समय अत्यंत शक्तिशाली होता है। तन नाना प्रकार के सुख चाहता है। मन बड़ा विचित्र होता है, कभी चंचल और कभी स्थिर। आत्मा तन-मन के कारनामों को भोगती है। मन की तरंगें कभी उत्ताल होती हैं तो उस उल्लास के रंग में भंग भी होता है। इसके शिकार न केवल मानव ही होते हैं, बल्कि देव और दानव भी हुआ करते हैं। ऐसी कई कहानियां पुराणों में मिलती हैं। ऐसी ही एक कहानी का जायजा लीजिए : एक बार सुरपति इंद्र देवगुरु बृहस्पति को साथ लेकर परमेश्वर के दर्शन करने कैलाश पहुंचे। परमेश्वर को न मालूम क्या सूझा, इंद्र के आगमन का समाचार जानकर भी कैलाश के प्रवेशद्वार पर ध्यानमग्न होकर बैठ गए। देवराज इंद्र ने सोचा कि वहां पर बैठा हुआ व्यक्ति कोई मुनि या यति होगा। उन्होंने पूछा, "तपस्वी, यह बताइए, इस वक्त कैलाशपति शिव जी अपने निवास में हैं या नहीं?" परंतु यति ने कोई उत्तर नहीं दिया।
इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने कहा, "अरे दुष्ट, तुम मेरी उपेक्षा करते हो, लो इसका फल भोगो।" यह कहकर देवेंद्र ने उस यति वेषधारी पर बज्र का प्रहार करनपा चाहा। परम परमेश्वर ने इंद्र के हाथ को स्तंभित करके अपने त्रिनेत्र की ज्वाला से देवराज को भस्म करना चाहा। देवगुरु बृहस्पति ने भांप लिया कि यति वषधरी साक्षात् परमेश्वर हैं। उन्होंने शिव जी के चरणों पर गिरकर प्रार्थना की, "हे महादेव, हे शंकर, हे परमेश्वर, हे रूद्र, हे आपत्बांधव, हम आपकी शरण में आए हैं। आप कृपा करके देवराज इंद्र की जल्दबाजी का क्षमा करें।"
भोले शंकर बृहस्पति की स्तुति पर प्रसन्न होकर बोले, "देवगुरु, अब आप ही बताइए कि मैं अपने इस त्रिनेत्र की अग्नि-ज्वाला को कहां पर विसर्जित करूं?" देवगुरु बृहस्पति ने परमेश्वर को सलाह दी कि वे अपनी ज्वाला को समुद्र में छोड़ दें।
समुद्र में विसर्जित शिव जी की नेत्राग्नि से एक बालक का उदय हुआ। समुद्रराज उस बालक को देख आह्लादित होकर प्यार करने लगे। उसी समय वहां पर ब्रह्मा आ पहुंचे। समुद्रराज ने उस बालक की जन्मकुंडली जाननी चाही। ब्रह्मा ने बताया, "यह बालक यशस्वी बनकर तीनों लोकों पर शासन करेगा और इसकी पत्नी अपने पतिव्रत्य के कारण सर्वत्र पूजित होगी।"
ब्रह्मा बालक का भविष्य बता ही रहे थे कि बालक ने ब्रह्मा की गर्दन पकड़कर मरोड़ने का प्रयत्न किया। बड़ी मुश्किल से ब्रह्मा ने उस की पकड़ से अपनी गर्दन छुड़ाई, लेकिन उनका कंठ कम जाने के कारण उनकी आँखों से जल निकलकर धरती पर गिर पड़ा। इसलिए ब्रह्मा ने उस बालक का नामकरण किया-'जलंधर'।
यही बालक कालांतर में असुर-गुरु शुक्राचार्य का शिष्य बना और कालांतर में कालनेमि की पुत्री बृंदा के साथ विवाह करके गृहस्थ बना। उनका दांपत्य जीवन बहुत ही सुखमय रहा। जलंधर का शासन निवर्धन संपन्न होता रहा। एक दिन राजसभा में राहु की विकृत आकृति को देख जलंधर ने दानवाचार्य शुक्राचार्य से इसका कारण पूछा। शुक्राचार्य ने संक्षेप में यह वृत्तांत सुनाया, "देव-दानवों ने मंथर पर्वत को मथनी तथा बासु के सर्प को नेती बनाकर समुद्र का मंथन किया। तब अंत में अमृत निकला। अमृत बांटते समय राहु और केतु को देवताओं की पंक्ति में बैठे देखकर सूर्य और चंद्र ने यह समाचार विष्णु को दिया। इस पर विष्णु ने अपने सुदर्शन-चक्र से उनके कंठ काट डाले।"
