मनुष्य का जीवन मुख्यतः जन्म से शुरू होता है और मृत्यु पर जाकर रुक जाता है मनुष्यों के जीवन में कई उतार चढ़ाव आते है और जब तक जीवित रहता है इन्ही सब क्रिया कलापों के बीच में फंसा रहता है। मनुष्यों को केवल एक भय रहता है उसकी मृत्यु का। मृत्यु वैसे तो एक ऐसा कडुआ सच है जिससे कोई भी आजतक पार नहीं पाया है लेकिन फिर भी मृत्यु को जीतने का सदैव अथक प्रयास करता रहता है। पौराणिक कथाओं से भी इस बात की पुष्टि होती है कि केवल मनुष्य ही नहीं देवताओं और राक्षसों ने भी अमरत्व पाने के अथक चिंतन किया। राक्षसों ने भी मृत्यु प्र विजय पाने की लिए कई प्रयास किये, ताप किये। लए किन कभी भी सफल नहीं हुए।
वामन पुराण व भागवत पुराण के दसवें स्कंध में मुरासुर नामक एक राक्षस की कथा वर्णित है। कश्यप प्रजापति के एक पुत्र था 'मुर' नामक राक्षस। एक बार देवता व दानवों के बीच भयंकर संग्राम हुआ। उस युद्ध में अनगिनत राक्षस वीर हताहत हुए। उस वीभत्स दृश्य को मुरासुर ने देखा। तभी से वह मृत्यु भय से व्याकुल रहने लगा। आखिर में उसने सोचा कि तपस्या करके मृत्यु पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। उसने कई वर्षो तक ब्रह्मा की घोर तपस्या की। ब्रह्मा उसके सामने प्रकट हुए और वर मांगने को कहा।
मुरासुर ने प्रसन्न होकर कहा, भगवन! मुझ पर कृपा करके ऐसा वरदान दीजिए कि मैं जिसका भी स्पर्श करूं, चाहे वे मृत्यु भय से मुक्त ही क्यों न हों, उनकी तत्काल मृत्यु हो जाए। विधाता ने तथास्तु कहकर उसकी इच्छा पूरी कर दी। इसके बाद मुरासुर के अहंकार की कोई सीमा न रही। वह तीनों लोकों में निर्भय घूमने लगा। देवताओं को ललकार कर युद्ध की चुनौती देने लगा। लेकिन तीनों लोकों के लोग विधाता के वरदान से परिचित थे, इसलिए मुरासुर से युद्ध करने का साहस कोई नहीं करता था।
एक बार मुरासुर सुरपुरी अमरावती पहुंचा और जोर से अट्टहास करते हुए ताल ठोककर सुरपति इंद्र को युद्ध के लिए ललकारा। इंद्र भयभीत हो कहीं छुप गए। इस पर मुरासुर ने देवताओं की कायरता की उपेक्षा की और अमरावती नगर में राजपथों का चक्कर लगाने लगा। इसके बाद उसने इंद्र भवन के पास जाकर चुनौती दी, देवताओं के कायर सम्राट! तुम मेरे साथ युद्ध करो, नहीं तो मेरा आधिपत्य स्वीकार कर मेरे दास बन जाओ। मेरा दास बनना स्वीकार नहीं है तो अमरावती छोड़कर कहीं और चले जाओ।इंद्र प्राणों के भय से अमरपुरी को छोड़ भूलोक में चले गए। इस पर मुरासुर ने इंद्र सदन पर अधिकार कर लिया और ऐरावत व वज्रायुद्ध को अपने अधीन कर लिया। अब वह देवलोक में अमर सुख प्राप्त करते हुए वैभव से अपना समय बिताने लगा।
उधर, पृथ्वीलोक में पहुंचकर इंद्र ने कालिंदी नदी के दक्षिण किनारे अपना निवास बना लिया। उन्हीं दिनों सूर्यवंशी सम्राट रघु सरयू नदी के तट पर यज्ञ कर रहे थे। मुरासुर ऐरावत पर सवार होकर पृथ्वी लोक का भ्रमण करते हुए अयोध्या के पास पहुंचा। यज्ञ में देवताओं को संतुष्ट करने के लिए आहुति देते देख मुरासुर क्रोध में आ गया और यज्ञ वाटिका के पास जाकर बोला, हमारे शत्रु देवताओं की पूजा करते हो। मैं इसे सहन नहीं कर सकता। तुम इसी वक्त या तो यज्ञ बंद करो या मेरे साथ युद्ध करने के लिए तैयार हो जाओ।
