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59 की हुईं मस्तानी आंखों वाली रेखा

यूं तो रेखा की 'आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं' मगर हिंदी फिल्मों की सांवली सलोनी अभिनेत्री सिनेमा जगत में अपने अलहदा रूप-सौंदर्य और आकर्षण के लिए भी खूब मशहूर हैं। उनकी मोहक अदा और मादक आवाज ने उनके अभिनय और संवाद अदायगी के साथ मिलकर दशकों तक बॉलीवुड और सिनेप्रेमियों के दिल में राज किया है।

जेमिनी गणेशन और पुष्पावली की संतान के रूप में 10 अक्टूबर 1954 को जन्मी रेखा का वास्तविक नाम भानुरेखा गणेशन है। सत्तर और अस्सी के दशक की अग्रणी अभिनेत्रियों में शुमार रेखा फिल्मों में शुरुआत बतौर बाल कलाकार तेलुगू भाषा की फिल्म 'रंगुला रत्नम' से कर चुकी थीं। लेकिन 1970 में फिल्म 'सावन भादो' से उन्हें बॉलीवुड में एक अभिनेत्री के रूप में औपचारिक प्रवष्टि मिली और उसके बाद उन्होंने अपने रूप और सौंदर्य के साथ-साथ सिनेमा जगत में अपने अभिनय का भी लोहा मनवाया।

उन्होंने कई यादगार फिल्मों में काम किया। रेखा ने एक तरफ सजा (1972), आलाप (1977), मुकद्दर का सिकंदर (1978), मेहंदी रंग लाएगी (1982), रास्ते प्यार के (1982), आशा ज्योति (1984), सौतन की बेटी (1989),बहूरानी (1989), इंसाफ की देवी (1992), मदर (1999) जैसी मुख्यधारा की फिल्मों में अपने अभिनय के जरिये नाम कमाया तो दूसरी तरफ उनकी निजी जिंदगी भी लोगों के लिए कौतूहल का विषय बनी।

करियर की शुरुआत में ही उनका नाम अभिनेता नवीन निश्चल से जुड़ा तो कभी किरण कुमार के साथ जोड़ा गया, यहां तक कि अभिनेता विनोद मेहरा के साथ गुपचुप शादी कर लेने की खबर भी उड़ी और अमिताभ बच्चन के साथ रेखा के रिश्ते की सरगोशियां तो आज तक लोगों के जुबां से हटी नहीं हैं।

लेकिन नवीन निश्चल के साथ रेखा का नाम जुड़ना उनकी जिंदगी में प्यार के आने और चले जाने की शुरुआत भर थी। नवीन निश्चल और किरण कुमार के साथ रेखा का नाम जोड़कर कुछ समय बाद लोगों ने इन किस्सों को भुला दिया।

इसके बाद रेखा का नाम अभिनेता विनोद मेहरा के साथ जुड़ा, मगर मेहरा ने खुद अपनी शादी की बात कभी नहीं स्वीकारी। अमिताभ बच्चन के साथ रेखा की प्रेम कहानी तो आज भी एक पहेली ही है। कहा जाता है कि 1981 में बनी फिल्म 'सिलसिला' रेखा और जया भादुड़ी (बच्चन) के प्रेम के बीच बंटे अमिताभ की वास्तविक जिंदगी की सच्चाई पर आधारित थी। फिल्म बहुत सफल नहीं रही, बल्कि यह फिल्म रेखा-अमिताभ की जोड़ी वाली आखिरी फिल्म साबित हुई।

रेखा के लिए उद्योगपति मुकेश अग्रवाल के साथ विवाह (1990) भी उनके जीवन का दुर्भाग्य ही रहा। उनके पति ने शादी के एक साल बाद ही फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली, तब रेखा न्यूयार्क गई हुई थीं। इस घटना के लिए रेखा को लंबे समय तक सवालों और आक्षेपों का सामना करना पड़ा था।

