इस तरह महात्मा शेखसादी ने माना खुदा का अहसान


उर्दू भाषा के महान कवि महात्मा शेखसादी पैदल यात्रा किया करते थे। अपनी यात्रा के कुछ संस्मरण उन्होंने लिखे जो बोधप्रद और आज भी प्रासंगिक हैं। पेश है उनकी दास्तान उन्हीं की जुबानी :


एक बार मैं सफर करता हुआ गांव की एक मस्जिद में रुका। मेरे पैरों में कांटे लग गए थे। पैसे की तंगी के कारण जूता नहीं खरीद सका था। जब मैं कांटे निकाल रहा था तो मुझे बड़ा कष्ट और मानसिक वेदना हो रही थी। सोचता था कि मेरी क्या जिंदगी है कि मुझे जूता तक मयस्सर नहीं हो सका। इतने में ही एक मुसाफिर वहां आया। उसके एक टांग नहीं थी और वह बगल में लकड़ी लगाकर चल रहा था।

उसको देखते ही मैं अपनी तकलीफ भूल गया। मैंने भगवान को धन्यवा
द दिया कि ऐ खुदा, तूने मुझे जूते नहीं दिए, किंतु पैर तो दिए। इसके तो पैर भी नहीं हैं।

इंसानियत :

एक बार जब मैं शहर दमिश्क में रह रहा था, वहां बहुत जोर का अकाल पड़ा। आकाश से एक बूंद पानी न टपका। नदियां सूख गईं। पेड़ फकीरों की तरह कंगाल हो गए। ऐसी दशा हो गई कि न तो पहाड़ों पर सब्जी दिखाई देती थी, न बागों में हरी डालियां। खेत टिड्डियों ने चाट डाले थे। आदमी डिड्डियों को खा गए थे। इन्हीं दिनों मेरा एक मित्र मुझसे मिलने आया। उसकी हड्डियों पर केवल खाल बाकी रह गई थी। उसे देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि वह बड़ा धनवान और अमीर आदमी था। उसके पास सवारी के लिए बीसों घोड़े और रहने के लिए आलीशान हवेलियां थीं। पचासों नौकर थे।

मैंने उससे पूछा, "तुम्हारी यह हालत कैसे हो गई?" वह बोला, "आपको क्या इस देश का हाल मालूम नहीं है?" कितनी मुसीबतें और आफतें आई हुई हैं। कितना भयंकर अकाल पड़ा हुआ है। हजारों आदमी भूख से मर गए हैं।

मैंने कहा, "तुमको इस मुसीबत से क्या मतलब?" तुम इतने अमीर हो कि अगर ऐसे सैकड़ों अकाल भी पड़ें तो तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।"

वह बोला, "आपका कहना सच है, मगर इंसान वहीं है, जो दूसरों के दुख को अपना दुख समझे। जब मैं लोगों को फाका करते देखता था, तो मेरे मुंह में खाने का एक टुकड़ा नहीं उतरता था। इसलिए मैंने अपनी सारी जायदाद और सामान बेचकर गरीबों और फकीरों में बांट दिया। शेख सादी, इस बात को याद रखो कि उस तंदुरुस्त आदमी का सुख नष्ट हो जाता है, जिसके पास बीमार बैठा हो।"

सबसे बड़ा धर्म :

बसरा शहर में एक बड़ा ईश्वर-भक्त और सत्यवादी मनुष्य रहता है। मैं जब वहां पहुंचा तो उसके दर्शनों के लिए गया। कुछ और यात्री भी मेरे साथ थे। उस व्यक्ति ने हममें से प्रत्येक का हाथ चूमा और बड़े आदर के साथ सबको बैठा कर तब खुद बैठा। किंतु उसने हमसे रोटी की बात नहीं पूछी।

वह रात भर माला जपता रहा, सोया नहीं और हमें भूख के कारण नींद नहीं आई। सुबह हुई तो फिर वह हमारे हाथ चूमने लगा।

हमारे साथ एक मुंहफट यात्री भी था। वह उस ईश्वर-भक्त पुरुष से बोला, "अगर तुम हमें रात को रोटी खिला देते और रातभर आराम से सोते तो तुम्हें भजन करने से भी अधिक पुण्य मिलता, क्योंकि भूखे मनुष्य को रोटी खिलाने से बढ़कर कोई धर्म नहीं है।"

पर्दाफाश से साभार 

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