यह वृत्तांत सुनकर जलंधर क्रोध में आ गए, क्योंकि उनके पिता समुद्रराज का मंथन करके उनको सताया गया और उससे प्राप्त अमृत का सेवन किया गया। इसलिए उन्होंने देवराज इंद्र के पास दूत द्वारा संदेशा भेजा, "आप लोगों ने मेरे पिताश्री को मथकर उनसे प्राप्त सभी वस्तुओं पर अधिकार कर लिया है। इसलिए वे सारी चीजें तत्काल मुझे सौंप दीजिए, वरना इसका परिणाम अत्यंत कठोर होगा।"
इसके उत्तर में सुरपति ने कहला भेजा, "हमने जो कुछ किया, उचित ही किया है। यदि तुम अहंकार में आकर हमारे साथ युद्ध करना चाहोगे तो तुम्हारा सर्वनाश होगा।" दूत द्वारा संदेश पाकर जलंधर ने क्रुद्ध हो देवताओं पर युद्ध घोषित किया। शुक्राचार्य की रक्षा-मंत्री नियुक्त करके उनके नेतृत्व में सुरपुरी अमरावती पर हमला बोल दिया। उधर देवताओं ने सुरगुरु बृहस्पति के मार्गदर्शन में राक्षस सेना का सामना किया। लंबे समय तक देव-दानवों के बीच तुमुल युद्ध होता रहा।
कई दिनों तक युद्ध करने के बाद निराश हो विष्णु ने जलंधर से वर मांगने को कहा। जलंधर ने वर मांगने से तिरस्कार करके कहा, "आपके वरदानों की मुझे आवश्यकता नहीं है। आपसे केवल मेरा अनुरोध यही है कि आप मेरी सहादरी समुद्रपुत्री लक्ष्मी के साथ समुद्र में रह जाइए।" जलंधर का अनुरोध स्वीकार करके विष्णु क्षीर-सागर में शयन करते हुए लक्ष्मी समेत रहने लगे।
जलंधर ने अमरावती पर अधिकार कर लिया। देवता इस बार शिव जी के आश्रय में गए। शिव जी ने देवताओं को अभयदान देकर भेज दिया। नारद को बुलवाकर समझाया, "आप अपनी चतुरोक्तियों से मेरे और जलंधर के बीच वैर पैदा कीजिए।" नारद ने जलंधर के पास जाकर शिव जी के वैभव का वर्णन किया और बताया कि उनके ऐश्वर्य और यश का कारण पार्वती है। यदि आप पार्वती को अपने वश में कर लोगे तो फिर क्या, आठों सिद्धियां आपके द्वार पर पहरा देंगी।
जलंधर लोभ में आ गए। उन्होंने जगन्माता पार्वती को अपने वश में करने का संकल्प किया और नवरत्न खचित स्वर्ण-रथ पर आरूढ़ हो सेना समेत कैलाश जाकर युद्धभेरी बजवा दी। कैलाशपति ने जलंधर का मनोरथ भांप लिया और वृद्ध का रूप धारण कर जलंधर के सामने प्रत्यक्ष हुए। जलंधर ने परमेश्वर को आदेश दिया, "ऐ बूढ़े! तुम शिव जी से कह दो, उस भिखारी के लिए पार्वती की क्या आवश्यकता है। वह मेरी रानी बनने योग्य है। इसलिए उनसे कह दो कि वह इसी वक्त पार्वती को मेरे हाथ सौंप दे।"
