अनार के दाने ही नहीं छिलके भी हैं बहुत फायदेमंद

अनार एक ऐसा फल है जो अंदर से ही नहीं बाहर से भी होता फायदेमंद। मतलब अनार के दाने के साथ-साथ छिलके भी आपके लिए बहुत फायदेमंद हैं| चेहरे पर मुंहासों की समस्या से परेशान है तो अनार का छिलका बहुत लाभकारी होता है। अनार के छिलकों को भून लें और ठंडा होने पर इसे पीस लें। इस पाउडर को गुलाबजल या दूध के मिलाकर चेहरे पर लगाए और सूखने पर ताजा पानी से साफ कर लें। इस पैक के प्रयोग से आप झुर्रियों से भी निजात पा सकते है।

अनार में भरपुर विटामिन्स और एंटीऑक्सीलडेंट्स होने के कारण सिर्फ खूबसूरती ही नहीं निखरती बल्कि कई बीमारियां भी दूर हो जाती है। पीरियड्स के समय पेट में अक्सर दर्द ज्यादा ही होता है। ऎसे में अगर आप अनार के सुखाएं हुए छिलकों का पाउडर बनाकर इसे पानी के साथ लेने से दर्द से छुटकारा मिल जाएगा।

जिनका कैलोस्ट्रॉल लेवल ज्यादा होता है,अगर वे अनार के छिलकों के पाउडर को पानी के साथ लें। इससे आपका कैलोस्ट्रॉल लेवल कंट्रोल हो जाएगा। इसके अलावा खांसी,गले में खराश,दांतो संबंधी प्रॉबल्म,सांसो की बदबू से भी निजात दिलाते है ये छिलकें। पानी में इन छिलकों को मिलाकर गरारें करें। फिर देखें इसका कमाल|

बालों का झड़ना और डेंड्रफ होना आजकल आम बात हो गया है। सभी इस समस्या से परेशान है। बालों का वोल्यूम(घना)बढ़ाने के लिए अनार के छिलके वरदान की तरह है। अनार के छिलकों के पाउडर को तेल (आपकी सुविधानुसार) में मिलाकर सिर में अच्छे से मालिश करें और कम से कम दो घंटे बाद शैंपू कर लें। रूखी त्वचा के लिए भी अनार के छिलकें गुणकारी होते है। धूप और भागदौड़ के कारण आपकी त्वचा की नमी खो जाती है जिसे अनार के पाउडर को दही मिलाकर लगानें से फायदा पहुंचता है।

अनार के छिलकों को सुखाकर, भून लें और ठंडा होने पर पीसकर चेहरे पर लगाने से मुंहासों की समस्या से छुटकारा मिलता है। अनार के छिलकों को सुखाकर इसका पाउडर बनाकर इसमें गुलाब जल मिलाकर इसको फेसपैक की तरह चेहरे पर लगाने से त्वचा जवां बनी रहती है और झुर्रियों से राहत मिलती है।

सनातन धर्म में क्यों होता है मुंडन संस्कार?

हिन्दू धर्म भारत का सर्वप्रमुख धर्म है। हिंदू धर्म की प्राचीनता एवं विशालता के कारण ही इसे ‘सनातन धर्म’ भी कहा जाता है। सनातन धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक कुल सोलह संस्कार बताए गये हैं, सभी मनुष्यों के लिए 16 प्रकार के संस्कारों का उल्लेख किया गया है और उन्हें कोई भी धारण कर सकता है l समस्त मनुष्यों को अपना जीवन इन 16 संस्कारो के अनुसार व्यतीत करने की आज्ञा दी गयी है ल सनातन धर्म के जो 16 संस्कार हैं उनमें गर्भाधान संस्कार, पुंसवन संस्कार, सीमन्तोन्नयन संस्कार, जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार, निष्क्रमण संस्कार, अन्नप्राशन संस्कार, मुंडन/चूडाकर्म संस्कार, विद्यारंभ संस्कार, कर्णवेध संस्कार, यज्ञोपवीत संस्कार, वेदारम्भ संस्कार, केशान्त संस्कार, समावर्तन संस्कार, विवाह संस्कार और अन्त्येष्टि संस्कार/श्राद्ध संस्कार| क्या आपको पता है हिन्दू धर्म में मुंडन/चूड़ाकर्म संस्कार क्यों किया जाता है?

आपको बता दें कि इस संस्कार में शिशु के सिर के बाल पहली बार उतारे जाते हैं । लौकिक रीति यह प्रचलित है कि मुण्डन, बालक की आयु एक वर्ष की होने तक करा लें अथवा दो वर्ष पूरा होने पर तीसरे वर्ष में कराएँ । यह समारोह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि मस्तिष्कीय विकास एवं सुरक्षा पर इस सयम विशेष विचार किया जाता है और वह कार्यक्रम शिशु पोषण में सम्मिलित किया जाता है, जिससे उसका मानसिक विकास व्यवस्थित रूप से आरम्भ हो जाए, चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते रहने के कारण मनुष्य कितने ही ऐसे पाशविक संस्कार, विचार, मनोभाव अपने भीतर धारण किये रहता है, जो मानव जीवन में अनुपयुक्त एवं अवांछनीय होते हैं । इन्हें हटाने और उस स्थान पर मानवतावादी आदर्शो को प्रतिष्ठापित किये जाने का कार्य इतना महान् एवं आवश्यक है कि वह हो सका, तो यही कहना होगा कि आकृति मात्र मनुष्य की हुई-प्रवृत्ति तो पशु की बनी रही । हमारी परम्परा हमें सिखाती है कि बालों में स्मृतियाँ सुरक्षित रहती हैं अतः जन्म के साथ आये बालों को पूर्व जन्म की स्मृतियों को हटाने के लिए मुंडन संस्कार किया जाता हैं|

वहीँ, यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो बालक का कपाल करीब 3 वर्ष की अवस्था तक कोमल रहता है। तत्पश्चात धीरे-धीरे कठोर होने लगता है। गर्भावस्था में ही उसके सिर पर उगे बालों के रोमछिद्र इस अवस्था तक कुछ बंद से हो गए रहते है। अत: इस अवस्था में शिशु के बालों को उस्तरे से साफ कर देने पर सिर की गंदगी, कीटाणु आदि तो दूर हो ही जाते हैं, मुंडन करने पर बालों के रोमछिद्र भी खुल जाते है। इससे नये बाल घने, मजबूत व स्वच्छ होकर निकलते हैं। सिर पर घने, मजबूत और स्वच्छ बालों का होना मस्तिष्क की सुरक्षा के लिए आवश्यक है अथवा यो कहें कि सिर के बाल सिर के रक्षक हैं, तो गलत न होगा। इसलिए चूडाकर्म एक संस्कार के रूप में किया जाता है।

जानिए मंदिर में शिवलिंग की ओर ही मुख करके क्यों बैठा होता है नंदी?

आप जब भी शिव मंदिर में भगवान भोलेनाथ के मंदिर में दर्शनों के लिए जाते हैं तो आपने देखा होगा कि देवाधि देव महादेव के साथ उनका बैल नंदी जरुर होता है| क्या आप जानते हैं कि भगवान भोलेनाथ के मंदिर में उनके सामने नंदी क्यों बैठाया जाता है और उसका मुंह शंकर की तरफ ही क्यों किया जाता है? अगर नहीं तो आज हम आपको बताते हैं|

आपको बता दें कि भगवान शंकर के मंदिर में उनके सामने उनकी सवारी नंदी को इसलिए स्थापित करते हैं क्योंकि शिवजी का वाहन नंदी पुरुषार्थ यानी मेहनत का प्रतीक है। अब सवाल यह बनता है कि नंदी शिवलिंग की ओर ही मुख करके क्यों बैठा होता है? जानते हैं दरअसल नंदी का संदेश है कि जिस तरह वह भगवान शिव का वाहन है। ठीक उसी तरह हमारा शरीर आत्मा का वाहन है।

जिस प्रकार नंदी की नज़र भगवान शंकर की तरफ होती हैं उसी तरह हमारी नजर भी आत्मा की ओर होनी चाहिए| इस प्रकार हर मनुष्य को अपने दोषों को देखना चाहिए। हमेशा दूसरों के लिए अच्छी भावना रखना चाहिए। आपको बता दें कि भगवान शंकर की सवारी नंदी का इशारा यही होता है कि शरीर का ध्यान आत्मा की ओर होने पर ही हर व्यक्ति चरित्र, आचरण और व्यवहार से पवित्र हो सकता है।

