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स्वतंत्रता दिवस विशेष: बुंदेले हर बोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी

'बुंदेले हर बोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मदार्नी वह तो झांसी वाली रानी थी' कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की यह पंक्तियां आज भी बुंदेलों की जुबान पर हैं। स्वतंत्रता दिवस या आजादी की बात हो और रानी झांसी का जिक्र न आए, ऐसा हो ही नहीं सकता। 

सन् 1857 के विद्रोह (प्रथम स्वतंत्रता संग्राम) में फिरंगी सेना की चूल्हे हिला देने वाली रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। यह बात अलग है कि आजादी की लड़ाई का हिस्सा बना बुंदेलखण्ड आज खुद की 'आजादी' और 'अस्तित्व' की लड़ाई में अलग-थलग पड़ा हुआ है।

यह विश्व विदित है कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सन् 1857 में भड़के विद्रोह में वीरांगना रानी झांसी लक्ष्मीबाई ने अपनी महिला सेनापति झलकारीबाई के साथ फिरंगी सेना का मुकाबले करते हुए युद्ध के मैदान में शहीद होना पसंद किया था, लेकिन अंग्रेजों की दासता नहीं स्वीकार की थी। 

अंग्रेजों को आभास भी नहीं था कि 19 साल की उम्र में कदम रखने वाली रानी झांसी के सामने उसके सैनिकों को मुंह की खानी पड़ेगी। 21 नवम्बर, 1853 को राजा बाल गंगाधर राव की मौत के बाद सात मार्च, 1854 को अंग्रेजों ने झांसी रियासत को अपने कब्जे में ले लिया था, तमाम प्रयासों के बाद भी फिरंगियों ने जब रानी झांसी को राज्य वापस करने से इंकार कर दिया तो उनके सामने युद्ध के अलावा कोई चारा नहीं बचा। रानी झांसी अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांधकर अंग्रेजी सेना के खिलाफ युद्ध में कूद पड़ीं। 

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के इस युद्ध में बांदा के नवाब अली बहादुर ने रक्षाबंधन में रानी झांसी द्वारा भेजी गई 'राखी' की कीमत अपनी सेना झांसी की मदद में भेज कर अदा की थी। चार अप्रैल, 1858 को नाना भोपटकर की सलाह पर रात को जब रानी अपने दत्तक पुत्र के साथ बिठूर की ओर रवाना हुईं तब वह अपनी ही रियासत के राजनीतिक अभिकर्ता मालकम की गद्दारी का शिकार हुईं और अंग्रेजों से युद्ध करते हुए शहीद हो गईं। 

झांसी की रानी की निर्भीकता और बहादुरी को देखकर ही अंग्रेज अधिकारी जनरल ह्यूरोज ने चार जून, 1858 को कहा था कि 'नो स्टूअर्स इफ वन परसेंट ऑफ इंडियन वुमेन बिकम सो मैड ऐज दिस गर्ल इज, वी विल हैव टू लीव आल दैट वी हैव इन दिस कंट्री (अगर भारत की एक फीसदी महिलाएं इस लड़की की तरह आजादी की दीवानी हो गईं तो हम सबको यह देश छोड़कर भागना पड़ेगा)।' अंग्रेज अधिकारी की यह बात सही साबित हुई और उन्हें यह देश छोड़कर जाना ही पड़ा। लेकिन, आजादी की लड़ाई का हिस्सा बनने वाले इस बुंदेलखण्ड के अब हालात क्या हैं?

बुंदेलखण्ड के इतिहासकार राधाकृष्ण बुंदेली बताते हैं, "आजादी की जंग में रानी लक्ष्मीबाई और उनकी महिला सेनापति झलकारीबाई ने ब्रिटिश हुकूमत की चूल्हे हिलाकर रख दी थीं। इन दोनों वीरांगनाओं ने युद्ध के मैदान में शहीद होना पसंद किया, लेकिन फिरंगियों की दासता नहीं स्वीकार की थी।" 

झांसी किले के उन्नाव गेट के नया पुरा मुहल्ला में रहने वाले बुजुर्ग मोहन मास्टर खुद के झलकारीबाई का वंशज होने का दावा करते हुए बताते हैं, "रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध कौशल से ही अंग्रेजों को एक भारतीय नारी और बुंदेली माटी की ताकत का अहसास हुआ था।" 