रेखा एक बार फिर अपने जीवन में अकेली हो गईं। लेकिन बीच-बीच में सार्वजनिक समारोहों और कार्यक्रमों में शुद्ध कांजीवरम साड़ी और मांग में सिंदूर सजाकर रेखा लोगों के बीच कौतूहल का विषय बनती रहीं। रेखा की जिंदगी में प्यार कई बार और कई सूरतों में आया लेकिन जिस स्थायी सहारे और सम्मान की उन्हें जीवन में चाहत और जरूरत थी, उससे वह महरूम ही रहीं।

साल 2005 में आई फिल्म 'परिणीता' में रेखा पर फिल्माया गीत 'कैसी पहेली जिंदगानी' जैसे वास्तव में रेखा की जिंदगी को शब्दों में पिरोया हुआ गीत हो। रेखा को अपने अब तक के अपने फिल्मी सफर में दो बार (1981,1989) सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के फिल्म फेयर अवार्ड और एक बार सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के फिल्मफेयर अवार्ड (1997) से नवाजा जा चुका है। जीवन के 59 वसंत देख चुकीं खूबसूरत रेखा इस समय राज्यसभा सदस्य होने के साथ-साथ फिल्म जगत में भी सक्रिय हैं। 

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निर्धनता की आग में झुलस कर अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने वाले शास्त्री जी के जन्मदिन पर शत-शत नमन

आज का दिन भारतवासियों के लिए काफी खास होता है क्योंकि हमारे राष्ट्रपिता के जन्मदिवस के साथ-साथ स्वतंत्र भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का भी जन्म दिवस है। लालबहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर सन्‌ 1904 ई.में वाराणसी जिले के एक गांव मुगलसराय में हुआ था। इनके पिता शारदा प्रसाद एक शिक्षक थे। मात्र डेढ़ वर्ष की आयु में इनके सर से पिता का साया उठ गया। माता श्रीमती रामदुलारी ने बड़ी कठिनाईयों के साथ इनका लालन-पालन किया। 

लाल बहादुर शास्त्री का जीवन एक साधारण व्यक्ति से असाधारण बनने की सीख देती है। निर्धनता की आग में झुलस कर भी उन्होंने अपने जीवन में अपने लक्ष्यों को प्राप्त किया। उन्होंने बड़ी निर्धन एवं कठिन परिस्थितियों में इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण की। उसके बाद में वाराणसी स्थित हरिश्चन्द्र स्कूल में प्रवेश लिया। सन् 1921 में वाराणसी आकर जब गांधी जी ने राष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए नवयुवकों का आह्वान किया, तो उनका आह्वान सुनकर मात्र सत्रह वर्षीय शास्त्री ने भरी सभा में खड़े होकर अपने को राष्ट्रहित में समर्पित करने की घोषणा की।

काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलते ही शास्त्री ने अपने नाम के साथ जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा के लिए हटा दिया और अपने नाम के आगे शास्त्री लगा लिया। उन्होंने मरो नहीं, मारो का नारा दिया, जिसने एक क्रांति को पूरे देश में उग्र कर दिया। उनका दिया हुआ एक और नारा जय जवान-जय किसान आज भी लोगों की जुबान पर है। शिक्षा छोड़ राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े और पहली बार ढाई वर्ष के लिए जेल में बंद कर दिए गए।जेल से छूटने के बाद उन्होंने शिक्षा पूरी की । 

शिक्षा समाप्त कर शास्त्री जी लोक सेवक संघ के सदस्य बनकर उन्होंने अपना जीवन जन सेवा और राष्ट्र को समर्पित कर दिया। अपने कार्यों के फलस्वरूप बाद के इलाहाबाद नगर पालिका एवं इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट के क्रमशः सात और चार वर्षों तक सदस्य बने रहे। बाद में उन्हें इलाहाबाद जिला कांग्रेस का महासचिव, तदुपरांत अध्यक्ष तक मनोनीत किया गया। प्रत्येक पद का निर्वाह इन्होंने बड़ी योग्यता और लगन के साथ निःस्वार्थ भाव से किया। वो सबके चहेते बन गए। 

