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परिवर्तनकारी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया की 47वीं पुण्यतिथि पर विशेष......

 देश के परिवर्तनकारी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया की आज 47वीं पुण्यतिथि है| समाजवाद को एक नयी परिभाषा देने वाले लोहिया ने ब्रितानिया हुकूमत की गुलामी की जंजीरों में जकड़े हुए भारत में 23 मार्च, 1910 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में अकबरपुर नाम के गांव में जन्म लिया था|

समाजवाद की नयी परिभाषा देने वाले लोहिया ने भविष्य को ध्यान में रखते हुए कहा था- ''मुझे खतरा लगता है कि कहीं सोशलिस्ट पार्टी की हुकूमत में भी ऐसा ना हो जाये कि लड़ने वालों का तो एक गिरोह बने और जब हुकूमत का काम चलाने का वक़्त आये तब दूसरा गिरोह आ जाये|'' उनके इन वाक्यों को पढ़कर ऐसा लगता है कि उन्हें भविष्य की राजनीति का पूर्वाभास हो गया था|

प्रारंभिक जीवन

लोहिया के पिता का नाम हीरालाल व माता का नाम चन्दा देवी था| जब लोहिया ढाई वर्ष के थे तब उनकी माता का देहांत हो गया| लोहिया के पिता महात्मा गांधी के अनुयायी थे। जब वे गांधीजी से मिलने जाते तो राम मनोहर को भी अपने साथ ले जाया करते थे| इसके कारण गांधीजी के विराट व्यक्तित्व का उन पर गहरा असर हुआ|

लोहिया ने शुरूआती पढाई टंडन पाठशाला से की जिसके बाद वह विश्वेश्वरनाथ हाईस्कूल में दाखिल हुए| उन्होंने इंटरमीडीयेट की पढ़ाई बनारस के काशी विश्वविद्यालय से की| 1927 में इंटर पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए कलकत्ता के विद्यासागर कॉलेज में दाखिला लिया|

जर्मनी से पीएचडी की उपाधि लेने वाले लोहिया ने देश से अंग्रेजी हटाने का जो आह्वान किया| उन्होंने कहा, "मैं चाहूंगा कि हिंदुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएं नहीं, बल्कि गर्व करें| इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके मां बाप अगर शरीर से नहीं तो आत्मा से अंग्रेज रहे हैं|’’

स्वतंत्रता संग्राम में दिया योगदान

भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के शिल्पी राममनोहर लोहिया, महात्मा गांधी से प्रेरित थे| उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रीय भूमिका निभाई| सिर्फ इतना है नहीं, भारत छोड़ो आन्दोलन में भी उनके महत्वपूर्ण योगदान को भुलाया नहीं जा सकता| लोहिया ने लोकमान्य तिलक के निधन पर छोटी हड़ताल आयोजित कर स्वतंत्रता आंदोलन में अपना पहला योगदान दिया| वह महज दस साल की उम्र में गांधीजी के सत्याग्रह से जुड़े|

लोहिया ने जिनिवा में लीग ऑफ नेशंस सभा में भारत का प्रतिनिधित्व ब्रिटिश राज के सहयोगी बीकानेर के महाराजा द्वारा किए जाने पर कड़ी आपत्ति जतायी| अपने इस विरोध का स्पष्टीकरण देने के लिए अखबारों और पत्रिकाओं में उन्होंने कई पत्र भेजे| इस पूरी प्रतिक्रिया के दौरान लोहिया रातोंरात चर्चा में आ गए|

वर्ष 1940 में उन्होंने ‘सत्याग्रह अब ’ आलेख लिखा और उसके छह दिन बाद उन्हें दो साल की कैद की सजा हो गयी| ख़ास बात थी मजिस्ट्रेट ने उन्हें सजा सुनाने के दौरान उनकी खूब सराहना की| जेल में उन्हें खूब यातना दी गयी| दिसंबर, 1941 में वह रिहा कर दिए गए|