वृद्ध वस्त्रधारी परमेश्वर ने क्रुद्ध होकर कहा, "अबे, सुनो! यदि तुम सचमुच बल और पराक्रम रखते हो तो इस सुदर्शन को उठाकर अपने सिर पर रख लो। तब मैं समझूंगा कि तुम त्रिलोचन को पराजित कर सकते हो।" वृद्ध की चुनौती सुनकर जलंधर ने धमकी दी, "तुम मेरी परीक्षा लेना चाहते हो। मेरा संदेशा महेश्वर तक पहुंचा दो, वरना मैं इसी वक्त तुम्हारा वध कर डालूंगा।"
वृद्ध की सहनशीलता जाती रही। उन्होंने सुदर्शन उठाकर जलंधर के सिर पर प्रहार किया। जलंधर का शरीर दो टुकड़ों में विभक्त हो गया और उनका तेज परम शिव में लीन हो गया। इसके उपरांत शिव जी ने जलधर की सेना को त्रिनेत्र की जवाला से भस्म कर डाला।
जलंधर की मृत्यु पर देवताओं ने हर्षित होकर शिव जी पर पुष्प वृष्टि की। उधर श्रीमहाविष्णु जलंधर की पत्नी 'बृंदा' के अद्भुत सौंदर्य पर पहले से ही मोहित थे। अब उनके साथ सह-शयन करने की आशा से प्रेरित होकर उन्होंने जलंधर के शरीर के कटे टुकड़ों को एक स्थान पर सुरक्षित रखा और एक वृद्ध यति का रूप धारण कर दो बंदरों को साथ लेकर जलंधर के उद्यान में पहुंचे।
उसी समय बृंदा अपने पति के आगमन की प्रतीक्षा में अपनी सखियों के साथ उद्यान में आ पहुंची। उद्यान के एक कोने में भगवान के स्मरण के शब्द सुनाई दिए। बृंदा ने देखा, एक वृद्ध यति ध्यानमग्न बैठे हुए हैं। बृंदा ने अपने पति के कुशल-क्षेम का स्मरण करते हुए यति के चरणों में प्रणाम किया। वृद्ध यति ने बंदरों को संकेत किया। वे वानर जलंधर के शरीर के कटे अंग उठा लाए। बृंदा अपने मति को मृत अवस्था में देख मूर्छित हो गई। होश में आकर उसने वृद्ध यति से निवेदन किया कि वे जलंधर को जीवित कर दें।
यति ने बृंदा को समझाया, "तुम अपने पति के शरीर के इन टुकड़ों को घर ले जाकर ठीक से धो लो, फिर इन्हें जोड़कर इन पर चंदन का लेप करो, तुम्हारा पति जीवित हो जाएगा।" बृंदा ने यति के आदेश का पालन किया। विष्णु ने वानरों को भेजकर योग-शक्ति के बल पर जलंधर के शरीर में प्रवेश किया। बृंदा ने सोचा कि उसका पति पुनर्जीवित हो उठा है। परम प्रसन्न हो उसके साथ गाढ़ालिंगन किया। विष्णु बृंदा के महलों में बहुत समय तक सुख भोगते रहे।
काल की महिमा बड़ी विचित्र होती है। एक दिन श्रीमहाविष्णु अकेले गाढ़ी निद्रा में निमग्न थे। बृंदा अपने को ठीक-ठाक से अलंकृत कर उनके समीप पहुंची। उसने देखा कि जलंधर के शरीर के टुकड़ों के बीच श्यामवर्णी देह को लिए श्रीमहाविष्णु शयन किए हुए हैं।
ब्रन्दा ने क्रोध में आकर कहा, "हे धूर्त। तुमने मेरे साथ विश्वासघात किया, प्रवंचना की, तुमको मैंने अपना पति समझा। मेरा ह्रदय निर्मल है। तुम्हारी पत्नी भी इसी प्रकार एक व्यक्ति के हाथ में पड़कर तुम्हारे अपयश का कारण बनेगी। उस समय ये ही वानर तुम्हारी सहायता करेंगे।" यों शाप देकर अपने पति के शव को जलाने के लिए चिता बनाई और उसी चिताग्नि मे बृंदा ने अपने प्राणों की आहुति दी।