भारत की स्वतंत्रता के बाद शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव बनाये गए। वो गोविंद बल्लभ पंत के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में प्रहरी एवं यातायात मंत्री बने। जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहांत हो जाने के बाद, शास्त्री जी ने 9 जून 1964 को प्रधान मंत्री बनाये गए। उस समय राजनीति में उथल-पुथल मची थी पाकिस्तान और चीन भारतीय सीमाओं पर तांडव कर रहे थे। 

देश भी आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा था। शास्त्री जी सूझ बुझ के साथ समस्याओं का निपटारा करते रहे। 11 जनवरी 1966 को ताशकंद में पाकिस्तान से समझौता करने के बाद दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गयी। लाल बहादुर शास्त्री आज भी हमारे बीच मौजूद हैं। देश के लिए किये गए उनके कार्य उनके बलिदान स्मरणीय है। इसलिए तो देश का हर व्यक्ति शास्त्री को उनकी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिए आज भी श्रद्धापूर्वक याद करता है।

33 की हुईं करीना, आइए नजर डालते हैं करीना की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों पर...

बॉलीवुड अदाकारा बेबो यानी करीना कपूर शनिवार को 33 साल की हो गईं। खूबसूरत करीना ने 'जब वी मेट' और 'ओमकारा' जैसी फिल्मों के जरिए खुद को साबित किया है। आइए नजर डालते हैं करीना की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों पर.. 

'रिफ्यूजी' (200) : इस फिल्म में करीना की नैसर्गिक सुंदरता नजर आई है। निर्देशक जे.पी.दत्ता ने अपने दोस्त रणधीर से किया वादा पूरा किया कि वह उनकी बेटी की शुरुआत ऐसे करेंगे कि लोग हमेशा याद रखेंगे। पाकिस्तान सीमा पार करने वाली लड़की के किरदार में करीना ने हमें नूतन, मधुबाला और नर्गिस जैसी अदाकाराओं की याद दिला दी थी।

'अशोका' (2001) : संतोष सिवान निर्देशित इस ऐतिहासिक फिल्म में करीना योद्धा राजकुमारी कौरवकी के रूप में नजर आईं। उन्होंने हर दृश्य में जोश भर दिया। 

'चमेली' (2004) : मनीष मल्होत्रा के परिधानों में बारिश में नाचती करीना इस फिल्म में काफी खूबसूरत लगी थीं। फिल्म में चमेली का किरदार निभाने वाली करीना ने काफी अच्छा अभिनय किया था।

'युवा' (2004) : मणि रत्नम की युवा में करीना ने ऐसी लड़की किरदार किया है जो सनकी, भावुक और अपने भविष्य को लेकर अस्थिर है। लेकिन वह विरोध प्रदर्शनों में दिलचस्पी रखती है। जया बच्चन को इसमे करीना बेहद अच्छी लगी थीं।

'देव' (2004) : गोविंद निहलानी की इस फिल्म में करीना का किरदार 2002 के गुजरात दंगों में बेकरी में 14 लोगों की मौत के खिलाफ प्रमाण देने वाली जहीरा शेख से प्रेरित था। करीना इसमें बिना मेकअप के नजर आई हैं।

'फिदा' (2004) : करीना ने अभी तक करियर में इसी फिल्म में नकारात्मक भूमिका निभाई है। उन्होंने ईष्र्यालु पति की दुखी और असुरक्षित पत्नी की भूमिका में जबरदस्त अभिनय किया।

'जब वी मेट' (2007) : चंचल और बातूनी लड़की के तौर पर करीना को सभी ने पसंद किया। एक भाग में करीना चंचल और बातूनी हैं तो दूसरे भाग में गंभीर और शांत नजर आती हैं। इस फिल्म में भी वह काफी खूबसूरत नजर आई हैं। 

