तीन नवंबर को दीयों का पर्व दीपावली धूमधाम से मनाने की तैयारी है।
दीपोत्सव में घर की देहरी और छत के छज्जों पर मिट्टी के बने दीये जलाने की
परंपरा रही है, लेकिन आधुनिकता पसंद लोग दीये के स्थान पर झालर लाइट और
रंग-बिरंगी मोमबत्तियों का उपयोग करने लगे हैं, जिससे कुम्हारों का
पुश्तैनी धंधा चौपट हो रहा है।
आधुनिक ढंग से दिवाली मनाए जाने के चलते दीया और ग्वालिन बनाने वाले कुम्हारों का परंपरागत व्यवसाय पहले की अपेक्षा काफी मंदा हो चला है। फिर भी कुम्हार लक्ष्मी पूजा के लिए मां लक्ष्मी की मूर्ति, ग्वालिन दीया आदि बनाने में लगे हुए हैं।
बुजुर्ग बताते हैं कि पहले दीपावली के मौके पर नगर सहित आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में घर-घर दीप दान करने की परंपरा से कुम्हारों का हजारों रुपये का व्यवसाय होता था, लेकिन अब बाजार में उपलब्ध चीनी सामान कुम्हारों के परंपरागत व्यवसाय में सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो रहा है। उनके बनाए मिट्टी के दीयों की मांग कम हो गई है।
बुजुर्ग दशरथ लाल मिश्रा बताते हैं कि प्राचीन परंपराओं के अनुसार दीपोत्सव के अवसर पर ग्रामीण क्षेत्रों में लोग दीया लेकर एक दूसरे के घर दीपदान करने जाते थे। इसलिए कुम्हार द्वारा बनाए मिट्टी के दीये खरीदे जाते थे, साथ ही माता लक्ष्मी की मूर्ति, ग्वालिन कुरसा आदि मिट्टी से निर्मित पूजन साम्रगी भी खरीदी जाती थी। इससे कुम्हारों का व्यवसाय भी अच्छा चलता था, पर अब इनका स्थान आधुनिक झालर और मोमबत्तियों ने ले लिया है।
सिमगा के कुंभकार संतराम, दुकालू और शिवप्रताप ने बताया कि वे पिछले कई सालों से मूर्ति व दीया आदि बना रहे हैं। उन्होंने बताया कि वे राजधानी सहित कुछ और शहरों में पसरा लगाकर व घर में भी बेचते हैं। इसी व्यवसाय से उनके परिवार का जीवन यापन होता है, लेकिन पिछले कुछ सालों से आधुनिक बाजार ने उनका धंधा चौपट कर दिया है। ग्राहकी हर साल लगातार कम होती जा रही है। इस बार उनके बनाए दिए काफी मात्रा में जमा है।
बहरहाल, प्राचीन परंपराओं के विलुप्त होते जाने से समाज में कई तरह कि परेशानियां आ रही हैं, कहीं रोजगार खत्म हो रहे हैं तो कहीं संस्कृति का क्षय हो रहा है, जरूरत है आज हमें अपनी इन संस्कृतियों को सहेज कर रखने की।
आधुनिक ढंग से दिवाली मनाए जाने के चलते दीया और ग्वालिन बनाने वाले कुम्हारों का परंपरागत व्यवसाय पहले की अपेक्षा काफी मंदा हो चला है। फिर भी कुम्हार लक्ष्मी पूजा के लिए मां लक्ष्मी की मूर्ति, ग्वालिन दीया आदि बनाने में लगे हुए हैं।
बुजुर्ग बताते हैं कि पहले दीपावली के मौके पर नगर सहित आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में घर-घर दीप दान करने की परंपरा से कुम्हारों का हजारों रुपये का व्यवसाय होता था, लेकिन अब बाजार में उपलब्ध चीनी सामान कुम्हारों के परंपरागत व्यवसाय में सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो रहा है। उनके बनाए मिट्टी के दीयों की मांग कम हो गई है।
बुजुर्ग दशरथ लाल मिश्रा बताते हैं कि प्राचीन परंपराओं के अनुसार दीपोत्सव के अवसर पर ग्रामीण क्षेत्रों में लोग दीया लेकर एक दूसरे के घर दीपदान करने जाते थे। इसलिए कुम्हार द्वारा बनाए मिट्टी के दीये खरीदे जाते थे, साथ ही माता लक्ष्मी की मूर्ति, ग्वालिन कुरसा आदि मिट्टी से निर्मित पूजन साम्रगी भी खरीदी जाती थी। इससे कुम्हारों का व्यवसाय भी अच्छा चलता था, पर अब इनका स्थान आधुनिक झालर और मोमबत्तियों ने ले लिया है।
सिमगा के कुंभकार संतराम, दुकालू और शिवप्रताप ने बताया कि वे पिछले कई सालों से मूर्ति व दीया आदि बना रहे हैं। उन्होंने बताया कि वे राजधानी सहित कुछ और शहरों में पसरा लगाकर व घर में भी बेचते हैं। इसी व्यवसाय से उनके परिवार का जीवन यापन होता है, लेकिन पिछले कुछ सालों से आधुनिक बाजार ने उनका धंधा चौपट कर दिया है। ग्राहकी हर साल लगातार कम होती जा रही है। इस बार उनके बनाए दिए काफी मात्रा में जमा है।
बहरहाल, प्राचीन परंपराओं के विलुप्त होते जाने से समाज में कई तरह कि परेशानियां आ रही हैं, कहीं रोजगार खत्म हो रहे हैं तो कहीं संस्कृति का क्षय हो रहा है, जरूरत है आज हमें अपनी इन संस्कृतियों को सहेज कर रखने की।
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