आधुनिकता की होड़ में तीज त्योहारों की पुरानी परम्पराएं धीरे-धीरे विलुप्त
होती जा रही है। शहरी परिवेश ने तो कई अच्छी परम्पराओं पर एक तरह से पर्दा
डाल दिया है। ऐसी ही एक परम्परा है कार्तिक स्नान की। लेकिन आज के बदलते
दौर में न सिर्फ युवाओं ने बल्कि बुजुर्गों ने भी भोर के समय कार्तिक स्नान
की पुरानी परम्परा को लगभग भुला दिया है।
महानगरीय चकाचौंध और कस्बे, गांवों में तालाबों का अस्तित्व गुम हो जाने के कारण ज्यादातर लोग चाहते हुए भी इस परम्परा का निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं। रायपुर की बुजुर्ग महिला सरिता शास्त्री कहती हैं कि पहले कार्तिक माह में दिन के प्रथम प्रहर में स्नान कर भगवान शिव की पूजा अर्चना की जाती थी, अब इसे भुला दिया गया है। पहले शरद पूर्णिमा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक पूरे एक माह प्रतिदिन नदी और तालाब में स्नान कर जल में दीप प्रज्वलित किए जाते थे। आधुनिकता के दौर में गांवों की वर्षो पुरानी परम्परा धीरे-धीरे अब विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है। शहर में तो यह न के बराबर दिखती है।
वर्तमान में कस्बों के साथ गांवों में भी तालाबों का अस्तित्व धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है। इसकी वजह से भी लोग कार्तिक स्नान की धार्मिक परम्परा में रुचि नहीं दिखा रहे हैं। घर के बड़े बुजुर्ग कार्तिक स्नान की परम्परा को आज याद तो करते हैं पर आसपास में तालाब या नदी के अभाव में वे केवल याद करके ही रह जाते हैं। पुराणी बस्ती के सुरेश वर्मा का कहना है कि पहले कार्तिक का महीना प्रारम्भ होते ही सुबह चार बजे लोग अपने घर से स्नान के लिए निकल पड़ते थे। ठंडे पानी में स्नान के बाद जल में दीप प्रज्वलित करने का नजारा देखते ही बनता था। भोर के समय कार्तिक स्नान के लिए तालाब में दूर दूर के लोग पहुंच कर दीपदान करते थे, तालाब के आसपास बेहद मनोरम दृष्य बन जाता था।
भिलाई के कमल शर्मा ने बताया कि आधुनिकता के चलते अब पुरानी परंपरा विलुप्त कर दी गई है। उन्होंने कहा कि कार्तिक स्नान की परम्परा के पीछे धार्मिक कारण से अधिक अच्छे स्वास्थ्य पर ध्यान देने की आदत बनती थी। शर्मा ने कहा कि गुलाबी ठंड में प्रात: का स्नान स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहतर रहता है। तालाब अथवा नदी में दीप प्रज्वलित करने के बाद चावल आदि से भगवान शिव की पूजा अर्चना करने से आसपास के जीव जन्तुओं को भोजन मिलता है। इससे तालाब का पानी भी स्वच्छ रहता है। भोर में कार्तिक स्नान के बहाने लोगों को जल्द उठने की आदत बन जाती है। पर अब आधुनिकता कि आड़ में अच्छी परम्पराओं को भुला दिया जा रहा है।
उन्होंने कहा कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए इन परम्पराओं को जीवित रखना बेहद जरूरी है। बहरहाल आज भी कुछ गांवों में परम्पराओं को मानने वाले लोग हैं, जो अलसुबह कार्तिक स्नान के लिए तालाबों की तरफ निकल पड़ते हैं।
महानगरीय चकाचौंध और कस्बे, गांवों में तालाबों का अस्तित्व गुम हो जाने के कारण ज्यादातर लोग चाहते हुए भी इस परम्परा का निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं। रायपुर की बुजुर्ग महिला सरिता शास्त्री कहती हैं कि पहले कार्तिक माह में दिन के प्रथम प्रहर में स्नान कर भगवान शिव की पूजा अर्चना की जाती थी, अब इसे भुला दिया गया है। पहले शरद पूर्णिमा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक पूरे एक माह प्रतिदिन नदी और तालाब में स्नान कर जल में दीप प्रज्वलित किए जाते थे। आधुनिकता के दौर में गांवों की वर्षो पुरानी परम्परा धीरे-धीरे अब विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है। शहर में तो यह न के बराबर दिखती है।
वर्तमान में कस्बों के साथ गांवों में भी तालाबों का अस्तित्व धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है। इसकी वजह से भी लोग कार्तिक स्नान की धार्मिक परम्परा में रुचि नहीं दिखा रहे हैं। घर के बड़े बुजुर्ग कार्तिक स्नान की परम्परा को आज याद तो करते हैं पर आसपास में तालाब या नदी के अभाव में वे केवल याद करके ही रह जाते हैं। पुराणी बस्ती के सुरेश वर्मा का कहना है कि पहले कार्तिक का महीना प्रारम्भ होते ही सुबह चार बजे लोग अपने घर से स्नान के लिए निकल पड़ते थे। ठंडे पानी में स्नान के बाद जल में दीप प्रज्वलित करने का नजारा देखते ही बनता था। भोर के समय कार्तिक स्नान के लिए तालाब में दूर दूर के लोग पहुंच कर दीपदान करते थे, तालाब के आसपास बेहद मनोरम दृष्य बन जाता था।
भिलाई के कमल शर्मा ने बताया कि आधुनिकता के चलते अब पुरानी परंपरा विलुप्त कर दी गई है। उन्होंने कहा कि कार्तिक स्नान की परम्परा के पीछे धार्मिक कारण से अधिक अच्छे स्वास्थ्य पर ध्यान देने की आदत बनती थी। शर्मा ने कहा कि गुलाबी ठंड में प्रात: का स्नान स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहतर रहता है। तालाब अथवा नदी में दीप प्रज्वलित करने के बाद चावल आदि से भगवान शिव की पूजा अर्चना करने से आसपास के जीव जन्तुओं को भोजन मिलता है। इससे तालाब का पानी भी स्वच्छ रहता है। भोर में कार्तिक स्नान के बहाने लोगों को जल्द उठने की आदत बन जाती है। पर अब आधुनिकता कि आड़ में अच्छी परम्पराओं को भुला दिया जा रहा है।
उन्होंने कहा कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए इन परम्पराओं को जीवित रखना बेहद जरूरी है। बहरहाल आज भी कुछ गांवों में परम्पराओं को मानने वाले लोग हैं, जो अलसुबह कार्तिक स्नान के लिए तालाबों की तरफ निकल पड़ते हैं।
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