इसे आधुनिकता की अंधीदौड़ मानें या मंहगाई की मार, बुंदेलखण्ड में शादी के बाद पड़ने वाले पहले रक्षाबंधन का हर सुहागिन को बेसब्री से इंतजार हुआ करता था। इस दिन ससुराल से सुहागिन के लिए 'सावनी' भेजे जाने की पुरानी परम्परा थी, सावनी में भेजे गए श्रंगार सामाग्री से 'श्रंगार' कर सुहागिन बहन अपने भाइयों की कलाई में राखी बांध कर 'सुहाग' की रक्षा का वचन लेते थीं लेकिन पीढ़ियों पुरानी यह परम्परा अब विलुप्त होने के कगार पर है।
बुंदेलखण्ड में हर तीज-त्यौहार मनाने की अलग सामाजिक परम्पराएं रही हैं। आप रक्षाबंधन को ही ले लीजिए। शादी के बाद पड़ने वाले पहले रक्षाबंधन में हर सुहागिन को अपने ससुराल से भेजे जाने वाले 'सावनी' का बड़ी बेसब्री से इंतजार हुआ करता था।
सावनी में ससुराल पक्ष से हर वह सामाग्री भेजी जाती थी, जो एक सुहागिन के श्रंगार का हिस्सा है। सोने-चांदी के जेवरातों से लेकर कपड़े और खिलौने तक शामिल हुआ करते थे। सावनी में आए सामान को सुहागिन जहां पास-पड़ोस की सहेलियों के बीच 'बांयन' के तौर पर बांटा करती थी, वहीं इसी से श्रंगार कर वह अपने भाइयों की कलाई में सावनी में आई 'राखी' बांध कर सुहाग के रक्षा का वचन भी लेती थी।
ससुराल पक्ष से आने वाली सावनी की अदायगी सुहागिन के मायके पक्ष के लोग 'तीजा' के त्यौहार में 'पठौनी' भेज कर करते थे। पर यह अब गुजरे जमाने की बात जैसी हो गई है। इसे आधुनिकता की अंधीदौड़ मानें या फिर मंहगाई की मार, सावनी लाने और भेजने की यह सदियों पुरानी परम्परा विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है।
बांदा जनपद के सिकलोढ़ी गांव की बुजुर्ग महिला श्यामा तिवारी बताती है कि 'जब उसके मायके ससुराल से सावनी पहुंची थी, तब नाई से गांव में सावनी देखने का बुलावा भेजा गया था। सावनी का हर सामान गांव की महिलाओं ने देखा और ससुराल वालों की तारीफ की थी।
ससुराल से आए सामान को पाकर वह खुद बहुत खुश हुई थी।' वह बताती है कि 'लोग सावनी की श्रंगार सामग्री से ससुराल की बड़प्पन का अंदाजा लगाया करते थे। जिस सुहागिन की सावनी न आए वह अपनी तौहीन समझती थी।' बल्लान गांव की देवरतिया (80) बताती है कि 'हर अमीर और गरीब ससुराल से सावनी भेजने का रिवाज रहा है, पर अब धीरे-धीरे यह खत्म होने लगी है, रेशम के धागे वाली राखियां बाजार में दिखाई नहीं देती। अब तो विदेशी राखियों का जमाना आ गया है।'
तेन्दुरा गांव का दलित टेरियां बताता है कि 'सावनी की परम्परा दो परिवारों (ससुराल और मायका) के बीच सामाजिक सौहाद्र कायम करने और रिश्ता मजबूती से बनाए रखने का द्योतक है। इस परम्परा के खात्मे के लिए जहां बढ़ती मंहगाई जिम्मेदार है, वहीं आधुनिकता की अंधीदौड़ से युवा पीढ़ी इसे भूलती जा रही है।' साथ ही उसने कहा कि 'अब समाज में सयानापन न होने के कारण भी इन परम्पराओं से लोग तौबा कर रहे हैं।'
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