यह कार्य में लीन महर्षि वशिष्ट ने मुरासुर की चुनौती सुनकर कहा, हे असुरपति, मानव-मात्र से युद्ध करके आप कौन-सा यश लूटनेवाले हैं? युद्ध तो समान शक्ति और सामथ्र्य रखनेवालों के साथ होता है। जो अजेय हैं, उनसे युद्ध कीजिए। आपका यश तीनों लोकों में फैल जाएगा। मृत्यु के देवता धर्मराज को युद्ध के लिए आमंत्रित कीजिए। वे किसी की परवाह नहीं करते और किसी को क्षमादान भी नहीं देते। यदि आप उनको पराजित कर सके तो समझ लीजिए कि आपने त्रिभुवन पर विजय पा ली है।
महर्षि वशिष्ट की बातें सुनकर मुरासुर उत्तेजित हो गया और वह सीधे यमलोक में घुस गया। उसने यमराज के पास युद्ध के लिए तैयार हो जाने का समाचार भेजा। यमजराज की मुरासुर को ब्रह्मा के लिए वरदान की बात सुन चुके थे, इसलिए उन्होंने डरकर बैकुंठ में जाकर विष्णु की शरण ली। विष्णु ने यमराज को समझाया, तुम एक काम करो, कोई युक्ति करके तुम मुरासुर को मेरे पास भेज दो फिर मैं उसे उचित सबक सिखाऊंगा।
विष्णु का आश्वासन पाकर यमराज यमपुरी पहुंचे। मुरासुर युद्ध के लिए तैयार होकर यमसभा के सामने पहुंचा और उसने आदेश दिया, "सुनो काल। तुम इसी क्षण से मारण होम को बंद करो। वरना मैं अभी तुम्हारा शरीर टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा।
यमराज भय कंपित हो विनयपूर्वक बोले, दानवराज! मैं आपके आदेश का पालन करने के लिए सदा तैयार रहूंगा लेकिन मैं क्या करूं? मुझे अपने प्रभु की आज्ञा का पालन करना पड़ता है। उनके आदेश का उल्लंघन मैं नहीं कर सकता। आप मुझे क्षमा करें।तुम्हारे प्रभु कौन हैं? वे कहां रहते हैं? मुरासुर ने गरजकर पूछा।उन्हें विष्णु कहते हैं। वे जगत के रक्षक हैं। क्षीर सागर में शयन किए रहते हैं। तो सुनो, मैं इसी वक्त तुम्हारे प्रभु के पास जाता हूं, लेकिन तुम्हें मैं सावधान कर देता हूं। मेरे लौटने तक तुम्हें किसी प्राणी का संहार नहीं करना चाहिए। समझे। दानवाधिपति! आप उनको पराजित कीजिए। यदि आप विजयी हुए तो मैं निश्चय ही आपके आदेश का पालन करूंगा। यमरोज ने उत्तर दिया।
मुरासुर विष्णु से लड़ने के लिए निकल पड़ा, लेकिन उस समय विष्णु के स्वरूप बने श्रीकृष्ण नरकासुर पर आक्रमण करने के लिए चले गए थे। यह समाचार मिलते ही मुरासुर नरकासुर की सहायता करने के लिए प्रागज्योतिषपुर पहुंचा। वहां जाकर मुरासुर ने प्रागज्योतिषपुर में चारों ओर रस्सों से नकर को कस दिया। श्रीकृष्ण ने उन रस्सों को काटकर अपने पांचजन्य का शंखनाद किया। शंख ध्वनि सुनकर मुरासुर चौंक उठा और कृष्ण से लड़ने के लिए युद्ध भूमि में आ पहुंचा। मुरासुर के पांच सिर थे। उसने कृष्ण को देखते ही क्रोध में आकर उस पर शूल का प्रहार किया। कृष्ण ने अपने खड्ग से शूल को काट डाला। इसके बाद दोनों के बीच घोर युद्ध हुआ। आखिर में कृष्ण ने रुष्ट हो मुरासुर पर अपने सुदर्शन चक्र का वार किया। एक ही वार में मुरासुर के पंचों सिर काटकर धरती पर लोटने लगे।
श्रीकृष्ण ने मुरासुर का संहार किया, इसलिए उस दिन से वे 'मुरारी' नाम से लोकप्रिय हुए।इस पूरे प्रसंग के लेखक आंध्र प्रदेश के कडपा निवासी हिंदी साहित्यकार हैं। यह कथा उनकी पुस्तक पौराणिक कथाएं के ली गयी है जो सस्ता साहित्य मंडल,नयी दिल्ली से प्रकाशित है।
पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार
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