विष्णु भी बृंदा के विरह में उसी चिता में बैठे रहे। इस पर लक्ष्मी देवी और देवताओं ने शिव जी के पास जाकर प्रार्थना की। परमेश्वर ने महामाया, मूल प्रकृति अंबिका को इस कार्य में नियुक्त किया। अंबिका ने नीन शक्तिमय बीज विष्णु के हाथ में देकर बृंदा की चिता पर फेंकने को कहा। विष्णु ने उसका पालन किया। तब चिता से धात्री यानी आंवला, तुलसी और मालती पौधे उग आए। उनकी गंध को सूंघते ही विष्णु मोह-ताप से मुक्त होकर बैकुंठ में चले गए। उसी समय से विष्णु के लिए धात्री और तुलसी पौधे अधिक प्रिय बन गए हैं।
इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने कहा, "अरे दुष्ट, तुम मेरी उपेक्षा करते हो, लो इसका फल भोगो।" यह कहकर देवेंद्र ने उस यति वेषधारी पर बज्र का प्रहार करनपा चाहा। परम परमेश्वर ने इंद्र के हाथ को स्तंभित करके अपने त्रिनेत्र की ज्वाला से देवराज को भस्म करना चाहा। देवगुरु बृहस्पति ने भांप लिया कि यति वषधरी साक्षात् परमेश्वर हैं। उन्होंने शिव जी के चरणों पर गिरकर प्रार्थना की, "हे महादेव, हे शंकर, हे परमेश्वर, हे रूद्र, हे आपत्बांधव, हम आपकी शरण में आए हैं। आप कृपा करके देवराज इंद्र की जल्दबाजी का क्षमा करें।"
भोले शंकर बृहस्पति की स्तुति पर प्रसन्न होकर बोले, "देवगुरु, अब आप ही बताइए कि मैं अपने इस त्रिनेत्र की अग्नि-ज्वाला को कहां पर विसर्जित करूं?" देवगुरु बृहस्पति ने परमेश्वर को सलाह दी कि वे अपनी ज्वाला को समुद्र में छोड़ दें।
समुद्र में विसर्जित शिव जी की नेत्राग्नि से एक बालक का उदय हुआ। समुद्रराज उस बालक को देख आह्लादित होकर प्यार करने लगे। उसी समय वहां पर ब्रह्मा आ पहुंचे। समुद्रराज ने उस बालक की जन्मकुंडली जाननी चाही। ब्रह्मा ने बताया, "यह बालक यशस्वी बनकर तीनों लोकों पर शासन करेगा और इसकी पत्नी अपने पतिव्रत्य के कारण सर्वत्र पूजित होगी।"
ब्रह्मा बालक का भविष्य बता ही रहे थे कि बालक ने ब्रह्मा की गर्दन पकड़कर मरोड़ने का प्रयत्न किया। बड़ी मुश्किल से ब्रह्मा ने उस की पकड़ से अपनी गर्दन छुड़ाई, लेकिन उनका कंठ कम जाने के कारण उनकी आँखों से जल निकलकर धरती पर गिर पड़ा। इसलिए ब्रह्मा ने उस बालक का नामकरण किया-'जलंधर'।
यही बालक कालांतर में असुर-गुरु शुक्राचार्य का शिष्य बना और कालांतर में कालनेमि की पुत्री बृंदा के साथ विवाह करके गृहस्थ बना। उनका दांपत्य जीवन बहुत ही सुखमय रहा। जलंधर का शासन निवर्धन संपन्न होता रहा। एक दिन राजसभा में राहु की विकृत आकृति को देख जलंधर ने दानवाचार्य शुक्राचार्य से इसका कारण पूछा। शुक्राचार्य ने संक्षेप में यह वृत्तांत सुनाया, "देव-दानवों ने मंथर पर्वत को मथनी तथा बासु के सर्प को नेती बनाकर समुद्र का मंथन किया। तब अंत में अमृत निकला। अमृत बांटते समय राहु और केतु को देवताओं की पंक्ति में बैठे देखकर सूर्य और चंद्र ने यह समाचार विष्णु को दिया। इस पर विष्णु ने अपने सुदर्शन-चक्र से उनके कंठ काट डाले।"