9 अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी व अन्य कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिए जाने के बाद लोहिया ने भूमिगत रहकर 'भारत छोड़ो आंदोलन' को पूरे देश में फैलाया| लोहिया ने भूमिगत रहते हुए 'जंग जू आगे बढ़ो, क्रांति की तैयारी करो, आजाद राज्य कैसे बने' जैसी पुस्तिकाएं लिखीं| इसके बाद 20 मई, 1944 को लोहिया को बंबई में गिरफ्तार कर लिया गया| बचपन में पिता से मिले आदर्शों व देशभक्ति के जज्बे ने स्वतंत्रता संग्राम के समय खूब रंग दिखाया| हालांकि, स्वतंत्रता के बाद हुए देश के विभाजन ने लोहिया को कहीं न कहीं झकझोर कर रख दिया|

रखी समाजवाद की नींव

लोहिया ने स्वतंत्रता के नाम पर सत्ता मोह का खुला खेल अपनी नंगी आंखों से देखा था और इसीलिए स्वतंत्रता के बाद की कांग्रेस पार्टी और कांग्रेसियों के प्रति उनमें बहुत नाराजगी थी| लोहिया सही मायनों में गैर-कांग्रेसवाद के शिल्पी थे| भारत विभाजन में कांग्रेस के विचारों ने उन्हें बहुत ठेस पंहुचाई, जिसके बाद उन्होंने कांग्रेस से दुरी बनाते हुए समाजवाद को अपना ध्येय बना लिया|

लोहिया ने कहा, "हिंदुस्तान की राजनीति में तब सफाई और भलाई आएगी जब किसी पार्टी के खराब काम की निंदा उसी पार्टी के लोग करें और मैं यह याद दिला दूं कि मुझे यह कहने का हक है कि हम ही हिंदुस्तान में एक राजनीतिक पार्टी हैं जिन्होंने अपनी सरकार की भी निंदा की थी और सिर्फ निंदा ही नहीं की बल्कि एक मायने में उसको इतना तंग किया कि उसे हट जाना पडा़|"

लोहिया व्यवस्था परिवर्तन के हिमायती थे| समाज के निचले पायदान पर रह गये वंचितों की गैर-बराबरी के खात्मे के हिमायती तथा मानव के द्वारा मानव के शोषण की खिलाफत करने में लोहिया ने कोई कसर नहीं रखी| उन्होंने आगे चलकर विश्व विकास परिषद बनायी| जीवन के अंतिम वर्षों में वह राजनीति के अलावा साहित्य से लेकर राजनीति एवं कला पर युवाओं से संवाद करते रहे| 12 अक्तूबर, 1967 को लोहिया का देहांत हो गया|

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जब बाथरूम में छिपे थे नन्हे राजीव.........


पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न स्वर्गीय राजीव गांधी की आज जयन्ती के अवसर के हम आपको राजीव गांधी के जीवन से जुड़े कुछ अनछुए पहलु से रुबरु कराएंगे| आज हम राजीव गांधी के जीवन की कुछ ऐसी बातें बताएंगे जिनसे शायद आप अनजान हो|

यह बात उस समय की है जब राजीव गांधी दून स्कूल में पढ़ाई कर रहे थे| एक बार राजीव गांधी के नाना पंडित जवाहर लाल नेहरू उनसे मिलने पहली बार देहरादून गए हुए थे| जब संकोची स्वभाव के राजीव को यह पता चला कि उनके नाना उनसे मिलने आये हैं तो वह वहां से भाग गए| नन्हे राजीव को ना पाकर सभी लोग काफी चिंतित थे| चारों ओर लोग राजीव की खोज में लग गए तब किसी ने पाया कि यह नन्हा बच्चा स्कूल के बाथरूम में गंदे कपड़े रखने की बास्केट में छिपा हुआ हैं| बहुत खोजबीन के बाद उनके ढूंढा जा सका| संकोची स्वभाव के होने की वहज से राजीव ने ऐसा किया था|

कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर ने बताया कि उन्होंने नन्हे राजीव के जीवन की यह घटना दून स्कूल के हेडमास्टर जॉन मार्टिन की जर्मन पत्नी मैडी मार्टिन की पुस्तक में पढ़ी थी| वहीँ ये भी कहा जा रहा था कि उन्हें अपने नाना और प्रधानमंत्री का सामना करने में संकोच हो रहा था|

इतना ही नहीं जब कभी राजीव गांधी अपने मित्रों के समक्ष अपने नाना के वचन बोलते थे तो उनके मित्र उन्हें ये कहकर चिढ़ाते थे कि नाना की बात बोलता है और जब कभी वह विपरीत बात बोलते थे तो उनके मित्र कहा करते थे कि इतने बड़े और ज्ञानी आदमी के विपरीत बोल रहा है| ये बहुत ही गलत बात है|

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धार्मिक एकता के पक्षधर थे रामकृष्ण परमहंस

भारतीय अध्यात्म और चिंतन परंपरा को जिन संतों मनीषियों ने समृद्ध किया है उनमें रामकृष्ण परमहंस का नाम बेहद आदर से लिया जाता है। वह आधुनिक भारत के उद्गाता और दुनिया भर में भारतीय चिंतन का डंका बजाने वाले स्वामी विवेकानंद के आध्यात्मिक गुरु भी थे। रामकृष्ण परमहंस ने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया था। वह बचपन से ही इस विश्वास से भरे थे कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना की और भक्तिपूर्ण जीवन बिताया। अपनी साधना के बल पर वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं है। वह ईश्वर तक पहुंचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं।

रामकृष्ण परमहंस का जन्म पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में कामारपुकुर नामक गांव के एक गरीब धर्मनिष्ठ परिवार में 18 फरवरी 1836 को हुआ था। उनके बचपन का नाम गदाधर था। उनके पिता का नाम खुदीराम चट्टोपाध्याय था। जब परमहंस सात वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। सत्रह वर्ष की अवस्था में अपना घर-बार त्याग कर वह कलकत्ता चले आए तथा झामपुकुर में अपने बड़े भाई के साथ रहने लगे। कुछ दिनों बाद भाई के स्थान पर रानी रासमणि के दक्षिणेश्वर मंदिर में वह पुजारी नियुक्त हुए। यहीं उन्होंने मां महाकाली के चरणों में अपने को उत्सर्ग कर दिया। 

परमहंसजी का जीवन द्वैतवादी पूजा के स्तर से क्रमबद्ध आध्यात्मिक अनुभवों द्वारा निरपेक्षवाद की ऊंचाई तक निर्भीक एवं सफल उत्कर्ष के रूप में पहुंचा हुआ था। उन्होंने प्रयोग करके अपने जीवन काल में ही देखा कि उस परमोच्च सत्य तक पहुंचने के लिए आध्यात्मिक विचार- द्वैतवाद, संशोधित अद्वैतवाद एवं निरपेक्ष अद्वैतवाद, ये तीनों महान श्रेणियां मार्ग की अवस्थाएं थीं। वह एक दूसरे की विरोधी नहीं, बल्कि यदि एक को दूसरे में जोड़ दिया जाए तो वे एक दूसरे की पूरक हो जाती थीं।

उन दिनों बंगाल में बाल विवाह की प्रथा थी। उनका विवाह भी बचपन में हो गया था। उनकी पत्नी शारदामणि जब दक्षिणेश्वर आईं तब गदाधर वीतरागी हो चुके थे। परमहंस अपनी पत्नी शारदामणि में भी महाकाली का रूप देखने लगे थे। उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों का समाचार जैसे-जैसे फैलने लगा वैसे-वैसे दक्षिणेश्वर मंदिर की ख्याति भी फैलती गई। मंदिर में भ्रमणशील संन्यासियों, बड़े-बड़े विद्वानों एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधकों का जमावड़ा होने लगा। उस समय के कई ख्याति नाम विचारक जैसे- पं. नारायण शास्त्री, पं. पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते थे। वह शीघ्र ही तत्कालीनन सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे। ऐसे लोगों में केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, बंकिमचंद्र चटर्जी, अश्विनी कुमार दत्त के नाम लिए जा सकते हैं। 

