बुंदेलखण्ड में सावन बच्चों के लिए खेल-खिलौनों का माह हुआ करता था, मगर अब यह गुजरे जमाने की बात लगने लगी है| बदलते वक्त के असर से बुंदेलखण्ड के खेल-खिलौने भी नहीं बच पाए हैं| आलम यह है कि सावन की पहचान चकरी, बांसुरी, भौंरा और चपेटा की जगह अब आधुनिक खेल-खिलौनों ने ले ली है| बुंदेलखण्ड में सावन आते ही दुकानों पर परंपरागत खेल-खिलौने का जखीरा नजर आने लगता था और बच्चे भी इन खिलौनों के रंग में रंग जाते थे| हाथ की उंगली में धागे की डोर के साथ लकड़ी की चकरी के चक्कर लगाकर हर कोई खुश व उत्साहित हो जाता था| इतना ही नहीं, गलियों में बांसुरी की धुन कुछ इस तरह गूंजती थी, मानो यह इलाका कृष्ण की नगरी मथुरा-वृंदावन हो|
एक तरफ जहां लड़के चकरी, बांसुरी और भौंरा से अपने को सावन के रंग से सराबोर कर लेते थे, वहीं लड़कियों के लिए लाख के चपेटे सावन की खुशियां लेकर आते थे। आलम यह होता था कि शहर से लेकर गांव की गलियों में घरों के बाहर बने चबूतरों पर लड़कियां चपेटा उछालते नजर आती थीं, लेकिन अब न तो आसानी से बाजार में चपेटा मिलते हैं और न ही लड़कियां इन्हें उछालते दिखती हैं|
वर्षो से बच्चों के खिलौना का कारोबार कर रहे छतरपुर के राम स्वरूप बताते हैं कि बच्चों की पसंद अब बदल गई है। वे ज्यादातर इलेक्ट्रॉनिक खिलौने खरीदना पसंद करते हैं। एक तरफ जहां बेवलेट की मांग बढ़ी है, वहीं बैटरी आधारित तरह-तरह के खिलौने विकल्प के तौर पर आ गए हैं। यही कारण है कि चकरी, भौंरा, बांसुरी जैसे खिलौने उनकी प्राथमिकता में कहीं पिछड़ गए हैं। इसके बाद भी ऐसा नहीं है कि पुरातन खिलौनों की मांग बिल्कुल न हो|
सामाजिक कार्यकर्ता ओ.पी. तिवारी का मानना है कि बच्चों पर पढ़ाई का बोझ बढ़ा है। वहीं खेल-खिलौनों की तुलना में टेलीविजन से लेकर कम्प्यूटर के प्रति रुचि कहीं ज्यादा है। इसके अलावा बच्चे ऐसे खेल कम ही खेलना पसंद करते हैं, जिसमें श्रम लगता हो। यही कारण है कि बुंदेलखंड के परंपरागत खेल-खिलौने सावन में भी नजर नहीं आ रहे हैं।
टीकमगढ़ के शिक्षक डा. राजेंद्र मिश्रा कहते हैं कि सिर्फ सावन ही नहीं, तमाम त्योहारों पर महंगाई का असर पड़ा है। यही कारण है कि मध्यम श्रेणी वर्ग के परिवारों की त्योहारों में रुचि कम हुई है। एक तरफ अभिभावकों की जेब में रकम नहीं है, दूसरी ओर बच्चे भी चकरी, बांसुरी जैसे खिलौनों से खेलना नहीं चाहते| बदलते वक्त ने बुंदलखंड के सावन की रौनक को कमतर कर दिया है। यहां न तो पहले जैसे खिलौने ही नजर आ रहे हैं और न ही वह उत्साह, जो यहां की परंपरागत पहचान हुआ करती थी|
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