'झूला तो पड़ गयो अमवा की डार मा.' सावन का महीना आते ही बुंदेलखंड के हर बगीचे में झूले पड़ जाया करते थे और बुंदेली महिलाएं 'ढोल-मंजीरे' की थाप में इस तरह के सावन के गीत गाया करती थीं। लेकिन, अब जहां एक ओर बगीचे नहीं बचे, वहीं दूसरी ओर सावन गीत के स्वर दूर-दूर तक नहीं सुनाई दे रहे।
बुंदेलखंड पुरानी परम्पराओं व रिवाजों का गढ़ रहा है। यहां हर तीज-त्यौहार बड़े ही हर्षोल्लास और भाईचारे के साथ मनाने का रिवाज रहा है। सावन का महीना आते ही बाग-बगीचों में झूले पड़ जाया करते थे और बुंदेली महिलाएं दो गुटों में बंट कर 'ढोल-मंजीरे' की थाप में मोरों की आवाज के बीच सावन गीत गाया करती थीं।
इन्हीं गीतों के साथ ससुराल से नैहर वापस आईं बेटियां झूलों में 'पींग' भरती थीं। अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है। बुंदेलखंड के लोग अपने हरे-भरे आम के बागों का नामोशिान मिटा रहे हैं। इससे न तो झूले डालने की गुंजाइश बची है और न ही महिलाएं गीत गाती नजर आ रहीं हैं। रही बात राष्ट्रीय पक्षी मोर की तो वह यदा-कदा ही दिखाई दे रहे हैं।
बांदा जिले के तेन्दुरा गांव की बुजुर्ग महिला सुरतिया कहती हैं, "एक दशक पूर्व तक इस गांव के चारों तरफ बस्ती से लगे हुए कई आम के बगीचे थे, जहां सावन मास में झूले लगा करते थे।"
इसी गांव के एक अन्य बुजुर्ग देउवा माली ने बताया, "पहले हर किसी के मन में बेटियों के प्रति सम्मान हुआ करता था, अब राह चलते छेड़छाड़ की घटनाएं हो रही हैं। साथ ही आपसी सामंजस्य व भाईचारा नहीं रह गया, जिससे बेटियों को दूर-दराज बचे बगीचों में भेजने से डर लगता है।"
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