आचार्य के जीवन के अंतिम वर्षों में पवित्र आत्माओं का प्रतिभाशील मंडल, जिसके नेता नरेंद्रनाथ दत्त (बाद में स्वामी विवेकानंद) थे, रंगमंच पर अवतरित हुआ। आचार्य ने चुने हुए कुछ लोगों को अपना घनिष्ठ साथी बनाया, त्याग एवं सेवा के उच्च आदशरें के अनुसार उनके जीवन को मोड़ा और पृथ्वी पर अपने संदेश की पूर्ति के निमित्त उन्हें एक आध्यामिक बंधुत्व में बदला। महान आचार्य के ये दिव्य संदेशवाहक कीर्तिस्तंभ को साहस के साथ पकड़े रहे और उन्होंने मानव जगत की सेवा में पूर्ण रूप से अपने को न्योछावर कर दिया।

1885 के मध्य में उन्हें गले के कष्ट की शिकायत हुई। शीघ्र ही इसने गंभीर रूप धारण किया जिससे वह मुक्त न हो सके। 16 अगस्त 1886 को उन्होंने महाप्रस्थान किया। अपने शिष्यों को सेवा की शिक्षा जो उन्होंने दी थी वही आज रामकृष्ण मिशन के रूप में दुनिया भर में मूर्त रूप में है। उनके ज्ञान दीप को स्वामी विवेकानंद ने संसार में फैलाया था।

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राम-रस जग को चखाय गए तुलसी

आत्मा थी राम की पिता में सो प्रताप-पुंज आप रूप गर्भ में समाय गए तुलसी।

जन्मते ही राम-नाम मुख से उचारि निज नाम रामबोला रखवाय गए तुलसी।

रत्नावली-सी अर्धागिनी सों सीख पाय राम सों प्रगाढ प्रीति पाय गए तुलसी।

मानस में राम के चरित्र की कथा सुनाय राम-रस जग को चखाय गए तुलसी।

शक्ति, शील सौंदर्य के समन्वित प्रतीक राम में मयार्दा की स्थापना और उसके व्यावहारिक रूप पर दृढ़ता से टिकने की भावना अभिव्यंजित की गई है। पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन के मधुर आदर्श तथा उत्सर्ग की भावना 'रामचरितमानस' में सर्वत्र बिखरी पड़ी है।

कहा जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास को साक्षात भगवान के दर्शन हुए थे और उन्हीं की इच्छानुसार उन्होंने 'रामचरितमानस' की रचना की थी। गोस्वामी तुलसीदास का जन्म राजापुर गांव उत्तर प्रदेश में हुआ था। संवत 1554 की श्रावण मास की अमावस्या के सातवें दिन तुलसीदास का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी देवी था।

मान्यता है कि तुलसीदास का जन्म बारह महीने गर्भ में रहने के बाद हुआ था और जन्म लेने के बाद वे आम बच्चों की तरह रोए नहीं थे, बल्कि 'राम' का उच्चारण किया था। इसी से उनका नाम ही रामबोला पड़ गया। मां तो जन्म देने के बाद दूसरे ही दिन चल बसीं, पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिए बालक को चुनियां नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गए। जब रामबोला साढ़े पांच वर्ष के थे तो चुनियां भी नहीं रही।

बचपन में इतनी परेशानियां और मुश्किलें झेलने के बाद भी तुलसीदास ने कभी भगवान का दामन नहीं छोड़ा और उनकी भक्ति में हमेशा लीन रहे। बचपन में उनके साथ एक और घटना घटी जिसने उनके जीवन को पूरी तरह बदल कर रख दिया। भगवान शंकर जी की प्रेरणा से रामशैल पर रहनेवाले श्री अनंतानंद जी के प्रिय शिष्य नरहरि बाबा ने रामबोला को ढूंढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीराम रखा। इसके बाद उन्हें शिक्षा दी जाने लगी।

