चाहते हैं सुख, सौभाग्य में बढ़ोत्तरी तो रखें पदमा एकादशी व्रत

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकाद्शी पदमा एकादशी के नाम से जानी जाती है| इस व्रत को करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती है| इस दिन भगवान श्री विष्णु के वामनावतार की पूजा पूजा की जाती है| यह एकादशी वामन एकादशी के नाम से भी जानी जाती है| इस व्रत को करने से व्यक्ति के सुख, सौभाग्य में बढ़ोत्तरी होती है| इस एकादशी के विषय में एक मान्यता है, कि इस दिन माता यशोदा ने भगवान श्री कृ्ष्ण के वस्त्र धोये थे| इसी कारण से इस एकाद्शी को "जलझूलनी एकादशी" भी कहा जाता है| इस बार पदमा एकादशी 15 सितम्बर दिन रविवार को मनाई जायेगी| 

पदमा एकादशी की व्रत विधि-

इस दिन जो व्यक्ति व्रत करता है, उसे भूमि दान करने और गौदान करने के पश्चात मिलने वाले पुन्यफलों से अधिक शुभ फलों की प्राप्ति होती है| इस व्रत में धूप, दीप,नेवैद्ध और पुष्प आदि से पूजा करने की विधि-विधान है| इस व्रत में सात कुम्भ स्थापित किये जाते है| सातों कुम्भों में सात प्रकार के अलग- अलग धान्य भरे जाते है| इनमें जो धान्य भरे जाते हैं उनमें गेहूं, उडद, मूंग, चना, जौं, चावल और मसूर शामिल है| 

एकादशी के एक दिन पहले यानि दशमी तिथि के दिन इनमें से किसी धान्य का सेवन नहीं करना चाहिए| कुम्भ के ऊपर श्री विष्णु जी की मूर्ति रख पूजा की जाती है| इस व्रत को करने के बाद रात्रि में श्री विष्णु जी के पाठ का जागरण करना चाहिए| यह व्रत दशमी तिथि से शुरु होकर, द्वादशी तिथि तक जाता है| इसलिये इस व्रत की अवधि सामान्य व्रतों की तुलना में कुछ लम्बी होती है| एकादशी तिथि के दिन पूरे दिन व्रत कर अगले दिन द्वादशी तिथि के प्रात:काल में अन्न से भरा घडा ब्राह्माण को दान में दिया जाता है| 

पूजा करते समय इस मंत्र का जरुर उच्चारण करना चाहिए- 

देवेश्चराय देवाय, देव संभूति कारिणे ।
प्रभवे सर्व देवानां वामनाय नमो नम: ।।

पदमा एकादशी व्रत कथा-

एक बार युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण से पूछा: केशव ! कृपया यह बताइये कि भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है, उसके देवता कौन हैं और कैसी विधि है? भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! इस विषय में मैं तुम्हें आश्चर्यजनक कथा सुनाता हूँ, जिसे ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद से कहा था ।

नारदजी ने पूछा : चतुर्मुख ! आपको नमस्कार है ! मैं भगवान विष्णु की आराधना के लिए आपके मुख से यह सुनना चाहता हूँ कि भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है? तब ब्रह्माजी ने कहा : मुनिश्रेष्ठ ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है। क्यों न हो, वैष्णव जो ठहरे! भादों के शुक्लपक्ष की एकादशी ‘पदमा’ के नाम से विख्यात है । उस दिन भगवान ह्रषीकेश की पूजा होती है । यह उत्तम व्रत अवश्य करने योग्य है । सूर्यवंश में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती, सत्यप्रतिज्ञ और प्रतापी राजर्षि हो गये हैं। वे अपने औरस पुत्रों की भाँति धर्मपूर्वक प्रजा का पालन किया करते थे। उनके राज्य में अकाल नहीं पड़ता था, मानसिक चिन्ताएँ नहीं सताती थीं और व्याधियों का प्रकोप भी नहीं होता था । उनकी प्रजा निर्भय तथा धन धान्य से समृद्ध थी । महाराज के कोष में केवल न्यायोपार्जित धन का ही संग्रह था । उनके राज्य में समस्त वर्णों और आश्रमों के लोग अपने अपने धर्म में लगे रहते थे । मान्धाता के राज्य की भूमि कामधेनु के समान फल देनेवाली थी । उनके राज्यकाल में प्रजा को बहुत सुख प्राप्त होता था ।

एक समय किसी कर्म का फलभोग प्राप्त होने पर राजा के राज्य में तीन वर्षों तक वर्षा नहीं हुई । इससे उनकी प्रजा भूख से पीड़ित हो नष्ट होने लगी । तब सम्पूर्ण प्रजा ने महाराज के पास आकर इस प्रकार कहा : नृपश्रेष्ठ ! आपको प्रजा की बात सुननी चाहिए । पुराणों में मनीषी पुरुषों ने जल को ‘नार’ कहा है । वह ‘नार’ ही भगवान का ‘अयन’ (निवास स्थान) है, इसलिए वे ‘नारायण’ कहलाते हैं । नारायणस्वरुप भगवान विष्णु सर्वत्र व्यापकरुप में विराजमान हैं । वे ही मेघस्वरुप होकर वर्षा करते हैं, वर्षा से अन्न पैदा होता है और अन्न से प्रजा जीवन धारण करती है । नृपश्रेष्ठ ! इस समय अन्न के बिना प्रजा का नाश हो रहा है, अत: ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे हमारे योगक्षेम का निर्वाह हो ।

राजा ने कहा : आप लोगों का कथन सत्य है, क्योंकि अन्न को ब्रह्म कहा गया है । अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं और अन्न से ही जगत जीवन धारण करता है । लोक में बहुधा ऐसा सुना जाता है तथा पुराण में भी बहुत विस्तार के साथ ऐसा वर्णन है कि राजाओं के अत्याचार से प्रजा को पीड़ा होती है, किन्तु जब मैं बुद्धि से विचार करता हूँ तो मुझे अपना किया हुआ कोई अपराध नहीं दिखायी देता । फिर भी मैं प्रजा का हित करने के लिए पूर्ण प्रयत्न करुँगा ।

ऐसा निश्चय करके राजा मान्धाता इने गिने व्यक्तियों को साथ ले, विधाता को प्रणाम करके सघन वन की ओर चल दिये । वहाँ जाकर मुख्य मुख्य मुनियों और तपस्वियों के आश्रमों पर घूमते फिरे । एक दिन उन्हें ब्रह्मपुत्र अंगिरा ॠषि के दर्शन हुए । उन पर दृष्टि पड़ते ही राजा हर्ष में भरकर अपने वाहन से उतर पड़े और इन्द्रियों को वश में रखते हुए दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने मुनि के चरणों में प्रणाम किया । मुनि ने भी ‘स्वस्ति’ कहकर राजा का अभिनन्दन किया और उनके राज्य के सातों अंगों की कुशलता पूछी । मुनि ने राजा को आसन और अर्ध्य दिया| उन्हें ग्रहण करके जब वे मुनि के समीप बैठे तो मुनि ने राजा से आगमन का कारण पूछा ।

राजा ने कहा : भगवन् ! मैं धर्मानुकूल प्रणाली से पृथ्वी का पालन कर रहा था । फिर भी मेरे राज्य में वर्षा का अभाव हो गया । इसका क्या कारण है इस बात को मैं नहीं जानता । ॠषि बोले : राजन् ! सब युगों में उत्तम यह सत्ययुग है । इसमें सब लोग परमात्मा के चिन्तन में लगे रहते हैं तथा इस समय धर्म अपने चारों चरणों से युक्त होता है । इस युग में केवल ब्राह्मण ही तपस्वी होते हैं, दूसरे लोग नहीं । किन्तु महाराज ! तुम्हारे राज्य में एक शूद्र तपस्या करता है, इसी कारण मेघ पानी नहीं बरसाते। तुम इसके प्रतिकार का यत्न करो, जिससे यह अनावृष्टि का दोष शांत हो जाय।

राजा ने कहा : मुनिवर ! एक तो वह तपस्या में लगा है और दूसरे, वह निरपराध है । अत: मैं उसका अनिष्ट नहीं करुँगा। आप उक्त दोष को शांत करने वाले किसी धर्म का उपदेश कीजिये ।

ॠषि बोले : राजन् ! यदि ऐसी बात है तो एकादशी का व्रत करो । भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में जो ‘पधा’ नाम से विख्यात एकादशी होती है, उसके व्रत के प्रभाव से निश्चय ही उत्तम वृष्टि होगी । नरेश ! तुम अपनी प्रजा और परिजनों के साथ इसका व्रत करो ।

ॠषि के ये वचन सुनकर राजा अपने घर लौट आये । उन्होंने चारों वर्णों की समस्त प्रजा के साथ भादों के शुक्लपक्ष की ‘पधा एकादशी’ का व्रत किया । इस प्रकार व्रत करने पर मेघ पानी बरसाने लगे । पृथ्वी जल से आप्लावित हो गयी और हरी भरी खेती से सुशोभित होने लगी । उस व्रत के प्रभाव से सब लोग सुखी हो गये ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! इस कारण इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए । ‘पदमा एकादशी’ के दिन जल से भरे हुए घड़े को वस्त्र से ढकँकर दही और चावल के साथ ब्राह्मण को दान देना चाहिए, साथ ही छाता और जूता भी देना चाहिए । दान करते समय निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करना चाहिए :

नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंज्ञक ॥

अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव ।

भुक्तिमुक्तिप्रदश्चैव लोकानां सुखदायकः ॥

‘बुधवार और श्रवण नक्षत्र के योग से युक्त द्वादशी के दिन बुद्धश्रवण नाम धारण करनेवाले भगवान गोविन्द ! आपको नमस्कार है… नमस्कार है ! मेरी पापराशि का नाश करके आप मुझे सब प्रकार के सुख प्रदान करें । आप पुण्यात्माजनों को भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले तथा सुखदायक हैं ।’ राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।

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नरेंद्र मोदी: चाय विक्रेता से प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी

गुजरात के एक रेलवे स्टेशन पर कभी चाय बेचने वाले नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति में धूमकेतु की तरह आगे बढ़े हैं। वर्ष 2001 में मुख्यमंत्री बनने के बाद सुर्खियों में आए मोदी महज 12 वर्षो में पार्टी की ओर से देश की सरकार के शीर्ष पद के प्रत्याशी बनाए गए हैं।

धुर हिंदूवादी या हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा के पैरोकार मोदी (62) जनभावनाओं को उभारने में अपनी पार्टी के किसी भी नेता से आगे माने जाते हैं। उनके साथियों का कहना है कि सदैव लक्ष्य पर निगाह टिकाए रखने वाले मोदी हर विपरीत परिस्थिति को अवसर में बदलने में दक्ष हैं।

गुजरात का मुख्यमंत्री चयनित होने से पहले मोदी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक रहे और जिस समय देश के सर्वाधिक विकसित राज्य की उन्हें कमान सौंपी गई थी उस समय तक उन्हें कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था।

तीव्र गति से आगे बढ़ते जाने वाले मोदी पर उनके आलोचकों का आरोप है कि शिखर चढ़ने में मददगार रहे लोगों को ही वे ठिकाने लगाते रहे हैं। इस सूची में सबसे ताजा नाम भाजपा के कद्दावर नेता और कभी उनके (मोदी के) संरक्षक रहे लालकृष्ण आडवाणी का भी नाम जुड़ गया है। आडवाणी तब मोदी के मार्गदर्शक थे जब उन्हें कोई जानता तक नहीं था।

मोदी को गहरे रूप से जानने वाले राजनीतिक विश्लेषक जी. वी. एल. नरसिम्हा राव ने कहा, "वे प्रतिबद्ध व्यक्ति हैं। वे अत्यंत इमानदार और परिश्रमी हैं। चाहे जैसी भी परिस्थिति हो वे समझौता नहीं करते। और यहां तक कि मोदी एक अस्थायी विजय के लिए कभी नहीं झुकेंगे।" आज के मुकाबले मोदी का शुरुआती जीवन बेहद गौण रहा है।

गुजरात के मेहसाणा जिले के एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में 17 सितंबर 1950 को जन्मे मोदी अपने माता-पिता की चार संतानों में तीसरे हैं। उनके पिता दामोदरदास चाय की एक छोटी सी दुकान चलाते थे। गुजरात के वादनगर रेलवे स्टेशन पर उनके बेटे केतली में चाय लेकर रेलगाड़ियों में बेचा करते थे।

इस परिवार का घर ऐसा था जिसमें खिड़कियों से पर्याप्त रोशनी भी नहीं पहुंचती थी। किरासन तेल पर जलनेवाली एकमात्र चिमनी धुआं और कालिख उगलती रहती थी। जो लोग मोदी को जानते हैं वे बताते हैं कि वे एक औसत दर्जे के छात्र थे। खुद उनके मुताबिक वे एक समर्पित हिंदू हैं। चार दशक तक उन्होंने नवरात्रि के दौरान केवल जल के सहारे उपवास रखते रहे।

मोदी के जीवनीलेखक नीलांजन मुखोपाध्याय के मुताबिक, युवावस्था में ही मोदी की शादी हुई, लेकिन वह निभ नहीं सकी। प्रचारक बनने के लिए उन्होंने अपने विवाहित होने के सच को छिपाए रखा। इस सच के सामने आने पर अति शुद्धतावादी संघ का प्रचारक बनना मुश्किल था।

स्कूली जीवन से ही मोदी अच्छे वक्ता रहे हैं। वे अक्सर महीनों अपने परिवार से गायब रहा करते थे। वे एकांत में रुकते या हिमालय में भटका करते थे। एक बार वे गिर के जंगलों में एक छोटे से मंदिर में ठहरे थे। 1967 में उन्होंने अपने परिवार से नाता तोड़ लिया।

मोदी संघ में औपचारिक रूप से 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद शमिल हुए। वे दिल्ली के संघ कार्यालय में रहे जहां उनकी दिनचर्या कुछ इस तरह की थी। सुबह 4 बजे जगने के बाद पूरे कार्यालय में झाडूबुहारू करना, वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के लिए चाय के साथ-साथ नाश्ता और शाम का नाश्ता बनाना और पत्रों का उत्तर देना उनका काम था। वे बर्तन भी साफ करते थे और पूरे भवन की साफ सफाई करते थे।

मोदी अपना कपड़ा भी खुद धोते थे। जब इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोपा था तब मोदी दिल्ली से गुजरात जा कर भूमिगत हो गए। एक बजाज स्कूटर पर अनवरत इधर-उधर घूमते रहते और कभी-कभी गुप्तरूप से और छपे हुए केंद्र सरकार विरोधी पर्चे बांटा करते थे। राजनीति को अंगीकार करने वाले मोदी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातक और गुजरात विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण की है।

अपने परिश्रम के दम पर मोदी ने वरिष्ठों का ध्यान खींचा और उन्हें 1987-88 में भाजपा की गुजरात इकाई में संगठन मंत्री की कमान सौंपी गई। यहीं से उनके राजनीतिक सफर की औपचारिक शुरुआत हुई।

मोदी ने आहिस्ता-आहिस्ता भाजपा पर नियंत्रण पाया और कार्यकर्ताओं के बीच पैठ बनाई। उन्होंने 1990 में तब महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जब आडवाणी ने राम मंदिर निर्माण के लिए सोमनाथ से अयोध्या तक रथ यात्रा निकाली थी। इसी रथ यात्रा ने भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज कराने में मदद दिलाई।

लेकिन राजनीतिक कद बढ़ते जाने के बीच मोदी की अपनी कुछ निजी कमजोरियां भी हैं। 1992 में उन्हें गुजरात भाजपा में दरकिनार कर दिया गया। पहले से जमे केशुभाई पटेल, शंकरसिंह वाघेला और कांशीराम राणा जैसे वरिष्ठ नेताओं को मोदी का 'उदय' नहीं पचा। 

समय बीता। मोदी पर आरोप है कि उन्होंने अपने लाभ के लिए समर्थकों को किनारे लगाने में भी परहेज नहीं किया। वर्ष 2001 में जिस मुख्यमंत्री पटेल की जगह उन्होंने ली कभी मोदी उनके विश्वासपात्र रह चुके थे।

मोदी की आज की पहचान पर 2002 के गुजरात में हुई हिंसा की व्यापक छाया है। उस समय वहां उन्हीं की सरकार थी। उनकी सरकार पर एक समुदाय विशेष के लोगों को निशाना बनाने के लिए दूसरे समुदाय को प्रोत्साहन देने का आरोप है।

उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात हिंसा पर गहरी नाराजगी जताई थी। तब मोदी के लिए आडवाणी संकटमोचक बने थे। उसके बाद 2002 के गुजरात विधानसभा चुनाव में मोदी विजेता बनकर उभरे और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

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हरियाणा का मोरनी हिल्स, जहाँ हवा में कलरव करते पक्षियों का संगीत गूंजता है

जब भी हम कभी किसी हिल्स स्टेशन पर जाने की सोचतें हैं तब हमें याद आता है धरती का स्वर्ग कश्मीर, उत्तराखंड की मनोरम वादियाँ या फिर हिमांचल की को गोद में में समाये अद्भुत स्थल लेकिन आज हम आपको एक और मनोरम स्थल के बारे में बतायेंगे जिसके बारे में सुनने के बाद आपका मन एक बार को जरुर मचलेगा कि एक बार तो घूम ही आयें। वो हरियाणा का एक मात्र हिल स्टेशन मोरनी,जो पिकनिक और सभी वर्ष के आसपास छोटी यात्राओं के लिए एक आदर्श स्थान है।

मोरनी हिल्स पहाड़ी पटरियों, वन और देवदार के पेड़, सुरम्य स्थान के साथ मोरनी हिल्स चंडीगढ़ से होते हुए (45 किलोमीटर) दूर पंचकुला जिले में स्थित है। मोरनी के गांव 1220 मीटर या समुद्र तल से 3600 फीट की ऊंचाई पर, पहाड़ी पर स्थित है। शिवालिक रेंज के निचले इलाकों में स्थित मोरनी, पक्षियों को देखने के लिए अपनी ठंडी जलवायु, सुंदर प्राकृतिक खा़का और असंख्य अवसरों के साथ एक छुट्टी के लिए आदर्श है।

मोरनी हिल्स में बड़ों के लिए बोटिंग और पैरा सेलिंग तो बच्चों के लिए ढ़ेर सारे खेल हैं। यहां मौजूद हिल्स एन थ्रिल्स पार्क में रोमांचित और रोंगटे खड़े कर देने वाली है। यहाँ एक से बढ़ कर एक चीजें हैं। एक तरफ ट्रैकिंग के लिए साफ-सुथरे और चलने के लिए उत्साहित करते रहने वाले ट्रैक हैं तो दूसरी तरफ प्रकृति प्रेमियों के लिए टिक्कर ताल किनारे बैठ कर पहाड़ और उसके ऊपर अक्सर छा जाने वाले बादलों की खूबसूरती भी है।

मोरनी वनस्पतियों और जीव का एक आकर्षक रेंज है| पाइंस ताज नीम, ओक, पीपल, जामुन, अमलतास के पेड़ों ने किनारे-किनारे से पेड़ों ने टीलों और ढलानों को कवर किया है| फूल के पेड़ बौर, पहाड़ी रंग से अटा पड़ा हैं, ये सब इतना मनोरम लगता है कि बस निहारते रहों पलक तक झपकने का मन नहीं करता। मोरनी बटेर, रेत शिकायत और आम कबूतर के साथ ही गीदड़, हाइना,सांभर और यहां तक ​​कि एक जंगली बिल्ली या दो तरह के जानवरों की तरह पक्षियों के अपने बहुतायत आबादी के साथ वन्य जीवन के प्रति उत्साही और पक्षियों को पसंद करने वालों के लिए मानो यह किसी स्वर्ग से कम नहीं।

पंचकुला से यात्रा शुरू करते हैं। हर रोज यहाँ के बस अड्डे से मोरनी के लिए दोपहर 2 बजे तक नियमित बसें जाती हैं और शाम तक मोरनी गांव से पंचकुला लौटती हैं, लेकिन टैक्सी आदि चंडीगढ़ से भी ली जा सकती है। अपनी या रिजर्व गाड़ी है तो फिर पूछने ही क्या । पिंजौंर गार्डन के पास से मोरनी हिल्स के लिए रास्ता अलग हो जाता है जो आपको मोरनी हिल्स के एक छोटे से मोरनी गांव में ले जाता है।

यहां तक सीढ़ी चढ़ाई के बाद आपको बिलकुल थकान नहीं लगेगी इतना अद्भुत रास्ता है कि बस ये आपको अपनी तरफ खीचता ही जायेगा। यहां से लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर ही आपको आपकी मंजिल यानी एडवेंचर पार्क पुकार रहा होगा। ढ़लान पर उतरते हुए शुरू हो जाएगा नजरों के सामने चारों तरफ दूर-दूर तक फैले हरे-भरे पहाड़ों का नजारा। चीड़, नीम, पीपल, जामुन, अमलतास आदि के पेड़, उन पर कलरव करते पक्षियों का संगीत और संगीत को और मनमोहक बनाती ठंडी-ठंडी हवा। पतले रास्ते के एक तरफ खड़े ऊंचे पहाड़ और दूसरी तरफ पसरी खाई के बीच यात्रा करते हुए आप रोमांचित होते हुए आगे बढ़ते जाते हैं।


वहां की शिवालिक की पहाड़ी के पास स्थित मोरनी हिल्स जैसे लगता है कि यह स्थान पहाड़ियों की चरणों में अपना शीश झुकाए हुए है। ये झूमती मचलती, गुनगुनाती पहाड़ी हवाएं इंसान के मन को गुदगुदाए बगैर नहीं रहती। अगर अप यह सोच के जाते हैं कि घूम के तुरंत लौट आये तो आप ऐसा कर नहीं सकते। जब भी जाएंगे तो मन कम से कम एक दो रात यहां ठहरने को मचलने लगेगा।

यहाँ गांव के लोग शहरी सभ्यता से दूर सीधी साधी जिंदगी व्यतीत करते दिखाई देंगें। छोटे-छोटे खेतों में काम करते मजदूर दिखाई देंगे। एच एंड जे (होश एंड जोश) यानी हिल्स एन थ्रिल्स में तो आप कई-कई घंटे पूरे परिवार के साथ बिता सकते हैं। इसके अंदर तरह-तरह के खेल तो हैं ही, घग्गर नदी के किनारे के अलावा एक ट्रैकिंग रूट भी है और पास ही में एक डरावना घर भी।

दिल्ली से लगभग 290 किमी की दूरी पर स्थित इस पार्क के पास ताल के किनारे खाने-पीने के लिए एक शानदार रेस्तरां भी है। पास ही में हरियाणा टूरिज्म का माउंटेन क्वैल टूरिस्ट रिजॉर्ट भी है, जो आपके बजट में ही है। आप चाहे तो यहां ताल के किनारे कैंपिंग भी कर सकते हैं। ऐसे टेंटेड एकोमोडेशन को एंजॉय करने के लिए आप हरियाणा टूरिज्म से पैकेज तैयार करवा सकते हैं, लेकिन इसके लिए आपके ग्रुप में कम से कम 15 लोग शामिल हों।

कैसे पहुंचें

हवाई मार्ग से: नजदीकी हवाई अड्डा चंडीगढ़ सिर्फ 38 किलोमीटर की दूरी पर है। दिल्ली से चंडीगढ़ के लिए दिन भर में अनेक उड़ानें हैं।

रेल मार्ग से : रेलवे स्टेशन चंडीगढ़ सिर्फ 35 किलोमीटर की दूरी पर है। दिल्ली से चंडीगढ़ के लिए कई गाड़ियाँ चलतीं हैं।

सड़क मार्ग से : पंचकुला से मोरनी गांव तक बस या अपनी टैक्सी से पहुंचा जा सकता है। पंचकुला बस अड्डे से मोरनी गांव की दूरी लगभग 30 किलोमीटर है। मोरनी गांव से टैक्सी, ऑटो आदि से एडवेंचर पार्क तक की 6 किलोमीटर की दूरी तय की जा सकती है।

12 ज्योतिर्लिंगों के दर्शन मात्र से मिट जातें हैं सारे कष्ट

भारतीय मान्यता के अनुसार दुनिया में लगभग 36 करोड़ हिन्दू देवी देवता हैं, जिन्हें पूजा जाता है लेकिन उन सब में भगवन शंकर को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसलिए तो उन्हें देवों के देव महा देव कहतें हैं। इन्हीं महा देव के बारह ज्योतिर्लिंग हमारे देश में स्थित हैं। हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रकट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। शिवपुराण कथा में बारह ज्योतिर्लिंग के वर्णन की महिमा बताई गई है ये 12 ज्योतिर्लिंग हैं- 

सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्री सोमनाथ, श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन, उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल, ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर, परली में वैद्यनाथ, डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशङ्कर, सेतुबंध पर श्री रामेश्वर, दारुकावन में श्रीनागेश्वर, वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ, गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर, हिमालय पर केदारखंड में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्रीघुश्मेश्वर। कहा जाता है कि भगवान शिव के इन बारह अवतारों में से किसी एक ज्योतिर्लिग का भी अगर पूजन किया जाए तो भक्त को मुक्ति मिल जाती है। साथ ही दैविक, दैहिक व भौतिक कष्टों से छुटकारा भी मिलता है। आईये जानतें हैं इन ज्योतिर्लिंगों के पौराणिक महत्व-

श्री सोमनाथ:

भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिम में अरब सागर के तट पर स्थित आदि ज्योतिर्लिंग श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग स्थित है। यह तीर्थस्थान देश के प्राचीनतम तीर्थस्थानों में से एक है और इसका उल्लेख स्कंदपुराणम, श्रीमद्‍भागवत गीता, शिवपुराणम आदि प्राचीन ग्रंथों में भी है। वहीं ऋग्वेद में भी सोमेश्वर महादेव की महिमा का उल्लेख है। कहा जाता है कि ईसा के पूर्व बने इस मंदिर का पुनर्निर्माण सातवीं सदी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया। प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया । इस मंदिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी|

अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन 1024 में सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया| 1024 के दिसंबर महिने में मुहमद गजनवी ने कुछ 500 साथीयों के साथ मंदिर में लूटपाट की मंदिर के लिंग को नाश करना चाहा उस वक़्त 50,000 लोग मंदिर के अंदर हाथ जोडकर पूजा अर्चना कर रहे थे ,सभी कत्ल कर दिये गये। इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया । महमूद गजनवी ने इस मंदिर पर 17 बार आक्रमण किया था। सन 1297 में जब दिल्ली सल्तनत ने गुजरात पर क़ब्ज़ा किया तो इसे पाँचवीं बार गिराया गया| 

मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे पुनः 1706 में गिरा दिया । इस समय जो मंदिर खड़ा है उसे भारत के गृह मन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया और पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया। सोमनाथजी के मंदिर की व्यवस्था और संचालन का कार्य सोमनाथ ट्रस्ट के अधीन है। सरकार ने ट्रस्ट को जमीन, बाग-बगीचे देकर आय का प्रबंध किया है। यह तीर्थ पितृगणों के श्राद्ध, नारायण बलि आदि कर्मो के लिए भी प्रसिद्ध है। चैत्र, भाद्र, कार्तिक माह में यहां श्राद्ध करने का विशेष महत्व बताया गया है। इन तीन महीनों में यहां श्रद्धालुओं की बडी भीड लगती है। इसके अलावा यहां तीन नदियों हिरण, कपिला और सरस्वती का महासंगम होता है। इस त्रिवेणी स्नान का विशेष महत्व है।

धार्मिक महत्व- पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार सोम नाम चंद्र का है, जो दक्ष के दामाद थे। एक बार उन्होंने दक्ष की आज्ञा की अवहेलना की, जिससे कुपित होकर दक्ष ने उन्हें श्राप दिया कि उनका प्रकाश दिन-प्रतिदिन धूमिल होता जाएगा। जब अन्य देवताओं ने दक्ष से उनका श्राप वापस लेने की बात कही तो उन्होंने कहा कि सरस्वती के मुहाने पर समुद्र में स्नान करने से श्राप के प्रकोप को रोका जा सकता है। सोम ने सरस्वती के मुहाने पर स्थित अरब सागर में स्नान करके भगवान शिव की आराधना की। प्रभु शिव यहाँ पर अवतरित हुए और उनका उद्धार किया व सोमनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए।


श्रीमल्लिकार्जुन:

यह ज्योतिर्लिंङ्ग आंध्रप्रदेश के कर्नूल जिले में कृष्णा नदी के किनारे श्रीशैलम् पहाड़ी पर स्थित है। इस पहाड़ी को श्री पर्वत, मलया गिरि और क्रौंच पर्वत भी कहते हैं। इसे दक्षिण का कैलाश भी कहते हैं मल्लिका का मतलब पार्वती और अर्जुन का अर्थ शिव होता है। शिवरात्रि के दिन इनकी पूजा और आराधना का धार्मिक महत्व है। कथा एक बार शंकर और पार्वती के पुत्र गणेश व कार्तिकेय के बीच पहले शादी करने के लिए विवाद हो गया। तब शंकर और पार्वती ने कहा दोनों में से जो भी इस पृथ्वी की परिक्रमा पहले करेगा उसकी शादी पहले होगी। कार्तिकेय पृथ्वी का चक्कर लगाने निकल पड़े और गणेश ने शिव-पार्वती की परिक्रमा कर ली। शास्त्रों में माता-पिता की परिक्रमा पृथ्वी के समान बताई गई है। अत: गणेश का विवाह सिद्धि व बुद्धि नाम को दो कन्याओं से कर दिया गया। इससे कार्तिकेय नाराज होकर श्री शैलम् पर्वत पर चले गए। 

कार्तिकेय को खुश करने के लिए शिव इस पर्वत पर ज्योतिर्लिंङ्ग के रूप में प्रकट हुए। यही ज्योतिर्लिंङ्ग मल्लिकार्जुन कहलाया। इसी पहाड़ी पर पार्वती भ्रमराम्बा देवी के रूप में प्रकट हुईं। महत्व ऐसा कहा जाता है कि रावण का वध करने के बाद राम और सीता ने भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंङ्ग के दर्शन किए थे। द्वापर युग में युधिष्ठिïर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव ने इनकी पूजा-अर्चना की थी। राक्षसों का राजा हिरण्यकश्यप भी इनकी पूजा करता था। बाद में मंदिर की संपत्ति लूटने के लिए हिंदू विरोधी मान्यता के लोगों ने तोडफ़ोड़ भी की। कालांतर में विजयनगर के राजा श्रीकृष्णदेव राय और रेड्डी वंश के राजाओं ने मंदिर का पुनरोद्धार कराया। धर्मग्रन्थों में यह महिमा बताई गई है कि श्रीशैल शिखर के दर्शन मात्र से मनुष्य सब कष्ट दूर हो जाते हैं और अपार सुख प्राप्त कर जीवन के आवागमन के चक्र से मुक्ति मिलती है अर्थात् मोक्ष प्राप्त होता है।

श्रीमहाकाल:

यह परम पवित्र ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर में है। पुण्यसलिला क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित उज्जैन प्राचीनकाल में उज्जयिनी के नाम से विख्यात था, इसे अवन्तिकापुरी भी कहते थे। यह भारत की परम पवित्र सप्तपुरियों में से एक है। महाभारत, शिवपुराण एवं स्कन्दपुराण में महाकाल ज्योतिर्लिंग की महिमा का पूरे विस्तार के साथ वर्णन किया गया है।

इस ज्योतिर्लिंग की कथा पुराणों में इस प्रकार वर्णित है- प्राचीनकाल में उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन राज्य करते थे। वह परम शिव-भक्त थे। एक दिन श्रीकर नामक एक पाँच वर्ष का गोप-बालक अपनी माँ के साथ उधर से गुजर रहा था। राजा का शिवपूजन देखकर उसे बहुत विस्मय और कौतूहल हुआ। वह स्वयं उसी प्रकार की सामग्रियों से शिवपूजन करने के लिए लालायित हो उठा।

सामग्री का साधन न जुट पाने पर लौटते समय उसने रास्ते से एक पत्थर का टुकड़ा उठा लिया। घर आकर उसी पत्थर को शिव रूप में स्थापित कर पुष्प, चंदन आदि से परम श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करने लगा। माता भोजन करने के लिए बुलाने आई, किंतु वह पूजा छोड़कर उठने के लिए किसी भी प्रकार तैयार नहीं हुआ। अंत में माता ने झल्लाकर पत्थर का वह टुकड़ा उठाकर दूर फेंक दिया। इससे बहुत ही दुःखी होकर वह बालक जोर-जोर से भगवान्‌ शिव को पुकारता हुआ रोने लगा। 

रोते-रोते अंत में बेहोश होकर वह वहीं गिर पड़ा। बालक की अपने प्रति यह भक्ति और प्रेम देखक भोलेनाथ भगवान्‌ शिव अत्यंत प्रसन्न हो गए। बालक ने जैसे ही होश में आकर अपने नेत्र खोले तो उसने देखा कि उसके सामने एक बहुत ही भव्य और अतिविशाल स्वर्ण और रत्नों से बना हुआ मंदिर खड़ा है। उस मंदिर के अंदर एक बहुत ही प्रकाशपूर्ण, भास्वर, तेजस्वी ज्योतिर्लिंग खड़ा है। बच्चा प्रसन्नता और आनंद से विभोर होकर भगवान्‌ शिव की स्तुति करने लगा। 

माता को जब यह समाचार मिला तब दौड़कर उसने अपने प्यारे लाल को गले से लगा लिया। पीछे राजा चंद्रसेन ने भी वहाँ पहुँचकर उस बच्चे की भक्ति और सिद्धि की बड़ी सराहना की। धीरे-धीरे वहाँ बड़ी भीड़ जुट गई। इतने में उस स्थान पर हनुमानजी प्रकट हो गए। उन्होंने कहा- 'मनुष्यों! भगवान शंकर शीघ्र फल देने वाले देवताओं में सर्वप्रथम हैं। इस बालक की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्होंने इसे ऐसा फल प्रदान किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि करोड़ों जन्मों की तपस्या से भी प्राप्त नहीं कर पाते। इस गोप-बालक की आठवीं पीढ़ी में धर्मात्मा नंदगोप का जन्म होगा। द्वापरयुग में भगवान्‌ विष्णु कृष्णावतार लेकर उनके वहाँ तरह-तरह की लीलाएँ करेंगे।' हनुमान्‌जी इतना कहकर अंतर्धान हो गए। उस स्थान पर नियम से भगवान शिव की आराधना करते हुए अंत में श्रीकर गोप और राजा चंद्रसेन शिवधाम को चले गए।

ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर:


यह ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश में पवित्र नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। इस स्थान पर नर्मदा के दो धाराओं में विभक्त हो जाने से बीच में एक टापू-सा बन गया है। इस टापू को मान्धाता-पर्वत या शिवपुरी कहते हैं। नदी की एक धारा इस पर्वत के उत्तर और दूसरी दक्षिण होकर बहती है। 

दक्षिण वाली धारा ही मुख्य धारा मानी जाती है। इसी मान्धाता-पर्वत पर श्री ओंकारेश्वर-ज्योतिर्लिंग का मंदिर स्थित है। पूर्वकाल में महाराज मान्धाता ने इसी पर्वत पर अपनी तपस्या से भगवान्‌ शिव को प्रसन्न किया था। इसी से इस पर्वत को मान्धाता-पर्वत कहा जाने लगा। 

इस ज्योतिर्लिंग-मंदिर के भीतर दो कोठरियों से होकर जाना पड़ता है। ओंकारेश्वर लिंग मनुष्य निर्मित नहीं है। स्वयं प्रकृति ने इसका निर्माण किया है। इसके चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। संपूर्ण मान्धाता-पर्वत ही भगवान्‌ शिव का रूप माना जाता है। इसी कारण इसे शिवपुरी भी कहते हैं लोग भक्तिपूर्वक इसकी परिक्रमा करते हैं। कार्त्तिकी पूर्णिमा के दिन यहाँ बहुत भारी मेला लगता है। यहाँ लोग भगवान्‌ शिवजी को चने की दाल चढ़ाते हैं रात्रि की शिव आरती का कार्यक्रम बड़ी भव्यता के साथ होता है। तीर्थयात्रियों को इसके दर्शन अवश्य करने चाहिए।

इस ओंकारेश्वर-ज्योतलिंग के दो स्वरूप हैं। एक को ममलेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह नर्मदा के दक्षिण तट पर ओंकारेश्वर से थोड़ी दूर हटकर है पृथक होते हुए भी दोनों की गणना एक ही में की जाती है। लिंग के दो स्वरूप होने की कथा पुराणों में इस प्रकार दी गई है- एक बार विन्ध्यपर्वत ने पार्थिव-अर्चना के साथ भगवान्‌ शिव की छः मास तक कठिन उपासना की। उनकी इस उपासना से प्रसन्न होकर भूतभावन शंकरजी वहाँ प्रकट हुए। उन्होंने विन्ध्य को उनके मनोवांछित वर प्रदान किए। विन्ध्याचल की इस वर-प्राप्ति के अवसर पर वहाँ बहुत से ऋषिगण और मुनि भी पधारे। उनकी प्रार्थना पर शिवजी ने अपने ओंकारेश्वर नामक लिंग के दो भाग किए। एक का नाम ओंकारेश्वर और दूसरे का अमलेश्वर पड़ा। दोनों लिंगों का स्थान और मंदिर पृथक्‌ होते भी दोनों की सत्ता और स्वरूप एक ही माना गया है।

शिवपुराण में इस ज्योतिर्लिंग की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। श्री ओंकारेश्वर और श्री ममलेश्वर के दर्शन का पुण्य बताते हुए नर्मदा-स्नान के पावन फल का भी वर्णन किया गया है। प्रत्येक मनुष्य को इस क्षेत्र की यात्रा अवश्य ही करनी चाहिए। इनके दर्शन मात्र से ही अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के सभी साधन उसके लिए सहज ही सुलभ हो जाते हैं। अंततः उसे लोकेश्वर महादेव भगवान्‌ शिव के परमधाम की प्राप्ति भी हो जाती है।

श्री वैद्यनाथ:

श्री वैद्यनाथ ज्योतिलिंग बिहार प्रांत के संथाल परगने में स्थित है। शास्त्र और लोक दोनों में इसकी बड़ी प्रसिद्धि है। इसकी स्थापना के विषय में यह कथा कही जाती है-

एक बार रावण ने हिमालय पर जाकर भगवान शिव के दर्शन प्राप्त करने के लिए बड़ी घोर तपस्या की। उसने एक-एक करके अपने सिर काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू किए। इस प्रकार उसने अपने नौ सिर वहां काट कर चढ़ा डाले। जब वह अपना दसवां और अंतिम सिर काट कर चढ़ाने के लिए उद्यत हुआ तब भगवान शिव अति प्रसन्न और संतुष्ट होकर उसके समक्ष प्रकट हो गए। शीश काटने को उद्यत रावण का हाथ पकड़कर उन्होंने उसे वैसा करने से रोक दिया। उसके नौ सिर भी पहले की तरह जोड़ दिए और अत्यंत प्रसन्न होकर उससे वर मांगने को कहा।

रावण ने वर के रूप में भगवान शिव से उस लिंग को अपनी राजधानी लंका में ले जाने की आज्ञा मांगी। भगवान शिव ने उसे यह वरदान तो दे दिया लेकिन एक शर्त भी उसके साथ लगा दी। उन्होंने कहा कि तुम इसे ले जा सकते हो किन्तु यदि रास्ते में इसे कहीं रख दोगे तो यह वहीं अचल हो जाएगा, तुम फिर इसे उठा न सकोगे। रावण इस बात को स्वीकार कर उस शिवलिंग को उठाकर लंका के लिए चल पड़ा। चलते-चलते एक जगह मार्ग में उसे लघुशंका करने की आवश्यकता महसूस हुई। वह उस शिवलिंग को एक अहीर के हाथ में थमा कर लघुशंका की निवृत्ति के लिए चल पड़ा। उस अहीर को शिवलिंग का भार बहुत अधिक लगा वह उसे संभाल न सका।

विवश होकर उसने उसे वहीं भूमि पर रख दिया। रावण जब लौट कर आया तब उसके बहुत प्रयत्न करने के बाद भी उस शिवलिंग को किसी प्रकार उठा न सका। अंत में निरुपाय होकर उस पवित्र शिवलिंग पर अपने अंगूठे का निशान बनाकर उसे वहीं छोड़कर लंका को लौट गया। तत्पश्चात ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने वहां आकर उस शिवलिंग का पूजन किया। इस प्रकार वहां उसकी प्रतिष्ठा कर वे लोग अपने-अपने धाम को लौट गए। यही ज्योतिलिंग श्री वैद्यनाथ के नाम से जाना जाता है। यह वैद्यनाथ-ज्योतिलिंग अनंत फलों को देने वाला है। यह ग्यारह अंगुल ऊंचा है।

इसके ऊपर अंगूठे के आकार का निशान है। कहा जाता है कि यह वही निशान है जिसे रावण ने अपने अंगूठे से बनाया था। यहां दूर-दूर से तीर्थों का जल लाकर चढ़ाने का विधान है। रोग मुक्ति के लिए भी इस ज्योतिलिंग की महिमा बहुत प्रसिद्ध है। पुराणों में बताया गया है कि जो मनुष्य इस ज्योतिलिंग के दर्शन करता है उसे अपने समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है।

उस पर भगवान शिव की कृपा सदा बनी रहती है। दैहिक, दैविक, भौतिक कष्ट उसके पास भूल कर भी नहीं आते। भगवान भूत भावना की कृपा से वह सारी बाधाओं, समस्त रोगों-शोकों से छुटकारा पा जाता है। उसे परम शांतिदायक शिवधाम की प्राप्ति होती है। शिव की कृपा प्राप्त जन सारे संसार के लिए सुखदायक होता है। उसके सारे कृत्य भगवान शिव को समर्पित करके किए जाते हैं। सारे संसार में उसे भगवान शिव के ही दर्शन होते हैं। सारे प्राणियों के प्रति उसमें ममता और दया का भाव होता है। सभी भेदों में उसकी अभेद दृष्टि हो जाती है। 

श्रीभीमशङ्कर:

श्रीभीमशङ्कर ज्योतिर्लिंग पुणे से लगभग 100 किलोमिटर दूर सेह्याद्री की पहाड़ी पर स्थित है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना के विषय में शिवपुराण में यह कथा वर्णित है कि एक समय प्राचीनकाल में भीम नामक एक महाप्रतापी राक्षस हुआ करता था। वह अपनी माँ के साथ कामरूप प्रदेश में रहता था। वह महाबली राक्षस, राक्षसराज रावण के छोटे भाई कुंभकर्ण का पुत्र था लेकिन उसने अपने पिता से कभी मिला नहीं था। उसके होश संभालने के पूर्व ही भगवान्‌ राम के द्वारा कुंभकर्ण का वध कर दिया गया था। जब वह युवावस्थामें आया तब उसकी माता ने उससे सारी बातें बताईं। भगवान्‌ विष्णु के अवतार श्रीरामचंद्रजी द्वारा अपने पिता के वध की बात सुनकर वह महाबली राक्षस अत्यंत क्रुद्ध हो उठा। अब वह निरंतर भगवान्‌ श्री हरि के वध का उपाय सोचने लगा। 

उसने अपनी इस इक्छा को पूरी करने के लिए एक हजार वर्ष तक कठिन तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उसे लोक विजयी होने का वर दे दिया। अब तो वह राक्षस ब्रह्माजी के उस वर के प्रभाव से सारे प्राणियों को पीड़ित करने लगा। उसने देवलोक पर आक्रमण करके इंद्र आदि सारे देवताओं को वहाँ से बाहर निकाल दिया।

उसने पूरे देवलोक पर भी अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने भगवान्‌ श्रीहरि को भी युद्ध में परास्त किया। श्रीहरि को पराजित करने के पश्चात उसने कामरूप के परम शिवभक्त राजा सुदक्षिण पर आक्रमण करके उन्हें मंत्रियों-अनुचरों सहित बंदी बना लिया। इस प्रकार धीरे-धीरे उसने सारे लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया। उसके अत्याचार से वेदों, पुराणों, शास्त्रों और स्मृतियों का सर्वत्र एकदम लोप हो गया। वह किसी को कोई भी धार्मिक कृत्य नहीं करने देता था। इस प्रकार यज्ञ, दान, तप, स्वाध्याय आदि के सारे काम एकदम रूक गए। 

भीम के अत्याचार की भीषणता से घबराकर ऋषि-मुनि और देवगण भगवान्‌ शिव की शरण में गए और उनसे अपना तथा अन्य सारे प्राणियों का दुःख कहा। उनकी यह प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने कहा कि मैं शीघ्र ही उस अत्याचारी राक्षस का संहार करूँगा। उसने मेरे प्रिय भक्त, कामरूप-नरेश सुदक्षिण को भी सेवकों सहित बंदी बना लिया है। वह अत्याचारी असुर अब और अधिक जीवित रहने का अधिकारी नहीं रह गया। भगवान्‌ शिव से यह आश्वासन पाकर ऋषि-मुनि और देवगण अपने-अपने स्थान को वापस लौट गए।

इधर राक्षस भीम के बंदीगृह में पड़े हुए राजा सदक्षिण ने भगवान्‌ शिव का ध्यान किया। वे अपने सामने पार्थिव शिवलिंग रखकर अर्चना कर रहे थे। उन्हें ऐसा करते देख क्रोधोन्मत्त होकर राक्षस भीम ने अपनी तलवार से उस पार्थिव शिवलिंग पर प्रहार किया। किंतु उसकी तलवार का स्पर्श उस लिंग से हो भी नहीं पाया कि उसके भीतर से साक्षात्‌ शंकरजी वहाँ प्रकट हो गए। उन्होंने उस राक्षस को वहीं जलाकर भस्म कर दिया।

भगवान्‌ शिवजी का यह अद्भुत कृत्य देखकर सारे ऋषि-मुनि और देवगण वहाँ एक होकर उनकी स्तुति करने लगे। उन लोगों ने भगवान्‌ शिव से प्रार्थना की कि महादेव! आप लोक-कल्याणार्थ अब सदा के लिए यहीं निवास करें। यह क्षेत्र शास्त्रों में अपवित्र बताया गया है। आपके निवास से यह परम पवित्र पुण्य क्षेत्र बन जाएगा। भगवान्‌ शिव ने सबकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। वहाँ वह ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा के लिए निवास करने लगे। उनका यह ज्योतिर्लिंग भीमेश्वर के नाम से विख्यात हुआ।

श्री रामेश्वरम:

हिंदू धर्म में तमिलनाडु के रामनाथपुरम में स्थित रामेश्वरम ज्योतिर्लिग एक विशेष स्थान रखता है। यहां स्थापित शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि उत्तर में जितना महत्व काशी का है, उतना ही महत्व दक्षिण में रामेश्वरम का भी है। रामेश्वरम चेन्नई से करीब 425 मील दूर दक्षिण-पूर्व में स्थित एक सुंदर टापू है, जिसे हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी चारों तरफ से घेरे हुए है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीरामंद्रजी ने की थी। स्कंदपुराण में इसकी महिमा विस्तार से वर्णित है|

कहतें है जबभगवान्‌ श्रीरामंद्रजी लंका पर चढ़ाई करने के लिए जा रहे थे तब इसी स्थान पर उन्होंने समुद्र की बालू से शिवलिंग बनाकर उसका पूजन किया था। दूसरी कथा भी प्रचलित है कहते हैं कि भगवान श्री राम जब रावण का वध करके और माता सीता को कैद से छुड़ाकर अयोध्या जा रहे थे तब उन्होंने मार्ग में गन्धमादन पर्वत पर रुक कर विश्राम किया था। उनके आने की खबर सुनकर ऋषि-महर्षि उनके दर्शन के लिए वहां पहुंचे। ऋषियों ने उन्हें याद दिलाया कि उन्होंने पुलस्त्य कुल का विनाश किया है, जिससे उन्हें ब्रह्म हत्या का पातक लग गया है। 

श्रीराम ने पाप से मुक्ति के लिए ऋषियों के आग्रह से ज्योतिर्लिग स्थापित करने का निर्णय लिया। इसके लिए उन्होंने हनुमान से अनुरोध किया कि वे कैलाश पर्वत पर जाकर शिवलिंग लेकर आएं लेकिन हनुमान शिवलिंग की स्थापना की निश्चित घड़ी पास आने तक नहीं लौट सके। जिसके बाद सीताजी ने समुद्र के किनारे की रेत को मुट्ठी में बांधकर एक शिवलिंग बना डाला। श्रीराम ने प्रसन्न होकर इसी रेत के शिवलिंग को प्रतिष्ठापित कर दिया। यही शिवलिंग रामनाथ कहलाता है। बाद में हनुमान के आने पर उनके द्वारा लाए गए शिवलिंग को उसके साथ ही स्थापित कर दिया गया। इस लिंग का नाम भगवान राम ने हनुमदीश्वर रखा।

श्रीनागेश्वर:

भगवान शिव का यह प्रसिद्ध ज्योतिलिंग गुजरात प्रांत में द्वारका पुरी से लगभग 17 मील दूर स्थित है। इसके संबंध में पुराणों में यह कथा दी हुई है कि सुप्रिय नामक एक बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी व्यापारी भगवान शिव का अनन्य भक्त था। वह निरंतर उनके आराधन, पूजन और ध्यान में लीन रहता था। मन, वचन, कर्म से वह पूर्णत: शिवार्चन में ही तल्लीन रहता था। उसकी इस शिव भक्ति से दारुक नामक एक राक्षस बहुत क्रुद्ध रहता था। उसे भगवान शिव की यह पूजा किसी प्रकार भी अच्छी नहीं लगती थी। वह निरंतर इस बात का प्रयत्न किया करता था कि सुप्रिय की पूजा-अर्चना में विघ्न पहुंचे। एक बार सुप्रिय नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था तब उस दुष्ट राक्षस ने यह उपयुक्त अवसर देख कर उस नौका पर आक्रमण कर दिया। उसने नौका में सवार सभी यात्रियों को पकड़ कर अपनी राजधानी में ले जाकर कैद कर दिया। 

सुप्रिय कारागार में भी अपने नित्य नियम के अनुसार भगवान शिव की पूजा-आराधना करने लगा। अन्य बंदी यात्रियों को भी वह शिव भक्ति की प्रेरणा देने लगा। दारुक ने जब अपने सेवकों से सुप्रिय के विषय में यह समाचार सुना तब वह अत्यंत क्रुद्ध होकर उस कारागार में आ पहुंचा। सुप्रिय उस समय भगवान शिव के चरणों में ध्यान लगाए हुए दोनों आंखें बंद किए बैठा था।

राक्षस ने उसकी यह मुद्रा देख कर अत्यंत भीषण स्वर में उसे डांटते हुए कहा कि अरे दुष्ट, तू आंखें बंद कर इस समय यहां कौन से उपद्रव और षड्यंत्र करने की बातें सोच रहा है?’ उसके यह कहने पर भी धर्मात्मा शिव भक्त सुप्रिय की समाधि भंग नहीं हुई। अब तो वह महाभयानक राक्षस क्रोध से एकदम बावला हो उठा। उसने तत्काल अपने अनुचर राक्षसों को सुप्रिय तथा अन्य सभी बंदियों को मार डालने का आदेश दे दिया।

सुप्रिय उसके इस आदेश से जरा भी विचलित और भयभीत नहीं हुआ। वह एक निष्ठ भाव और एकाग्र मन से अपनी व अन्य बंदियों की मुक्ति के लिए भगवान शिव को पुकारने लगा। उसे पूर्ण विश्वास था कि मेरे आराध्य भगवान शिव इस विपत्ति से मुझे अवश्य ही छुटकारा दिलाएंगे। उसकी प्रार्थना सुन कर भगवान शंकर तत्क्षण उस कारागार में एक ऊंचे स्थान में एक चमकते हुए सिंहासन पर स्थित होकर ज्योतिलिंग के रूप में प्रकट हो गए। उन्होंने इस प्रकार सुप्रिय को दर्शन देकर उसे अपना पाशुपत अस्त्र भी प्रदान किया। उस अस्त्र से राक्षस दारुक तथा उसके सहायकों का वध करके सुप्रिय शिव धाम को चला गया। भगवान शिव के आदेशानुसार ही इस ज्योतिलिंग का नाम नागेश्वर पड़ा।
कहा गया है कि जो श्रद्धापूर्वक इसकी उत्पत्ति और माहात्म्य की कथा सुनेगा वह सारे पापों से छुटकारा पाकर समस्त सुखों का भोग करता हुआ अंत में भगवान्‌ शिव के परम पवित्र दिव्य धाम को प्राप्त होगा। 

श्री विश्वनाथ:

काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्‍वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्‍ट स्‍थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्‍नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस ज्योतिर्लिंग के बारे में कथा प्रचलित है कि भगवान्‌ शंकर पार्वतीजी से विवाह करके कैलास पर्वत रह रहे थे लेकिन वहाँ पिता के घर में ही विवाहित जीवन बिताना पार्वतीजी को अच्छा न लगता था। 

एक दिन उन्होंने भगवान्‌ शिव से कहा कि आप मुझे अपने घर ले चलिए। यहाँ रहना मुझे अच्छा नहीं लगता। सारी लड़कियाँ शादी के बाद अपने पति के घर जाती हैं, मुझे पिता के घर में ही रहना पड़ रहा है। भगवान्‌ शिव ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। माता पार्वतीजी को साथ लेकर अपनी पवित्र नगरी काशी में आ गए। यहाँ आकर वे विश्वनाथ-ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए।

इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन-पूजन द्वारा मनुष्य समस्त पापों-तापों से छुटकारा पा जाता है। प्रतिदिन नियम से श्री विश्वनाथ के दर्शन करने वाले भक्तों के योगक्षेम का समस्त भार भगवान शंकर अपने ऊपर ले लेते हैं। ऐसा भक्त उनके परमधाम का अधिकारी बन जाता है। भगवान्‌ शिवजी की कृपा उस पर सदैव बनी रहती है।

श्री त्र्यम्बकेश्वर:

त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग मन्दिर महाराष्ट्र-प्रांत के नासिक जिले में हैं यहां के निकटवर्ती ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम है। इन्हीं पुण्यतोया गोदावरी के उद्गम-स्थान के समीप असस्थित त्रयम्बकेश्वर-भगवान की भी बड़ी महिमा हैं गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भगवान शिव इस स्थान में वास करने की कृपा की और त्र्यम्बकेश्वर नाम से विख्यात हुए। मंदिर के अंदर एक छोटे से गङ्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग है, ब्रह्मा, विष्णु और शिव- इन तीनों देवों के प्रतिक माने जाते हैं। 

त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना के संबंध में पुराणों में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। शिवपुराण के मुताबिक, यह स्थान कभी ऋषि गौतम और हजारों साधु-संतों का तपोस्थल था। अपनी साधना और तपोबल के कारण ऋषि गौतम अन्य सभी संतों से इक्कीस पड़ते थे। उनकी प्रसिद्धि से सारा संत समाज चिढ़ता था। एक बार कुछ साधुओं ने ऋषि गौतम को गोहत्या के झूठे आरोप में फंसा दिया। गोहत्या के कलंक से छुटकारा पाने के लिए महर्षि गौतम ने ब्रह्मïगिरि पर्वत पर तपस्या कर भगवान शिव को प्रकट होने और उनकी जटाओं में बसी गंगा को अवतरित होने के लिए मजबूर कर दिया, तभी से माना जाता है कि इस स्थान पर भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में और उनकी प्रिय गंगा गोदावरी नदी के रूप में स्थापित हैं।

कहा जाता है कि यह ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को प्रदान करने वाला है। मंदिर परिसर में सारा साल धार्मिक अनुष्ठान व पूजा चलती रहती है, काल सर्प दोष, नारायण नागबली पूजा के लिए देशभर से लोग यहां आते हैं। मंदिर के पास में ही कुशावर्त तीर्थस्थल है, जहां गोदावरी बहती है। यहां से 7 कि.मी. की दूरी पर अंजनेरी पर्वत स्थित है, जिसे हनुमान जी की जन्मस्थली माना जाता है। श्री क्षेत्र त्र्यम्बकेश्वर एक महान तीर्थस्थल है, जहां आने वालों के सभी कष्टï भगवान शंकर दूर करते हैं। त्र्यम्बकेश्वर के कण-कण में भगवान शिव और उनसे जुड़ी कथाओं की महक आती है। यहां आकर तन और मन दोनों उल्लास से भर जाते हैं।

श्री केदारनाथ:

यह ज्योतिर्लिंग पर्वतराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर स्थित है। यहाँ की प्राकृतिक शोभा देखते ही बनती है। इस चोटी के पश्चिम भाग में पुण्यमती मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित केदारेश्वर महादेव का मंदिर अपने स्वरूप से ही हमें धर्म और अध्यात्म की ओर बढ़ने का संदेश देता है। चोटी के पूर्व में अलकनंदा के सुरम्य तट पर बद्रीनाथ का परम प्रसिद्ध मंदिर है। अलकनंदा और मंदाकिनी- ये दोनों नदियाँ नीचे रुद्रप्रयाग में आकर मिल जाती हैं। दोनों नदियों की यह संयुक्त धारा और नीचे देवप्रयाग में आकर भागीरथी गंगा से मिल जाती हैं। इस प्रकार परम पावन गंगाजी में स्नान करने वालों को भी श्री केदारेश्वर और बद्रीनाथ के चरणों को धोने वाले जल का स्पर्श सुलभ हो जाता है। कहा जाता है कि यहीं महातपस्वी श्रीनर और नारायण ने बहुत वर्षों तक भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए बड़ी कठिन तपस्या की। 

