आपको पता है पूरे देश में दीपावली कार्तिक मास की अमावस्या को मनाई जाती है
लेकिन हिमांचल प्रदेश में एक महीने बाद दीपावली मनाई जाती हैं| आपको बता
दें कि हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में शुक्रवार से इस त्योहार को मनाया
जाएगा। इस अवसर पर परम्परा के मुताबिक स्थानीय लोगों द्वारा सैकड़ों पशुओं
की बलि चढ़ाई जाती है।
देर से दीवाली मनाने के विषय में राज्य मंदिर समिति के सदस्य सचिव प्रेम प्रसाद पंडित ने बताया कि स्थानीय लोगों की पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान राम के विजयी होकर अयोध्या लौटने की खबर इन क्षेत्रों में देर से पहुंची थी। इस त्योहार को स्थानीय लोग बूढ़ी दीवाली कहते हैं। इसे प्रमुख रूप से कुल्लू जिले के अनी तथा र्निमड, सिरमौर जिले के शिल्लई और शिमला जिले के छोपाल में मनाया जाता है।
अमावस्या के दिन शुरू होने वाला यह त्योहार स्थानीय परम्परा और रीति-रिवाज के अनुसार तीन दिन से एक हफ्ते तक चलता है। लोग रात में आग के सामने महाभारत से सम्बंधित लोककथा को गाकर नृत्य करते हैं और ढोल बजाकर देवताओं का आह्वान करते हैं। उत्सव की परम्परा महाभारत के युद्ध से भी जुड़ी है। माना जाता है कि बूढ़ी दीवाली के दिन ही यह युद्ध शुरू हुआ था।
परम्परा के अनुसार गांव वाले अपने पशुओं को मंदिर ले जाते हैं जहां उनकी अमावस्या पर बलि चढ़ाई जाती है। पशुओं के सिर देवताओं को चढ़ा दिए जाते हैं और मांस पकाकर खाया जाता है। पंडित ने कहा कि कुछ स्थानीय रीति-रिवाज हैं जिन पर सरकार को प्रतिबंध नहीं लगाना चाहिए।
देर से दीवाली मनाने के विषय में राज्य मंदिर समिति के सदस्य सचिव प्रेम प्रसाद पंडित ने बताया कि स्थानीय लोगों की पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान राम के विजयी होकर अयोध्या लौटने की खबर इन क्षेत्रों में देर से पहुंची थी। इस त्योहार को स्थानीय लोग बूढ़ी दीवाली कहते हैं। इसे प्रमुख रूप से कुल्लू जिले के अनी तथा र्निमड, सिरमौर जिले के शिल्लई और शिमला जिले के छोपाल में मनाया जाता है।
अमावस्या के दिन शुरू होने वाला यह त्योहार स्थानीय परम्परा और रीति-रिवाज के अनुसार तीन दिन से एक हफ्ते तक चलता है। लोग रात में आग के सामने महाभारत से सम्बंधित लोककथा को गाकर नृत्य करते हैं और ढोल बजाकर देवताओं का आह्वान करते हैं। उत्सव की परम्परा महाभारत के युद्ध से भी जुड़ी है। माना जाता है कि बूढ़ी दीवाली के दिन ही यह युद्ध शुरू हुआ था।
परम्परा के अनुसार गांव वाले अपने पशुओं को मंदिर ले जाते हैं जहां उनकी अमावस्या पर बलि चढ़ाई जाती है। पशुओं के सिर देवताओं को चढ़ा दिए जाते हैं और मांस पकाकर खाया जाता है। पंडित ने कहा कि कुछ स्थानीय रीति-रिवाज हैं जिन पर सरकार को प्रतिबंध नहीं लगाना चाहिए।
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