...यहाँ दहेज में मिलती है बीयर

बस्तर: अभी तक आपने शादियां तो कई प्रकार की देखी और सुनी होगी लेकिन आज हम आपको छत्तीसगढ के बस्तर में एक अजब शादी के बारे में बताते हैं| यहाँ शादी के दुल्हन ससुराल अपने साथ बीयर लेकर आती है| यह बीयर बाजार से खरीदकर नही लायी जाती बल्कि सल्फी नाम के पेड़ से निकलने वाले रस से तैयार की जाती है|

इसलिये इसे देसी बीयर कहा जाता है। यह पेय स्वास्थ्य के लिये लाभदायक माना जाता है। सल्फी का पेड़ 9 से 10 वर्ष के बाद रस देना शुरु करता है। इसकी ऊंचाई 40 फुट तक होती है। ऑक्सीफोरम फिजिरियम नामक फंगस के कारण सल्फी के पेड़ अब सूख रहे हैं। आदिवासी आय के साधन वाले सल्फी के पेडों के सूखने से बहुत चिंतित हैं। इनकी संख्या कम होने की वजह से इन पेड़ों का महत्व और भी बढ़ता जा रहा है। इसलिए लोग इस पेड़ को दहेज के रूप में अपनी बेटियों को देते हैं, बस्तर के इलाके में इन पेड़ों को सोने-चांदी से कम नहीं माना जाता।

एक ऐसी ही शादी राजस्थान के बाड़मेर में होती है जहाँ वधु अपने साथ दहेज़ में कुत्ता और गधा लेकर आती है| इस जिले में अनेक जातियां बसती हैं इन्हीं जातियों में एक जाति है जोगी| आमतौर पर यह जाति भीख मांगकर अपना गुजारा करती है| आजादी के 65 साल बीत गए जहाँ पूरे देश तरक्की कर रहा है वहीं इस जाति के लोग आज भी सदियों पुरानी परम्पराओं में जकड़े हुए हैं| इस जाति में शादी की सदियों पुरानी परम्परा जो आज भी चली आ रही है वह यह कि यहाँ लड़की वाले नहीं बल्कि लड़के वाले दहेज़ देते हैं इसके अलावा युवक जिस लड़की से शादी करना चाहता है उसे दो साल तक कमाकर खिलाता है यदि वह ऐसा करने में सफल होता है तभी उसकी शादी होती है|

इस जाति में दहेज़ के रूप में कुत्ता और गधा देने का चलन है। कुत्ता जहां सामान की रखवाली करने के काम आता है और गधा इसलिए ताकि उसका सामान आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाया जा सके। इतना ही नहीं इस जाति की एक और अनोखी परंपरा वह यह कि यहाँ जब सस्त्रियाँ गर्भवती होती हैं तो उसके पति को उसे सियार का मांस खिलाना होता है| फिलहाल यदि इस जाति के लोगों की माने तो उनका कहना है कि यह पुरानी परम्पराएँ धीरे- धीरे समाप्त हो रही है और लोग अन्य व्यवसाय में रूचि ले रहे हैं|

इच्छाधारी नाग बना बाबा, भक्तों को बांट रहा संजीवनी बूटी!

आगरा: भारतीय जनमानस में इच्छाधारी नाग अथवा नागिन की अनगिनत कथाएं मौजूद हैं। किवदंतियों के अनुसार ये इच्छाधारी नाग अथवा नागिन कोई भी रूप धर सकते हैं। कहीं भी जा सकते हैं। हिन्दी फिल्मकारों ने समाज में व्याप्त सर्प सम्बंधी अंधविश्वास की धारणाओं का जमकर दोहन किया है। उन्होंने न सिर्फ इस विषय फिल्में बनाकर मोटा मुनाफा कमाया है, वरन समाज में अंधविश्वास की धारणा को और ज्यादा गहरा करने का काम भी किया है। जानकारों की माने तो ये सारी बातें कोरी बकवास हैं। इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है| फिलहाल इच्छाधारी नाग नागिन का एक मामला ताज नगरी आगरा में देखने को मिला है| यहां एक बाबा इच्छाधारी नाग होने का दावा कर लोगों का इलाज कर रहा है। लोगों का मानना है कि उनके हाथ से दवा पीने पर 21 दिन में ही बीमारी खत्म हो जाती है। 

प्राप्त जानकारी के अनुसार, शिव शक्ति बाबा भुड़कनाथ (29) का असली नाम मनोज सिंह यादव है। वह गाजीपुर का रहने वाला है। उन्होंने 12वीं की पढ़ाई के बाद आईटीआई की और फिर बाबा बन गए। करीब एक हफ्ते पहले बाबा ने ककरैठा में अपना डेरा जमा लिया। इसके बाद उनके शिष्यों ने गांव-गांव में पर्चे बांटना शुरू कर दिया। इन पर्चों में बाबा के इच्‍छाधारी नाग होने का जिक्र है। इसमें लिखा है कि बाबा इच्‍छाधारी नाग हैं। उनकी गाय में दैवीय शक्ति है। बाबा के हाथ से दवा पीने पर कोई भी बीमारी 21 दिन में खत्म हो जाती है। साथ ही इस पर्चे को छपवाकर बांटने वाले को भी फायदा होगा। 

फिर क्या था लोग बाबा के नाम के पर्चे छपवाकर बांटे लगे| बाबा का कहना है कि उनके पास कुछ दवाएं है, जिससे मरीज पूरी तरह से ठीक हो जाते हैं। यह 21 दिनों की दवा है। इसमें लौकी का जूस, जामुन और कई जड़ी-बूटियां शामिल हैं। इसे यहां आने वाले मरीजों को खीर में मिलाकर दिया जाता है। बाबा की दवा लेने के लिए लोगों को घंटों अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है। इसकी जानकारी होने पर स्वास्थ्य विभाग की एक टीम वहां पहुंची| हालांकि बाबा के भक्तों ने दवा की जांच नहीं करने दी। 

आपको बता दें कि यह इच्छाधारी नाग का यह पहला मामला नहीं है इससे पहले भी कई मामले देखे गए| अभी हाल ही में एक ऐसा मामला औरंगाबाद में देखने को मिला था| बिहार के औरंगाबाद में देखने को मिला है| यहां एक किशोरी की शादी इच्छाधारी नाग से होने की अफवाह फैली। अफवाह पर ही यह शादी देखने के लिए 50 हजार से अधिक लोगों की भीड़ जुट गई। हद तो यह हो गई कि किशोरी को सजाकर खड़ा कर दिया गया, लेकिन नाग को न आना था, ना आया। 

यहां यह अफवाह फैलाई गई थी कि गांव के अखिलेश भुइयां की बेटी रेणु कुमारी की शादी इच्छाधारी नाग से होगी। वर नाग रूप में आएगा और इंसान से शादी करेगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। चर्चा ये उड़ाई गई कि गांव की एक किशोरी जब एक दिन अपने घर आ रही थी तो उसे एक नाग ने रोक लिया। बाद में आदमी का रूप धर कर उसने लड़की से शादी करने का प्रस्ताव रखा और शादी के लिए दिन तय किया। फिर क्या था यह अनोखी शादी देखने के लिए हर तरफ से लोगों का रेला आना शुरू हो गया| सुबह आठ बजे तक सारा इलाका लोगों से पट गया। सभी सड़कें जाम हो गईं। खेतों से लेकर सड़कों तक, पेड़ों से लेकर मकानों तक लोग भरे पड़े थे। कुछ महिलाएं तो बाकायदा शादी के गीत गाते हुए टोलियों में पहुंचीं। लेकिन जब कोई इच्छाधारी नाग लड़की को ब्याहने नहीं पहुंचा तो हर कोई किशोरी के मां-बाप को कोसता हुआ अपने घर चला गया| 

