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रक्षाबंधन: भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक
रक्षाबंधन हिन्दुओं का सबसे प्रमुख त्यौहार है| श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला यह त्यौहार भाई बहन के प्यार का प्रतीक है| इस दिन सभी बहने अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधती हैं और भाई की लम्बी उम्र की कामना करती हैं| भाई अपनी बहन को रक्षा करने का वचन देता है| इस वर्ष यह त्यौहार 21 अगस्त दिन बुधवार को मनाया जायेगा|
रक्षा बंधन का त्यौहार भाई बहन के प्रेम का प्रतीक होकर चारों ओर अपनी छटा को बिखेरता सा प्रतीत होता है| सात्विक एवं पवित्रता का सौंदर्य लिए यह त्यौहार सभी जन के हृदय को अपनी खुशबू से महकाता है| इतना पवित्र पर्व यदि शुभ मुहूर्त में किया जाए तो इसकी शुभता और भी अधिक बढ़ जाती है|
किस तरह से बांधें राखी-
रक्षासूत्र के लिए उचित मुहूर्त की चाह हर किसी को होती है| इस त्यौहार की ख़ास बात यह है कि राखी के साथ कुमकुम, हल्दी, चावल, दीपक, अगरबती, मिठाई का उपयोग किया जाता है| कुमकुम, हल्दी और चावल से पहले भाई को टीका करें उसके बाद उसकी आरती फिर भाई की दाहिनी कलाई रक्षासूत्र बांधें| राखी बांधते समय बहनें निम्न मंत्र का उच्चारण करें, इससे भाईयों की आयु में वृ्द्धि होती है. “येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: | तेन त्वांमनुबध्नामि, रक्षे मा चल मा चल ||”
इस दिन व्यक्ति को चाहिए कि उसे उस दिन प्रात: काल में स्नान आदि कार्यों से निवृ्त होकर, शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए| इसके बाद अपने इष्ट देव की पूजा करने के बाद राखी की भी पूजा करें साथ ही पितृरों को याद करें व अपने बडों का आशिर्वाद ग्रहण करें|
पौराणिक प्रसंग-
भाई बहन का यह पावन पर्व आज से ही नहीं बल्कि युगों-युगों से चलता चला आ रहा है भविष्य पुराण में भी इसका व्याख्यान किया गया है| एक बार दानवों और देवताओं में युद्ध शुरू हुआ| दानव देवताओं पर भारी पड़ने लगे तब इन्द्र घबराकर वृहस्पतिदेव के पास गए| वहां बैठी इंद्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र कर के अपने पति के हाथ पर बांध दिया। वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इंद्र इस लड़ाई में इसी धागे की मंत्र शक्ति से विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बांधने की प्रथा चली आ रही है।
इसके अलावा स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान ने वामन अवतार लेकर ब्राम्हण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश,पाताल और धरती नाप कर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकानाचूर कर देने के कारण यह त्योहार 'बलेव' नाम से भी प्रसिद्ध है।
कहा जाता है कि जब बलि रसातल चला गया तो उसने अपने तप से भगवान को रात- दिन अपने पास रहने का वचन ले लिया| भगवान विष्णु के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को देवर्षि नारद ने एक उपाय सुझाया| नारद के उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी राजा बलि के पास गई और उन्हें राखी बांधकर अपना भाई बना लिया| उसके बाद अपने पति भगवान विष्णु और बलि को अपने साथ लेकर वापस स्वर्ग लोक चली गईं| उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भागवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।
महाभारत में ही रक्षाबंधन से संबंधित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तांत मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबंधन के पर्व में यहीं से आन मिली।
पौराणिक युग के साथ साथ एतिहासिक युग में भी यह त्यौहार काफी प्रचलित था कहते हैं कि राजपूत जब युद्ध के लिए जाते थे तब महिलाएं उनके मस्तक पर कुमकुम का टीका लगाती थी और हाथ में रेशम का धागा बांधती थी| महिलाओं को यह विश्वास होता था कि उनके पति विजयी होकर लौटेंगे|