'हीरोइन' (2012) : मधुर भंडारकर की यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर भले ही न चली हो लेकिन एक अभिनेत्री के किरदार को करीना ने बखूबी निभाया है। फिल्म एक हीरोइन की जिंदगी के उतार-चढ़ाव की कहानी है।

'तलाश' (2012) : इसमें करीना ने भूत की भूमिका निभाई है। फिल्म में करीना के अभिनय की काफी सराहना की गई थी।

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विनोबा का समस्त जीवन अनुकरणीय

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उत्तराधिकारी कहे जाने वाले महान समाज सुधारक एवं चिंतक आचार्य विनोबा भावे देश के उन विद्वज्जनों में शुमार हैं, जिन्होंने आजादी के बाद देश के समक्ष सबसे बड़े संकटों को पहचाना और उन्हें दूर करने के लिए प्रभावी प्रयास किए। आजादी के बाद देश में सामंती एवं राजशाही व्यवस्था कानूनी रूप से तो खत्म हो गई, लेकिन सामाजिक व्यवस्था में वह कहीं न कहीं व्याप्त थी। विनोबा भावे ने ऐसे समय में देश में भूमि सुधार की जरूरत को समझा और 'भूदान यज्ञ' की शुरुआत की।

विनोबा भावे के भूमिसुधार आंदोलन के महत्व को इस बात से भी समझा जा सकता है कि आज भी देश को बड़े स्तर पर भूमिसुधार की जरूरत है, और हाल ही में संसद द्वारा पारित भूमि अधिग्रहण विधेयक को भी भूमिसुधार की एक कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। आजादी के बाद विनोबा ने गांधीवादियों को सलााह दी कि स्वराज हासिल करने के बाद उनका उद्देश्य सर्वोदय के लिए समर्पित समाज का निर्माण करना होना चाहिए। इसके लिए विनोबा ने देश के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक तेलंगाना को चुना, क्योंकि वहां से उस समय भूमि मालिकों के खिलाफ कुछ हिंसक घटनाओं की खबरें आ रही थीं।

उन हिंसक घटनाओं ने सरकार के खिलाफ संघर्ष का रूप ले लिया, तो विनोबा ने उस हिंसक संघर्ष को समाप्त करने के लिए खुद पहल करने का संकल्प लिया। विनोबा अपने संकल्प की साधना में पैदल ही निकल पड़े तथा तीसरे दिन तेलंगाना के पोचमपल्ली गांव पहुंचे। वहां वह मुस्लिम प्रार्थनास्थल में रुके।

वहां विनोबा क्षेत्र के 40 भूमिहीन दलित परिवारों से मिले और उनकी समस्याएं जानीं। लोगों ने जब विनोबा से पूछा कि क्या वह उन्हें सरकार से भूमि दिला सकते हैं? तो विनोबा ने कहा कि इसमें सरकार की क्या जरूरत है? इसके लिए विनोबा ने उसी क्षेत्र के कुछ लोगों से मदद मांगी तो गांव के एक प्रमुख किसान ने 100 एकड़ भूमि दान देना स्वीकार कर लिया, जबकि दलित सिर्फ 80 एकड़ भूमि मांग रहे थे। विनोबा भावे देश की विकराल समस्या का हल मिल गया।

यहीं से विनोबा के भूदान आंदोलन की शुरुआत हुई। विनोबा ने सिर्फ तेलंगाना के 200 गांवों से सात सप्ताह के भीतर 12,000 एकड़ भूमि जुटा ली। विनोबा के उस समय चलाए आंदोलन की गूंज का हम इसी बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि एशिया का नोबेल के रूप में प्रतिष्ठित प्रथम रैमन मैग्सेसे पुरस्कारों की जब घोषणा हुई तो विनोबा को सामुदायिक नेतृत्वकर्ता के लिए पहला मैग्सेसे पुरस्कार प्रदान किया गया।