एक ऐसा ही मामला वाराणसी जिले में भी देखने को मिला था| वाराणसी के पिंडरा विकास खंड के राजपुर ग्रामसभा के राजस्व गांव बड़वापुर के रहने वाले संदीप नाम के व्यक्ति ने इच्छाधारी नागिन से शादी करने का दवा किया था| अपने आप को पूर्वजन्म में नाग और इस जन्म में नागिन से शादी का दावा करने वाले संदीप ने बताया कि गांव के ही शिव मंदिर के बगल में इच्छाधारी नागिन से उसकी मुलाकात हुई थी। नागिन ने उसे बताया था कि 20 साल पूरा होने पर वह उससे शादी करने के लिए आएगी। बड़वापुर के रहने वाले दयाशंकर वर्मा के दो लड़कों में छोटा लड़का संदीप कुमार दावा कर रहा था कि उसके ऊपर नाग देवता की सवारी है। उसकी शादी इच्छाधारी नागिन से चार अप्रैल को शिव मंदिर में होगी। हालाँकि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ| 

इससे पहले इच्छाधारी नाग' की शादी का मामला उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में अगस्त 2014 को देखने को मिला था| बांदा जिले के बबेरू थाने के पवैया गांव निवासी दलित युवक अरुण कुमार ने भी दावा किया था कि वह इच्छाधारी नाग है, नाग पंचमी को नागिन से शादी करेगा| अरुण ने ग्रामीणों को बताया था कि एक इच्छाधारी नागिन सपने में उसे बताती है कि वह उसका पूर्व पति है और उसके चाचा ने उसकी हत्या कर दी थी, अब वह हत्यारे के घर में जन्म लिया है| बकौल अरुण, 'मैं इच्छाधारी नाग हूं और नाग पंचमी को नागिन से शादी करूंगा' उसके इस ऐलान से आस-पास के गांवों के हजारों लोगों का हुजूम इकट्ठा हो गया| इसी दौरान बबेरू पुलिस को सूचना मिली और वह मौके पर पहुंच कर कथित इच्छाधारी नाग को हिरासत में ले लॉकअप में बंद कर दिया| उधर, गांव में मौजूद प्रत्यक्षदर्शी सहदेव रैदास ने बताया कि पुलिस जैसे ही अरुण को हिरासत में लेकर चली गई तो एक नागिन 'बांबी' से निकलकर आई और गुस्से में उसने कई लोगों को खदेड़ा| उसका कहना था कि नागिन के इस तरह खदेड़ने से साबित होता है कि इन दोनों में जरूर कोई पुराना रिश्ता है|

इंदिरा एकादशी: इस व्रत से पितरों को होती है स्वर्गलोक की प्राप्ति

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। आश्चिन कृ्ष्ण पक्ष की एकादशी को इन्दिरा एकादशी कहा जाता है| इस एकादशी के दिन शालीग्राम की पूजा कर व्रत किया जाता है| इस एकादशी के व्रत करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते है| इस व्रत के फलों के विषय में एक मान्यता प्रसिद्ध है, कि इस व्रत को करने से नरक मे गए, पितरों का उद्वार हो जाता है| इस एकादशी की कथा को सुनने मात्र से यज्ञ करने के समान फल प्राप्त होते है| इस बार इंदिरा एकादशी का व्रत 8 अक्टूबर दिन गुरूवार को पड़ रहा है|

इंदिरा एकादशी व्रत विधि-

इंदिरा एकादशी के दिन उपवासक को जल्द उठना चाहिए| उठने के बाद नित्यक्रिया कार्यों से मुक्त हो जाना चाहिए| तत्पश्चात स्नान आदि करने के पश्चात ही श्रद्वा पूर्वक व्रत का संकल्प लेना चाहिए|एकादशी तिथि के व्रत में रात्रि के समय में ही फल ग्रहण किये जा सकते है| तथा द्वादशी तिथि में भी दान आदि कार्य करने के बाद ही स्वयं भोजन ग्रहण करना चाहिए| एकादशी तिथि की दोपहर को सालिग रामजी जी मूर्ति को स्थापित किया जाता है,जिसकी स्थापना के लिये किसी ब्राह्माण को बुलाना चाहिए| ब्राह्माण को बुलाकर उसे भोजन कराना चाहिए और दक्षिणा देनी चाहिए|

बनाये गये भोजन में से कुछ हिस्से गाय को भी देने चाही और भगवान श्री विष्णु की धूप, दीप, नैवेद्ध आदि से पूजा करनी चाहिए| एकादशी रात्रि में जागरण कर भगवान विष्णु का पाठ या मंत्र जाप करना चाहिए| अगले दिन प्रात: स्नान आदि कार्य करने के बाद ब्राह्माणों को दक्षिणा देने के बाद ही अपने परिवार के साथ मौन होकर भोजन करना चाहिए|

इंदिरा एकादशी व्रत कथा-

युधिष्ठिर ने पूछा : हे मधुसूदन ! कृपा करके मुझे यह बताइये कि आश्विन के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ?

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आश्विन (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार भाद्रपद) के कृष्णपक्ष में ‘इन्दिरा’ नाम की एकादशी होती है । उसके व्रत के प्रभाव से बड़े बड़े पापों का नाश हो जाता है । नीच योनि में पड़े हुए पितरों को भी यह एकादशी सदगति देनेवाली है ।

राजन् ! पूर्वकाल की बात है । सत्ययुग में इन्द्रसेन नाम से विख्यात एक राजकुमार थे, जो माहिष्मतीपुरी के राजा होकर धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते थे । उनका यश सब ओर फैल चुका था ।

राजा इन्द्रसेन भगवान विष्णु की भक्ति में तत्पर हो गोविन्द के मोक्षदायक नामों का जप करते हुए समय व्यतीत करते थे और विधिपूर्वक अध्यात्मतत्त्व के चिन्तन में संलग्न रहते थे । एक दिन राजा राजसभा में सुखपूर्वक बैठे हुए थे, इतने में ही देवर्षि नारद आकाश से उतरकर वहाँ आ पहुँचे । उन्हें आया हुआ देख राजा हाथ जोड़कर खड़े हो गये और विधिपूर्वक पूजन करके उन्हें आसन पर बिठाया । इसके बाद वे इस प्रकार बोले: ‘मुनिश्रेष्ठ ! आपकी कृपा से मेरी सर्वथा कुशल है । आज आपके दर्शन से मेरी सम्पूर्ण यज्ञ क्रियाएँ सफल हो गयीं । देवर्षे ! अपने आगमन का कारण बताकर मुझ पर कृपा करें ।

नारदजी ने कहा : नृपश्रेष्ठ ! सुनो । मेरी बात तुम्हें आश्चर्य में डालनेवाली है । मैं ब्रह्मलोक से यमलोक में गया था । वहाँ एक श्रेष्ठ आसन पर बैठा और यमराज ने भक्तिपूर्वक मेरी पूजा की । उस समय यमराज की सभा में मैंने तुम्हारे पिता को भी देखा था । वे व्रतभंग के दोष से वहाँ आये थे । राजन् ! उन्होंने तुमसे कहने के लिए एक सन्देश दिया है, उसे सुनो । उन्होंने कहा है: ‘बेटा ! मुझे ‘इन्दिरा एकादशी’ के व्रत का पुण्य देकर स्वर्ग में भेजो ।’ उनका यह सन्देश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ । राजन् ! अपने पिता को स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने के लिए ‘इन्दिरा एकादशी’ का व्रत करो ।

राजा ने पूछा : भगवन् ! कृपा करके ‘इन्दिरा एकादशी’ का व्रत बताइये । किस पक्ष में, किस तिथि को और किस विधि से यह व्रत करना चाहिए ।

नारदजी ने कहा : राजेन्द्र ! सुनो । मैं तुम्हें इस व्रत की शुभकारक विधि बतलाता हूँ । आश्विन मास के कृष्णपक्ष में दशमी के उत्तम दिन को श्रद्धायुक्त चित्त से प्रतःकाल स्नान करो । फिर मध्याह्नकाल में स्नान करके एकाग्रचित्त हो एक समय भोजन करो तथा रात्रि में भूमि पर सोओ । रात्रि के अन्त में निर्मल प्रभात होने पर एकादशी के दिन दातुन करके मुँह धोओ । इसके बाद भक्तिभाव से निम्नांकित मंत्र पढ़ते हुए उपवास का नियम ग्रहण करो :

अघ स्थित्वा निराहारः सर्वभोगविवर्जितः ।

श्वो भोक्ष्ये पुण्डरीकाक्ष शरणं मे भवाच्युत ॥

‘कमलनयन भगवान नारायण ! आज मैं सब भोगों से अलग हो निराहार रहकर कल भोजन करुँगा । अच्युत ! आप मुझे शरण दें । ’

