हिन्दू शास्त्रों के अनुसार ज्येष्ठ मास के प्रथम दिन नारद जयन्ती मनाई जाती है| इस बार नारद जयन्ती 7 मई दिन सोमवार को है| देवर्षि नारद का हिन्दू शास्त्रों में मुख्य योगदान रहा है इनके द्वारा सृष्टि में अनेक लीलाओं को देखा गया जिनके सूत्रधार नारद मुनि को माना जाता है| नारद मुनि, हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रो मे से एक है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों मे से एक माने जाते है।देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है।वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले ऋषिगण देवर्षिनाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी,स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात,गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्तातथा अपने ऐश्वर्य के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियोंसे घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं।इस पुराण में आगे यह भी लिखा है कि धर्म, पुलस्त्य,क्रतु, पुलह,प्रत्यूष,प्रभास और कश्यप - इनके पुत्रों को देवर्षिका पद प्राप्त हुआ। धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण,पुलहके पुत्र कर्दम, पुलस्त्यके पुत्र कुबेर, प्रत्यूषके पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र नारद और पर्वत देवर्षि माने गए, किंतु जनसाधारण देवर्षिके रूप में केवल नारदजी को ही जानता है। उनकी जैसी प्रसिद्धि किसी और को नहीं मिली। वायुपुराण में बताए गए देवर्षि के सारे लक्षण नारदजी में पूर्णत:घटित होते हैं।हाथ में वीणा थामे, खड़ी शिखा, मुख से निरंतर 'नारायण' शब्द का जाप करने वाले देवर्षि नारद देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों को जान लेने वाले, वेद ,उपनिषदों के मर्मज्ञ, न्याय एवं धर्म के तत्त्वज्ञ, संगीत विशारद, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, प्रभावशाली वक्तमहापण्डित, विद्वानों की शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म, अर्थ ,काम ,मोक्ष के ज्ञाता हैं|
बुद्ध पूर्णिमा बौद्ध धर्म में आस्था रखने वालों का एक प्रमुख त्यौहार है। इसे बुद्ध जयन्ती के नाम से भी जाना जाता है| बुद्ध जयन्ती वैशाख पूर्णिमा को मनाया जाता हैं। इस बार बुद्ध पूर्णिमा 6 मई को मनाई जायेगी| पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध का स्वर्गारोहण समारोह भी मनाया जाता है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। आज बौद्ध धर्म को मानने वाले विश्व में 50 करोड़ से अधिक लोग इस दिन को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। बुद्द पूर्णिमा का महत्व-धार्मिक ग्रंथों के अनुसार महात्मा बुद्ध को भगवान विष्णु का तेइसवां अवतार माना गया है| इस दिन लोग व्रत-उपवास रखते हैं| इस दिन बौद्ध मतावलंबी श्वेत वस्त्र धारण करते हैं तथा बौद्ध विहारों व मठों में एकत्रित होकर सामूहिक उपासना करते हैं व दान दिया जाता है| बौद्ध और हिंदू दोनों ही धर्मो के लोग बुद्ध पूर्णिमा को बहुत श्रद्धा के साथ मनाते हैं| बुद्ध पूर्णिमा का पर्व बुद्ध के आदर्शों व धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है| संपूर्ण विश्व में मनाया जाने वाला यह पर्व सभी को शांति का संदेश देता है| दुनियाभर से बौद्ध धर्म के अनुयायी बोधगया आते हैं और प्रार्थनाएँ करते हैं तथा बोधिवृक्ष की पूजा करते हैं उसकी शाखाओं पर रंगीन ध्वज सजाए जाते हैं वृक्ष पर दूध व सुगंधित पानी डाला जाता है और उसके पास दीपक जलाए जाते है| श्रीलंका में इस पर्व को 'वेसाक' पर्व के