यूं तो करीब-करीब सभी देवी मंदिरों में बलि चढ़ाने की परम्परा है, लेकिन बिहार में कैमूर जिले के मां मुंडेश्वरी धाम में बलि की सात्विक परम्परा है, जो किसी अन्य मंदिर में नहीं है। यहां बलि अवश्य दी जाती है, लेकिन किसी भी जीव का जीवन नहीं लिया जाता।
मंदिर के एक पुजारी ने बताया, "यहां बकरे की बलि देने की प्रथा है, लेकिन जीव को जान से नहीं मारा जाता। बकरे को माता के चरणों में समर्पित कर पुजारी उस पर अक्षत-पुष्प डालते हैं और उसका संकल्प करवा दिया जाता है। इसके बाद उसे भक्त को वापस दे दिया जाता है।" उन्होंने हालांकि माना कि श्रद्धालु बकरे को घर ले जाकर हत्या कर देते हैं और उसका मांस प्रसाद के रूप में बांट देते हैं। लेकिन उन्होंने कहा कि किसी भी जीव की हत्या यहां मंदिर परिसर में नहीं की जाती।
कैमूर जिला मुख्यालय से करीब 10-11 किलोमीटर दूर पंवरा पहाड़ी पर स्थित मुंडेश्वरी धाम में ऐसे तो सालभर श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है और लोग अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए यहां मां से आर्शीवाद मांगने आते हैं, लेकिन शारदीय एवं चैत्र नवरात्र के मौके पर यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ होती है। माघ और चैत्र महीने में यहां यज्ञ का भी आयोजन किया जाता है।
इस प्राचीन मंदिर के निर्माण काल की जानकारी यहां के शिलालेखों से होती है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, मंदिर परिसर में मिले शिलालेखों से जाहिर होता है कि इसका निर्माण 635-636 ईस्वी के बीच किया गया। ऐसा माना जाता है कि मुंडेश्वरी के इस अष्टकोणीय मंदिर का निर्माण महराजा उदय सेन के शासनकाल में किया गया था।
बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष और भातीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे किशोर कुणाल ने कहा कि वर्ष 2007 में इस ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल का अधिग्रहण न्यास परिषद ने किया। दुर्गा के वैष्णवी रूप को ही मां मुंडेश्वरी धाम में स्थापित किया गया है। मुंडेश्वरी की प्रतिमा वाराही देवी की प्रतिमा के रूप में है, क्योंकि इनका वाहन महिष है।
मंदिर का मुख्य द्वारा दक्षिण की ओर है। 608 फुट ऊंची पहाड़ी पर बने इस मंदिर के बारे में कुछ इतिहासकारों का कहना है कि यह 108 ईस्वी में शक शासनकाल में बनाया गया। यह शासनकाल गुप्त शासनकाल के पूर्व का बताया जाता है।
इतिहासकार बताते हैं कि मंदिर परिसर में पाए गए कुछ शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं, जबकि गुप्त शासनकाल में पाणिनी के प्रभाव के कारण संस्कृत का उपयोग किया जाता था। यहां 1,900 वर्षो से पूजा हो रही है। यहां अष्टाकार गर्भगृह तब से आज तक कायम है। गर्भगृह के कोने में देवी की मूर्ति है, जबकि बीच में चतुर्मुखी शिवलिंग है।
बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष कुणाल ने बताया कि मंदिर पहाड़ी पर है, जिस कारण समय-समय पर इसे प्राकृतिक आपदा झेलनी पड़ती है, जिससे इस स्थल का क्षरण होता रहा है।
पहाड़ी पर आज भी कई मूर्तियों के भग्नावशेष हैं। उन्होंने बताया कि वर्ष 1968 में पुरातत्व विभाग ने यहां से प्राप्त 68 मूर्तियों को पटना संग्रहालय में रखवा दिया। इसके अतिरिक्त यहां से मिली कुछ मूर्तियां कोलकाता संग्रहालय की भी शोभा बढ़ा रही हैं। बिहार सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग की ओर से जारी कैलेंडर में भी मां मुंडेश्वरी धाम का चित्र है।