विनोबा भावे का जन्म 11 सितंबर, 1895 को महाराष्ट्र के नासिक में हुआ था। विनोबा का वास्तविक नाम विनायक नरहरि भावे था। छोटी उम्र में ही विनोबा भावे ने रामायण, महाभारत और भागवत गीता का अध्ययन कर लिया था। वह इनसे बहुत ज्यादा प्रभावित भी हुए थे। विनोबा भावे अपनी माता से सर्वाधिक प्रभावित थे। विनोबा का कहना था कि उनकी मानसिकता और जीवनशैली को सही दिशा देने और उन्हें अध्यात्म की ओर प्रेरित करने में उनकी मां का ही योगदान है। 

विनोबा गणित के बहुत बड़े विद्वान थे, लेकिन ऐसा माना जाता है कि 1916 में जब वह अपनी 10वीं की परीक्षा के लिए मुंबई जा रहे थे तो उन्होंने महात्मा गांधी का एक लेख पढ़कर शिक्षा से संबंधित अपने सभी दस्तावेजों को आग के हवाले कर दिया था। विनोबा भावे अपने युवाकाल में ही महात्मा गांधी के समीप आ गए थे। गांधी की सादगी ने जहां उन्हें मोह लिया, वहीं राष्ट्रपिता ने विनोबा के भीतर एक विचारक और आध्यात्मिक व्यक्तित्व के लक्षण देखे। इसके बाद विनोबा ने आजादी के आंदोलन के साथ-साथ महात्मा गांधी के सामाजिक कार्यो में सक्रियता से भाग लिया।

विनोबा भावे एक महान विचारक, लेखक और विद्वान थे, और अनेक भाषाओं के ज्ञाता भी। उन्हें लगभग सभी भारतीय भाषाओं का ज्ञान था। वह एक उत्कृष्ट वक्ता और समाज सुधारक भी थे। विनोबा भावे के अनुसार, कन्नड़ लिपि विश्व की सभी लिपियों की रानी है। विनोबा ने गीता, कुरान, बाइबिल जैसे धर्मग्रंथों का अनुवाद तो किया ही, साथ ही इनकी आलोचनाएं भी कीं। विनोबा भावे भागवत गीता से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। वह कहते थे कि गीता उनके जीवन की हर एक सांस में है। उन्होंने गीता को मराठी भाषा में अनूदित भी किया था।

विनोबा सच्चे संन्यासी थे। नवंबर 1982 में अत्याधिक बीमार पड़ने के बाद उन्होंने अपनी इहलीला स्वेच्छा से समाप्त करने का संकल्प लिया और अन्न-जल का त्याग कर दिया। परिणामस्वरूप 15 नवंबर, 1982 को विनोबा पंचतत्व में विलीन हो गए। विनोबा को समाज को दिए उनके अप्रतिम योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरांत 1983 में देश के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया।

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दया, करुणा की साक्षात मूर्ति थीं मदर टेरेसा

दया, प्रेम और वात्सल्य का असली चेहरा मदर टेरेसा, जिन्होंने यूगोस्लाविया से निकल कर भारत में अपने सेवाभाव से जुड़े कार्यक्रम की शुरुआत की और विश्व भर में इसके सफल संचालन से लोगों के बीच मां का दर्जा पाया। 12 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने अपने हृदय की आवाज पर समाज को अपना जीवन समर्पित करने का फैसला कर लिया था। "शांति की शुरुआत मुस्कुराहट से होती है।" इस विचार में विश्वास रखने वाली मदर टेरेसा यानी एग्नेस गोंझा बोयाजीजू का जन्म यूगोस्लाविया के एक साधारण व्यवसायी निकोला बोयाजीजू के घर 26 अगस्त 1910 में हुआ था लेकिन रोमन कैथोलिक मदर टेरेसा का बापतिज्मा 27 अगस्त को होने की वजह से उनका वास्तविक जन्मदिन इसी दिन पूरे विश्व में मनाया जाता है। 