इस प्रकार नियम करके मध्याह्नकाल में पितरों की प्रसन्नता के लिए शालग्राम शिला के सम्मुख विधिपूर्वक श्राद्ध करो तथा दक्षिणा से ब्राह्मणों का सत्कार करके उन्हें भोजन कराओ । पितरों को दिये हुए अन्नमय पिण्ड को सूँघकर गाय को खिला दो । फिर धूप और गन्ध आदि से भगवान ह्रषिकेश का पूजन करके रात्रि में उनके समीप जागरण करो । तत्पश्चात् सवेरा होने पर द्वादशी के दिन पुनः भक्तिपूर्वक श्रीहरि की पूजा करो । उसके बाद ब्राह्मणों को भोजन कराकर भाई बन्धु, नाती और पुत्र आदि के साथ स्वयं मौन होकर भोजन करो ।

राजन् ! इस विधि से आलस्यरहित होकर यह व्रत करो । इससे तुम्हारे पितर भगवान विष्णु के वैकुण्ठधाम में चले जायेंगे । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! राजा इन्द्रसेन से ऐसा कहकर देवर्षि नारद अन्तर्धान हो गये । राजा ने उनकी बतायी हुई विधि से अन्त: पुर की रानियों, पुत्रों और भृत्योंसहित उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया ।

कुन्तीनन्दन ! व्रत पूर्ण होने पर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी । इन्द्रसेन के पिता गरुड़ पर आरुढ़ होकर श्रीविष्णुधाम को चले गये और राजर्षि इन्द्रसेन भी निष्कण्टक राज्य का उपभोग करके अपने पुत्र को राजसिंहासन पर बैठाकर स्वयं स्वर्गलोक को चले गये । इस प्रकार मैंने तुम्हारे सामने ‘इन्दिरा एकादशी’ व्रत के माहात्म्य का वर्णन किया है । इसको पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।

कृष्ण ने नहीं ऋषि दुर्वासा के वरदान से बची थी द्रोपदी की लाज!

महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत जैसा अन्य कोई ग्रंथ नहीं है। यह ग्रंथ बहुत ही विचित्र और रोचक है। विद्वानों ने इसे पांचवां वेद भी कहा है। महाभारत में अनेक पात्र हैं, लेकिन एक पात्र है द्रोपदी का| महाभारत में इस घटना उल्लेख है कि दुःशासन ने अपने अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए भरी सभा में द्रौपदी का चीरहरण करवाया था। लेकिन श्रीकृष्ण ने स्वयं प्रकट होकर द्रौपदी के सम्मान की रक्षा की।

इस घटना से जुड़ी एक और कहानी का उल्लेख मिलता है जो ऋषि दुर्वासा द्वारा द्रौपदी को प्राप्त वरदान से संबंधित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस वरदान की वजह से ही द्रौपदी का चीरहरण होने से बचा था। शिव पुराण के अनुसार एक बार भगवान शिव के अवतार माने जाने वाले ऋषि दुर्वासा नदी में स्नान कर रहे थे, नदी के तेज बहाव और अनियंत्रित लहरों की वजह से दुर्वासा के कपड़े बह गए।

ऋषि दुर्वासा को परेशान देख, उसी नदी के तट पर बैठी द्रौपदी ने अपने वस्त्र को फाड़कर कुछ टुकड़ा दुर्वासा ऋषि को दे दिया। द्रौपदी के इस व्यवहार से दुर्वासा ऋषि अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें यह वरदान दिया कि जब भी संकट के समय उन्हें वस्त्रों की आवश्यकता होगी तब उनके वस्त्र अनंत हो जाएंगे। दुर्वासा ऋषि द्वारा दिए गए इसी वरदान की वजह से भरी सभा में जब दु:शासन ने द्रौपदी का चीर हरण करने का प्रयास किया तब द्रौपदी की साड़ी के कई टुकड़े हो जाने की वजह से उनके सम्मान की रक्षा हुई।

रहस्यमयी जगह: यहां पक्षी करते हैं सामूहिक आत्महत्या

नई दिल्ली| एक ऐसी जगह जहां मौत के रहस्य में उलझकर आसमान को छूने वाले पक्षी खुद मौत को गले लगा लेते हैं यानी आत्म हत्या कर लेते हैं। आपको थोड़ी हैरानी हो रही होगी क‌ि भला पक्षी आत्म हत्या कैसे कर सकते हैं। लेक‌िन यह बातें स‌िर्फ आपको ही हैरान नहीं करती हैं बल्क‌ि उन्हें भी हैरात डाले हुए है जहां वर्षों से यह स‌िलस‌िला चला आ रहा है।

अगर आप सोच रहे हैं क‌ि यह व‌िदेश की घटना होगी तो ऐसा नहीं है। यह सब कुछ भारत में होता है। भारत के उत्तर पूर्वी राज्य असम में एक घाटी है ज‌िसे जट‌िंगा वैली (जतिंगा वैली) कहते हैं। यहां जाने पर आपको पक्ष‌ियों के आत्म हत्या करने का नजारा खुद द‌िख जाएगा। मानसून के महीने में यह घटना अध‌िक होती है। इसके अलावा अमावस और कोहरे वाली रात को पक्ष‌ियों के आत्म हत्या करने के मामले अध‌िक देखने को म‌िलते हैं। जतिंगा में 44 जातियों की स्थानीय चिड़ियाएं आत्महत्या करती हैं। इनमें टाइगर बिट्टर्न, ब्लैक बिट्टर्न, लिटिल इहरेट, पॉन्ड हेरॉन, इंडियन पिट्टा और किंगफिशर जाति की चिड़ियाएं अधिक शामिल होती हैं।

पक्ष‌ियों के आत्महत्या का रहस्य क्या है इस बात को लेकर कई तरह की बातें इस क्षेत्र में प्रचल‌ित थी। यहां की जनजात‌ि यह मानती है क‌ि यह भूत-प्रेतों और अदृश्य ताकतों का काम है। जबक‌ि वैज्ञान‌िक धारणा यह है क‌ि यहां तेज हवाओं से पक्ष‌ियों का संतुलन ब‌िगड़ जाता है और वह आस-पास मौजूद पेडों से टकराकर घायल हो जाती हैं और मर जाती हैं। अब बात चाहे जो भी हो लेक‌िन यह स्‍थान पक्ष‌ियों के आत्म हत्या के कारण दुन‌िया भर में रहस्य बना हुआ है।

आखिर ऐसी कौन-सी शक्ति उनको इसके लिए प्रेरित करती है या ऐसा कौन-सा दुख है, जो सभी को एकसाथ आत्महत्या करने पर मजबूर कर देता है। देखने वाले कहते हैं कि मानसून की बोझिल रात में जतिंगा के आसमान पर मंडराने लगता है मौत का काला साया। एक रोशनी की ओर झुंड के झुंड पक्षी आते हैं और देखते ही देखते काल के गाल में समा जाते हैं। चिड़ियों के इस प्रकार सामूहिक आत्महत्या के पीछे क्या कारण है इस बात का पता आज तक नहीं लगाया जा सका। इस बात का पता लगाने के लिए कई शोध हो चुके हैं, परंतु प्रकृति के इस गूढ़ रहस्य के बारे में अभी भी ठोस रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

वैज्ञानिक कहते हैं कि शोध से यह पता चला है कि जिस साल पक्षियों ने ज्यादा जान दी उस साल राज्य में अधिक मेघ बरसे और बाढ़ का प्रकोप भी अधिक रहा। उदाहरण के लिए वर्ष 1988 में सबसे अधिक पक्षी मरे थे और उस साल राज्य में वर्षा और बाढ़ का प्रकोप अधिक था। ये घटनाएं सितंबर से नवंबर के बीच अंधेरी रात में घटती हैं, जब नम और कोहरे-भरे मौसम में हवाएं दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर बहने लगती हैं। रात के अंधेरे में पक्षी रोशनी के आस-पास उड़ने लगते हैं। इस समय वे मदहोशी जैसी अवस्था में होते हैं जिसके कारण ये आसपास की चीजों से टकराकर मर जाते हैं। इस मौके का यहां के लोग भी खूब फायदा उठाते हैं। ऐसा देखा गया है कि पक्षी शाम 7 से रात 10 बजे के बीच ऐसा व्यवहार ज्यादा करते हैं। अगर इस दौरान हल्की बारिश हो रही हो तो ये पक्षी और ज्यादा उत्तेजित हो जाते हैं।