मेवाड़ की महारानी कर्मवती के राज्य पर जब बहादुर शाह जफ़र द्वारा हमला की सूचना मिली तब रानी ने अपनी कमजोरी को देखते हुए मुग़ल शासक हुमायूँ को राखी भेजी। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए रानी कर्मवती और उसके राज्य की रक्षा की। कहते है सिकंदर की पत्नी ने अपने पति के हिंदू शत्रु पुरूवास को राखी बांध कर अपना मुंहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकंदर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी का और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकंदर को जीवदान दिया। इस तरह से तमाम येसे प्रसंग हैं जो भ्रात्र स्नेह से जुड़े हुए हैं|
कहाँ किस नाम से जाना जाता है यह त्यौहार-
रक्षाबंधन का यह त्यौहार अलग- अलग राज्यों में अलग- अलग नामों से जाना जाता है| उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। इस दिन ब्राह्मण अपने यजमानों को राखी देकर दक्षिणा लेते हैं।
इसके अलावा महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से जाना जाता है| इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं। इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिए नारियल अर्पित करने की परंपरा भी है। वहीँ, अगर राजस्थान की बात करें तो रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बांधने का रिवाज़ है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुंदना लगा होता है और केवल भगवान को बांधी जाती है। चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती है।
जोधपुर में राखी के दिन केवल राखी ही नहीं बाँधी जाती, बल्कि दोपहर में पद्मसर और मिनकानाडी पर गोबर, मिट्टी और भस्मी से स्नान कर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद धर्म तथा वेदों के प्रवचनकर्ता अरुंधती, गणपति, दुर्गा, गोभिला तथा सप्तर्षियों के दर्भ के चट(पूजास्थल) बनाकर मंत्रोच्चारण के साथ पूजा की जाती हैं। उनका तर्पण कर पितृॠण चुकाया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद घर आकर हवन किया जाता है, वहीं रेशमी डोरे से राखी बनाई जाती है। राखी में कच्चे दूध से अभिमंत्रित करते हैं और इसके बाद भोजन का प्रावधान है।
तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और उड़ीसा के दक्षिण भारतीय ब्राह्मण इस पर्व को अवनि अवित्तम कहते हैं। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिए यह दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस दिन नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्णण कर नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।
रक्षाबंधन पर भाई को गुर्दा देकर जीवन रक्षा करेगी बहन
भाइयों के लिए बहनों की रक्षा का संकल्प लेने का पर्व है रक्षाबंधन। मगर, मध्य प्रदेश के रतलाम जिले में यह पर्व एक भाई के लिए जीवन रक्षा की सौगात लेकर आ रहा है, क्योंकि राखी पर एक बहन अपना गुर्दा (किडनी) भाई को देने जा रही है।
रतलाम जिले के ढोढर में रहने वाले नंदकिशोर कुमावत (23 वर्ष) का जीवन संकट के दौर से गुजर रहा है। उनके शरीर में दो की बजाय एक ही गुर्दा है, और वह भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका है। इस स्थिति में उनके जीवन को बचाना आसान नहीं है, जीवन बचाना है तो एक गुर्दे की जरूरत है।
नंदकिशोर इंदौर में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था, तभी अप्रैल 2010 में उसके पेट में दर्द हुआ। इस पर उसने चिकित्सकों को दिखाया, सोनोग्राफी कराई गई तो पता चला कि उसके शरीर में दो नहीं सिर्फ एक ही गुर्दा है और वह भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त है। उसने कई जगह इलाज कराया मगर बात नहीं बनी। चिकित्सकों ने उसे नई किडनी लगवाने की सलाह दी।
बताते हैं कि नंदकिशोर शादीशुदा है, और इस स्थिति में उसकी पत्नी गंगाबाई, भाई अमृत, भाभी सीमाबाई और चाची कैलाशबाई ने अपनी किडनी देने की पेशकश की मगर उनके टिसू का मिलान नहीं हुआ, लिहाजा इन चारों की किडनी उसके काम नहीं आ सकती थी।
इस स्थिति में नंदकिशोर की बहन यशोदा (30 वर्ष) ने अपनी किडनी देने की पेशकश की। चिकित्सकीय परीक्षण के बाद पाया गया कि यशोदा की किडनी नंदकिशोर को प्रत्यारोपित की जा सकती है।
