मानव जीवन एक पहेली है। जीवन की इस लम्बी यात्रा में कुछ लोगों के तहत ऐसी घटनाएं अचानक घटित हो जाती हैं, जो उनकी जीवनधारा को ही बदल देती हैं। कब किसके जीवन में कैसी घटनाएं घटित हो सकती हैं, हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। सत्यतप की कथा इसका उत्तम उदाहरण है।
प्राचीन काल में एक बहेलिया रहा करता था। वह राहगीरों को लूटकर अपना पेट पालता था। एक बार वह आरुणि नामक मुनि को मारने गया, फिर भी मुनि मौन रहकर अपने ध्यान में लीन रहे। उन्होंने कोई प्रतिवाद नहीं किया। इस पर बहेलिया विस्मय में आ गया और इस घटना ने उसके दिल में हलचल मचा दी। उसने मुनि के पैरों पर गिरकर निवेदन किया, "महात्मा! आज तक मैंने अनेक लोगों को सताया है, परंतु आप जैसे शांत पुरुष को कभी नहीं देखा। मैं कसम खाकर कान पकड़ता हूं कि भविष्य में कभी ऐसा अपराध नहीं करूंगा। मुझे मुक्ति का मार्ग बताइए।"
परंतु मुनि ने बहेलिए की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। वह अपने रास्ते चल पड़े। बहेलिया भी उनके पीछे चलता रहा। जब वह एक भयंकर जंगल से होकर गुजर रहे थे, तब हठात् एक बाघ मुनि पर हमला कर बैठा। इस पर बहेलिए ने बाघ का सामना करके उसका वध कर डाला और मुनि की रक्षा की। बहेलिए पर मुनि को दया आई। उन्होंने बहेलिए को आशीर्वाद देकर समझाया, "तुम सदा सत्य कहो, वही तुम्हारे लिए मुक्ति का मार्ग बनेगा।"
बहेलिए ने मुनि के वचनों को गुरुमंत्र माना और उसी जंगल में रहकर उसने अन्न-जल त्यागकर तपस्या करना आरंभ किया। एक दिन उस मार्ग से जाते हुए मुनि दुर्वासा बहेलिए की कुटी में आए। बहेलिए ने दुर्वासा का आदरपूर्वक स्वागत किया और आतिथ्य ग्रहण करने की प्रार्थना की। दुर्वासा को आश्चर्य हुआ कि निराहार तप करने वाला यह तापसी उन्हें क्या खिला सकता है। फिर भी उसकी परीक्षा लेने के विचार से बहेलिए की प्रार्थना उन्होंने स्वीकार की।
बहेलिए ने शिव जी का ध्यान किया। शिव जी ने उसे एक मणिमय पात्र दे दिया। उस पात्र के भीतर से बहेलिए के मनवांछित पदार्थ निकलने लगे। फिर क्या था, उसने मुनि दुर्वासा को अत्यंत स्वादिष्ट भोजन कराया। बहेलिए के आतिथ्य से संतुष्ट होकर मुनि ने उसे आशीर्वाद दिया, "तुम नि:संदेह सत्यतप हो।" और इसके बाद वह अपने रास्ते चले गए। उस दिन से बहेलिया सत्यतप कहलाया।
एक दिन की घटना है। सत्यतप वन में लकड़ी काट रहा था। गलती से उनकी एक अंगुली कटकर जमीन पर गिर गई और फिर आकर अपनी जगह पर चिपक गई। वहीं एक वृक्ष पर बैठे किन्नरों ने इस दृश्य को देखा। वे विस्मित हो गए और इंद्र को वृत्तांत सुनाया।
सत्यतप की सत्यनिष्ठा की परीक्षा लेने के लिए इंद्र और उपेंद्र सूअर और बहेलिए का वेश धरकर उसके सामने आए। वह मायावी सूअर भय का अभिनय करते हुए सत्यतप के समीप पहुंचा और उसने सत्यतप से शरण मांगी। सत्यतप ने सूअर को अभयदान दे दिया। थोड़ी देर बाद बहेलिए ने सत्यतप के आश्रम में प्रवेश करके पूछा, "मुनिवर, मैं एक सूअर का शिकार खेल रहा था, वह बचकर भाग निकला और इसी ओर आया है। बताइए, वह कहां है?"
सत्यतप दुविधा में पड़ गया। यदि वह सच्ची बात नहीं बताएगा तो उसे मिथ्या का दोष लगेगा। सच्ची बात बताएगा तो बहेलिया उस सूअर को मार डालेगा। उसने सूअर को शरण दी है, ऐसी हालत में वह शरणागत की रक्षा नहीं कर पाएगा। इस प्रकार विचार करके सत्यतप ने कहा, "महाशय, सूअर को आंखों ने देखा, परंतु वे बोल नहीं सकतीं। मुंह तो आपका जवाब दे सकता है, किंतु उसने तो नहीं देखा। बिना देखे मुंह कैसे बता सकता है कि उसने देख लिया है।"
पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार
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