21 वर्ष की अवस्था में तुलसीराम का विवाह यमुना के पार स्थित एक गांव की अति सुंदरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली से कर दी गई। एक दिन अपनी पत्नी की बहुत याद आने पर वह गुरु की आज्ञा से मिलने पहुंच गए। उस समय यमुना नदी में बहुत उफान आया हुआ था पर तुलसीराम ने अपनी पत्नी से मिलने के लिए उफनती नदी को भी पार कर लिया।

लेकिन रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से जो शिक्षा उन्हें दी उसने ही तुलसीराम को महान तुलसीदास बना दिया। रत्नावली ने जो दोहा कहा था वह इस प्रकार है:

अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति !

नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत?

अर्थात जितना प्रेम मेरे इस हाड़-मांस के बने शरीर से कर रहे हो, उतना स्नेह यदि प्रभु राम से करते, तो तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जाती। यह सुनते ही तुलसीराम की चेतना जागी और उसी समय से वह प्रभु राम की वंदना में जुट गए।

तुलसी दास ने सर्वप्रथम संस्कृत में पद्य-रचना शुरू की, लेकिन बाद में वे अपनी भाषा में काव्य रचना करने लगे। संवत 1631 में तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' की रचना शुरू की। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रात:काल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारंभ की। दो वर्ष, सात महीने और छब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रंथ संपन्न हुआ। संवत 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों कांड पूर्ण हो गए।

अंत में तुलसीदास काशी के विख्यात घाट अस्सीघाट पर रहने लगे और यहीं उन्होंने अपनी अंतिम कृति 'विनय-पत्रिका' लिखी। संवत 1680 में तुलसीदास जी ने 'राम-राम' कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।

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मोहम्मद रफ़ी साहब की पुण्यतिथि पर विशेष........

अपनी मदहोश कर देने वाली आवाज़ से सबको अपना दीवाना बनाने वाले गायक मोहम्मद रफ़ी की आज पुण्यतिथि है| इन्हें 'शहंशाह-ए-तरन्नुम' भी कहा जाता है| रफ़ी का जन्म 24 दिसम्बर 1924 को अमृतसर, के पास 'कोटला सुल्तान सिंह' में हुआ था। इनके परिवार का संगीत से कोई ताल्लुक नहीं था। रफ़ी के गायन की शुरुआत साल 1940 के आस पास हुई| वर्ष1960 में फ़िल्म 'चौदहवीं का चांद' के शीर्षक गीत के लिए रफ़ी को अपना पहला फ़िल्म फेयर पुरस्कार मिला था। 

मोहम्मद रफ़ी अपने दर्द भरे नगमों के लिए खासतौर पर जाने जाते है| इन्होनें अपने करियर में लगभग 26000 हज़ार गाने गाये| सन 1946 में आई फिल्म 'अनमोल घड़ी' का गाना 'तेरा खिलौना टूटा' से रफ़ी को पहली बार हिन्दी जगत में ख्याति मिली।

मोहम्मद रफ़ी बहुत ही शर्मीले स्वभाव के समर्पित मुस्लिम थे। आजादी के समय विभाजन के दौरान उन्होने भारत में रहना पसन्द किया। उन्होने बेगम विक़लिस से शादी की और उनकी सात संतान हुईं-चार बेटे तथा तीन बेटियां। रफ़ी का देहान्त 31 जुलाई 1980 को हृदयगति रुक जाने के कारण हुआ।

