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अक्षयवट में पिंडदान करने से ही पूरा होता है श्राद्ध

मनुष्य के जीवन में ही नहीं मृत्यु के बाद भी प्रकृति प्रदत वस्तुओं का अलग महत्व है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पीपल, वट, तुलसी सहित कई अन्य वृक्षों की पूजा की जाती है तथा इनमें देवताओं का निवास भी बताया जाता है। गया का अक्षयवट भी एक ऐसी वेदी है, जहां पिंडदान किए बिना श्राद्ध पूरा नहीं होता। 

पितरों (पूर्वजों) की आत्मा की शांति तथा उनके उद्धार (मुक्ति) के लिए किए जाने वाले पिंडदान के लिए बिहार के गया को विश्व में सर्वश्रेष्ठ स्थल माना गया है। आत्मा, प्रेतात्मा तथा परमात्मा में विश्वास रखने वाले लोग अश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से पूरे पितृपक्ष की समाप्ति तक गया में आकर पिंडदान करते हैं। 

पितृपक्ष के अंतिम दिन या यूं कहा जाए कि गया के माड़नपुर स्थित अक्षयवट स्थित पिंडवेदी पर श्राद्धकर्म कर पंडित द्वारा दिए गए 'सुफल' के बाद ही श्राद्धकर्म को पूर्ण या सफल माना जाता है। 

यह परम्परा त्रेता युग से ही चली आ रही है। श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान की नगरी गया से थोड़ी दूर स्थित माढ़नपुर स्थित अक्षयवट के बारे में कहा जाता है कि इसे खुद भगवान ब्रह्मा ने स्वर्ग से लाकर रोपा था। इसके बाद मां सीता के आशीर्वाद से अक्षयवट की महिमा विख्यात हो गई। 

गया के प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर और ब्रह्मयोनि पर्व के साथ-साथ शक्तिपीठ महामाया मंगला गौरी, माहेश्वर मंदिर, मधुकुल्या तीर्थवेदी प्रमुख हैं। प्रसिद्ध पंडा राजगोपाल कहते हैं कि प्राचीन में गया के पंचकोश में 365 वेदियां थीं, परंतु कालांतर में इनकी संख्या कम होती गई और आज यहां 45 वेदियां हैं जहां पिंडदान किया जाता है। 

मान्यता है कि त्रेतायुग में भगवान श्री राम, लक्ष्मण और सीता के साथ गया में श्राद्धकर्म के लिए आए थे। इसके बाद राम और लक्ष्मण सामान लेने चले गए। इतने में राजा दशरथ प्रकट हो गए और सीता को ही पिंडदान करने के लिए कहकर मोक्ष दिलाने का निर्देश दिया। माता सीता ने फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष और केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिंडदान कर दिया। 

जब भगवान राम आए तो उन्हें पूरी कहानी सुनाई, परंतु भगवान को विश्वास नहीं हुआ। तब जिन्हें साक्षी मानकर पिंडदान किया था, उन सबको सामने लाया गया। पंडा, फल्गु नदी, गाय और केतकी फूल ने झूठ बोल दिया परंतु अक्षयवट ने सत्यवादिता का परिचय देते हुए माता की लाज रख ली। 

क्रुद्ध सीता ने तभी फल्गु को बिना पानी की नदी (अंत:सलिला), गाय के गोबर को शुद्ध तथा केतकी फूल को शुभकार्यो से वंचित होने का श्राप दे दिया। अक्षयवट को अक्षय रहने का आर्शीवाद दे दिया। 

एक पंडे ने बताया कि धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक अक्षयवट के निकट भोजन करने का भी अपना अलग महत्व है। अक्षयवट के पास पूर्वजों को दिए गए भोजन का फल कभी समाप्त नहीं होता। वे कहते हैं कि पूरे विश्व में गया ही एक ऐसा स्थान है, जहां सात गोत्रों में 121 पीढ़ियों का पिंडदान और तर्पण होता है। 

