अरविंद केजरीवाल: परिवर्तनकर्मी या सिर्फ एक बुलबुला?

यदि आप दिल्ली में किसी फेरीवाले या फुटपाथ पर चाय दुकान चलाने वाले से बात करें तो आप तुरंत ही महसूस करेंगे कि सड़क पर खड़ा 'आम आदमी' खुद को आम आदमी पार्टी (आप) के साथ जुड़ा हुआ पाता है और मुख्यमंत्री एवं उनके साथी मंत्रियों के विपरीत व्यवहार के कारण आलोचनाओं से घिरे होने के बावजूद अरविंद केजरीवाल और उनकी नई नवेली पार्टी के जनाधार में कोई कमी नहीं आई है। सच तो यह है कि उनका दायरा बढ़ता जा रहा है। यह विस्तार दिल्ली से बाहर पूरे देश में हुआ है और एक महीने से भी कम समय में पार्टी के सदस्यों की संख्या एक करोड़ के पार पहुंच चुकी है। 

बुद्धिजीवियों और मध्यम वर्ग के एक हिस्से की नजरों में केजरीवाल का तेज संभवत: कमजोर पड़ गया है, लेकिन वह और 'हम दुनिया बदलेंगे' के उत्साह से लबरेज उनके उग्र सुधारवादी सामाजिक कार्यकर्ता याकि राजनीतिक कार्यकर्ता देश के विशाल शहरही हिस्सों में हाशिए पर जी रहे दबे-कुचले भारतीयों के लिए लगातार आशा की आवाज बनते जा रहे हैं। 

एक टैक्सी ड्राइवर ने बताया कि किस तरह केजरीवाल के गैरपारंपरिक भ्रष्टाचार विरोधी हथियार ने परिणाम दिखाने शुरू कर दिए हैं। पुलिसकर्मी मोबाइल स्टिंग में पकड़े जाने के डर से रिश्वत लेने से इनकार कर रहे हैं और प्रदेश के परिवहन प्राधिकरणों के दलाल गायब हो गए हैं। वर्षो तक ये दलाल ड्राइविंग एवं अन्य ऑटोमोबाइल लाइसेंस दिलाने में बाबुओं के लिए सुविधा के जरिया बने रहे। केजरीवाल का तरीका शासन की किसी भी नियमावली में शामिल नहीं हो सकता है, लेकिन इनमें से कुछ अपना काम करते दिख रहे हैं, हालांकि जैसा कि केजरीवाल खुद भी कहते हैं कि उनके पास ऐसा कोई प्रायोगिक आंकड़ा या जरिया नहीं है जिसके आधार पर वह साबित कर सकें कि भ्रष्टाचार कम हो गया है।

जो लोग सदा से पुलिस की लाठी या बाबुओं से परेशान रहते आए हैं, वे केजरीवाल को अपनी मुसीबतों के तारणहार के रूप में पा रहे हैं। ऐसे लोग उनके पक्ष में मुखर होकर बोल रहे हैं। ऐसे लोगों में ऑटो रिक्शाचालक, सड़कों पर फेरी लगाने वाले, कार्यालयों के दफ्तरी और अन्य अकुशल मजदूर व सेवा क्षेत्र से जुड़े लोग जो उतार-चढ़ाव वाली अर्थव्यवस्था में पिस रहे हैं। ऐसे लोगों की मेहनत का फल सुविधाभोगी और ताकतवर तबका उड़ा लेता है और यह बड़ा समुदाय एक शोषक और बेदर्द तंत्र की दया पर आश्रित रह जाता है। और वह तंत्र भी इनसे वोट पाने के बाद शायद ही कभी उनकी आवाज को सुनता है या फिर उन्हें नागरिक या संवैधानिक अधिकार मुहैया कराने की जहमत उठाता है।