यह वृत्तांत सुनकर जलंधर क्रोध में आ गए, क्योंकि उनके पिता समुद्रराज का मंथन करके उनको सताया गया और उससे प्राप्त अमृत का सेवन किया गया। इसलिए उन्होंने देवराज इंद्र के पास दूत द्वारा संदेशा भेजा, "आप लोगों ने मेरे पिताश्री को मथकर उनसे प्राप्त सभी वस्तुओं पर अधिकार कर लिया है। इसलिए वे सारी चीजें तत्काल मुझे सौंप दीजिए, वरना इसका परिणाम अत्यंत कठोर होगा।"
इसके उत्तर में सुरपति ने कहला भेजा, "हमने जो कुछ किया, उचित ही किया है। यदि तुम अहंकार में आकर हमारे साथ युद्ध करना चाहोगे तो तुम्हारा सर्वनाश होगा।" दूत द्वारा संदेश पाकर जलंधर ने क्रुद्ध हो देवताओं पर युद्ध घोषित किया। शुक्राचार्य की रक्षा-मंत्री नियुक्त करके उनके नेतृत्व में सुरपुरी अमरावती पर हमला बोल दिया। उधर देवताओं ने सुरगुरु बृहस्पति के मार्गदर्शन में राक्षस सेना का सामना किया। लंबे समय तक देव-दानवों के बीच तुमुल युद्ध होता रहा।
कई दिनों तक युद्ध करने के बाद निराश हो विष्णु ने जलंधर से वर मांगने को कहा। जलंधर ने वर मांगने से तिरस्कार करके कहा, "आपके वरदानों की मुझे आवश्यकता नहीं है। आपसे केवल मेरा अनुरोध यही है कि आप मेरी सहादरी समुद्रपुत्री लक्ष्मी के साथ समुद्र में रह जाइए।" जलंधर का अनुरोध स्वीकार करके विष्णु क्षीर-सागर में शयन करते हुए लक्ष्मी समेत रहने लगे।
जलंधर ने अमरावती पर अधिकार कर लिया। देवता इस बार शिव जी के आश्रय में गए। शिव जी ने देवताओं को अभयदान देकर भेज दिया। नारद को बुलवाकर समझाया, "आप अपनी चतुरोक्तियों से मेरे और जलंधर के बीच वैर पैदा कीजिए।" नारद ने जलंधर के पास जाकर शिव जी के वैभव का वर्णन किया और बताया कि उनके ऐश्वर्य और यश का कारण पार्वती है। यदि आप पार्वती को अपने वश में कर लोगे तो फिर क्या, आठों सिद्धियां आपके द्वार पर पहरा देंगी।
जलंधर लोभ में आ गए। उन्होंने जगन्माता पार्वती को अपने वश में करने का संकल्प किया और नवरत्न खचित स्वर्ण-रथ पर आरूढ़ हो सेना समेत कैलाश जाकर युद्धभेरी बजवा दी। कैलाशपति ने जलंधर का मनोरथ भांप लिया और वृद्ध का रूप धारण कर जलंधर के सामने प्रत्यक्ष हुए। जलंधर ने परमेश्वर को आदेश दिया, "ऐ बूढ़े! तुम शिव जी से कह दो, उस भिखारी के लिए पार्वती की क्या आवश्यकता है। वह मेरी रानी बनने योग्य है। इसलिए उनसे कह दो कि वह इसी वक्त पार्वती को मेरे हाथ सौंप दे।"
वृद्ध वस्त्रधारी परमेश्वर ने क्रुद्ध होकर कहा, "अबे, सुनो! यदि तुम सचमुच बल और पराक्रम रखते हो तो इस सुदर्शन को उठाकर अपने सिर पर रख लो। तब मैं समझूंगा कि तुम त्रिलोचन को पराजित कर सकते हो।" वृद्ध की चुनौती सुनकर जलंधर ने धमकी दी, "तुम मेरी परीक्षा लेना चाहते हो। मेरा संदेशा महेश्वर तक पहुंचा दो, वरना मैं इसी वक्त तुम्हारा वध कर डालूंगा।"
वृद्ध की सहनशीलता जाती रही। उन्होंने सुदर्शन उठाकर जलंधर के सिर पर प्रहार किया। जलंधर का शरीर दो टुकड़ों में विभक्त हो गया और उनका तेज परम शिव में लीन हो गया। इसके उपरांत शिव जी ने जलधर की सेना को त्रिनेत्र की जवाला से भस्म कर डाला।