यह किसी से छुपा नहीं है कि दिवंगत अभिनेता शम्मी कपूर के लोकप्रिय गीतों में मोहम्मद रफ़ी का कितना योगदान है| शम्मी कपूर तो इनकी आवाज से इतने प्रभावित थे कि वह अपना हर गाना रफ़ी से गवातें थे| शम्मी कपूर के ऊपर फिल्माए गए यह लोकप्रिय गाने 'चाहे कोई मुझे जंगली कहे', 'एहसान तेरा होगा मुझपर', 'ये चांद सा रोशन चेहरा', 'दीवाना हुआ बादल' जो रफ़ी द्वारा गायें गए है| 

इनकी प्रसिद्धि धीरे-धीरे इतनी बढ़ गयी कि ज्यादातर अभिनेता इन्हीं से गाना गवाने का आग्रह करने लगे। अभिनेता दिलीप कुमार व धर्मेन्द्र तो मानते ही नहीं थे कि उनके लिए कोई और गायक गाए। इस कारण से कहा जाता है कि रफ़ी साहब ने अन्जाने में ही 'मन्ना डे', 'तलत महमूद' और 'हेमन्त कुमार' जैसे गायकों के करियर को नुकसान पहुँचाया|

सन 1961 में रफ़ी को अपना दूसरा फ़िल्मफेयर आवार्ड फ़िल्म 'ससुराल' के गीत 'तेरी प्यारी प्यारी सूरत को' के लिए मिला। इसके बाद 1965 में ही लक्ष्मी-प्यारे के संगीत निर्देशन में फ़िल्म दोस्ती के लिए गाए गीत 'चाहूंगा मै तुझे सांझ सवेरे के' लिए रफ़ी को तीसरा फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला। साल 1965 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा। उस वक्त तक रफ़ी सफलता की उचाईयों को छुते जा रहे थे| साल 1966 में फ़िल्म सूरज के गीत 'बहारों फूल बरसाओ' बहुत प्रसिद्ध हुआ और इसके लिए उन्हें चौथा फ़िल्मफेयर अवार्ड मिला। साल 1968 में शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में फ़िल्म ब्रह्मचारी के गीत 'दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर' के लिए उन्हें पाचवां फ़िल्मफेयर अवार्ड मिला।

1960 के दशक में अपने करियर के शीर्ष पर पहुंचने के बाद उनके लिए दशक का अन्त सुखद नहीं रहा।1969 में फ़िल्म आराधना के निर्माण के समय सचिन देव बर्मन (जिन्हे दादा नाम से भी जाना जाता था) को संगीतकार चुना गया। इसी साल दादा बीमार पड़ गए और उन्होने अपने पुत्र राहुल देव बर्मन(पंचमदा) से गाने रिकार्ड करवाने को कहा। उस समय रफ़ी हज के लिए गए हुए थे। पंचमदा को अपने प्रिय गायक किशोर कुमार से गवाने का मौका मिला और उन्होने रूप तेरा मस्ताना तथा मेरे सपनों की रानी गाने किशोर दा की आवाज में रिकॉर्ड करवाया। 

ये दोनों गाने बहुत ही लोकप्रिय हुए, साथ ही गायक किशोर कुमार भी जनता तथा संगीत निर्देशकों की पहली पसन्द बन गए। इसके बाद रफ़ी के गायक जीवन का अंत शुरू हुआ। हालांकि, इसके बाद भी उन्होने कई हिट गाने दिये, जैसे 'ये दुनिया ये महफिल', 'ये जो चिलमन है', 'तुम जो मिल गए हो'। 1977 में फ़िल्म 'हम किसी से कम नहीं' के गीत 'क्या हुआ तेरा वादा' के लिए उन्हे अपने जीवन का छठा तथा अन्तिम फ़िल्म फेयर एवॉर्ड मिला।

रफ़ी के कुछ प्रमुख गाने 

मैं जट यमला पगला दीवाना
चढ़ती जवानी मेरी चाल मस्तानी
हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों 
ये देश है वीर जवानों का
नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है
रे मामा रे मामा 
चक्के पे चक्का
बाबुल की दुआए
आज मेरे यार की शादी है