स्कंद महापुराण के काशी खंड में एक कथा वर्णित है कि त्रैलोक्य संचारी महर्षि नारद एक बार महादेव के दर्शन करने के लिए गगन मार्ग से जा रहे थे। मार्ग मध्य में उनकी दृष्टि उत्तुंग विंध्याद्रि पर केंद्रित हुई। ब्रह्मा के मानस पुत्र देवर्षि नारद को देखकर विंध्या देवी अति प्रसन्न हुई। तत्काल उनका स्वागत कर विंध्या ने देवर्षि को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया। दवेमुति नारद ने आह्लादित होकर विंध्या को आशीर्वाद दिया।
इसके बाद विंध्या ने यथोचित सत्कार करके नारद को उचित आसन पर आसीन कराया। यात्रा की थकान दूर करने के लिए उनके चरण दबाते हुए विंध्या ने कहा, "देवर्षि। मैंने सुना है कि मेरु पर्वत अहंकार के वशीभूत हो सर्वत्र यह प्रचार कर रहा है कि वही समस्त भूमंडल का वहन कर रहा है। हिमवंत गौरीदेवी के पिता हैं। इस कारण से उनको गिरिराज की उपाधि उपलब्ध हो गई है।"
"कहा जाता है कि हिमगिरी में रत्नभंडार है और वह स्वर्णमय है, परंतु मैं इस कारण उसे अधिक महत्व नहीं देती। यह भी माना जाता है कि हिमवान पर अधिक संख्या में महात्मा और ऋषि, मुनि निवास करते हैं। इस कारण से भी मैं उनका अधिक आदर नहीं कर सकती। उनसे भी अधिक उन्नत पर्वतराज इस भूमंडल पर अनेक हैं। आप ही बताइए, इस संबंध में आपके क्या विचार हैं?"
देवर्षि मंदहास करके बोले, "मैं तुम लोगों के बल-सामथ्र्य के बाबत अधिक नहीं जानता, परंतु इतना बता सकता हूं कि इसका निर्णय भविष्य ही कर सकता है।" यह उत्तर देकर देवमुनि आकाश पथ पर अग्रसर हुए।
नारद का उत्तर सुनकर विंध्या देवी मन-ही-मन खिन्न हो गई और अपनी मानसिक शांति खोकर सोचने लगी, "ज्ञाति के द्वारा किए गए अपमान को सहन करने की अपेक्षा मृत्यु ही उत्तम है। मेरु पर्वत की प्रशंसा मैं सुन नहीं सकती।" इसके बाद ईष्र्या के वशीभूत हो विंध्या देवी सदा अशांत रहने लगी। क्रमश: निद्रा और आहार से वंचित हो वह दिन-प्रतिदिन दुर्बल होती गई।
प्रतिकार की भावना से प्रेरित हो वह सोचती रह गई। अंत में वह एक निश्चय पर आ गई, "सूर्य भगवान प्रतिदिन मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा किया करते हैं। मैं ग्रह एवं नक्षत्रों के मार्ग को अवरुद्ध करते हुए आकाश की ओर बढ़ती जाऊंगी। तब तमाशा देखूंगी, किसकी ताकत कैसी है?"