वह 18 वर्ष की आयु में 1928 में भारत के कोलकाता शहर आईं और सिस्टर बनने के लिए लोरेटो कान्वेंट से जुड़ीं और इसके बाद अध्यापन कार्य शुरू किया। उन्होंने 1946 में हुए सांप्रदायिक दंगे के दौरान अपने मन की आवाज पर लोरेटो कान्वेट की सुख सुविधा छोड़ बीमार, दुखियों और असहाय लोगों के बीच रह कर उनकी सेवा का संकल्प लिया। 

मदर टेरेसा ने एक दशक तक कोलकाता के झुग्गी में रहने वाले लाखों दीन दुखियों की सेवा करने के बाद वहां के धार्मिक स्थल काली घाट मंदिर में एक आश्रम की शुरुआत की। लारेटो कान्वेंट छोड़ने के वक्त उनके पास सिर्फ पांच रुपये ही थे लेकिन उनका आत्मबल ही था जिससे उन्होंने 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की शुरुआत की और आज 133 देशों में इस संस्था की 4,501 सिस्टर मदर टेरेसा के बताए मार्ग का अनुसरण कर लोगों को अपनी सेवाएं दे रही हैं। 

मदर टेरेसा ने भारत में कार्य करते हुए यहां की नागरिकता के साथ सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्राप्त (1980) किया और यहां के साथ-साथ पूरे विश्व में अछूतों, बीमार और गरीबों की सेवा की। लेकिन उन्होंने कोलकाता में विशेष रूप से काम किया और फुटपाथ पर रहने वाले लोगों के लिए घर बनाने की शुरुआत यहीं से की। उनके आश्रम का दरवाजा हर वर्ग के लोगों के लिए हमेशा खुला रहता था। 

मदर टेरेसा ने अपने कार्यक्रम के जरिए गरीब से गरीब और अमीर से अमीर लोगों के बीच भाईचारे और समानता का संदेश दिया था। उन्होंने किसी भी धर्म के लोगों के बीच कोई भेद नहीं किया। विश्व में मां का दर्जा पा चुकीं मदर टेरेसा गर्भपात के सख्त खिलाफ थीं और एक बार ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में एक सम्मेलन में उन्होंने कहा था, "मैं किसी भी ऐसी महिला को कोई बच्चा गोद लेने नहीं दे सकती जिसने कभी भी अपना गर्भपात करवाया हो। ऐसी महिला बच्चे से प्यार कर ही नहीं सकती।"

समाज में दिए गए उनके अद्वितीय योगदान की वजह से उन्हें पद्मश्री (1962), नोबेल शांति पुरस्कार (1979) और मेडल ऑफ फ्रीडम (1985) प्रदान किए गए। पांच दशक से भी अधिक वर्षों तक दुखियों की सेवा से जुड़ी रहीं मदर टेरेसा ने पांच सितम्बर 1997 को दुनिया को अलविदा कह दिया। दुनिया भर के लोगों की तरह पोप जॉन पाल द्वितीय भी उनके प्रशंसकों में से एक थे। उन्हें उनकी मृत्यु के छह साल बाद ही इटली की राजधानी रोम में 'धन्य' यानी धार्मिक शब्दावली के अनुसार 'बिएटीफिकेशन' घोषित कर दिया गया। इसका तात्पर्य यह था कि वेटिकन ने यह मान लिया कि उनका व्यक्तित्व दिव्य था और उनकी प्रार्थना भर से लोगों को रोगों से मुक्ति मिल जाती है।

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मदर टेरेसा: मानव सेवा व शांति का प्रतीक

"मैं कभी भी किसी हिंसा विरोधी रैली में शामिल नहीं हो सकती| अगर आप कोई शांति मार्च का आयोजन करें तो मुझे जरूर आमंत्रित करें| मैं मानती हूं कि अगर आप जो नहीं चाहते है (हिंसा) उसके आप जो चाहते हैं (शांति) अगर उस पर केंद्रित रहें, तो आप उसे प्रचुरता में पा सकेंगे|" यह शब्द हैं उस व्यक्ति के जिसने अपना सारा जीवन मानवता की सेवा में बिता दिया| प्रेम, शान्ति और मानवता की प्रतिक मानी जाने वाली मदर टेरेसा की सोमवार को 104वीं जयंती थी| इस अवसर पर पूरे विश्व ने उन्हें याद किया|

जीवन परिचय

मेसेडोनिया की राजधानी सोप्जे में 26 अगस्त, 1910 को जन्मीं मदर टेरेसा का वास्तविक नाम अग्नेसे गोंकशे बोजशियु था| उन्होंने जीवन को मात्र आठ साल की कम उम्र में करीब से समझना शुरू कर दिया था जब उनके पिता और अल्बानियाई नेता निकोला बोजशियु का निधन हो गया| मात्र 12 साल की उम्र में ही उन्होंने खुद को 'ईश्वर की सेवा' के प्रति प्रतिबद्ध किया और वर्ष 1928 में आयरलैंड के इंस्टिट्यूट ऑफ ब्लेस्ड वर्जिन मैरी में शामिल हुईं अग्नेशे को सिस्टर मैरी टेरेसा का नाम मिला और वर्ष 1929 में उन्हें कोलकाता में सेवा के लिए भेजा गया| 24 मई, 1931 में उन्होंने नन की शपथ ली|

भारत में लगभग 15 सालों तो तत्कालीन कलकत्ता के सैंट मैरीज हाई स्कूल में पढ़ाने के बाद 10 सितंबर, 1946 को अपनी दार्जीलिंग यात्रा में उन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज को अपनी दिशा बनाई और जरूरतमंदों की सेवा में आजीवन जुटने का फैसला लिया| उन्होंने अपने कंधों पर झुग्गियों में रहने वाले बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा लिया|

मिशनरी ऑफ चैरिटी

वर्ष 1950 में उन्होंने कलकत्ता में मिशनरी ऑफ चैरिटी नामक संस्था की नींव रखी जिसका उद्देश्य समाज के निचले वर्गों और जरूरतमंदों की सेवा था| इसकी स्थापना के साथ ही उन्होंने नीली किनारे वाली सफेद साड़ी की वेशभूषा को अपनाया| आज इस मिशनरी की शाखाएं दुनिया के सौ से भी अधिक देशों में है और करीब 4000 नन इससे जुड़ी हैं| इसके बाद उन्होंने ‘निर्मल हृदय’ और ‘निर्मला शिशु भवन’ नामक आश्रम भी खोलें जिसमें कुष्ठ रोग जैसे कई गंभीर रोगों से पीड़ित लोगों और गरीबों की सेवा वह खुद करती थीं|

नोबल शांति पुरस्कार-पद्मश्री से सम्मानित

मदर टेरेसा मानवता की सच्ची अनुयायी थीं जिसने अपना समस्त जीवन असहायों की सेवा को समर्पित किया| समाजसेवा के क्षेत्र में उनके समर्पण के लिए उन्हें वर्ष 1962 में भारत सरकार की ओर से पद्मश्री सम्मान और वर्ष 1980 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया| समाजसेवा की दिशा में इनके प्रयासों को न सिर्फ भारत बलिक पूरे विश्व ने मिसाल माना और वर्ष 1979 में नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया| मदर टेरेस ने सम्मान में मिली सारी राशि को गरीबों की सेवा के लिए फंड में दे दिया|

निधन

मानवता को जीवन का उद्देश्य मानने वाली इस महिला ने आजीवन सेवा, त्याग और सद्भाव के रास्ते को ही अपना मार्ग बनाए रखा| मानवता की सेवा में अपना जीवन अर्पित करने वाली मदर टेरेसा का निधन 5 सितंबर, 1997 को कोलकाता में हो गया| उन्होंने अपने वात्सल्य से पहले कोलकाता तो बाद में पूरे देश के गरीब-असहायों का दुःख दर्द मिटाया| भारत के लिए उनका प्रेम ही था जिसने उन्हें सबके दिल में जगह दिला दी|

काजोल के 39वें जन्मदिन पर विशेष.........

