छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिला मुख्यालय से लगभग 12 किमी दूर स्थित डूमरडीह गांव के लोगों ने सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल खड़ी की है। गांव में एक भी मुस्लिम परिवार नहीं है, पर दो दशकों से यहां के लोग हजरत सैय्यद अली की मजार पर उर्स का आयोजन कर रहे हैं। यहां तीन दिनों तक चलने वाले उर्स के सारे प्रबंध हिंदू परिवार के लोग ही करते हैं। इस साल उर्स मंगलवार से शुरू हो गया है।
ग्रामीणों ने बताया कि जब इंसान की खुशहाली और मदद के लिए ऊपर वाला मजहब नहीं देखता, तो वे इस झंझट में आखिर क्यों पड़ें। गांव में हजरत की मजार तैयार होने की भी अपनी एक कहानी है। गांव में निवासरत आदिवासी परिवार की मीना ध्रुव ने बताया कि करीब 21 साल पहले वह काफी बीमार रहती थीं। तब पूरा परिवार हार मान चुका था। इसी बीच किसी ने कुरूद के मीरा दातार बाबा की जानकारी दी। वहां जाकर दुआ मांगने के बाद उसे काफी लाभ हुआ। उसके बाद ध्रुव परिवार ने तय किया कि वह हजरत सैय्यद अली की मजार गांव में बनाएंगे। उनके गांव में एक भी मुसलमान न तब था, न आज है। पर गांव के कई और लोगों की भी बाबा के प्रति श्रद्धा थी। मजार बन गया तो लोग सेवा के लिए खुद ही आने लगे।
मीना ने बताया कि दातार में हिंदू या मुसलमान सभी लोगों की मुरादें पूरी होने लगीं, तो विश्वास और गहरा हो गया। सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल को गांव के साहू परिवारों ने मजबूती दी। साहू समाज ने दातार में रोजमर्रा के आयोजनों के साथ मेले के लिए एक एकड़ जमीन दान कर दी। ग्रामीणों ने बताया कि मजार पर रोज आसपास के इलाके से लोग मन्नत मांगने आते हैं। पंचायत सचिव देवकी देवांगन और मनीष साहू ने बताया कि गांव के हिंदू परिवार बाबा को देवी-देवता की तरह मानते हैं।
दरबार समिति के अध्यक्ष शिवकुमार महानंद ने बताया कि गांव के सारे लोग अपनी हैसियत और श्रद्धा के हिसाब से आर्थिक सहयोग देते हैं। गांव की सरपंच मालती महानंद ने कहा कि गांव के लोगों की बाबा दातार के प्रति आस्था है। गांव के लोग यहां माथा टेकने के बाद ही किसी काम को शुरू करते हैं। हिंदू परिवारों ने उर्स के आयोजन के लिए बाकायदा दरबार समिति बना रखी है। इसके मार्गदर्शन में ही मेले का आयोजन होता है। गांव में मुस्लिम परिवार नहीं होने के कारण कुरूद (धमतरी) बाबा को बुलाकर मुस्लिम रीतियों से उर्स के मौके पर चादरपोशी की जाती है।
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