगा ।
पार्वती अर्द्धांगी, शिवलहरी गंगा ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

पर्वत सोहैं पार्वती, शंकर कैलासा ।
भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

जटा में गंग बहत है, गल मुण्डन माला ।
शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

काशी में विराजे विश्वनाथ, नंदी ब्रह्मचारी ।
नित उठ दर्शन पावत, महिमा अति भारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

त्रिगुणस्वामी जी की आरति जो कोइ नर गावे ।
कहत शिवानंद स्वामी सुख संपति पावे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा