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सावन में चढ़ा 'मेहंदी का रंग'


मेहंदी बाजारों में यूं तो महिलाओं का आना पूरे साल लगा रहता है, परंतु सावन में जब प्रकृति स्वयं को हरियाली से संवारती दिखती है तो भारतीय महिलाएं भी अपने साजो-श्रृंगार में हरे रंग की मौजूदगी जरूरी समझती हैं। ऐसे में जब महिलाओं के श्रृंगार की बात हो, तो मेहंदी का जिक्र होना लाजिमी हो जाता है। सावन में मेहंदी का विशेष महत्व है। 

आमतौर पर मान्यता है कि जिसकी मेहंदी जितना रंग लाती है, उसे ससुराल में उतना ही प्यार मिलता है। मेहंदी की सौंधी खुशबू से लड़की का घर-आंगन तो महकता ही है, उसकी सुंदरता में भी चार चांद लग जाते हैं। 

सावन के चलते इन दिनों पटना में मेहंदी बाजारों में विशेष रौनक है। पटना का कोई भी ऐसा मार्केट कांप्लेक्स नहीं है, जहां मेहंदी वाले न हों। 

पटना के डाक बंगला चौराहे के मौर्या लोक कांप्लेक्स में 'अपना मेहंदी वाला' और 'राजा मेहंदी' वाले की दुकानें सजी हुई हैं। बेली रोड के केशव पैलेस में सुरेश मेहंदी वाले और क्लासिक मेहंदी वाले अपनी हुनर से महिलाओं को आकर्षित कर रहे हैं। 

डिजाइनों की मांग के अनुसार अलग-अलग रेट भी हैं। ब्राइडल, बॉम्बे डिजाइन, बैंगल डिजाइन और एरेबिक डिजाइन वाली मेहंदी लगवाने का क्रेज अधिक है। मेहंदी का रंग ज्यादा दिन टिके, इसके लिए काली मेहंदी की मांग हो रही है। 

पटना में तीज त्योहार पर कई ब्यूटी पार्लरों में भी मेहंदी लगाई जाती है। लेकिन वहां अपेक्षाकृत अधिक दाम चुकाने पड़ते हैं। ऐसे में अधिकांश महिलाएं स्थानीय छोटी-छोटी दुकानों का रुख करती हैं। इन दुकानों पर तीन से चार मेहंदी कलाकार बैठे होते हैं, जो सुबह से ही हथेलियों पर अपना हुनर दिखाने में जुट जाते हैं। यह सिलसिला देर शाम तक जारी रहता है। 

क्लासिक मेहंदी वाले बताते हैं कि आमतौर पर सावन में ग्राहकों की संख्या चार गुना बढ़ जाती है। इसे देखते हुए हम भी कारीगरों की संख्या बढ़ा देते हैं। वे बताते हैं कि प्रतिदिन करीब 100 से ज्यादा हाथों पर अपनी कला का नमूना उतारते हैं। आमतौर पर महिलाएं हाथों के दोनों तरफ मेहंदी लगवाती हैं। कई तरह के डिजाइन की भी मांग करती हैं। 

एक अन्य मेहंदी वाले ने बताया कि सिल्वर मेहंदी, गोल्डन मेहंदी, ब्राउन मेहंदी को छोड़कर सारे डिजाइन असली मेहंदी से बनते हैं। इसका रंग भी अपेक्षाकृत अधिक दिन टिकता है। उन्होंने बताया कि सिल्वर, गोल्डन और ब्राउन मेहंदी आमतौर पर शादी समारोह में ही लगवाई जाती है। उनके मुताबिक मारवाड़ी और राजस्थानी मेहंदी की मांग ज्यादा होती है। 

पटना के जगदेवपथ में एक ब्यूटी पार्लर संचालिका तान्या ने आईएएनएस को बताया कि इन दिनों मेहंदी फैशन का हिस्सा बन चुकी है, इसीलिए इसकी मांग भी बढ़ी है। उनका दावा है कि मेहंदी हार्मोन को प्रभावित करती है। ब्लड प्रेशर भी नियंत्रित रखती है। 

इधर, मेहंदी लगवाने पहुंची कॉलेज छात्रा दीप्ति कहती है कि "मुझे मेहंदी लगवाना पसंद है। सावन में तो इसका अपना महत्व है।" दीप्ति ब्राइडल मेहंदी पसंद करती हैं, क्योंकि इसके डिजाइन से हाथ की खूबसूरती बढ़ जाती है। 

दीप्ति कहती हैं कि आखिरकार मेहंदी सजने की वस्तु है तो महिलाएं-युवतियां सावन में इससे दूर कैसे रह सकती हैं?

pardaphash

गुम हो रही नवविवाहिता की ‘सावनी’

इसे आधुनिकता की अंधीदौड़ मानें या मंहगाई की मार, बुंदेलखण्ड में शादी के बाद पड़ने वाले पहले रक्षाबंधन का हर सुहागिन को बेसब्री से इंतजार हुआ करता था। इस दिन ससुराल से सुहागिन के लिए 'सावनी' भेजे जाने की पुरानी परम्परा थी, सावनी में भेजे गए श्रंगार सामाग्री से 'श्रंगार' कर सुहागिन बहन अपने भाइयों की कलाई में राखी बांध कर 'सुहाग' की रक्षा का वचन लेते थीं लेकिन पीढ़ियों पुरानी यह परम्परा अब विलुप्त होने के कगार पर है। 


बुंदेलखण्ड में हर तीज-त्यौहार मनाने की अलग सामाजिक परम्पराएं रही हैं। आप रक्षाबंधन को ही ले लीजिए। शादी के बाद पड़ने वाले पहले रक्षाबंधन में हर सुहागिन को अपने ससुराल से भेजे जाने वाले 'सावनी' का बड़ी बेसब्री से इंतजार हुआ करता था। 


सावनी में ससुराल पक्ष से हर वह सामाग्री भेजी जाती थी, जो एक सुहागिन के श्रंगार का हिस्सा है। सोने-चांदी के जेवरातों से लेकर कपड़े और खिलौने तक शामिल हुआ करते थे। सावनी में आए सामान को सुहागिन जहां पास-पड़ोस की सहेलियों के बीच 'बांयन' के तौर पर बांटा करती थी, वहीं इसी से श्रंगार कर वह अपने भाइयों की कलाई में सावनी में आई 'राखी' बांध कर सुहाग के रक्षा का वचन भी लेती थी। 


ससुराल पक्ष से आने वाली सावनी की अदायगी सुहागिन के मायके पक्ष के लोग 'तीजा' के त्यौहार में 'पठौनी' भेज कर करते थे। पर यह अब गुजरे जमाने की बात जैसी हो गई है। इसे आधुनिकता की अंधीदौड़ मानें या फिर मंहगाई की मार, सावनी लाने और भेजने की यह सदियों पुरानी परम्परा विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है। 


बांदा जनपद के सिकलोढ़ी गांव की बुजुर्ग महिला श्यामा तिवारी बताती है कि 'जब उसके मायके ससुराल से सावनी पहुंची थी, तब नाई से गांव में सावनी देखने का बुलावा भेजा गया था। सावनी का हर सामान गांव की महिलाओं ने देखा और ससुराल वालों की तारीफ की थी। 


ससुराल से आए सामान को पाकर वह खुद बहुत खुश हुई थी।' वह बताती है कि 'लोग सावनी की श्रंगार सामग्री से ससुराल की बड़प्पन का अंदाजा लगाया करते थे। जिस सुहागिन की सावनी न आए वह अपनी तौहीन समझती थी।' बल्लान गांव की देवरतिया (80) बताती है कि 'हर अमीर और गरीब ससुराल से सावनी भेजने का रिवाज रहा है, पर अब धीरे-धीरे यह खत्म होने लगी है, रेशम के धागे वाली राखियां बाजार में दिखाई नहीं देती। अब तो विदेशी राखियों का जमाना आ गया है।' 


तेन्दुरा गांव का दलित टेरियां बताता है कि 'सावनी की परम्परा दो परिवारों (ससुराल और मायका) के बीच सामाजिक सौहाद्र कायम करने और रिश्ता मजबूती से बनाए रखने का द्योतक है। इस परम्परा के खात्मे के लिए जहां बढ़ती मंहगाई जिम्मेदार है, वहीं आधुनिकता की अंधीदौड़ से युवा पीढ़ी इसे भूलती जा रही है।' साथ ही उसने कहा कि 'अब समाज में सयानापन न होने के कारण भी इन परम्पराओं से लोग तौबा कर रहे हैं।'