कुणाल ने बताया कि पर्यटन विभाग और न्यास परिषद इस क्षेत्र में श्रद्घालुओं को सुविधा देने के लिए कई कार्य कर रहे हैं। मुंडेश्वरी धाम की महिमा वैष्णव देवी और ज्वाला देवी जैसी मानी जाती है।
मंदिर के एक पुजारी ने बताया, "यहां बकरे की बलि देने की प्रथा है, लेकिन जीव को जान से नहीं मारा जाता। बकरे को माता के चरणों में समर्पित कर पुजारी उस पर अक्षत-पुष्प डालते हैं और उसका संकल्प करवा दिया जाता है। इसके बाद उसे भक्त को वापस दे दिया जाता है।" उन्होंने हालांकि माना कि श्रद्धालु बकरे को घर ले जाकर हत्या कर देते हैं और उसका मांस प्रसाद के रूप में बांट देते हैं। लेकिन उन्होंने कहा कि किसी भी जीव की हत्या यहां मंदिर परिसर में नहीं की जाती।
कैमूर जिला मुख्यालय से करीब 10-11 किलोमीटर दूर पंवरा पहाड़ी पर स्थित मुंडेश्वरी धाम में ऐसे तो सालभर श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है और लोग अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए यहां मां से आर्शीवाद मांगने आते हैं, लेकिन शारदीय एवं चैत्र नवरात्र के मौके पर यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ होती है। माघ और चैत्र महीने में यहां यज्ञ का भी आयोजन किया जाता है।
इस प्राचीन मंदिर के निर्माण काल की जानकारी यहां के शिलालेखों से होती है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, मंदिर परिसर में मिले शिलालेखों से जाहिर होता है कि इसका निर्माण 635-636 ईस्वी के बीच किया गया। ऐसा माना जाता है कि मुंडेश्वरी के इस अष्टकोणीय मंदिर का निर्माण महराजा उदय सेन के शासनकाल में किया गया था।
बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष और भातीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे किशोर कुणाल ने कहा कि वर्ष 2007 में इस ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल का अधिग्रहण न्यास परिषद ने किया। दुर्गा के वैष्णवी रूप को ही मां मुंडेश्वरी धाम में स्थापित किया गया है। मुंडेश्वरी की प्रतिमा वाराही देवी की प्रतिमा के रूप में है, क्योंकि इनका वाहन महिष है।
मंदिर का मुख्य द्वारा दक्षिण की ओर है। 608 फुट ऊंची पहाड़ी पर बने इस मंदिर के बारे में कुछ इतिहासकारों का कहना है कि यह 108 ईस्वी में शक शासनकाल में बनाया गया। यह शासनकाल गुप्त शासनकाल के पूर्व का बताया जाता है।
इतिहासकार बताते हैं कि मंदिर परिसर में पाए गए कुछ शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं, जबकि गुप्त शासनकाल में पाणिनी के प्रभाव के कारण संस्कृत का उपयोग किया जाता था। यहां 1,900 वर्षो से पूजा हो रही है। यहां अष्टाकार गर्भगृह तब से आज तक कायम है। गर्भगृह के कोने में देवी की मूर्ति है, जबकि बीच में चतुर्मुखी शिवलिंग है।
बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष कुणाल ने बताया कि मंदिर पहाड़ी पर है, जिस कारण समय-समय पर इसे प्राकृतिक आपदा झेलनी पड़ती है, जिससे इस स्थल का क्षरण होता रहा है।
पहाड़ी पर आज भी कई मूर्तियों के भग्नावशेष हैं। उन्होंने बताया कि वर्ष 1968 में पुरातत्व विभाग ने यहां से प्राप्त 68 मूर्तियों को पटना संग्रहालय में रखवा दिया। इसके अतिरिक्त यहां से मिली कुछ मूर्तियां कोलकाता संग्रहालय की भी शोभा बढ़ा रही हैं। बिहार सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग की ओर से जारी कैलेंडर में भी मां मुंडेश्वरी धाम का चित्र है।
कुणाल ने बताया कि पर्यटन विभाग और न्यास परिषद इस क्षेत्र में श्रद्घालुओं को सुविधा देने के लिए कई कार्य कर रहे हैं। मुंडेश्वरी धाम की महिमा वैष्णव देवी और ज्वाला देवी जैसी मानी जाती है।
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