जलंधर की मृत्यु पर देवताओं ने हर्षित होकर शिव जी पर पुष्प वृष्टि की। उधर श्रीमहाविष्णु जलंधर की पत्नी 'बृंदा' के अद्भुत सौंदर्य पर पहले से ही मोहित थे। अब उनके साथ सह-शयन करने की आशा से प्रेरित होकर उन्होंने जलंधर के शरीर के कटे टुकड़ों को एक स्थान पर सुरक्षित रखा और एक वृद्ध यति का रूप धारण कर दो बंदरों को साथ लेकर जलंधर के उद्यान में पहुंचे।
उसी समय बृंदा अपने पति के आगमन की प्रतीक्षा में अपनी सखियों के साथ उद्यान में आ पहुंची। उद्यान के एक कोने में भगवान के स्मरण के शब्द सुनाई दिए। बृंदा ने देखा, एक वृद्ध यति ध्यानमग्न बैठे हुए हैं। बृंदा ने अपने पति के कुशल-क्षेम का स्मरण करते हुए यति के चरणों में प्रणाम किया। वृद्ध यति ने बंदरों को संकेत किया। वे वानर जलंधर के शरीर के कटे अंग उठा लाए। बृंदा अपने मति को मृत अवस्था में देख मूर्छित हो गई। होश में आकर उसने वृद्ध यति से निवेदन किया कि वे जलंधर को जीवित कर दें।
यति ने बृंदा को समझाया, "तुम अपने पति के शरीर के इन टुकड़ों को घर ले जाकर ठीक से धो लो, फिर इन्हें जोड़कर इन पर चंदन का लेप करो, तुम्हारा पति जीवित हो जाएगा।" बृंदा ने यति के आदेश का पालन किया। विष्णु ने वानरों को भेजकर योग-शक्ति के बल पर जलंधर के शरीर में प्रवेश किया। बृंदा ने सोचा कि उसका पति पुनर्जीवित हो उठा है। परम प्रसन्न हो उसके साथ गाढ़ालिंगन किया। विष्णु बृंदा के महलों में बहुत समय तक सुख भोगते रहे।
काल की महिमा बड़ी विचित्र होती है। एक दिन श्रीमहाविष्णु अकेले गाढ़ी निद्रा में निमग्न थे। बृंदा अपने को ठीक-ठाक से अलंकृत कर उनके समीप पहुंची। उसने देखा कि जलंधर के शरीर के टुकड़ों के बीच श्यामवर्णी देह को लिए श्रीमहाविष्णु शयन किए हुए हैं।
ब्रन्दा ने क्रोध में आकर कहा, "हे धूर्त। तुमने मेरे साथ विश्वासघात किया, प्रवंचना की, तुमको मैंने अपना पति समझा। मेरा ह्रदय निर्मल है। तुम्हारी पत्नी भी इसी प्रकार एक व्यक्ति के हाथ में पड़कर तुम्हारे अपयश का कारण बनेगी। उस समय ये ही वानर तुम्हारी सहायता करेंगे।" यों शाप देकर अपने पति के शव को जलाने के लिए चिता बनाई और उसी चिताग्नि मे बृंदा ने अपने प्राणों की आहुति दी।
विष्णु भी बृंदा के विरह में उसी चिता में बैठे रहे। इस पर लक्ष्मी देवी और देवताओं ने शिव जी के पास जाकर प्रार्थना की। परमेश्वर ने महामाया, मूल प्रकृति अंबिका को इस कार्य में नियुक्त किया। अंबिका ने नीन शक्तिमय बीज विष्णु के हाथ में देकर बृंदा की चिता पर फेंकने को कहा। विष्णु ने उसका पालन किया। तब चिता से धात्री यानी आंवला, तुलसी और मालती पौधे उग आए। उनकी गंध को सूंघते ही विष्णु मोह-ताप से मुक्त होकर बैकुंठ में चले गए। उसी समय से विष्णु के लिए धात्री और तुलसी पौधे अधिक प्रिय बन गए हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें