सन् 1910 का किस्सा है, राजेंद्र बाबू तब कलकत्ता में वकालत पढ़ रहे थे। यहां एक दिन उन्हें उस दौर के प्रसिद्ध वकील परमेश्वर लाल ने बुलाया था। वे कुछ समय पहले ही गोखलेजी (अग्रणी स्वतंत्रता संग्रामी गोपाल कृष्ण गोखले) से मिले थे। बातचीत में गोखलेजी ने उनसे कहा था कि वे यहां के दो-चार होनहार छात्रों से मिलना चाहते हैं। परमेश्वरजी ने सहज ही राजेंद्र बाबू का नाम सुझा दिया।
राजेंद्र बाबू गोखलेजी से मिलने गए, अपने एक मित्र श्रीकृष्ण प्रसाद के साथ। सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसायटी की स्थापना अभी कुछ ही दिन पहले हुई थी। गोखलेजी उस काम के लिए हर जगह कुछ अच्छे युवकों की तलाश में थे। उन्हें यह जानकारी परमेश्वरजी से मिल गई थी कि ये बड़े शानदार विद्यार्थी हैं।
वकालत उन दिनों ऐसा पेशा था जो प्रतिष्ठा और पैसा एक साथ देने लगा था। इस धंधे में सरस्वती और लक्ष्मी जुड़वां बहनों की तरह आ मिलती थीं। कोई डेढ़ घंटे चली इस पहली ही मुलाकात में राजेंद्र बाबू से गोखले ने सारी बातों के बाद आखिर में कहा था, "हो सकता है तुम्हारी वकालत खूब चल निकले। बहुत रुपये कमा सको। बहुत आराम और ऐश-इशरत में दिन बिताओ। बड़ी कोठी, घोड़ा-गाड़ी इत्यादि दिखावट का सामान सब जुट जाए..और चूंकि तुम पढ़ने में अच्छे हो, तो इसलिए तुम पर वह दावा और भी अधिक है।"
गोखलेजी थोड़ा रुक गए थे। कुछ क्षणों के उस सन्नाटे ने भी राजेंद्र बाबू के मन में न जाने कितनी उथल-पुथल पैदा की होगी। वे फिर बोलने लगे : "मेरे सामने भी यही सवाल आया था, ऐसी ही उमर में। मैं भी एक साधारण गरीब घर का बेटा था। घर के लोगों को मुझसे बहुत बड़ी-बड़ी उम्मीदें थीं। उन्हें लगता था कि मैं पढ़कर तैयार हो जाऊंगा, रुपये कमाऊंगा और सबको सुखी बना सकूंगा, पर मैंने उन सबकी आशाओं पर पानी फेर कर देशसेवा का व्रत ले लिया। मेरे भाई इतने दुखी हुए कि कुछ दिनों तक तो वे मुझसे बोले तक नहीं। हो सकता है यही सब तुम्हारे साथ भी हो। पर विश्वास रखना कि सब लोग अंत में तुम्हारी पूजा करने लगेंगे।"
गोखले के मुख से मानो एक आकाशवाणी-सी हुई थी। बाद का किस्सा लंबा है। लंबी है राजेंद्र बाबू के मन में कई दिनों तक चले संघर्ष की कहानी और घर में मचे कोहराम की, रोने धोने की, बेटे के साधु बन जाने की आशंका की दास्तान। इस किस्से से ऐसा न मान लें हम लोग कि वे अगले ही दिन अपना सब कुछ छोड़ देशसेवा में उतर पड़े थे। गोखले खुद बड़े उदार थे। उन्होंने उस दिन कहा था कि "ठीक इसी समय उत्तर देना जरूरी नहीं है। सवाल गहरा है। फिर एक बार और मिलेंगे, तब अपनी राय बताना।"
अगले 10-12 बारह दिनों का वर्णन नहीं किया जा सकता। भाई साथ ही रहते थे। इनके व्यवहार में आ रहे बदलाव वे देख ही रहे थे। राजेंद्र बाबू ने कोर्ट जाना बंद कर दिया था। न ठीक से खाते-पीते, न किसी से मिलते-जुलते थे। फिर एक दिन हिम्मत जुटाई। एक पत्र, काफी बड़ा पत्र, भाई को लिखा और घर छोड़ने की आज्ञा मांगी। पत्र तो लिख दिया पर सीधे उन्हें देते नहीं बना। सो एक शाम जब भाई टहलने के लिए गए थे, तब उसे उनके बिस्तरे पर रख खुद भी बाहर टहलने चले गए।
भाई ने लौटकर पत्र देखा और अब खुद राजेंद्र बाबू को तलाशने लगे। जब वे बाहर कहीं मिल गए तो भाई बुरी तरह से लिपट कर रोने लगे। राजेंद्र बाबू भी अपने को रोक नहीं पाए। दोनों फूट-फूट कर रोते रहे। ज्यादा बातचीत की हिम्मत नहीं थी फिर भी तय हुआ कि कलकत्ता से गांव जाना चाहिए। मां, चाची और बहन को सब बताना होगा।
राजेंद्र बाबू को अब लग गया था कि देश-प्रेम और घर-प्रेम में घर का वजन ज्यादा भारी पड़ रहा है। वे इतनी आसानी से इस प्रेम बंधन को काट नहीं पाएंगे। गोखलेजी अभी वहीं थे। राजेंद्र बाबू एक बार और उनसे भेंट करने गए। सारी परिस्थिति बताई। गोखलेजी ने भी उन्हें पाने की आशा छोड़ दी। गांव पहुंचने का किस्सा तो और भी विचित्र है। चारों तरफ रोना-धोना। बची-खुची हिम्मत भी टूट गई थी। वे जैसे थे वैसे ही बन गए। फिर से लगा कि पुरानी जिंदगी पटरी पर वापस आने लगी है, पर उस दिन जो आकाशवाणी हुई थी, वह झूठी कैसे पड़ती?
वकालत राजेंद्र बाबू को आने वाले दिनों में, पांच-छह बरस बाद चंपारण ले गई। वहां उन पर, उनके जीवन पर नील का रंग चढ़ा। नील का रंग यानी गांधीजी के चम्पारण आंदोलन का रंग। यह रंग उन पर इतना चोखा चढ़ा कि फिर कभी उतरा ही नहीं।
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