यहां पिंडदान में माता, पिता, पितामह, प्रपितामह, प्रमाता, वृद्ध प्रमाता, प्रमातामह, मातामही, प्रमातामही, वृद्ध प्रमातामही, पिताकुल, माताकुल, श्वसुर कुल, गुरुकुल, सेवक के नाम से किया जाता है। गया श्राद्ध का जिक्र कर्म पुराण, नारदीय पुराण, गरुड़ पुराण, वाल्मीकि रामायण, भागवत पुराण, महाभारत सहित कई धर्मग्रंथों में मिलता है।

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पितरों की मुक्ति के लिए प्रेतशिला वेदी पर पिंडदान जरुरी

पितृपक्ष के प्रारम्भ होते ही पिंडदान के लिए उत्तम माने जाने वाले बिहार के गया में लोग अपने पितरों की आत्मा की शांति व मुक्ति के लिए पिंडदान करने आने लगते हैं। वे पिंडदान के लिए विश्व प्रसिद्ध गया में प्रेतशिला वेदी पर पिंडदान करना नहीं भूलते। 

आत्मा और प्रेतात्मा में विश्वास रखने वाले लोग आश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से पूरे पितृपक्ष की समाप्ति तक गया में आकर पिंडदान करते हैं। मान्यता है कि प्रेतशिला में पिंडदान के बाद ही पितरों को प्रेतात्मा योनि से मुक्ति मिलती है। 

गया में पुराने समय में 365 वेदियां थी जहां लोग पिंडदान किया करते थे लेकिन वर्तमान समय में यहां 45 वेदियां हैं जहां लोग पिंडदान कर अपने पुरखों का श्राद्ध करते हैं। इन्हीं 45 वेदियों में से एक है प्रेतशिला वेदी। 

मान्यता है कि जो पूर्वज पितृलोक नहीं जा सके या जिन्हें दोबारा जन्म नहीं मिला, ऐसी अतृप्त और आसक्त भाव में लिप्त आत्माओं के लिए अंतिम बार उनकी मृत्यु के एक वर्ष पश्चात गया में मुक्ति तृप्ति का कर्म तर्पण और पिंडदान किया जाता है। 

गया शहर से लगभग चार किलोमीटर दूर प्रेतशिला तक पहुंचने के लिए 873 फीट ऊंचे प्रेतशिला पहाड़ी के शिखर तक जाना पड़ता है। ऐसे तो सभी श्रद्धालु पिंडदान करने यहां पहुंचते हैं लेकिन शारीरिक रूप से कमजोर लोगों के लिए इतनी ऊंचाई पर वेदी के होने के कारण वहां तक पहुंचना मुश्किल होता है। वेदी तक पहुंचने के लिए यहां पालकी की व्यवस्था भी है जिस पर सवार होकर शारीरिक रूप से कमजोर लोग यहां तक पहुंचते हैं। 

पंडा पूर्णेश्वर ने बताया कि प्रेतशिला वेदी के पास विष्णु भगवान के चरणों के निशान हैं और इस वेदी के पास पत्थरों में दरार है। मान्यता है कि यहां पिंडदान करने से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। उन्होंने बताया कि सभी वेदियों पर तिल, गुड़, जौ आदि से पिंड दिया जाता है लेकिन यहां तिल मिश्रित सत्तु से पिंडदान होता है। उन्होंने बताया कि मृत्यु के बाद प्रेतयोनि में प्रवेश कर अपने ही घर में लोगों को तंग करने वाले पूर्वजों के यहां पिंडदान से उन्हें शांति मिल जाती है और वे मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। 

उन्होंने बताया कि पहले प्रेतशिला का नाम प्रेतपर्वत हुआ करता था लेकिन भगवान राम के यहां आकर पिंडदान करने के बाद इस स्थान का नाम प्रेतशिला हुआ। प्रेतशिला में पिंडदान के पूर्व ब्रह्म कुंड में स्नान-तर्पण करना होता है। गया में पिंडदान करने आए गोरखपुर के अश्विनी शुक्ल कहते हैं कि अगर हमारे पिंडदान से सभी पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है तो यह सभी का कर्तव्य है कि वे यहां आकर अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए पिंडदान करें। उन्होंने कहा कि मरने के बाद कौन कहां जाता है यह गूढ़ रहस्य है, लेकिन पिंडदान आवश्यक है और वह उसका पालन करने यहां आए हैं।

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