और इसी क्षेत्र में केजरीवाल चालाकी से सेंध लगाते हैं, अपने कुछ लुभावने वादे पूरा करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और अपने राजनीतिक कद के साथ ही बौद्धिक आत्मविश्वास जुटाते हैं। अपने इसी क्षेत्र के दम पर केजरीवाल अपने राजनीतिक आधार का विस्तार करने की योजना बनाते हैं और झटके से राष्ट्रीय मंच पर अवतरित हो जाते हैं। वह महसूस करते हैं कि यदि वह देश के विधायी एजेंडे को प्रभावित करने में सक्षम नहीं होंगे तो उनका प्रयास व्यर्थ चला जाएगा। तब यह सवाल स्वाभाविक ही उठ खड़ा होता है कि क्या केजरीवाल और उनकी आप टिकाऊ होगी? या फिर वे सिर्फ एक चमक भर हैं जो अपने ही अंतर्विरोधों और अपेक्षाओं के बोझ तले दफन हो जाएगा?

इस तरह के अपारंपरिक आंदोलनों का क्या भविष्य होता है इसके ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं। ऐसे आंदोलन एक मुद्दे को लेकर पनपे, लेकिन उनमें वैचारिक दिशानिर्देश का अभाव रहा। 'पौजाडिज्मे' नामक ऐसा ही एक आंदोलन 1950 के दशक में फ्रांस में पनपा था। इस आंदोलन का यह नाम इसके अगुआ पीयरे पौजाडे के नाम पर दिया गया। पौजाडे ने तब जानलेवा करों के खिलाफ स्थानीय दुकानदारों को गोलबंद कर हड़ताल कराई थी। ठीक वैसा ही काम केजरीवाल बिजली बिलों के खिलाफ कराते हैं और सरकारी राजस्व वसूली के निरीक्षण की बात करते हैं।

पौजाडे ने दक्षिणी फ्रांस के अन्य कस्बों तक अपनी गतिविधि का विस्तार किया और बड़ी तेजी के साथ खास तौर से कामगार और गरीब तबके में अपनी पैठ बना ली। उसने अपनी यूनियन डे डिफेंस डेस कामर्सकैंट्स एट आस्ट्रियन्स (यूनियन फॉर दी डिफेंस ऑफ ट्रेड्समैन एंड आस्ट्रियन्स) में 800,000 सदस्य जुटा लिए थे। उसके समर्थकों में असंतुष्ट रैयत और छोटे कारोबारियों का बोलबाला था। पौजाडिज्मे का मुख्य जोर कुलीन तबके के बर-अक्स आम आदमी के अधिकारों की रक्षा करने पर था। सच पूछा जाए तो यह फ्रांस की आम आदमी पार्टी थी, जिसने फ्रांस के संघर्षशील तबके को वहां के बुर्जुआजी तबके के सामने ला खड़ा कर दिया था।

जिस तरह केजरीवाल समाज-सुधारक से नेता बनने के पहले नौकरशाह थे, उसी तरह पौजाडे भी नेता बनने से पहले सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े रहे थे। पौजाडे ने फ्रांस की सेना के अलावा ब्रिटेन की शाही वायुसेना में नौकरी की थी और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भाग भी खड़े हुए थे। आयकर और मूल्य वृद्धि के खिलाफ आंदोलन के अतिरिक्त पौजाडिज्मे औद्योगीकरण, शहरीकरण और अमेरिकी तौर तरीके वाले आधुनिकीकरण (वैसे ही केजरीवाल भी वालमार्ट सरीखे विदेशी निवेश का विरोध करते हैं) के खिलाफ था, उस आधुनिकीकरण के जो ग्रामीण फ्रांस की पहचान के लिए एक खतरा था। लेकिन पौजाडिज्मे वैचारिक आधार के अभाव में ढह गया। सवाल यह उठता है कि वैचारिक आधार के अभाव में क्या केजरीवाल भी पीयरे पौजाडे तो साबित नहीं होंगे?

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