नाम से जाना जाता है| इस दिन दीपक जलाए जाते हैं और फूलों से घरों को सजाया जाता है| बौद्ध धर्म के धर्मग्रंथों का निरंतर पाठ किया जाता है| इस दिन किए गए अच्छे कार्यों से पुण्य की प्राप्ति होती है|महात्मा बुद्ध की कथा-गौतम बुद्ध का मूल नाम 'सिद्धार्थ' था इन्हें ‘बुद्ध', 'महात्मा बुद्ध' आदि नामों से भी जाना जाता है| यह बौद्ध धर्म के संस्थापक हुए. बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परंपरा से निकला धर्म और दर्शन है तथा संपूर्ण विश्व के चार बड़े धर्मों में से एक है| गौतम बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोधन और माता जी का नाम महामाया था| राज घराने में जन्में सिद्धार्थ के विषय में इनके पिता राजा शुद्धोधन को विद्वानों द्वारा बताया गया था कि युवराज सिद्धार्थ या तो एक महान राजा बनेंगे, या एक महान साधु बनेगें साथ ही यह भी भविष्यवाणी की कि युवराज सिद्धार्थ को किसी भी प्रकार के दुख को न देखने दिया जाए इनका कभी भी बूढे, रोगी, मृतक और सन्यासी से सामना न हो तभी यह राज्य कर पाएंगे|इस भविष्यवाणी को सुनकर राजा शुद्धोधन ने अपनी सामर्थ्य की हद तक सिद्धार्थ को दुख से दूर रखने की कोशिश की तथा सांसारिक बंधन में पूर्ण रूप से बांधने के लिए इनका विवाह यशोधरा जी के साथ कर दिया गया| परंतु जब सिद्धार्थ ने एक बार एक वृद्ध विकलांग व्यक्ति, एक रोगी, एक पर्थिव शरीर, और एक साधु समेत इन चार दृश्यों को एक साथ देखा तो उनके मन में जीवन के सत्य को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई और एक रात्रि सिद्धार्थ अपना सब कुछ छोड़कर सत्य की खोज में निकल पडे व एक साधु का जीवन अपना लिया. उन्होंने कठिन तप किया तथा अंत में महावरिक्ष के नीचे आठ दिन तक स्माधिवस्था में वैशाख पूर्णिमा के दिन उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई यहीं से सिद्धार्थ गौतम बुद्ध कहलाए| बुद्ध पूर्णिमा को बैशाख माह का अंतिम स्नान-वैसे तो प्रत्येक माह की पूर्णिमा श्री हरि विष्णु भगवान को समर्पित होती है। शास्त्रों में पूर्णिमा को तीर्थ स्थलों में गंगा स्नान का विशेष महत्व बताया गया है। बैशाख पूर्णिमा का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि इस पूर्णिमा को भाष्कर देव अपनी उच्च राशि मेष में होते हैं और चंद्रमा भी उच्च राशि तुला में। संयोगवश इस बार पूर्णिमा को स्वाती नक्षत्र का योग भी है। शास्त्रों में पूरे बैशाख माह में गंगा स्नान का महत्व बताया गया है। शास्त्रों में यह भी वर्णित है कि पूर्णिमा का स्नान करने से पूरे बैशाख माह के स्नान के बराबर पुण्य मिलता है।
वैसाख के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को नृसिंह जयंती के रूप में मनाया जाता है| इस बार नृसिंह जयंती 4 मई दिन शुक्रवार को मनाई जाएगी| पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार इसी पावन दिवस को भक्त प्रहलाद की रक्षा करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप में अवतार लिया था. जिस कारणवश यह दिन भगवान नृसिंह के जयंती रूप में बड़े ही धूमधाम और हर्सोल्लास के साथ मनाया जाता है|
व्रत विधि-
इस दिन स्नानादि करे संपूर्ण घर की साफ-सफाई करें। इसके बाद गंगा जल या गौमूत्र का छिड़काव कर पूरा घर पवित्र करें।
नृसिंह देवदेवेश तव जन्मदिने शुभे।
उपवासं करिष्यामि सर्वभोगविवर्जितः॥
इस मंत्र के साथ इस मंत्र के साथ दोपहर के समय क्रमशः तिल, गोमूत्र, मृत्तिका और आँवला मलकर पृथक-पृथक चार बार स्नान करें। इसके बाद शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए। पूजा के स्थान को गोबर से लीपकर तथा कलश में तांबा इत्यादि डालकर उसमें अष्टदल कमल बनाना चाहिए। अष्टदल कमल पर सिंह, भगवान नृसिंह तथा लक्ष्मीजी की मूर्ति स्थापित करना चाहिए। तत्पश्चात वेदमंत्रों से इनकी प्राण-प्रतिष्ठा कर षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए। दूसरे दिन फिर पूजन कर ब्राह्मणों को भोजन कराएँ।
कथा-
जब- जब पृथ्वीलोक पर असुरों का पाप बढ़ा तब-तब भगवान ने अवतार लिया| आपको बता दें कि नृसिंह अवतार भगवान विष्णु के प्रमुख अवतारों में से एक है| नरसिंह अवतार में भगवान विष्णु ने आधा मनुष्य व आधा शेर का शरीर धारण करके दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु का वध किया था|
प्राचीन काल में कश्यप नामक ऋषि हुए थे उनकी पत्नी का नाम दिति था| उनके दो पुत्र हुए, जिनमें से एक का नाम हरिण्याक्ष तथा दूसरे का हिरण्यकशिपु था| हिरण्याक्ष को भगवान श्री विष्णु ने पृथ्वी की रक्षा हेतु वाराह रूप धरकर मार दिया था| अपने भाई कि मृत्यु से दुखी और क्रोधित हिरण्यकशिपु ने भाई की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए अजेय होने का संकल्प किया| सहस्त्रों वर्षों तक उसने कठोर तप किया, उसकी तपस्या से प्रसन्न हो ब्रह्माजी ने उसे 'अजेय' होने का वरदान दिया| वरदान प्राप्त करके उसने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया, लोकपालों को मार भगा दिया और स्वत: सम्पूर्ण लोकों का अधिपति हो गया|
देवता निरूपाय हो गए थे वह असुर को किसी प्रकार वे पराजित नहीं कर सकते थे अहंकार से युक्त वह प्रजा पर अत्याचार करने लगा| इसी दौरान हिरण्यकशिपु कि पत्नी कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया एक राक्षस कुल में जन्म लेने पर भी प्रह्लाद में राक्षसों जैसे कोई भी दुर्गुण मौजूद नहीं थे तथा वह भगवान नारायण का भक्त था तथा अपने पिता के अत्याचारों का विरोध करता था| भगवान-भक्ति से प्रह्लाद का मन हटाने और उसमें अपने जैसे दुर्गुण भरने के लिए हिरण्यकशिपु ने बहुत प्रयास किए, नीति-अनीति सभी का प्रयोग किया किंतु प्रह्लाद अपने मार्ग से विचलित न हुआ तब उसने प्रह्लाद को मारने के षड्यंत्र रचे मगर वह सभी में असफल रहा| भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद हर संकट से उबर आता और बच जाता था|
इस बातों से क्षुब्ध हिरण्यकशिपु ने उसे अपनी बहन होलिका की गोद में बैठाकर जिन्दा ही जलाने का प्रयास किया| होलिका को वरदान था कि अग्नि उसे नहीं जला सकती परंतु जब प्रल्हाद को होलिका की गोद में बिठा कर अग्नि में डाला गया तो उसमें होलिका तो जलकर राख हो गई किंतु प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं हुआ|
इस घटना को देखकर हिरण्यकशिपु क्रोध से भर गया उसकी प्रजा भी अब भगवान विष्णु को पूजने लगी, तब एक दिन हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से पूछा कि बता, तेरा भगवान कहाँ है? इस पर प्रह्लाद ने विनम्र भाव से कहा कि प्रभु तो सर्वत्र हैं, हर जगह व्याप्त हैं| क्रोधित हिरण्यकशिपु ने कहा कि 'क्या तेरा भगवान इस स्तम्भ में भी है? प्रह्लाद ने हाँ, में उत्तर दिया|
यह सुनकर क्रोधांध हिरण्यकशिपु ने खंभे पर प्रहार कर दिया तभी खंभे को चीरकर श्री नृसिंह भगवान प्रकट हो गए और हिरण्यकशिपु को पकड़कर अपनी जाँघों पर रखकर उसकी छाती को नखों से फाड़ डाला और उसका वध कर दिया| श्री नृसिंह ने प्रह्लाद की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि आज के दिन जो भी मेरा व्रत करेगा वह समस्त सुखों का भागी होगा एवं पापों से मुक्त होकर परमधाम को प्राप्त होगा अत: इस कारण से दिन को नृसिंह जयंती-उत्सव के रूप में मनाया जाता है|