कई हजार वर्षों तक वे निराहार रहकर एक पैर पर खड़े होकर शिव नाम का जप करते रहे। इस तपस्या से सारे लोकों में उनकी चर्चा होने लगी। देवता, ऋषि-मुनि, यक्ष, गन्धर्व सभी उनकी साधना और संयम की प्रशंसा करने लगे। चराचर के पितामह ब्रह्माजी और सबका पालन-पोषण करने वाले भगवान विष्णु भी महापस्वी नर-नारायण के तप की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे, अंत में भगवान शंकरजी भी उनकी उस कठिन साधना से प्रसन्न हो उठे। उन्होंने प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन दोनों ऋषियों को दर्शन दिए। 

नर और नारायण ने भगवान्‌ भोलेनाथ के दर्शन से भाव-विह्वल और आनंद-विभोर होकर बहुत प्रकार की पवित्र स्तुतियों और मंत्रो से उनकी पूजा-अर्चना की। भगवान्‌ शिवजी ने अत्यंत प्रसन्न होकर उनसे वर माँगने को कहा। भगवान्‌ शिव की यह बात सुनकर दोनों ऋषियों ने उनसे कहा, 'देवाधिदेव महादेव! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो भक्तों के कल्याण हेतु आप सदा-सर्वदा के लिए अपने स्वरूप को यहाँ स्थापित करने की कृपा करें। 

आपके यहाँ निवास करने से यह स्थान सभी प्रकार से अत्यंत पवित्र हो उठेगा। यहाँ आपका दर्शन-पूजन करने वाले मनष्यों को आपकी अविनाशिनी भक्ति प्राप्त हुआ करेगी। प्रभो! आप मनुष्यों के कल्याण और उनके उद्धार के लिए अपने स्वरूप को यहाँ स्थापित करने की हमारी प्रार्थना अवश्य ही स्वीकार करें।'

उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान्‌ शिव ने ज्योतिर्लिंग के रूप में वहाँ वास करना स्वीकार किया। केदार नामक हिमालय-श्रृंग पर स्थित होने के कारण इस ज्योतिर्लिंग को श्री केदारेश्वर-ज्योतिर्लिंग के रूप में जाना जाता है। इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन-पूजन तथा यहाँ स्नान करने से भक्तों को लौकिक फलों की प्राप्ति होने के साथ-साथ अचल शिवभक्ति तथा मोक्ष की प्राप्ति भी हो जाती है

ज्योतिर्लिंग को घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहते हैं। इनका स्थान महाराष्ट्र प्रांत में दौलताबाद स्टेशन से बारह मील दूर बेरूल गांव के पास है। इस ज्योतिर्लिंग के विषय में पुराणों में यह कथा है कि दक्षिण देश में देवगिरिपर्वत के निकट सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी तपोनिष्ट ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुदेहा था दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं थी। ज्योतिष-गणना से पता चला कि सुदेहा के गर्भ से संतानोत्पत्ति हो ही नहीं सकती। सुदेहा संतान की बहुत ही इच्छुक थी। उसने सुधर्मा से अपनी छोटी बहन से दूसरा विवाह करने का आग्रह किया।

पहले तो सुधर्मा को यह बात नहीं जँची। उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा। वे उसका आग्रह टाल नहीं पाए। वे अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर घर ले आए। घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। वह भगवान्‌ शिव की अनन्य भभगवान शिवजी की कृपा से थोड़े ही दिन बाद उसके गर्भ से अत्यंत सुंदर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया।

श्रीघुश्मेश्वर:

ज्योतिर्लिंग को घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहते हैं। इनका स्थान महाराष्ट्र प्रांत में दौलताबाद स्टेशन से बारह मील दूर बेरूल गांव के पास है।

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वासुकीनाथ गए बिना अधूरी है बैद्यनाथ धाम की पूजा

द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक झारखंड के देवघर जिला स्थित बाबा बैद्यनाथ धाम में जो कांवड़िया जलाभिषेक करने आते हैं, वे वासुकीनाथ मंदिर में जलाभिषेक करना नहीं भूलते। मान्यता है कि जब तक नागराज वासुकी के नाम से प्रसिद्घ वासुकीनाथ मंदिर में जलाभिषेक नहीं किया जाता तब तक बाबा बैद्यानाथ धाम की पूजा अधूरी मानी जाती है। 

बाबा बैद्यनाथ धाम से करीब 42 किलोमीटर दूर दुमका जिला में स्थित है वासुकीनाथ मंदिर। बाबा वैद्यनाथ मंदिर स्थित कामना लिंग पर जलाभिषेक करने आए कांवड़िये अपनी पूजा को पूर्ण करने के लिए वासुकीनाथ मंदिर में जलभिषेक करना नहीं भूलते। कांवड़िये अपने कांवड़ में सुल्तानगंज के गंगा नदी से जो दो पात्रों में जल लाते हैं, उसमें से एक बाबा बैद्यनाथ में चढ़ाते हैं तो एक बाबा वासुकीनाथ में। 

ये अलग बात है कि कामना लिंग में जलाभिषेक के बाद कई कांवड़िये तो पैदल ही वासुकीनाथ धाम की यात्रा करते हैं, परंतु अधिकांश कांवड़िये फिर वाहनों द्वारा यहां तक की यात्रा करते हैं। 

किवदंतियों के मुताबिक प्राचीन समय में वासुकी नाम का एक किसान जमीन पर हल चला रहा था तभी उसके हल का फाल किसी पत्थर के टुकड़े से टकरा गया और वहां दूध बहने लगा। इसे देखकर वासुकी भागने लगा तब यह आकाशवाणी हुई कि तुम भागो नहीं मैं शिव हूं। मेरी पूजा करो। तब ही से यहां पूजा होने लगी। कहा जाता है कि उसी वासुकी के नाम पर इस मंदिर का नाम वासुकीनाथ धाम पड़ा। 

श्रद्घालुओं की मान्यता है कि बाबा बैद्यनाथ के दरबार में अगर दीवानी मुकदमों की सुनवाई होती है, तो वासुकीनाथ में फौजदारी मुकदमे की सुनवाई होती है। मंदिर के पास ही वाणगंगा नाम का एक तालाब है, जिसके पवित्र जल में स्नान कर भक्त वासुकीनाथ की पूजा करते हैं। यहां पूजा करने के बाद ही बाबा बैद्यनाथ धाम की यात्रा पूर्ण होती है। 

वासुकीनाथ मंदिर के पुजारी पंडा रामेश्वर के मुताबिक वासुकीनाथ में शिव का रूप नागेश का है। वे बताते हैं कि यहां पूजा में अन्य सामग्रियां तो चढ़ाई ही जाती हैं, परंतु यहां दूध से पूजा करने का काफी महत्व है। मान्यता है कि नागेश के रूप के कारण दूध से पूजा करने से भगवान शिव खुश रहते हैं।

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मातृभाषा को समृद्ध बनाने का प्रयास

देश भर में 14 सितम्बर के दिन को हिं‍दी दि‍वस के रूप में मनाया जाता है। 14 सि‍तम्‍बर 1949 को देश के संवि‍धान नि‍र्माताओं ने हिं‍दी को संघ की राजभाषा के रूप में स्‍वीकार करने का फैसला कि‍या था। इस ऐति‍हासि‍क क्षण के उपलक्ष्‍य में प्रति‍वर्ष 14 सि‍तम्‍बर को हिं‍दी दि‍वस मनाया जाता है। भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343 (1) में यह वर्णित है “संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी, संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय होगा|"

देश में सर्वाधिक बोली जाने वाली हिंदी भाषा का अपना अलग ही महत्व है| हम हिन्दी को मातृभाषा और राष्ट्रभाषा मानते हैं| इसके बिना हमारी कोई पहचान ही नहीं है| संसार में चीनी के बाद हिन्दी सबसे विशाल जनसमूह की भाषा है| भारत में अनेक उन्नत और समृद्ध भाषाएं हैं किंतु हिन्दी सबसे अधिक व्यापक क्षेत्र में और सबसे अधिक लोगों द्वारा समझी जाने वाली भाषा है|

हिंदी दिवस बड़े आयोजनों, गोष्ठियों और समारोहों के साथ आयोजित होता हो लेकिन वास्तविकता ये है कि राजभाषा को महत्व देना गुजरे ज़माने को याद करने जैसा हो चुका है| नई पीढ़ी में अंग्रेजी भाषा के प्रयोग के फैशन के सामने हिंदी केवल उन लोगों की ही भाषा बन गई है जिनको या तो अंग्रेज़ी आती नहीं या फिर कुछ पढ़े-लिखे लोग जिनको हिंदी से कुछ ज़्यादा ही मोह है|

सरकार भी हिं‍दी भाषा को सम्मान देने के लिए आज के दिन राजभाषा नीति का कार्यान्‍वयन‍, व्यवसायिक क्षेत्र के वि‍षयों में मौलि‍क हिं‍दी पुस्‍तक लेखन, वि‍ज्ञान और प्रौद्योगि‍की सहि‍त समकालीन रुचि ‍से जुड़े वैज्ञानि‍क और तकनीकी वि‍षयों पर हिं‍दी पुस्‍तक लेखन जैसे वि‍भि‍न्‍न क्षेत्रों में वि‍शि‍ष्‍ट पुरस्‍कार प्रदान करने जैसी औपचारिकता प्रतिवर्ष अपनी जिम्मेदारी के तौर पर पूरी करती है लेकिन संसद के भीतर की अधिकतम कार्रवाई, अभिभाषण और बहस मुख्यतः अंग्रेजी भाषा में ही होते है| इसके इतर देश की नौकरशाही भी हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी का प्रयोग करना बेहतर समझती है| 

हिंदी भाषा को समृद्ध बनाने के लिए हिंदी दिवस पर विशेष आयोजनों और सम्मान समारोहों के आयोजन करने से ज्यादा जरुरी है कि दिखावट और श्रेष्ठता के प्रदर्शन के लिए अंग्रेजी जैसी भाषा के प्रयोग के बजाय मातृभाषा के प्रयोग को प्राथमिकता दी जाये क्योंकि कोई भी देश या व्यक्ति अपनी मातृभाषा से दूरी बनाकर खुद को श्रेष्ठ साबित नहीं कर सकता|

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हिंदी दिवस विशेष: आम जन की भाषा है हिंदी

हिंदी भारोपीय (भारतीय-यूरोपीय)परिवार की एक ऐसी भाषा है जो आम भारतीयों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। संख्या बल की दृष्टि से यह दुनिया में सर्वाधिक लोगों के बीच समझी जाने वाली भाषा है। भारोपीय परिवार की भाषा होने के कारण यह भारतीय सीमा के बाहर भी समझी जाती है। संस्कृत शब्दों की बहुलता के कारण यह देश के भीतर संपर्क का बेहतर माध्यम मानी जाती है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही आजाद देश की भाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार किए जाने की वकालत की जाने लगी थी। उस समय करीब-करीब देश के हर नेता ने हिंदी के महत्व को स्वीकार किया था, किंतु दुर्भाग्यवश हिंदी को वह सम्मानजनक आसन दिला पाने में वे विफल रहे।

हिंदी दिवस : कारण और महत्व

स्वतंत्रता के बाद 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिंदी (खड़ी बोली) ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष 'हिंदी दिवस' के रूप में मनाया जाता है।

इस दिन विभिन्न शासकीय, अशासकीय कार्यालयों, शिक्षा संस्थाओं आदि में विविध गोष्ठियों, सम्मेलनों, प्रतियोगिताओं तथा अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। कहीं-कहीं 'हिंदी पखवाड़ा' तथा 'राजभाषा सप्ताह' भी मनाए जाते हैं। 

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में 13 सितंबर, 1949 के दिन बहस में भाग लेते हुए कहा था, "किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता। कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती। भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना चाहिए।"

यह बहस 12 सितंबर, 1949 को शाम चार बजे से शुरू हुई और 14 सितंबर, 1949 के दिन समाप्त हुई थी। 14 सितंबर की शाम बहस के समापन के बाद भाषा संबंधी संविधान के तत्कालीन भाग 14 (क) और वर्तमान भाग 17 में हिंदी का उल्लेख है।

संविधान सभा की भाषा विषयक बहस लगभग 278 पृष्ठों में मुद्रित हुई। इसमें डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और गोपाल स्वामी आयंगार की महती भूमिका रही। बहस के बाद यह सहमति बनी कि संघ की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। देवनागरी में लिखे जाने वाले अंकों और अंग्रेजी में लिखे जाने वाले अंकों को लेकर बहस हुई और अंतत: आयंगार-मुंशी फार्मूला भारी बहुमत से स्वीकार कर लिया गया।

स्वतंत्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर काफी विचार-विमर्श के बाद जो निर्णय लिया गया, वह भारतीय संविधान के अध्याय 17 के अनुच्छेद 343 (1) में इस प्रकार वर्णित है : संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय ही होगा।

राजभाषा के प्रश्न से अलग हिंदी की अपनी एक विशाल परंपरा है। साहित्य और संचार के क्षेत्र में भी हिंदी का दबदबा देखने को मिलता है। तकनीक की क्रांति ने हिंदी को बल दिया है तो इसे सीमा के बाहर भी फैलने का अवसर प्रदान किया है।

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एकादशी के दिन चावल वर्जित क्यों....?

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। आपने देखा होगा कि एकादशी का व्रत रखने को वाले को चावल न खाने की सलाह दी जाती है| क्या आपको पता है कि एकादशी को चावल वर्जित क्यों...?

शास्त्रों में एकादशी के बारे में कहा गया है कि न विवेकसमो बन्धुर्नैकादश्या: परं व्रतं’ यानी विवेक के सामान कोई बंधु नहीं है और एकादशी से बढ़ कर कोई व्रत नहीं है। पांच ज्ञान इन्द्रियां, पांच कर्म इन्द्रियां और एक मन, इन ग्यारहों को जो साध ले, वह प्राणी एकादशी के समान पवित्र और दिव्य हो जाता है। एकादशी जगतगुरु विष्णुस्वरुप है, जहां चावल का संबंध जल से है, वहीं जल का संबंध चंद्रमा से है। पांचों ज्ञान इन्द्रियां और पांचों कर्म इन्द्रियों पर मन का ही अधिकार है। 

मन ही जीवात्मा का चित्त स्थिर-अस्थिर करता है। मन और श्वेत रंग के स्वामी भी चंद्रमा ही हैं, जो स्वयं जल, रस और भावना के कारक हैं, इसीलिए जलतत्त्व राशि के जातक भावना प्रधान होते हैं, जो अक्सर धोखा खाते हैं। एकादशी के दिन शरीर में जल की मात्र जितनी कम रहेगी, व्रत पूर्ण करने में उतनी ही अधिक सात्विकता रहेगी। चंद्रमा मन को अधिक चलायमान न कर पाएं, इसीलिए व्रती इस दिन चावल खाने से परहेज करते हैं।

पर्दाफाश से साभार

राम मंदिर के लिए मुसलमान ने दान की जमीन

अयोध्या में राम मंदिर बनाए जाने को लेकर जहां दो संप्रदायों के लोग न्यायालय में कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं, वहीं बिहार के पूर्वी चंपारण में विश्व के सबसे ऊंचे राम मंदिर के निर्माण के लिए एक बुजुर्ग मुस्लिम ने अपनी जमीन दान में दी है। इस मंदिर को लेकर मुस्लिम संप्रदाय के लोगों में भी उत्सुकता है। 

मंदिर निर्माण समिति के अध्यक्ष ललन सिंह कहते हैं कि कल्याणपुर प्रखंड के कैथवलिया में बनने वाले राम मंदिर के लिए बुजुर्ग मुस्लिम जैनुल हक खां ने अपनी डेढ़ बीघा (करीब दो एकड़) जमीन दान कर दी है। दान की सारी प्रक्रिया बुधवार को केसरिया स्थित अवर निबंधक कार्यालय में पूरी की गई। 

बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष आचार्य किशोर कुणाल ने गुरुवार को बताया कि कई मुस्लिम परिवार ऐसे हैं जो अपनी जमीन इस मंदिर के लिए देना चाहते हैं। उनके मुताबिक इस मंदिर के लिए करीब 115 एकड़ जमीन की आवश्यकता है। वह कहते हैं कि अभी यह कहना मुश्किल है कि और कितने परिवार मंदिर के लिए जमीन दान देंगे। 

उन्होंने मंदिर के लिए जमीन देने वाले सभी लोगों के प्रति आभार जताते हुए कहा कि मंदिर निर्माण में समाज के हर वर्ग का सहयोग मिल रहा है। मंदिर निर्माण भी अतिशीघ्र प्रारंभ होगा। 
कुणाल कहते हैं कि मंदिर के गर्भगृह से लेकर इसकी प्रतिकृति 28 एकड़ के दायरे में होगी। मंदिर के चारों ओर विशाल आंगन होगा तथा यहां पर्यटकों और श्रद्घालुओं के आने के लिए हैलीपैड का निर्माण कराया जाएगा। मंदिर की नींव अत्याधुनिक हैमर पाइलिंग सिस्टम से डाली जाएगी तथा निर्माण कार्य भूकंप के खतरे को ध्यान में रखकर होगा। 

पूरे मंदिर का निर्माण उत्तर प्रदेश के चुनार से मंगवाए गए लाल पत्थरों से होगा। इस विशालकाय और दर्शनीय मंदिर निर्माण में 30 लाख घनफुट गुलाबी पत्थर लगाया जाएगा। वह कहते हैं कि स्पेन के कारीगरों द्वारा मंदिर में देवी-देवताओं की मूर्ति बनाई जाएगी जबकि मीनाकारी और नक्काशी के लिए राजस्थान से कारीगर बुलाए जाएंगे। 

मंदिर में आकर्षक गर्भगृह और गुंबद बनाने की योजना है। मंदिर के मंडप की ऊंचाई 270 फुट होगी। एक बड़े सिंहासननुमा चबूतरे पर 72 फुट के भगवान राम और सीता सहित सौ से अधिक देवी-देवताओं की प्रतिमाएं होंगी। मंदिर का निर्माण कार्य अगले पांच साल में पूरा होने की संभावना है। माना जा रहा है कि यह मंदिर देश के सभी मंदिरों से अलग और विशेष होगा। मान्यता है कि भगवान राम जब जनकपुर से सीता के साथ परिणय सूत्र में बंधन के बाद वापस लौट रहे थे तो चंपारण के पिपरा के नजदीक ही उनकी बारात रुकी थी।

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विवाहित स्त्री देखे यह सपना तो समझो..

सपनों का हमारे जीवन काफी गहरा महत्व है। हर सपना कुछ-न कुछ कहता है। कुछ सपने निराशा देते हैं, तो कुछ जीवन में खुशियों की लहर भर देते हैं। जब व्यक्ति निद्रावस्था में होता है तो उसकी पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ उसका मन और उसकी पाँचों कर्मेंद्रियाँ अपनी-अपनी क्रियाएँ करना बंद कर देती हैं और व्यक्ति का मस्तिष्क पूरी तरह शांत रहता है। उस अवस्था में व्यक्ति को एक अनुभव होता है, जो उसके जीवन से संबंधित होता है। उसी अनुभव को स्वप्न कहा जाता है|

ज्योतिष के अनुसार सपनों में भी भविष्य में होने वाली घटनाओं के राज छिपे होते हैं। इन्हें समझने पर व्यक्ति कई प्रकार की परेशानियों से बच सकता है और अधिक लाभ प्राप्त कर सकता है। आज हम आपको सपनो से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियां देंगे| आपको बता दें कि यदि कोई विवाहित स्त्री स्वप्न में छोटे बच्चे की स्वेटर आदि बुनती है तो उसे शीघ्र ही संतान सुख मिलता है।

अगर कोई विवाहित स्त्री अपने सपने में हरे-भरे खेत दिखे तो उसे संतान की प्राप्ति होती है। इसके अलावा स्वप्न में यदि किसी को सुंदर व नवजात शिशु दिखाई दे तो उसे भी सुंदर संतान का सुख प्राप्त होता है।

आपको बता दें कि यदि नि:संतान व्यक्ति सपने में दर्पण में अपना मुख देखता है तो उसे संतान प्राप्ति होती है। वहीँ, जो व्यक्ति सपने में सफेद महल, सफेद तोरण या सफेद छत देखता है तो उसे धन व संतान की प्राप्ति होती है। अगर आपको सपने में अपने नाखून बढ़े हुए दिखाई दें तो समझो कि आपको जल्द ही धन-सम्पत्ति व संतान सुख मिलने वाला है।

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विनोबा का समस्त जीवन अनुकरणीय

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उत्तराधिकारी कहे जाने वाले महान समाज सुधारक एवं चिंतक आचार्य विनोबा भावे देश के उन विद्वज्जनों में शुमार हैं, जिन्होंने आजादी के बाद देश के समक्ष सबसे बड़े संकटों को पहचाना और उन्हें दूर करने के लिए प्रभावी प्रयास किए। आजादी के बाद देश में सामंती एवं राजशाही व्यवस्था कानूनी रूप से तो खत्म हो गई, लेकिन सामाजिक व्यवस्था में वह कहीं न कहीं व्याप्त थी। विनोबा भावे ने ऐसे समय में देश में भूमि सुधार की जरूरत को समझा और 'भूदान यज्ञ' की शुरुआत की।

विनोबा भावे के भूमिसुधार आंदोलन के महत्व को इस बात से भी समझा जा सकता है कि आज भी देश को बड़े स्तर पर भूमिसुधार की जरूरत है, और हाल ही में संसद द्वारा पारित भूमि अधिग्रहण विधेयक को भी भूमिसुधार की एक कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। आजादी के बाद विनोबा ने गांधीवादियों को सलााह दी कि स्वराज हासिल करने के बाद उनका उद्देश्य सर्वोदय के लिए समर्पित समाज का निर्माण करना होना चाहिए। इसके लिए विनोबा ने देश के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक तेलंगाना को चुना, क्योंकि वहां से उस समय भूमि मालिकों के खिलाफ कुछ हिंसक घटनाओं की खबरें आ रही थीं।

उन हिंसक घटनाओं ने सरकार के खिलाफ संघर्ष का रूप ले लिया, तो विनोबा ने उस हिंसक संघर्ष को समाप्त करने के लिए खुद पहल करने का संकल्प लिया। विनोबा अपने संकल्प की साधना में पैदल ही निकल पड़े तथा तीसरे दिन तेलंगाना के पोचमपल्ली गांव पहुंचे। वहां वह मुस्लिम प्रार्थनास्थल में रुके।

वहां विनोबा क्षेत्र के 40 भूमिहीन दलित परिवारों से मिले और उनकी समस्याएं जानीं। लोगों ने जब विनोबा से पूछा कि क्या वह उन्हें सरकार से भूमि दिला सकते हैं? तो विनोबा ने कहा कि इसमें सरकार की क्या जरूरत है? इसके लिए विनोबा ने उसी क्षेत्र के कुछ लोगों से मदद मांगी तो गांव के एक प्रमुख किसान ने 100 एकड़ भूमि दान देना स्वीकार कर लिया, जबकि दलित सिर्फ 80 एकड़ भूमि मांग रहे थे। विनोबा भावे देश की विकराल समस्या का हल मिल गया।

यहीं से विनोबा के भूदान आंदोलन की शुरुआत हुई। विनोबा ने सिर्फ तेलंगाना के 200 गांवों से सात सप्ताह के भीतर 12,000 एकड़ भूमि जुटा ली। विनोबा के उस समय चलाए आंदोलन की गूंज का हम इसी बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि एशिया का नोबेल के रूप में प्रतिष्ठित प्रथम रैमन मैग्सेसे पुरस्कारों की जब घोषणा हुई तो विनोबा को सामुदायिक नेतृत्वकर्ता के लिए पहला मैग्सेसे पुरस्कार प्रदान किया गया।

विनोबा भावे का जन्म 11 सितंबर, 1895 को महाराष्ट्र के नासिक में हुआ था। विनोबा का वास्तविक नाम विनायक नरहरि भावे था। छोटी उम्र में ही विनोबा भावे ने रामायण, महाभारत और भागवत गीता का अध्ययन कर लिया था। वह इनसे बहुत ज्यादा प्रभावित भी हुए थे। विनोबा भावे अपनी माता से सर्वाधिक प्रभावित थे। विनोबा का कहना था कि उनकी मानसिकता और जीवनशैली को सही दिशा देने और उन्हें अध्यात्म की ओर प्रेरित करने में उनकी मां का ही योगदान है। 

विनोबा गणित के बहुत बड़े विद्वान थे, लेकिन ऐसा माना जाता है कि 1916 में जब वह अपनी 10वीं की परीक्षा के लिए मुंबई जा रहे थे तो उन्होंने महात्मा गांधी का एक लेख पढ़कर शिक्षा से संबंधित अपने सभी दस्तावेजों को आग के हवाले कर दिया था। विनोबा भावे अपने युवाकाल में ही महात्मा गांधी के समीप आ गए थे। गांधी की सादगी ने जहां उन्हें मोह लिया, वहीं राष्ट्रपिता ने विनोबा के भीतर एक विचारक और आध्यात्मिक व्यक्तित्व के लक्षण देखे। इसके बाद विनोबा ने आजादी के आंदोलन के साथ-साथ महात्मा गांधी के सामाजिक कार्यो में सक्रियता से भाग लिया।

विनोबा भावे एक महान विचारक, लेखक और विद्वान थे, और अनेक भाषाओं के ज्ञाता भी। उन्हें लगभग सभी भारतीय भाषाओं का ज्ञान था। वह एक उत्कृष्ट वक्ता और समाज सुधारक भी थे। विनोबा भावे के अनुसार, कन्नड़ लिपि विश्व की सभी लिपियों की रानी है। विनोबा ने गीता, कुरान, बाइबिल जैसे धर्मग्रंथों का अनुवाद तो किया ही, साथ ही इनकी आलोचनाएं भी कीं। विनोबा भावे भागवत गीता से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। वह कहते थे कि गीता उनके जीवन की हर एक सांस में है। उन्होंने गीता को मराठी भाषा में अनूदित भी किया था।

विनोबा सच्चे संन्यासी थे। नवंबर 1982 में अत्याधिक बीमार पड़ने के बाद उन्होंने अपनी इहलीला स्वेच्छा से समाप्त करने का संकल्प लिया और अन्न-जल का त्याग कर दिया। परिणामस्वरूप 15 नवंबर, 1982 को विनोबा पंचतत्व में विलीन हो गए। विनोबा को समाज को दिए उनके अप्रतिम योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरांत 1983 में देश के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया।

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'अब्बू, कर्फ्यू क्या किसी मेले का नाम है?'

कृषि प्रधान जिले के रूप में सात समंदर पार तक अपनी पहचान बनाने वाले मुजफ्फरनगर जिला आज भयानक हिंसा को लेकर सुर्खियों में है। सद्भाव और एकता की मिसाल पेश करने वाले इस जिले के बाशिंदों के बच्चे आज अपने मां-बाप से यह पूछ रहे हैं कि कर्फ्यू क्या किसी मेले का नाम है? इसमें तो खेल तमाशों की जगह पुलिस और सेना ही दिखाई दे रही है।

पहली बार कर्फ्यू का सामना कर रहे यहां के बच्चे शहर के अजीब सन्नाटे को लेकर अपना बचपन भूल बैठे हैं। मुजफ्फरनगर में हिंसा भड़कने के साथ ही यहां के निवासियों में वैमनस्य इतना भर गया कि वे आपसी भाईचारे और साम्प्रदायिक सौहार्द्र का अपना इतिहास ही भूल बैठे। कभी चाचा रहीम और सुरेश एक साथ चाय पीते और ताश खेलते थे। उनके बच्चे भी आपस में खेलते थे, लेकिन आज दोनों के बच्चे अपने-अपने घरों की छतों से एक-दूसरे को खौफजदा आंखों से टकटकी लगाए देख रहे हैं।

मुजफ्फरनगर शहर और गांव की पहचान एशिया की सबसे बड़ी गुड़ मंडी, गन्ने की लहराती फसलों, चीनी के अपार उत्पादन, इस्पात और कागज उद्योग के लिए रही है। यहां के लोगों ने जिम्मेदारी का अहसास करते हुए हर बड़ी-से-बड़ी समस्या को सुलझाया है। यह अलग बात है कि यहां कर्फ्यू भी कई बार लगे हैं, लेकिन आज जैसी स्थिति कभी नहीं देखी गई। जिले के निवासियों ने सौहाद्र्र का संदेश भी दिया है।

उत्तराखंड राज्य निर्माण के दौरान जब आंदोलनकारियों पर रामपुर तिराहे पर दो अक्टूबर, 1994 को पुलिस ने गोलियां बरसाई थीं तो यहां के लोगों ने महिला और पुरुषों को बचाया था। भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष महेंद्र सिंह टिकैत ने 1989 में भोपा क्षेत्र में मुस्लिम परिवार की बेटी नईमा हत्याकांड के विरोध में एक महीने तक इंसाफ की लड़ाई लड़ी थी और आंदोलन चलाया था।

विकास और तरक्की की राह ढूंढने वाले गांवों के दामन पर आज हर तरफ खून के छींटे हैं और लोग एक-दूसरे को इस नजर से देख रहे हैं जैसे वे इंसान नहीं कुछ और हों। कवाल के सुंदर अपने मित्र आसिफ के साथ प्रतिदिन चाय पीते थे और घर परिवार में आना-जाना था, लेकिन हिंसा के बाद सभी लोग घरों में कैद हो गए हैं।

मुजफ्फरनगर के खालापार में रहमान का पांच वर्षीय बेटा दानिश अपने अब्बू और चचा अखलाक से सवाल करता है कि "चाचा, यह कर्फ्यू क्या होता है? कर्फ्यू क्या किसी मेले का नाम है?" उसके अब्बू और चाचा उसे समझाते हैं, लेकिन बात बच्चे के समझ में नहीं आती। वह कहता है कि "ये सेना और पुलिस वाले हमारी गली-मोहल्ले में जब टक टक बूटों की आवाज करते हैं तो मुझे नींद भी नहीं आती।" दानिश रोता है और जाट कालोनी में रहने वाले स्कूल के मित्रों और अपने शिक्षकों से मिलना चाहता है।

मामला देश की रक्षा का हो या देश के विकास में योगदान का, जिले के लोग हमेशा आगे रहे हैं, लेकिन हिंसा के इस वातावरण में यह जिला शांति, सौहाद्र्र के मामले में जैसे पीछे छूटता जा रहा है।

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साहस के प्रतिमूर्ति थे गोविंद बल्लभ पंत

उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री एवं देश के पूर्व गृह मंत्री गोविंद बल्लभ पंत अपने दृढ़ संकल्प और साहस के लिए आज भी श्रद्धापूर्वक याद किए जाते हैं। जाने-माने वकील गोविंद की धाक इतनी कि अंग्रेज सरकार उनके काशीपुर को 'गोविंदगढ़' कहने लगी। भारत रत्न पंत ने ही जमींदारी उन्मूलन कानून को प्रभावी बनाया था। पंत का जन्म 10 सितंबर 1887 को वर्तमान उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा जिले के खूंट (धामस) नामक गांव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इस परिवार का संबंध कुमाऊं की एक अत्यंत प्राचीन और सम्मानित परंपरा से है। पंतों की इस परंपरा का मूल स्थान महाराष्ट्र का कोंकण प्रदेश माना जाता है।

पंत ने 10 वर्ष की आयु तक घर पर ही शिक्षा ग्रहण की। गोविंद ने लोअर मिडिल की परीक्षा संस्कृत, गणित, अंग्रेजी विषयों में विशेष योग्यता के साथ प्रथम श्रेणी में पास की। इसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा बीए में गणित, राजनीति और अंग्रेजी साहित्य विषय लिए।

इलाहाबाद में नवयुवक गोविंद को कई महापुरुषों का सान्निध्य एवं संपर्क मिला साथ ही जागरूक, व्यापक और राजनीतिक चेतना से भरपूर वातावरण मिला। 1909 में गोविंद वल्लभ पंत को कानून की परीक्षा में विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम आने पर 'लेम्सडैन' स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। 1910 में पंत ने अल्मोड़ा में वकालत की। बाद में वह काशीपुर आ गए। काकोरी कांड के आरोपियों के मुकदमे की पैरवी के लिए अन्य वकीलों के साथ पंत ने जी-जान से सहयोग किया। उस समय वे नैनीताल से स्वराज पार्टी के टिकट पर लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य भी थे। 1928 के साइमन कमीशन के बहिष्कार और 1930 के नमक सत्याग्रह में भी उन्होंने भाग लिया और मई 1930 में देहरादून जेल में बंद रहे।

मुकदमा लड़ने का उनका ढंग निराला था, जो मुवक्किल अपने मुकदमों के बारे में सही जानकारी नहीं देते थे, पंत उनका मुकदमा नहीं लेते थे। पंत की वकालत की काशीपुर में धाक थी। उन्हीं के कारण काशीपुर राजनीतिक तथा सामाजिक दृष्टियों से कुमाऊं के अन्य नगरों की अपेक्षा अधिक जागरूक था। अंग्रेज शासकों ने काशीपुर नगर को काली सूची में शामिल कर लिया। पंत के नेतृत्व के कारण अंग्रेज सरकार काशीपुर को 'गोविंदगढ़' कहती थी।

17 जुलाई 1937 से लेकर 2 नवंबर 1939 तक पंत ब्रिटिश शासित भारत में संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के पहले मुख्यमंत्री बने। पंत 1946 से दिसंबर 1954 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। पंत को भूमि सुधारों में पर्याप्त रुचि थी। 21 मई, 1952 को जमींदारी उन्मूलन कानून को प्रभावी बनाया। मुख्यमंत्री के रूप में उनकी योजना नैनीताल तराई को आबाद करने की थी।

सरदार बल्लभ भाई पटेल के निधन के बाद पंत को केंद्रीय गृह मंत्री का दायित्व दिया गया। देश के गृह मंत्री के रूप में पंत का कार्यकाल 1955 से लेकर 1961 में उनके निधन तक रहा। भारत रत्न सम्मान उनके ही कार्यकाल में आरंभ किया गया। सन् 1957 में गणतंत्र दिवस के मौके पर महान देशभक्त, कुशल प्रशासक, सफल वक्ता, तर्क के धनी एवं उदारमना पंत जी को देश के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से विभूषित किया गया।

गोविंद बल्लभ पंत अच्छे नाटककार भी थे। उनका नाटक 'वरमाला' मरक डेय पुराण की एक कथा पर आधारित है। मेवाड़ की पन्ना नामक धाय के अलौकिक त्याग का ऐतिहासिक वृत्तांत लेकर उन्होंने नाटक 'राजमुकुट' की रचना की और 'अंगूर की बेटी' में उन्होंने मद्यपान के दुष्परिणाम दिखाकर सामाज को सचेत किया था।

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