तो इसलिए धारण करते हैं मौन


शास्त्रों में कहा गया है कि "उत्सर्ग मिथुने चैव प्रस्त्रवे दन्तधावने। श्राद्धे भोजन काले च षट्सु मौनं समाचरेत्।। अर्थात मल-मूत्र त्याग करते समय, नाक व कान का मेल साफ़ करते समय, मैथुन के समय, कान व नाक की सफाई करते समय इसके अलावा आँख के चिपड़े को साफ़ करते समय, श्राद्ध काल में तथा भोजन करते समय मौनाचरण करना चाहिए| 

मौन पालन के समय मुंह से न बोलना जितना आवश्यक है, उससे अधिक महत्वपूर्ण किसी भी व्यावहारिक बात का विचार न करना है। परमार्थ सिद्धि के लिए व्यावहारिक बातों का अस्पष्ट विचार भी मन में नहीं आना चाहिए। यही मौन पालन का सही अर्थ है। मौन पालन की समयावधि में साधना,चिंतन तथा मनन की अधिक से अधिक प्रमाण में आवश्यकता होती है।

कहते हैं कि मौन साधना प्राचीन तपश्चर्या का छोटा रूप है। मौन धारण करने वाले साधक के शरीर में दैवी शक्ति उत्पन्न होती है। उसकी इच्छा शक्ति एवं मनोबल जैसे-जैसे बढता जाता है, वैसे-वैसे अल्प, लघु, क्षुद्र या महासिद्धि का लाभ प्राप्त होता है। मौन के भी दो प्रकार होते हैं- वाचिक एंव वैचारिक| इनमें से वाचिक मौन का पाठ बचपन में ही सीखने को मिल जाता है। जब वाद-विवाद एवं मतभेद उत्पन्न होता है, उस समय क्रोध की संभावना रहती है। 

ऐसे में प्रासंगिक मौन का सहारा लेने पर अच्छा परिणाम निकलता है। अष्टमी, एकादशी, पूर्णिमा एवं अमावस्या-इन तिथियों का मौन पालन विशेष स्मरणीय रहता है। इसके अलावा पूजा, पंचमहायज्ञ, जप तथा पुरश्चरण आदि धार्मिक प्रसंगों पर मौन पालन आवश्यक है। साथ ही साथ वैचारिक मौन के समय कोई भी विचार मन में नहीं आने देना चाहिए। वैचारिक मौन ही श्रेष्ठ मौन माना जाता है।

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