इसी उन्नाव गेट के अंदर रहने वाले मनसुख दास जतारिया को मलाल है कि यदि मालकम ने गद्दारी न की होती तो रानी लक्ष्मीबाई बिठूर पहुंच कर बच सकती थीं। महोबा के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बासुदेव चौरसिया कहते हैं, "रानी झांसी जैसी शूरवीरों की शहादत को सहेज कर रख पाना आज की पीढ़ी के लिए बड़ा मुश्किल काम है, बुंदेलखण्ड में झांसी का किला अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता और रानी लक्ष्मीबाई की बहादुरी का प्रत्यक्ष गवाह है।" 

बांदा के बुजुर्ग पत्रकार राजकुमार पाठक का कहना है, "आजादी का जश्न हर साल मनाकर सरकार सरकारी परम्परा का निर्वहन करती है, 15 अगस्त या 26 जनवरी को राष्ट्रीय ध्वज फहराना ही असली आजादी नहीं है।" 

वह कहते हैं, "देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है, जो दो वक्त की रोटी को तरस रहा है और कुछ ही लोग हैं जो आराम से जिंदगी गुजार रहे हैं।" वह सवाल करते हैं, "क्या रानी लक्ष्मीबाई, सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, मंगल पांड़े, रामप्रसाद बिस्मिल, नेता जी सुभाशचंद्र बोस जैसे दीवाने इसी आजादी की कल्पना कर शहीद हुए होंगे?" 

फिल्म अभिनेता और बुंदेलखण्ड कांग्रेस के अध्यक्ष राजा बुंदेला कहते हैं, "बुंदेलखण्ड के लिए आजादी बेमानी है, बुंदेलों को सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व मानसिक रूप से अब तक आजादी नहीं मिली, यह इलाका आजद देश में अपनी 'आजादी' और 'अस्तित्व' की लड़ाई लड़ रहा है।" 


वह कहते हैं, "अंग्रेजों के जमाने में कम से कम इतना तो था कि भूख से तड़प कर कोई आत्महत्या नहीं करता था, यहां तो 'पलायन' और 'आत्महत्या' का अनवरत सिलसिला जारी है, इसे कैसे आजादी माना जा सकता है?"

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हिन्दू के लिए ‘देव’ और सपेरों की ‘रोजी-रोटी’ हैं नाग!

नागपंचमी में हिन्दू समाज जिस नाग को ‘देवता’ मान पूजा-अर्चना करता है, वह हिन्दू समाज के ही अनुसूचित वर्गीय सपेरा समुदाय की सिर्फ ‘रोजी-रोटी’ है। इनके मासूम बच्चे जहरीले सांपों के साथ खेल कर अपना सौख पूरा करते हैं और स्कूल जाने की जगह ‘पिटारी’ और ‘बीन’ बजाने के गुर सीखने को मजबूर हैं।

इस देश में हिन्दू समाज में एक वर्ग ऐसा भी है जो बेहद मुफलिसी का जीवन गुजार रहा है। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड़ की सीमा से सटे इलाहाबाद जिले के शंकरगढ़ इलाके में आधा दर्जन गांवों में अनुसूचित वर्गीय सपेरा समाज के करीब साढ़े चार सौ परिवार आबाद हैं, इनका सुबह से शाम तक दैनिक कार्य जहरीले सांप पकड़ना और ‘बीन’ के इशारे पर नचा कर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना है। सपेरा समुदाय का आर्थिक ढांचा बेहद कमजोर होने वह अपने बच्चों को खिलैनों की जगह जहरीले सांप और स्कूली बस्ते के स्थान पर सांप पालने वाली ‘पिटारी’ और ‘बीन’ थमा देते हैं, ताकि आगे चल कर इस पुश्तैनी पेशे से जुड़े रहें।

शंकरगढ़ के सहने वाला सपेरा बाबा दिलनाथ बताता है कि ‘करीब आधा दर्जन गांवों में उनकी बिरादरी के साढ़े चार सौ परिवार पीढि़यों से आबाद हैं। सरकार ने सांप पकड़ने और उनके प्रदर्शन करने में रोंक तो लगा दी है, मगर रोटी का अन्य ‘सहारा’ नहीं दिया, जिससे चोरी छिपे सांप नचाना मजबूरी बना हुआ है।’ वह बताता है कि ‘सांप मांसाहारी जीव है, यह कभी दूध नहीं पीता, भगवान शिव का श्रंगार मान अधिकांश हिन्दू इसे देवता मानते हैं, लेकिन हमारे लिए यह सिर्फ ‘रोजी-रोटी’ है।

सपेरों का एक कुनबा बांदा जिले के अतर्रा कस्बे में नागपंचमी के त्योहार में बरसाती की पन्नी डाल कर डेरा जमाए है, इस कुनबे के 13 वर्षीय बालक चंद्रनाथ को ‘पिटारी’ और ‘बीन’ उसके पिता ने बिरासत में दिया है। वह कस्बे में घूम-घूम कर जहरीले सांपों का प्रदर्शन कर रहा है, उसने बताया कि ‘वह भी पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बनना चाहता है, लेकिन परिवार की माली हालत उसे पुश्तैनी पेश में खींच लायी है। यह संवाददाता शनिवार की सुबह जब सपेरों की इस झोपड़ी में गया तो वहां नजारा देख भौंचक्का रह गया। मासूम बच्चे शनि, बली और चंदू मिट्टी के खिलौनों से नहीं, बल्कि जहरीले सांप और विषखापर से खेल रहे थे। कुनबे में मौजूद महिला सोमवती ने बताया कि ‘मिट्टी के खिलौना खरीदने के लिए पैसे नहीं है, सो बच्चे इन्हीं सांपों से खेल कर अपना सौख पूरा कर लेते हैं।’

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बुंदेलखंड में अब नहीं सुनाई देते सावन के गीत

'झूला तो पड़ गयो अमवा की डार मा.' सावन का महीना आते ही बुंदेलखंड के हर बगीचे में झूले पड़ जाया करते थे और बुंदेली महिलाएं 'ढोल-मंजीरे' की थाप में इस तरह के सावन के गीत गाया करती थीं। लेकिन, अब जहां एक ओर बगीचे नहीं बचे, वहीं दूसरी ओर सावन गीत के स्वर दूर-दूर तक नहीं सुनाई दे रहे। 

बुंदेलखंड पुरानी परम्पराओं व रिवाजों का गढ़ रहा है। यहां हर तीज-त्यौहार बड़े ही हर्षोल्लास और भाईचारे के साथ मनाने का रिवाज रहा है। सावन का महीना आते ही बाग-बगीचों में झूले पड़ जाया करते थे और बुंदेली महिलाएं दो गुटों में बंट कर 'ढोल-मंजीरे' की थाप में मोरों की आवाज के बीच सावन गीत गाया करती थीं। 

इन्हीं गीतों के साथ ससुराल से नैहर वापस आईं बेटियां झूलों में 'पींग' भरती थीं। अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है। बुंदेलखंड के लोग अपने हरे-भरे आम के बागों का नामोशिान मिटा रहे हैं। इससे न तो झूले डालने की गुंजाइश बची है और न ही महिलाएं गीत गाती नजर आ रहीं हैं। रही बात राष्ट्रीय पक्षी मोर की तो वह यदा-कदा ही दिखाई दे रहे हैं।

बांदा जिले के तेन्दुरा गांव की बुजुर्ग महिला सुरतिया कहती हैं, "एक दशक पूर्व तक इस गांव के चारों तरफ बस्ती से लगे हुए कई आम के बगीचे थे, जहां सावन मास में झूले लगा करते थे।" 

इसी गांव के एक अन्य बुजुर्ग देउवा माली ने बताया, "पहले हर किसी के मन में बेटियों के प्रति सम्मान हुआ करता था, अब राह चलते छेड़छाड़ की घटनाएं हो रही हैं। साथ ही आपसी सामंजस्य व भाईचारा नहीं रह गया, जिससे बेटियों को दूर-दराज बचे बगीचों में भेजने से डर लगता है।"