भारत सरकार ने इस गुत्थी को सुलझाने के लिए प्रसिद्ध पक्षी विशेषज्ञ डॉ. सेन गुप्ता को नियुक्त किया था। डॉ. गुप्ता ने यहां लंबे समय तक अध्ययन करने के बाद कहा कि पक्षियों के इस असामान्य व्यवहार के पीछे मौसम और चुम्बकीय शक्तियों का हाथ है। उन्होंने बताया कि वर्षा के मौसम में जब कोहरा छाया हो और हवा चल रही हो, तब शाम के समय जतिंगा घाटी की चुम्बकीय स्थिति में तेजी से बदलाव आ जाता है। इस परिवर्तन के कारण ही पक्षी असामान्य व्यवहार करते हैं और वे रोशनी की ओर आकर्षित होते हैं। अपने शोध के बाद उन्होंने यह सलाह दी कि ऐसे समय में रोशनी जलाने से बचा जाए। उनके इस सलाह पर अमल करने से यहां होने वाली पक्षियों की मौत में 40 फीसदी की कमी आई है।

जतिंगा गुवाहाटी से 330 किलोमीटर है। अगर आप जतिंगा में पक्षियों को देखने जाना चाहते हैं तो वहां आपके लिए एक बर्ड वाचिंग टावर भी बनाया गया है। यहां जाने के लिए आप हाफलौंग शहर में भी रुक सकते हैं जहां सरकारी गेस्ट हाउस और कई निजी होटल भी हैं। जतिंगा में रहने के लिए हाफलौंग में वन विहार के दफ्तर से संपर्क करके पहले से बुकिंग करा सकते हैं।

अनंत चतुर्दशी कल, जानिए पूजन विधि और कथा

भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनंत चतुर्दशी व्रत किया जाता है। इस बार अनंत चतुर्दशी 27 सितंबर को पड़ रही है| इस दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। खास बात यह है कि इस दिन कोई शुभ मुहुर्त नहीं देखा जाता यानि यह पूरा दिन ही शुभ होता है और किसी भी समय कोई भी शुभ काम किया जा सकता है। पुराणों में बताया गया है कि इस दिन उदयव्यापिनी तिथि ग्रहण की जाती है। इस व्रत के नाम से लक्षित होता है कि यह दिन अंत ना होने वाले सृष्टि के कर्ता निर्गुण ब्रह्म की भक्ति का दिन है। पुराणों के अनुसार, जब पाण्डव जुए में अपना सारा राज−पाट हारकर वन में कष्ट भोग रहे थे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अनंत चतुर्दशी का व्रत करने की सलाह दी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ पूरे विधि−विधान से यह व्रत किया तथा अनंत सूत्र को धारण किया। अनंत चतुर्दशी व्रत के प्रभाव से पाण्डव सब संकटों से मुक्त हो गए।

अनंत चतुर्दशी की पूजन विधि-

अनंत चतुर्दशी के पूजन में व्रतकर्ता को प्रात:स्नान करके व्रत का संकल्प करना चाहिए पूजा घर में कलश स्थापित करना चाहिए, कलश पर भगवान विष्णु का चित्र स्थापित करनी चाहिए इसके पश्चात धागा लें जिस पर चौदह गांठें लगाएं इस प्रकार अनन्तसूत्र(डोरा) तैयार हो जाने पर इसे प्रभु के समक्ष रखें इसके बाद भगवान विष्णु तथा अनंतसूत्र की षोडशोपचार-विधिसे पूजा करनी चाहिए तथा ॐ अनन्तायनम: मंत्र क जाप करना चाहिए। पूजा के पश्चात अनन्तसूत्र मंत्र पढकर स्त्री और पुरुष दोनों को अपने हाथों में अनंत सूत्र बांधना चाहिए और पूजा के बाद व्रत-कथा का श्रवन करें। अनंतसूत्र बांधने लेने के बाद ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए और स्वयं सपरिवार प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।

अनंत चतुर्दशी की कथा-

एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मंडप का निर्माण सुंदर तो था ही, अद्भुत भी था वह यज्ञ मंडप इतना मनोरम था कि जल व थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मंडप में धोखा खा चुके थे।

एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मंडप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया। द्रौपदी ने यह देखकर ‘अंधों की संतान अंधी’ कह कर उनका उपहास किया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया। यह बात उसके हृदय में बाण समान लगी। उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पांडवों से बदला लेने की ठान ली। उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे। उसने बदला लेने के लिए पांडवों को द्यूत-क्रीड़ा में हरा कर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पांडवों को जुए में पराजित कर दिया।

पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पांडवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पांडव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख कहा और दुख दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा- ‘हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।’

सतयुग में सुमन्तु नाम के एक मुनि थे। उनकी पुत्री शीला अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुशील थी। सुमन्तु मुनि ने उस कन्या का विवाह कौण्डिन्य मुनि से किया। कौण्डिन्य मुनि अपनी पत्नी शीला को लेकर जब ससुराल से घर वापस लौट रहे थे, तब रास्ते में नदी के किनारे कुछ स्त्रियां अनंत भगवान की पूजा करते दिखाई पड़ीं। शीला ने अनंत−व्रत का माहात्म्य जानकर उन स्त्रियों के साथ अनंत भगवान का पूजन करके अनंत सूत्र बांध लिया। इसके फलस्वरूप थोड़े ही दिनों में उसका घर धन−धान्य से पूर्ण हो गया। एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनंत सूत्र पर पड़ी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा− क्या तुमने मुझे वश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है? शीला ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया− जी नहीं, यह अनंत भगवान का पवित्र सूत्र है।

परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौण्डिन्य ने अपनी पत्नी की सही बात को भी गलत समझा और अनंत सूत्र को जादू−मंतर वाला वशीकरण करने का डोरा समझकर तोड़ दिया तथा उसे आग में डालकर जला दिया। इस जघन्य कर्म का परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया। उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। दीन−हीन स्थिति में जीवन−यापन करने में विवश हो जाने पर कौण्डिन्य ऋषि ने अपने अपराध का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया। वे अनंत भगवान से क्षमा मांगने के लिए वन में चले गए। उन्हें रास्ते में जो मिलता वे उससे अनंत देव का पता पूछते जाते थे।

बहुत खोजने पर भी कौण्डिन्य मुनि को जब अनंत भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने को हुए। तभी एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर उन्हें आत्महत्या करने से रोक दिया और एक गुफा में ले जाकर चतुर्भुज अनंत देव का दर्शन कराया। भगवान ने मुनि से कहा− तुमने जो अनंत सूत्र का तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है। इसके प्रायश्चित के लिए तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनंत−व्रत का पालन करो। इस व्रत का अनुष्ठान पूरा हो जाने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुनः प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी−समृद्ध हो जाओगे। कौण्डिन्य मुनि ने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। कौण्डिन्य मुनि ने चौदह वर्ष तक अनंत व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुनः प्राप्त कर लिया।

विष्णु के पहले मानव रूपी अवतार थे वामन

भगवान विष्णु के विभिन्न युगों में जिन 10 अवतारों का वर्णन किया गया है, उनमें वामन अवतार पांचवें और त्रेता युग के पहले अवतार थे। साथ ही बौने ब्राह्मण के रूप में यह विष्णु के पहले मानव रूपी अवतार भी थे। दक्षिण भारत में इस अवतार को उपेंद्र के नाम से भी जाना जाता है। वामन, ऋषि कश्यप तथा उनकी पत्नी अदिति के पुत्र थे। वह आदित्यों में बारहवें थे। मान्यता है कि वह इंद्र के छोटे भाई थे।

भागवत कथा के अनुसार, असुर राज बली अत्यंत दानवीर थे। दानशीलता के कारण बली की कीर्ति पताका के साथ-साथ प्रभाव इतना विस्तृत हो गया कि उन्होंने देवलोक पर अधिकार कर लिया। देवलोक पर अधिकार करने के कारण इंद्र की सत्ता जाती रही। विष्णु ने देवलोक में इंद्र का अधिकार पुन: स्थापित करने के लिए यह अवतार लिया। बली, विरोचन के पुत्र तथा प्रहलाद के पौत्र थे। यह भी कहा जाता है कि अपनी तपस्या तथा शक्ति के माध्यम से बली ने तीनों लोकों पर आधिपत्य हासिल कर लिया था।

