इस तरह विश्वामित्र को मिली ब्रह्मज्ञान की शिक्षा

चंद्रमा धीरे-धीरे काले बादलों में से लुकता-छिपता निकल रहा था। वायु के साथ-साथ नदी नाचती,बल खाती जा रही थी। कहीं चांदनी छिटकी थी, कहीं अंधेरा छाया था। बड़ा ही सुंदर दृश्य था। 

चारों ओर ऋषियों के आश्रम थे। एक-एक आश्रम नंदन वन को मात करता था। हर एक ऋषि की कुटिया फूल के पेड़ों और बेलों से घिरी थी। अद्भुत शोभा थी वहां की। ऐसी ही एक रात थी, जब चांदनी छिटकी हुई थी। ब्रह्मर्षि वसिष्ठ अपनी सहधर्मिणी अरुन्धती से कह रहे थे, "देवी! ऋषि विश्वामित्र के यहां जाकर जरा-से नमक की भीख मांग लाओ।"

इस बात से विस्मित होकर अरुन्धती ने कहा, "यह कैसी आज्ञा दी आपने? मैं तो कुछ भी समझ नहीं पाई। जिसने मुझे सौ पुत्रों से वंचित किया.." कहते-कहते उनका गला भर गया। उन्होंने आगे कहा कि मेरे सौ बेटे ऐसी ही ज्योत्स्ना-शोभित रात्रि में वेद-पाठ करते-फिरते थे। मेरे सौ-के-सौ पुत्र वेदज्ञ और ब्रह्मनिष्ठ थे। मेरे उन सौ पुत्रों को नष्ट कर दिया, आप उसी के आश्रम से लवण-भिक्षा करने के लिए कह रहे हैं? मैं कुछ नहीं समझ पातीं।

धीरे-धीरे ऋषि के चेहरे पर एक प्रकाश आता गया। धीरे-धीरे सागर-गंभीर हृदय से यह वाक्य निकला, "लेकिन, देवी, मुझे उससे प्रेम है। अरुन्धती और भी चकरा गईं। उन्होंने कहा कि आपको उनसे प्रेम है तो एक बार 'ब्रह्मर्षि' कह दिया होता। इससे सारा जंजाल मिट जाता और मुझे अपने सौ पुत्रों से हाथ न धोने पड़ते।

ऋषि के मुख पर एक अपूर्व आभा दिखाई दी। उन्होंने कहा कि मुझे उससे प्रेम है, इसलिए उसे 'ब्रह्मर्षि' नहीं कहता। मैं उसे ब्रह्मर्षि नहीं कहता, इसलिए उसके ब्रह्मर्षि होने की आशा है।

आज विश्वामित्र क्रोध के मारे ज्ञान-शून्य हैं। तपस्या में उनका मन नहीं लग रहा। उन्होंने निश्चय किया है कि आज भी वसिष्ठ उन्हें ब्रह्मर्षि न कहें तो उनके प्राण ले लेंगे। अपना संकल्प पूरा करने के लिए वह हाथ में तलवार लेकर कुटी से बाहर निकले।

उन्होंने वसिष्ठ की उपर्युक्त सारी बातचीत सुन ली। तलवार की मूंठ पर हाथ की पकड़ ढीली हो गई। सोचा, "आह! क्या कर डाला मैंने! बिना जाने कितना अन्याय कर डाला! बिना जाने किसके निर्विकार चित्त की व्यथा पहुंचाने की कोशिश की!" हृदय में सैकड़ों बिच्छुओं के काटने की वेदना होने लगी। पश्चताप से हृदय जल उठा। दौड़े-दौड़े गये और वसिष्ठ के चरणों पर गिर पड़े।

कुछ देर तक मुंह से बोल न फूटे। अपने आपे में आये तो विश्वामित्र ने कहा, "क्षमा कीजिये, यद्यपि मैं क्षमा के अयोग्य हूं।" और कोई शब्द मुंह से न निकला। इधर वसिष्ठ ने क्या किया? दोनों हाथ पकड़कर उठाते हुए बोले, "उठो ब्रह्मर्षि, उठो।"

विश्वामित्र लज्जित हो गये। बोले, "प्रभो! क्यों लज्जित करते हैं?" वसिष्ठ ने उत्तर दिया, "मैं कभी झूठ नहीं बोला करता। आज तुम ब्रह्मर्षि बन गये हो, आज तुमने अभिमान त्याग दिया है। आज तुमने ब्रह्मर्षि-पद पाया है।"

विश्वामित्र ने कहा, "आप मुझे ब्रह्मविद्या-दान दीजिये।" वसिष्ठ बोले, "अनंत देव (शेषनाग) के पास जाओ, वे ही तुम्हें ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देंगे।" विश्वामित्र वहां जा पहुंचे, जहां अनंत देव पृथ्वी को मस्तक पर रखे हुए थे। अनंत देव ने कहा, "मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञान तभी दे सकता हूं जब तुम इस पृथ्वी को अपने सिर पर धारण कर सको, जिसे मैं धारण किये हुए हूं।"

तपोबल के गर्व से विश्वामित्र ने कहा, "आप पृथ्वी को छोड़ दीजिये, मैं उसे धारण कर दूंगा।" अनंत देव ने कहा, "अच्छा, तो लो, मैं छोड़े देता हूं।" और पृथ्वी घूमते-घूमते गिरने लगी। विश्वामित्र ने कहा, "मैं अपनी सारी तपस्या का फल देता हूं। पृथ्वी! रुक जाओ।" फिर भी पृथ्वी स्थिर न हो पाई।

अनंत देव ने उच्च स्वर में कहा, "विश्वामित्र, पृथ्वी को धारण करने के लिए तुम्हारी तपस्या काफी नहीं है। तुमने कभी साधु-संग किया है? उसका फल अर्पण करो।" विश्वामित्र बोले, "क्षणभर के लिए वसिष्ठ के साथ रहा हूं।" अनंत देव ने कहा, "तो उसी का फल दे दो।" विश्वामित्र बोले, "अच्छा, उसका फल अर्पित करता हूं।" और धरती स्थिर हो गयी। तब विश्वामित्र ने कहा, "देव! अब मुझे आज्ञा दें।"

अनंत देव ने कहा, "मूर्ख विश्वामित्र! जिसके क्षण-भर के सत्संग का फल देकर तुम समस्त पृथ्वी को धारण कर सके, उसे छोड़कर मुझसे ब्रह्मज्ञान मांग रहे हो?" विश्वमित्र क्रुद्ध हो गये। उन्होंने सोचा, "इसका मतलब यह है कि वसिष्ठ मुझे ठग रहे थे।" वे तेजी से वसिष्ठ के यहां जा पहुंचे और बोले, "आपने मुझे इस तरह क्यों ठगा?" वसिष्ठ बोले, "अगर मैं उसी समय तुम्हें ब्रह्मज्ञान दे देता तो तुम्हें विश्वास न होता। इस अनुभव के बाद तुम विश्वास करोगे।" विश्वामित्र ने वसिष्ठ से ब्रह्मज्ञान की शिक्षा पाई।

भारत में ऐसे-ऐसे ऋषि, ऐसे-ऐसे साधु थे। हमारे यहां क्षमा का यह आदर्श था। तपस्या का ऐसा बल था, जिसके द्वारा समस्त पृथ्वी को धारण किया जा सके। भारत में फिर से ऐसे ऋषि जन्म ग्रहण कर रहे हैं, जिनकी प्रभा के आगे प्राचीन ऋषियों की ज्योति फीकी होगी, जो भारत को फिर प्राचीन गौरव की अपेक्षा अधिक गौरवमय स्थान पर प्रतिष्ठित करेंगे।

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