बॉलीवुड की खुबसूरत अभिनेत्री काजोल आज अपना 39 वां जन्मदिन मना रही हैं। पांच अगस्त 1975 को मुंबई में जन्मी काजोल अपने अभिनय से लाखों दिलों की धड़कन बन गयीं। काजोल को बचपन से ही फिल्मों में अभिनय का शौक रहा और रहे भी क्यों न काजोल की माँ तनूजा अपने समय की एक जानी मानी अभिनेत्रियों में से एक थीं जबकि पिता सोमु मुखर्जी एक निर्माता रहे|

वर्ष 1992 में निर्देशक राहुल रवैल की फिल्म बेखूदी के साथ काजोल ने अपनी फिल्मी करियर की शुरुआत की। काजोल की पहली फिल्म सफल तो नहीं रही लेकिन सावली सलोनी रूप वाली काजोल को फिल्मे मिलने लगी। वर्ष 1993 में शाहरूख खान के साथ उन्होंने 'बाजीगर' के रूप में अपनी पहली हिट फिल्म दी। इस फिल्म ने कामयाबी के झंडे गाड़ दिए। इसके साथ ही काजोल और शाहरूख की जोड़ी दर्शकों के दिलों पर राज करने लगीं। इस सफल जोड़ी को दर्शक आज तक नहीं भूले। आज भी जब इनकी जोड़ी सिल्वर स्क्रीन पर एक साथ होती है तो उसे दर्शकों का वही प्यार मिलता है जो 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' या फिर 'बाजीगर' को मिली थी। काजोल की फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे को बॉलीवुड के इतिहास की सबसे कामयाब फिल्मों में गिना जाता है। यह फिल्म इस कदर कामयाब हुई कि आज तक चल रही है। 

काजोल ने अपने फ़िल्मी करियर में हर तरह की भूमिकाएं निभायीं और हर भूमिका को बेहद खूबसूरती के साथ निभाया। गुप्त, इश्क, प्यार किया तो डरना क्या, कुछ-कुछ होता है, प्यार तो होना ही था, फना जैसी कामयाब फिल्में दी। फिल्म गुप्त में निभाए गए उनकी नकारात्मक चरित्र के लिए काजोल को सर्वश्रेष्ठ खलनायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास का पहला मौका था जब किसी अभिनेत्री को सर्वश्रेष्ठ खलनायक का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया था। 

वर्ष 1999 में उन्होंने अभिनेता अजय देवगन के साथ सात फेरे लिए। अजय देवगन और काजोल की जोड़ी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बेस्ट जोड़ियों में शुमार की जाती है। काजोल ने अजय को अपनी जीवन में उस समय शामिल किया जब उनका कैरियर अपने बुलंदियों पर था। शादी के बाद काजोल ने अपना वक़्त अपने घर परिवार को देना शुरू किया अपने दो बच्चों बेटी न्यासा और बेटे युग को पूरा समय देने लगी।

दो बच्चों न्यासा और युग की मां काजोल ने शादी के बाद भी 'फना', 'माई नेम इज खान' और 'कभी खुशी कभी गम' समेत कई हिट फिल्में दीं। वर्ष 2010 में आई फिल्म माय नेम इज खान काजोल और शाहरुख़ की यह फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर काफी सफल रही। अब काजोल घर के साथ-साथ अपनी फ़िल्मी करियर पर भी ध्यान दे रहीं हैं। काजोल के नाम अपनी सबसे ज्यादा पांच बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्फेयर पुरस्कार पाने का रिकॉर्ड है।