विष्णु वामन रूप में एक बौने ब्राह्मण का वेष धारण कर बली के पास गए और उनसे अपने रहने के लिए तीन कदम के बराबर भूमि दान में मांगी। उनके हाथ में एक लकड़ी का छाता था। असुर गुरु शुक्राचार्य के चेताने के बावजूद बली ने वामन को वचन दे डाला। वामन ने अपना आकार इतना बढ़ा लिया कि पहले ही कदम में पूरा भूलोक (पृथ्वी) नाप लिया। दूसरे कदम में देवलोक नाप लिया। इसके पश्चात ब्रह्मा ने अपने कमंडल के जल से भगवान वामन के पांव धोए। इसी जल से गंगा उत्पन्न हुईं। तीसरे कदम के लिए कोई भूमि बची ही नहीं। वचन के पक्के बली ने तब वामन को तीसरा कदम रखने के लिए अपना सिर प्रस्तुत कर दिया।

वामन बली की वचनबद्धता से अति प्रसन्न हुए। चूंकि बली के दादा प्रह्लाद, विष्णु के परम भक्त थे इसलिए वामन (विष्णु) ने बली को पाताल लोक देने का निश्चय किया और अपना तीसरा कदम बली के सिर पर रखा जिसके फलस्वरूप बली पाताल लोक में पहुंच गए। एक और कथा के अनुसार, वामन ने बली के सिर पर अपना पैर रखकर उनको अमरत्व प्रदान कर दिया। विष्णु अपने विराट रूप में प्रकट हुए और राजा को महाबली की उपाधि प्रदान की, क्योंकि बली ने अपनी धर्मपरायणता तथा वचनबद्धता के कारण अपने आप को महात्मा साबित कर दिया था।

विष्णु ने महाबली को आध्यात्मिक आकाश जाने की अनुमति दे दी जहां उनका अपने सद्गुणी दादा प्रहलाद तथा अन्य दैवीय आत्माओं से मिलना हुआ। वामनावतार के रूप में विष्णु ने बली को यह पाठ दिया कि दंभ तथा अहंकार से जीवन में कुछ हासिल नहीं होता है और यह भी कि धन-संपदा क्षणभंगुर होती है। ऐसा माना जाता है कि विष्णु के दिए वरदान के कारण प्रति वर्ष बली धरती पर अवतरित होते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि उनकी प्रजा खुशहाल है।

बकरीद कल, जानिए क्या है इसके पीछे की कहानी

दुनिया में कोई भी कौम ऐसी नहीं है जो कोई एक खास दिन त्यौहार के रूप में न मनाती हो। इन त्योहारों में एक तो धार्मिक आस्था विशेष रूप से देखने को मिलती है दूसरा अन्य सम्प्रदायों व तबकों के लोगों को उसे समझने और जानने का अवसर मिलता है। अगर मुसलमानों के पास ईद है तो हिंदुओं के पास दीपावली है। ईसाइयों की ईद बड़ा दिन अर्थात क्रिसमस है तो सिखों की ईद गुरु पर्व है। इस्लाम में मुख्यत: दो त्योहारों का जिक्र आता है। पहला है ईद-उल-फितर। इसे मीठी ईद और छोटी ईद भी कहा जाता है। यह त्यौहार रमजान के 30 रोजे रखने के बाद मनाया जाता है। दूसरा है ईद-उल-जुहा। इसे ईद-उल-अजहा अथवा बकरा-ईद (बकरीद) और बड़ी ईद भी कहा जाता हैं। इस बार ईद-उल-जुहा 6 अक्टूबर दिन सोमवार को है| 

ईद-उल-जुहा हज के बाद मनाया जाने वाला त्यौहार है। इस्लाम के 5 फर्ज होते हैं, हज उनमें से आखिरी फर्ज माना जाता है। हर मुसलमान के लिए अपनी सहूलियत के हिसाब से जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है। हज के संपूर्ण होने की खुशी में बकरीद का त्यौहार मनाया जाता है। पर यह बलिदान का त्यौहार भी है। इस्लाम में बलिदान का बहुत अधिक महत्व है। कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज रब की राह में खर्च करो। रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों से लिया जाता है।

कुर्बानी को हर धर्म और शास्त्र में भगवान को पाने का सबसे प्रबल हथियार माना जाता है। हिंदू धर्म में जहां हम कुर्बानी को त्याग से जोड़ कर देखते हैं वहीं मुस्लिम धर्म में कुर्बानी का अर्थ है खुद को खुदा के नाम पर कुर्बान कर देना यानि अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग करना। इसी भावना को उजागर करता है मुस्लिम धर्म का महत्वपूर्ण त्यौहार ईद-उल-जुहा। वैसे बकरीद शब्द का बकरों से कोई रिश्ता नहीं है और न ही यह उर्दू का शब्द है। असल में अरबी में 'बक़र' का अर्थ है बड़ा जानवर जो जिब्ह (कुर्बान) किया जाता है। उसी से बिगड़कर आज भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश में इसे 'बकरीद' कहते हैं। वास्तव में कुर्बानी का असल अर्थ ऐसे बलिदान से है, जो दूसरों के लिए दिया गया हो। 

जानवर की कुर्बानी तो सिर्फ एक प्रतीक भर है कि किस तरह हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम (बाइबल में अब्राहम) ने अल्लाह के लिए हर प्रकार की कुर्बानी दी। यहां तक कि उन्होंने अपने सबसे प्यारे बेटे तक की कुर्बानी दे दी लेकिन खुदा ने उन पर रहमत की और बेटा जिंदा रहा। हजरत इब्राहीम चूंकि अल्लाह को बहुत प्यारे थे इसलिए उनको 'खलीलुल्लाह' की पदवी भी दी गई है। कुर्बानी उस जानवर को जिब्ह करने को कहते हैं जिसे 10, 11, 12 या 13 जिलहिज्जा (अर्थात हज का महीना) को खुदा को प्रसन्न करने के लिए दी जाती है। कुरान में लिखा है, "हमने तुम्हें हौज-ए-कौसर दिया तो तुम अपने अल्लाह के लिए नमाज पढ़ो और कुर्बानी करो।"

वैसे तो इस पावन पर्व की नींव अरब में पड़ी, मगर तुजक-ए-जहांगीरी में लिखा है : "जो जोश, खुशी और उत्साह भारतीय लोगों में ईद मनाने का है, वह तो समरकंद, कंदहार इस्फाहान, बुख़ार, .खोरासां, बगदाद, और तबरेज जैसे शहरों में भी नहीं पाया जाता, जहां इस्लाम का आगमन भारत से पहले हुआ। बादशाह सलामत जहांगीर अपनी रिआया के साथ मिलकर ईद-उल-जुहा मनाते थे। गैर मुसलिमों के दिल को चोट न पहुंचे इसलिए ईद वाले दिन शाम को दरबार में उनके लिए विशेष शुद्ध वैष्णव भोजन हिंदू बावर्चियों द्वारा ही बनाए जाते थे। बड़ी चहल-पहल रहती थी। बादशाह सलामत इनाम-इकराम भी खूब देते थे। मुगल बादशाहों ने कुर्बानी के लिए गाय कुर्बान की सख्त मनाही की थी क्योंकि हमारे देश में गाय को गोमाता के नाम से माना जाता है। यह करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़ी है इसलिए सरकार ने गाय की कुर्बानी करने पर पाबंदी लगायी है।

बकरीद वास्तव में न सिर्फ अकबर व जहांगीर के समय धूम धाम से मनाया जाता था बल्कि आज भी ईद-उल- जुहा का जो असली मनोरंजन है, वह भारत में ही देखने को मिलता है। ईद वाले रोज ऐसा लगता है कि मानो यह मुसलमानों का ही नहीं, हर भारतीय का पर्व है।

