गंगा दशहरा पर इस तरह करें गंगा मैया की पूजा


गंगा दशहरा हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है । ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को गंगा दशहरा मनाया जाता है। दस दिन चलने वाले इस पर्व का मुख्य स्नान 18 जून दिन मंगलवार को है। गंगा दशहरा ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को मनाया जाता है। स्कन्द पुराण के अनुसार, इस दिन व्यक्ति को किसी भी पवित्र नदी पर जाकर स्नान, ध्यान तथा दान करना चाहिए| इससे वह अपने सभी पापों से मुक्ति पाता है|

हमारे ज्योतिषाचार्य आचार्य विजय कुमार बताते हैं कि ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी को संवत्सर का मुख कहा गया है| इसलिए इस इस दिन दान और स्नान का ही अत्यधिक महत्व है| वराह पुराण के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, बुधवार के दिन, हस्त नक्षत्र में गंगा स्वर्ग से धरती पर आई थी| ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा स्नान करने से व्यक्ति के दस प्रकार के पापों का नाश होता है| इन दस पापों में तीन पाप कायिक, चार पाप वाचिक और तीन पाप मानसिक होते हैं| इन सभी से व्यक्ति को मुक्ति मिलती है|

गंगा दशहरे की पूजन विधि-

गंगा दशहरा के दिन पवित्र नदी गंगा जी में स्नान किया जाता है| गंगा जी का पूजन करते हुए इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए-

“ऊँ नम: शिवायै नारायण्यै दशहरायै गंगायै नम:” इस मंत्र के बाद “ऊँ नमो भगवते ऎं ह्रीं श्रीं हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे मां पावय पावय स्वाहा” मंत्र का पाँच पुष्प अर्पित पतित पावनी माँ गंगा का स्मरण करना चहिये|

गंगा मैया की पूजा में दस प्रकार के फूल, दस गंध, दस दीपक, दस प्रकार का नैवेद्य, दस पान के पत्ते, दस प्रकार के फल होने चाहिए| पूजन
करने के बाद किसी ब्राह्मण को दान देना चाहिए | गंगा दशहरा के दिन अगर हो सके तो 10 प्रकार की ही चीजें दान देनी चहिये अगर यह संभव नहीं हो पा रहा है तो जौ और तिल का दान सोलह मुठ्ठी का होना चाहिए| दक्षिणा भी दस ब्राह्मणों को देनी चाहिए| जब गंगा नदी में स्नान करें तब दस बार डुबकी लगानी चाहिए|

गंगा दशहरे का महत्व-

पुराणों में कहा गया है कि भगीरथी की घोर तपस्या के बाद जब गंगा माता धरती पर आती हैं उस दिन ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी थी| गंगा मैया के धरती पर अवतरण के दिन को ही गंगा दशहरा के नाम से पूजा जाना जाने लगा| इस दिन गंगा नदी में खड़े होकर जो गंगा स्तोत्र पढ़ता है वह अपने सभी पापों से मुक्ति पाता है|

गंगा दशहरे की कथा-

गंगा दशहरा की कथा इस प्रकार है- प्राचीन काल में अयोध्या में सगर नाम के महाप्रतापी राजा राज्य करते थे। उन्होंने सातों समुद्रों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया। उनके केशिनी तथा सुमति नामक दो रानियाँ थीं। पहली रानी के एक पुत्र असमंजस का उल्लेख मिलता है, परंतु दूसरी रानी सुमति के साठ हज़ार पुत्र थे। एक बार राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया और यज्ञ पूर्ति के लिए एक घोड़ा छोड़ा। इंद्र ने उस यज्ञ को भंग करने के लिए यज्ञीय अश्व का अपहरण कर लिया और उसे कपिल मुनि के आश्रम में बांध आए। राजा ने उसे खोजने के लिए अपने साठ हज़ार पुत्रों को भेजा। सारा भूमण्डल छान मारा फिर भी अश्व नहीं मिला। फिर अश्व को खोजते-खोजते जब कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे तो वहाँ उन्होंने देखा कि साक्षात भगवान 'महर्षि कपिल' के रूप में तपस्या कर रहे हैं और उन्हीं के पास महाराज सगर का अश्व घास चर रहा है। सगर के पुत्र उन्हें देखकर 'चोर-चोर' शब्द करने लगे। इससे महर्षि कपिल की समाधि टूट गई। ज्योंही महर्षि ने अपने नेत्र खोले त्योंही सब जलकर भस्म हो गए।

अपने पितृव्य चरणों को खोजता हुआ राजा सगर का पौत्र अंशुमान जब मुनि के आश्रम में पहुँचा तो महात्मा गरूड़ ने भस्म होने का सारा वृतांत सुनाया। गरूड़ जी ने यह भी बताया- 'यदि इन सबकी मुक्ति चाहते हो तो गंगाजी को स्वर्ग से धरती पर लाना पड़ेगा। इस समय अश्व को ले जाकर अपने पितामह के यज्ञ को पूर्ण कराओ, उसके बाद यह कार्य करना।'

अंशुमान ने घोड़े सहित यज्ञमण्डप पर पहुँचकर सगर से सब वृतांत कह सुनाया। महाराज सगर की मृत्यु के उपरान्त अंशुमान और उनके पुत्र दिलीप जीवन पर्यन्त तपस्या करके भी गंगाजी को मृत्युलोक में ला न सके। सगर के वंश में अनेक राजा हुए सभी ने साठ हज़ार पूर्वजों की भस्मी के पहाड़ को गंगा के प्रवाह के द्वारा पवित्र करने का प्रयत्न किया किंतु वे सफल न हुए। अंत में महाराज दिलीप के पुत्र भागीरथ ने गंगाजी को इस लोक में लाने के लिए गोकर्ण तीर्थ में जाकर कठोर तपस्या की। इस प्रकार तपस्या करते-करते कई वर्ष बीत गए। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने वर मांगने को कहा तो भागीरथ ने 'गंगा' की मांग की।