इस निश्चय पर पहुंचकर विंध्या देवी आकाश की ओर बढ़ चली। बढ़ते-बढ़ते उसने सूर्य के आड़े रहकर उनके मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। परिणामस्वरूप तीनों लोक सूर्य प्रकाश से वंचित रह गए और सर्वत्र अंधकार छा गया। समस्त प्राणी समुदाय तड़पने लगा। देवताओं ने व्याकुल होकर सृष्टिकर्ता से शिकायत की।
ब्रह्मदेव को जब पता चला तो उन्होंने देवताओं को उपाय बताया, "पुत्रो, सुनो। इस समय विंध्या और मेरु पर्वत के बीच वैर हो गया है। इस कारण से विंध्या ने सूर्य के परिभ्रमण के पथ को रोक रखा है। इस समस्या का समाधान केवल महर्षि अगस्त्य ही कर सकते हैं। इस समय वे काशी क्षेत्र में विश्वेश्वर के प्रति तपस्या में निमग्न हैं। तपोबल में वे अद्वितीय हैं।
एक बार उन्होंने लोक कंटक वातापि तथा इलवल का मर्दन कर जगत् की रक्षा की थी। इस भूमंडल पर कोई ऐसा व्यक्ति नहीं, जो उनसे भय न खाता हो। उस महानुभाव ने सागर को ही मथ डाला था। इसलिए तुम लोग उस महाभाग के आश्रय में जाकर उनसे प्रार्थना करो। तुम लोगों के मनोरथ की सिद्धि होगी।"
ब्रह्मदेव के मुंह से उपाय सुनकर दवेता प्रसन्न हुए। वे उसी समय काशी नगरी पहुंचे। वहां पर देखा, महर्षि अगस्त्य अपनी पत्नी लोपामुद्रा समेत पर्ण-कुटी में तपस्या में लीन हैं। देवताओं ने भक्तिभाव से उन मुनि दम्पति को प्रणाम करके निवेदन किया, "महानुभाव! हम अपनी विपदा क्या बताएं? विंध्या पर्वत मेरु पर्वत के साथ शत्रु-भाव से उसका अपमान करने पर सन्नद्ध है। इसी आशय से उसने सूर्य पथ को रोक रखा है। विंध्या गगन की ओर गतिमान है। उसकी गति को रोकने की क्षमता केवल आप ही रखते हैं। आप कृपा करके सूर्य की परिक्रमा को यथावत् संपन्न करके तीनों लोकों की रक्षा कीजिए। यही मेरा आपसे सादर निवेदन है।" देवगुरु बृहस्पति ने प्रार्थना की।
महर्षि अगस्त्य ने देवताओं की विपदा पर दयार्द होकर उन्हें अभय प्रदान किया। जगत् के कल्याण के लिए महर्षि ने देवताओं को अभय तो प्रदान किया, परंतु उनका मन काशी नगरी तथा काशी के अधिष्ठाता देव विश्वेश्वर को छोड़ने को मानता न था। गंगा जी में स्नान किए बिना वे कभी पानी तक ग्रहण नहीं करते। विश्वेश्वर के दर्शन किए बिना वे पल-भर नहीं रह सकते।
काशी को त्यागते हुए उनका मन विकल हो उठा। विवश होकर मन-ही-मन महादेव का स्मरण करते हुए सती समेत विंध्या देव ने दूर से ही महर्षि अगस्त्य को देखा। निकट आने पर उनके तमतमाए हुए मुखमंडल को देख विंध्या देवी नखशिख-र्पयत कांप उठी। अपना मस्तक झुकाकर मुनि के चरणों में प्रणाम किया। मुनि को शांत करने के विचार से विनीत भाव से बोली, "महात्मा। आदेश दीजिए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूं?"
"विंध्या, तुम साधु प्रकृति की हो। स्थिर चित्त हो। मेरे स्वभाव से भी तुम भली-भांति परिचित हो। मैं दक्षिणापथ में जा रही हूं। तुम मेरे लौटने तक इसी प्रकार झुकी रहो। ऊपर उठने की चेष्टा न करो। यही मेरा आदेश है।" यह कहकर महर्षि अगस्त्य ने विंध्या को आशीर्वाद दिया और दक्षिण दिशा की ओर निकल पड़े।
दक्षिण में मुनि दम्पति ने पवित्र गोदावरी के तट पर अपना स्थिर निवास बनाया। किंतु विंध्या को इस बात का पता न था। वह इसी विखर से अपना समय काटने लगी कि महर्षि अगस्त्य शीघ्र ही लौट आनेवाले हैं।
समय बीतता गया, परंतु महर्षि नहीं लौटे। विंध्या ने जो अपना मस्तक झुकाया, उसे अगस्त्य की प्रतीक्षा में झुकाए ही रखा। फिर क्या था, पूर्व दिशा में सूर्योदय हुआ और पश्चिमी दिशा में सूर्यास्त होता रहा। समस्त दिशाएं सूर्य के आलोक से दमक उठीं। प्राणी-समुदाय हर्षोल्लास से नाच उठा। जगत् के कार्यकलाप यथावत् घटित होने लगे।
पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार
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