आइये एक नज़र ईद-उल-जुहा के इतिहास पर डालें। ईद-उल-जुहा का इतिहास बहुत पुराना है जो हजरत इब्राहीम से जुड़ा है। हजरत इब्राहीम आज से कई हजार साल पहले ईरान के शहर 'उर' में पैदा हुए थे। जिस वातावरण में उन्होंने आंखें खोलीं, उस समाज में कोई भी बुरा काम ऐसा न था जो न हो रहा हो। इब्राहीम ने इसके खिलाफ आवाज उठाई तो सारे कबीले वाले और यहां तक कि परिवार वाले भी उनके दुश्मन हो गए। हजरत इब्राहीम का ज्यादातर जीवन रेगिस्तानों और तपते पहाड़ों में जनसेवा में बीता। संतानहीन होने के कारण उन्होंने एक संतान प्राप्ति के लिए खुदा से गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की थी जो सुनी गई और उन्हें चांद सा बेटा हुआ। उन्होंने अपने इस फूल से बेटे का नाम इस्माईल रखा। 

जब इस्माईल की उम्र 11 साल से भी कम थी तो एक दिन हजरत इब्राहीम ने एक ख़्वाब देखा, जिसमें उन्हें यह आदेश हुआ कि खुदा की राह में सबसे प्यारी चीज कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सबसे प्यारे ऊंट की कुर्बानी दे दी। मगर फिर सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सारे जानवरों की कुर्बानी दे दी। मगर तीसरी बार वही सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। इतना होने पर हजरत इब्राहीम समझ गए कि अल्लाह को उनके बेटे की कुर्बानी चाहिए। वह जरा भी न झिझके और उन्होंने अपनी पत्नी हाजरा से अपने प्यारे लाडले को नहला-धुलाकर कुर्बानी के लिए तैयार करने को कहा। हाजरा ने ऐसा ही किया क्योंकि वह इससे पहले भी एक अग्निपरीक्षा से गुजरी थीं, जब उन्हें हुक्म दिया गया कि वह अपने बच्चे को जलते रेगिस्तान में ले जाएं। 

हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम बुढ़ापे में रेगिस्तान में पत्नी और बच्चे को छोड़ आए। बच्चे को प्यास लगी। मां अपने लाडले के लिए पानी तलाशती फिरी, मगर उस बीहड़ रेगिस्तान में पानी तो क्या पेड़ की छाया तक न थी। बच्चा प्यास से तड़पकर मरने लगा। यह देखकर हजरत जिब्रईल ने हुक्म दिया कि फौरन चश्मा अर्था तालाब जारी हो जाए। पानी का फव्वारा हजरत इस्माईल के पांव के पास फूटा और रेगिस्तान में यह करामत हुई। उधर, मां सोच रही थी कि शायद इस्माईल की मौत हो चुकी होगी। मगर ऐसा नहीं था। वह जीवित रहे। अब इस घटना के बाद जब हाजरा को यह पता चला कि अल्लाह के नाम पर उनके प्यारे बेटे का गला उनके पिता द्वारा ही काटा जाएगा, तो हाजरा स्तब्ध हो गईं। मानों वह मां नहीं, कोई पत्थर की मूरत हों। 

जब हजरत इब्राहीम अपने प्यारे बेटे इस्माईल को कुर्बानी की जगह ले जा रहे थे तो शैतान (इबलीस) ने उनको बहकाया कि क्यों अपने जिगर के टुकड़े को जिब्ह करने पर तुले हो, मगर वह न भटके। हां, छुरी फेरने से पहले नीचे लेटे हुए बेटे ने पिता की आंखों पर रूमाल बंधवा दिया कि कहीं ममता आड़े न आ जाए और हाथ डगमगा न जाएं। पिता ने छुरी चलाई और आंखों पर से पट्टी उतारी तो हैरान हो गए कि बेटा तो उछलकूद रहा है और उसकी जगह जन्नत से एक दुम्बा भेजा गया और उसकी कुर्बानी हुई। यह देखकर हजरत इब्राहीम की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने खुदा का बहुत शुक्रिया अदा किया। यह खुदा की ओर से इब्राहीम की एक और अग्निपरीक्षा थी। तभी से जिलहिज्जा के महीने में जानवर की कुर्बानी देने की परंपरा चली आ रही है।

कभी इस किले की दिवारों से टपकता था खून, आती थीं रोने की आवाजें!

बिहार के रोहतास जिला मुख्यालय सासाराम से लगभग 55 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है रोहतास गढ़ का किला। कहा जाता है कि सोन नदी के बहाव वाली दिशा में पहाड़ी पर स्थित इस प्राचीन और मजबूत किले का निर्माण त्रेता युग में अयोध्या के सूर्यवंशी राजा त्रिशंकु के पौत्र व राजा सत्य हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व ने कराया था। इस किले के बारे में यह कहा जाता है कि कभी इस किले की दीवारों से खून टपकता था। इसके अलावा रात में किसी के रोने की आवाज आती थी| लोगों का मानना है कि वो राजा रोहिताश्व के आत्मा की आवाज थी। इस आवाज को सुनकर हर कोई डर जाता था 

फ्रांसीसी इतिहासकार बुकानन ने लगभग दो सौ साल पहले रोहतास की यात्रा की थी, तब उन्होंने पत्थर से निकलने वाले खून की चर्चा एक दस्तावेज में की थी। उन्होंने कहा था कि इस किले की दीवारों से खून निकलता है। वहीं आस-पास रहने वाले लोग भी इसे सच मानते हैं। वे तो ये भी कहते हैं कि इसमें से बहुत पहले आवाज भी आती थी। लोगों का मानना है कि वो संभवत: राजा रोहिताश्व के आत्मा की आवाज थी। इतिहासकार हो या पुरातत्व के जानकार, वे भी नहीं जानते कि आखिर ऐसी क्या बात थी जो किले के दीवारों से खून निकलता था। यह अंधविश्वास है या सच- ये रहस्य तो इतिहास के गर्त में ही छिपा है।

मुगल बादशाह अकबर के शासन काल 1582 में 'रोहतास सरकार' थी, जिसमें सात परगना शामिल थे। 1784 ई. में तीन परगना को मिलाकर रोहतास जिला बना। इसके बाद यह शाहाबाद का अंग बना और 10 नवम्बर 1972 से रोहतास जिला कायम है। शाहाबाद गजेटियर के अनुसार रोहतास सरकार में रोहतास, सासाराम, चैनपुर के अलावे जपला, बलौंजा, सिरिस और कुटुम्बा परगना शामिल थे। 1587 ई. में सम्राट अकबर ने राजा मान सिंह को बिहार व बंगाल का संयुक्त सूबेदार बनाकर रोहतास भेजा था। राजा मान सिंह ने उसी वर्ष रोहतास गढ़ को प्रांतीय राजधानी घोषित किया। शाहजहांनामा के अनुसार इखलास खां को 1632-33 में रोहतास का किलेदार नियुक्त किया गया।

सर्वप्रथम 1764 ई. में मीर कासिम को बक्सर युद्ध में अंग्रेजों से पराजय के बाद यह क्षेत्र अंग्रेजों के हाथ आ गया। 1774 ई. में अंग्रेज कप्तान थामस गोडार्ड ने रोहतास गढ़ को अपने कब्जे में लिया और उसे तहस-नहस किया। रोहतास का इतिहास, इसकी सभ्यता और संस्कृति अति समृद्धशाली रही है। इसी कारण अंग्रेजों के समय यह क्षेत्र पुरातात्विक महत्व का रहा। 1807 में सर्वेक्षण का दायित्व फ्रांसिस बुकानन को सौंपा गया। वह 30 नवम्बर 1812 को रोहतास आया और कई पुरातात्विक जानकारियां एकत्रित की। 1881-82 में एचबीडब्लू गैरिक ने इस क्षेत्र का पुरातात्विक सर्वेक्षण किया और रोहतास गढ़ से राजा शशांक की मुहर का सांचा प्राप्त किया। 

वैदिक काल में भी रोहतास का अपना विशिष्ट स्थान रहने का प्रमाण पुराणों में प्राप्त हुए हैं। ब्रह्मांड पुराण-4/29 में इस क्षेत्र को कारुष प्रदेश कहा गया है।- 'काशीत: प्राग्दिग्भागे प्रत्यक शोणनदादपि। जाह्वी विन्ध्योर्मध्ये देश: कारुष: स्मृत:।।' महाभारत काल में कारुष राजा था। महाजनपद युग से लेकर परावर्ती गुप्तकाल तक यह क्षेत्र मगध और काशी के बीच रहा। भगवान बुद्ध उसवेला यानी बोधगया में ज्ञान प्राप्ति के बाद रोहितवस्तु यानी रोहतास राज्य होते हुए ही ऋषिपत्तन अर्थात सारनाथ गए थे। यह क्षेत्र मौर्यकाल में भी प्रसिद्ध रहा है। तभी तो सम्राट अशोक ने सासाराम के निकट चंदतन शहीद पहाड़ी पर अपना लघु शिलालेख लिखवाया। 

सातवीं सदी में रोहतास गढ़ का राज्य थानेश्वर का राजा और हर्षवर्द्धन को मार डालने वाले गौड़ाधीप शशांक के हाथों में था। जिसके मुहर व सांचा उत्क्रीर्णन में प्राप्त हुए हैं। 12वीं सदी में भी यह राज्य ख्यारवालों यानी खरवालों (खरवारों) के हाथ में गया। इसी सदी के प्रतापी राजा प्रताप धवल देव के तुतला भवानी, ताराचंडी, रोहतास गढ़ की फुलवारी में स्थित शिलालेख इसके आज भी प्राचीनता की गाथा के मिसाल हैं।

रोहतास गढ़ का किला काफी भव्य है। किले का घेरा 28 मील तक फैला हुआ है। इसमें कुल 83 दरवाजे हैं, जिनमें मुख्य चारा घोड़ाघाट, राजघाट, कठौतियाघाट व मेढ़ाघाट है। प्रवेश द्वार पर निर्मित हाथी, दरवाजों के बुर्ज, दिवालों पर पेंटिंग अद्भुत है। रंगमहल, शीशमहल, पंचमहल, खूंटामहल, आइना महल, रानी का झरोखा, मानसिंह की कचहरी आज भी विद्यमान हैं। परिसर में अनेक इमारतें हैं जिनकी भव्यता देखी जा सकती है।

भष्मासुर से बचने के लिए यहीं छुपे थे भगवान भोेलनाथ

बिहार के प्राचीन शिवलिंगों में शुमार रोहतास जिले के गुप्तेश्वर धाम गुफा स्थित शिवलिंग की महिमा का बखान आदिकाल से ही होता आ रहा है। मान्यता है कि प्राकृतिक सुषमा से सुसज्जित वादियों में स्थित इस गुफा में जलाभिषेक करने के बाद भक्तों की सभी मन्नतें पूरी हो जाती हैं। पौराणिक आख्यानों में वर्णित भगवान शंकर व भस्मासुर से जुड़ी कथा को जीवंत रखे हुए ऐतिहासिक गुप्तेश्वरनाथ महादेव का गुफा मंदिर आज भी रहस्यमय बना हुआ है। 

देवघर के बाबाधाम की तरह गुप्तेश्वरनाथ यानी 'गुप्ताधाम' श्रद्धालुओं में काफी लोकप्रिय है। यहां बक्सर से गंगाजल लेकर शिवलिंग पर चढ़ाने की परंपरा है। रोहतास में अवस्थित विंध्य श्रृंखला की कैमूर पहाड़ी के जंगलों से घिरे गुप्ताधाम गुफा की प्राचीनता के बारे में कोई प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। इसकी बनावट को देखकर पुरातत्वविद अब तक यही तय नहीं कर पाए हैं कि यह गुफा मानव निर्मित है या प्राकृतिक। 

'रोहतास के इतिहास' सहित कई पुस्तकों के लेखक श्यामसुंदर तिवारी का कहना है कि गुफा के नाचघर व घुड़दौड़ मैदान के बगल में स्थित पताल गंगा के पास दीवार पर उत्कीर्ण शिलालेख, जिसे श्रद्धालु 'ब्रह्मा के लेख' के नाम से जानते हैं, को पढ़ने से संभव है, इस गुफा के कई रहस्य खुल जाएं। तिवारी ने कहा, "केंद्र सरकार को चाहिए कि पुरातत्ववेत्ताओं एवं भाषाविदों की मदद से अब तक अपाठ्य रही इस लिपि को पढ़वाया जाए, ताकि इस गुफा के रहस्य पर पड़ा पर्दा हट सके।" 

गुफा में गहन अंधेरा होता है, बिना कृत्रिम प्रकाश के भीतर जाना संभव नहीं है। पहाड़ी पर स्थित इस पवित्र गुफा का द्वार 18 फीट चौड़ा एवं 12 फीट ऊंचा मेहराबनुमा है। गुफा में लगभग 363 फीट अंदर जाने पर बहुत बड़ा गड्ढा है, जिसमें सालभर पानी रहता है। श्रद्धालु इसे 'पातालगंगा' कहते हैं। गुफा के अंदर प्राचीन काल के दुर्लभ शैलचित्र आज भी मौजूद हैं। 

इसके कुछ आगे जाने के बाद शिवलिंग के दर्शन होते हैं। गुफा के अंदर अवस्थित प्राकृतिक शिवलिंग पर हमेशा ऊपर से पानी टपकता है। इस पानी को श्रद्धालु प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। इस स्थान पर सावन महीने के अलावा सरस्वती पूजा और महाशिवरात्रि के मौके पर मेला लगता है। जनश्रुतियों के मुताबिक, कैलाश पर्वत पर मां पार्वती के साथ विराजमान भगवान शिव ने जब भस्मासुर की तपस्या से खुश होकर उसे किसी के सिर पर हाथ रखते ही भष्म करने की शक्ति का वरदान दिया था। भस्मासुर मां पार्वती के सौंदर्य पर मोहित होकर शिव से मिले वरदान की परीक्षा लेने उन्हीं के सिर पर हाथ रखने के लिए दौड़ा। वहां से भागकर भोले यहीं की गुफा के गुप्त स्थान में छुपे थे। 

भगवान विष्णु से शिव की यह विवशता देखी नहीं गई और उन्होंने मोहिनी रूप धारण कर भस्मासुर का नाश किया। उसके बाद गुफा के अंदर छुपे भोले बाहर निकले। सासाराम के वरिष्ठ पत्रकार विनोद तिवारी कहते हैं शाहाबाद गजेटियर में दर्ज फ्रांसिस बुकानन नामक अंग्रेज विद्वान की टिप्पणियों के अनुसार, गुफा में जलने के कारण उसका आधा हिस्सा काला होने के सबूत आज भी देखने को मिलते हैं। 

सावन में एक महीना तक बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और नेपाल से हजारों शिवभक्त यहां आकर जलाभिषेक करते हैं। बक्सर से गंगाजल लेकर गुप्ता धाम पहुंचने वाले भक्तों का तांता लगा रहता है। लोगों बताते हैं कि विख्यात उपन्यासकार देवकी नंदन खत्री ने अपने चर्चित उपन्यास 'चंद्रकांता' में विंध्य पर्वत श्रृंखला की जिन तिलस्मी गुफाओं का जिक्र किया है, संभवत: उन्हीं गुफाओं में गुप्ताधाम की यह रहस्यमयी गुफा भी है। वहां धर्मशाला व कुछ कमरे अवश्य बने हैं, परंतु अधिकांश जर्जर हो चुके हैं। 

गुप्ताधाम गुफा के अंदर ऑक्सीजन की कमी से वर्ष 1989 में हुई आधा दर्जन से अधिक श्रद्घालुओं की मौत की घटना को याद कर आज भी लोग सिहर उठते हैं। बैरिया गांव के प्रो़ उमेश सिंह बताते हैं कि इस घटना के बाद ही प्रशासन की ओर से यहां कुछ ऑक्सीजन सिलेंडर भेजा जाने लगा था। प्रशासन की ओर से चिकित्सा शिविर भी लगता था, परंतु वन विभाग द्वारा इस क्षेत्र को अभ्यारण्य घोषित किए जाने के बाद प्रशासनिक स्तर पर दी जा रही सुविधा बंद कर दी गई है। अब समाजसेवियों के सहारे ही इतना बड़ा मेला चलता है। 

जिला मुख्यालय सासाराम से करीब 60 किलोमीटर दूरी पर स्थित इस गुफा में पहुंचने के लिए रेहल, पनारी घाट और उगहनी घाट से तीन रास्ते हैं जो अतिविकट व दुर्गम हैं। दुर्गावती नदी को पांच बार पार कर पांच पहाड़ियों की यात्रा करने के बाद लोग यहां पहुंचते हैं।