चिकित्सक बताते हैं कि हजारों में एक ऐसा प्रकरण होता है, जब किसी व्यक्ति के एक किडनी हो और वह भी क्षतिग्रस्त हो चुकी हो, बहन द्वारा भाई को किडनी दिए जाने के बाद दोनों का जीवन सामान्य रहेगा।
अहमदाबाद में नंदकिशोर की किडनी का प्रत्यारोपण होगा और ऑपरेशन की तारीख 20 अगस्त रक्षाबंधन के ही आसपास निकल रही है। बहन द्वारा किडनी दिए जाने का जिक्र आते ही नंदकिशोर की आंखें नम हो जाती हैं। वह कहता है कि राखी के पर्व पर भाई बहन की रक्षा का वचन देता है, मेरी बहन अपनी जान की परवाह किए बिना मुझे किडनी देकर जीवन रक्षा करने जा रही है।
नंदकिशोर की बहन यशोदा के दो बच्चे हैं और पति शांतिलाल ने भी किडनी देने की इजाजत दे दी है। अहमदाबाद के गुर्दा विशेषज्ञ डॉ. मनेाज गुंबज के परामर्श पर नंदकिशोर गुर्दा प्रत्यारोपित करा रहा है। रक्षाबंधन के मौके पर एक बहन द्वारा भाई के जीवन रक्षा की कोशिश सफल हो, हर कोई यही कामना कर रहा है। ताकि भाई-बहन के अटूट रिश्ते का यह पर्व एक मिसाल बन जाए।
पर्दाफाश से साभार
गुम हो रही नवविवाहिता की ‘सावनी’
इसे आधुनिकता की अंधीदौड़ मानें या मंहगाई की मार, बुंदेलखण्ड में शादी के बाद पड़ने वाले पहले रक्षाबंधन का हर सुहागिन को बेसब्री से इंतजार हुआ करता था। इस दिन ससुराल से सुहागिन के लिए 'सावनी' भेजे जाने की पुरानी परम्परा थी, सावनी में भेजे गए श्रंगार सामाग्री से 'श्रंगार' कर सुहागिन बहन अपने भाइयों की कलाई में राखी बांध कर 'सुहाग' की रक्षा का वचन लेते थीं लेकिन पीढ़ियों पुरानी यह परम्परा अब विलुप्त होने के कगार पर है।
बुंदेलखण्ड में हर तीज-त्यौहार मनाने की अलग सामाजिक परम्पराएं रही हैं। आप रक्षाबंधन को ही ले लीजिए। शादी के बाद पड़ने वाले पहले रक्षाबंधन में हर सुहागिन को अपने ससुराल से भेजे जाने वाले 'सावनी' का बड़ी बेसब्री से इंतजार हुआ करता था।
सावनी में ससुराल पक्ष से हर वह सामाग्री भेजी जाती थी, जो एक सुहागिन के श्रंगार का हिस्सा है। सोने-चांदी के जेवरातों से लेकर कपड़े और खिलौने तक शामिल हुआ करते थे। सावनी में आए सामान को सुहागिन जहां पास-पड़ोस की सहेलियों के बीच 'बांयन' के तौर पर बांटा करती थी, वहीं इसी से श्रंगार कर वह अपने भाइयों की कलाई में सावनी में आई 'राखी' बांध कर सुहाग के रक्षा का वचन भी लेती थी।
ससुराल पक्ष से आने वाली सावनी की अदायगी सुहागिन के मायके पक्ष के लोग 'तीजा' के त्यौहार में 'पठौनी' भेज कर करते थे। पर यह अब गुजरे जमाने की बात जैसी हो गई है। इसे आधुनिकता की अंधीदौड़ मानें या फिर मंहगाई की मार, सावनी लाने और भेजने की यह सदियों पुरानी परम्परा विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है।
बांदा जनपद के सिकलोढ़ी गांव की बुजुर्ग महिला श्यामा तिवारी बताती है कि 'जब उसके मायके ससुराल से सावनी पहुंची थी, तब नाई से गांव में सावनी देखने का बुलावा भेजा गया था। सावनी का हर सामान गांव की महिलाओं ने देखा और ससुराल वालों की तारीफ की थी।
ससुराल से आए सामान को पाकर वह खुद बहुत खुश हुई थी।' वह बताती है कि 'लोग सावनी की श्रंगार सामग्री से ससुराल की बड़प्पन का अंदाजा लगाया करते थे। जिस सुहागिन की सावनी न आए वह अपनी तौहीन समझती थी।' बल्लान गांव की देवरतिया (80) बताती है कि 'हर अमीर और गरीब ससुराल से सावनी भेजने का रिवाज रहा है, पर अब धीरे-धीरे यह खत्म होने लगी है, रेशम के धागे वाली राखियां बाजार में दिखाई नहीं देती। अब तो विदेशी राखियों का जमाना आ गया है।'
तेन्दुरा गांव का दलित टेरियां बताता है कि 'सावनी की परम्परा दो परिवारों (ससुराल और मायका) के बीच सामाजिक सौहाद्र कायम करने और रिश्ता मजबूती से बनाए रखने का द्योतक है। इस परम्परा के खात्मे के लिए जहां बढ़ती मंहगाई जिम्मेदार है, वहीं आधुनिकता की अंधीदौड़ से युवा पीढ़ी इसे भूलती जा रही है।' साथ ही उसने कहा कि 'अब समाज में सयानापन न होने के कारण भी इन परम्पराओं से लोग तौबा कर रहे हैं।'
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