इस पर ब्रह्माजी ने कहा- 'राजन! तुम गंगा को पृथ्वी पर तो ले जाना चाहते हो? परंतु गंगाजी के वेग को सम्भालेगा कौन? क्या तुमने पृथ्वी से पूछा है कि वह गंगा के भार तथा वेग को संभाल पाएगी?' ब्रह्माजी ने आगे कहा-' भूलोक में गंगा का भार एवं वेग संभालने की शक्ति केवल भगवान शंकर में है। इसलिए उचित यह होगा कि गंगा का भार एवं वेग संभालने के लिए भगवान शिव का अनुग्रह प्राप्त कर लिया जाए।' महाराज भागीरथ ने वैसा ही किया। एक अंगूठे के बल खड़ा होकर भगवान शंकर की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने गंगा की धारा को अपने कमण्डल से छोड़ा और भगवान शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेट कर जटाएँ बांध लीं। गंगाजी देवलोक से छोड़ी गईं और शंकर जी की जटा में गिरते ही विलीन हो गईं। गंगा को जटाओं से बाहर निकलने का पथ नहीं मिल सका। गंगा को ऐसा अहंकार था कि मैं शंकर की जटाओं को भेदकर रसातल में चली जाऊंगी। पुराणों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि गंगा शंकर जी की जटाओं में कई वर्षों तक भ्रमण करती रहीं लेकिन निकलने का कहीं मार्ग ही न मिला।

अब महाराज भागीरथ को और भी अधिक चिंता हुई। उन्होंने एक बार फिर भगवान शिव की प्रसन्नतार्थ घोर तप शुरू किया। अनुनय-विनय करने पर शिव ने प्रसन्न होकर गंगा की धारा को मुक्त करने का वरदान दिया। इस प्रकार शिवजी की जटाओं से छूटकर गंगाजी हिमालय में ब्रह्माजी के द्वारा निर्मित बिन्दुसार सर में गिरी, उसी समय इनकी सात धाराएँ हो गईं। आगे-आगे भागीरथ दिव्य रथ पर चल रहे थे, पीछे-पीछे सातवीं धारा गंगा की चल रही थी।

पृथ्वी पर गंगाजी के आते ही हाहाकार मच गया। जिस रास्ते से गंगाजी जा रही थीं, उसी मार्ग में ऋषिराज जहु का आश्रम तथा तपस्या स्थल पड़ता था। तपस्या में विघ्न समझकर वे गंगाजी को पी गए। फिर देवताओं के प्रार्थना करने पर उन्हें पुन: जांघ से निकाल दिया। तभी से ये जाह्नवी कहलाईं।

इस प्रकार अनेक स्थलों का तरन-तारन करती हुई जाह्नवी ने कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचकर सगर के साठ हज़ार पुत्रों के भस्मावशेष को तारकर उन्हें मुक्त किया। उसी समय ब्रह्माजी ने प्रकट होकर भागीरथ के कठिन तप तथा सगर के साठ हज़ार पुत्रों के अमर होने का वर दिया। साथ ही यह भी कहा- 'तुम्हारे ही नाम पर गंगाजी का नाम भागीरथी होगा। अब तुम अयोध्या में जाकर राज-काज संभालों।' ऐसा कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए। इस प्रकार भागीरथ पृथ्वी पर गंगावतरण करके बड़े भाग्यशाली हुए। उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया। भागीरथ पुत्र लाभ प्राप्त कर तथा सुखपूर्वक राज्य भोगकर परलोक गमन कर गए। युगों-युगों तक बहने वाली गंगा की धारा महाराज भागीरथ की कष्टमयी साधना की गाथा कहती है। गंगा प्राणीमात्र को जीवनदान ही नहीं देती, वरन मुक्ति भी देती है।

गंगा तेरा पानी अमृत

गंगोत्री भारत के उत्तराखंड राज्य के उत्तर-काशी में स्थित है। यह हिन्दू धर्म के उत्तर दिशा में स्थित चार धामों में से एक है। गंगोत्री में प्रकृति का वैभवशाली सौंदर्य देखकर आनंद प्राप्त होता है। इस पुण्य भूमि में गंगा का महत्व है। वास्तव में यहां से लगभग 19 किलोमीटर आगे की ओर गंगोत्री ग्लेशियर पर गौमुख नामक स्थान से गंगा निकलती है। इस तीर्थ में गंगा को भागीरथी नाम से जाना जाता है। यहां से निकलकर गंगा जब अलकनंदा से मिलती है, तो वह गंगा कहलाती है। जब गंगा पहाड़ों से निकलकर मैदानी भागों में आती है तो अपने पवित्र जल से उपजाऊ जमीन को सिंचित करती हुई लाखों करोड़ों लोगों का प्यास बुझाती हुई अंत में गंगा बंगाल की खाड़ी में गंगा सागर नामक स्थान पर मिल जाती है।

गंगा तेरा पानी अमृत इसको अगर धार्मिक दृष्टिकोण को दरकिनार कर दें तो गंगा में अब ऐसी बातें नहीं रही है। जलस्तर की कमी, सफाई का अभाव, कल कारखाने व शहरों के नाले का नदी में बहाव ने गंगा के आंचल को मैला कर दिया है।

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