बुंदेलखंड में कभी ठंड से बचाव के लिए ग्रामीण महिलाएं पुराने कपड़ों से
बने 'सलूका' से तन ढककर तड़के ही चूल्हा-चौका और फिर खेती-बारी के काम में
जुट जाया करती थीं, लेकिन अब गांव-देहात के दर्जी न तो इसकी सिलाई करते हैं
और न ही महिलाएं इससे तन ढकने को तैयार हैं। बदलते समय के साथ गरीबों का
स्वेटर कहा जाने वाला सलूका जाने कहां गायब हो गया है।
बुंदेलखंड में आर्थिक तंगी जूझते भूमिहीन लोगों की आजीविका का साधन लंबरदारों के घर 'बनी-मजूरी' करना था। इस वर्ग को लंबरदार 'जन' कहकर पुकारा करते थे। डेढ़ सेर अनाज की मिली 'बनी' से परिवार के पेट की आग बुझाना उनका एक मात्र उद्देश्य हुआ करता था। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिनको दो वक्त की रोटी का इंतजाम करना भारी पड़ता रहा हो, वह ठंड से बचाव के लिए स्वेटर या गर्म कपड़े का इंतजाम कैसे कर सकता है?
लिहाजा, लंबरदारों के तन के उतरन से खुद के तन को ढकना गरीबों की मजबूरी हुआ करती थी। उतरन में मिले कपड़ों को घर का मुखिया गांव के दर्जी से सलूका सिलवाकर महिलाओं को दिया करते थे। लेकिन अब इस वर्ग की हालत में कुछ सुधार हुआ है। जहां मजदूरी में इजाफा हुआ है, वहीं बाजारों में सस्ते दामों में बिकने वाले रेडीमेड गर्म कपड़े गरीबों को ठंड से बचाने में सहायक हैं।
बांदा जिले के तेंदुरा गांव के बुजुर्ग जगदेउना मेहतर (85) का कहना है कि बड़े लोगों के घर अच्छी मेहनत करने पर डेढ़ सेर अनाज की बनी के साथ बख्शीश में पुराने कपड़े मिल जाया करते थे। गांव के दर्जी इन कपड़ों से महिलाओं के लिए सलूका और पुरुषों के लिए गंजी सिल दिया करते थे।
जगदेउना बताते हैं कि पहले कमाई-धमाई थी नहीं, सो स्वेटर या गर्म कपड़ा बाजार से खरीदने की कूबत ही नहीं थी। ठंड के मौसम में घर की महिलाएं सलूका पहनकर तड़के से चूल्हा-चौका और खेती-किसानी का काम किया करती थीं।
बकौल जगदेउना, अब उनके लड़के बड़े हो गए हैं, वे परदेस में कमाते हैं और इधर मजदूरी भी बढ़ी है, जिससे बाजार में सस्ते दामों में मिलने वाले गर्म कपड़े वे आसानी से खरीद लेते हैं। इसी गांव की बुजुर्ग महिला दसिया बताती हैं कि उन्होंने पूरी उम्र में सलूका पहनकर ही ठंड काटी है, मगर करीब दस साल से उनका नाती बाजार से गर्म कपड़े खरीदकर पहना रहा है। वह यह भी बताती हैं कि अबकी बहुएं सलूका जानती भी नहीं हैं। अगर सिलवाकर दे भी दिया जाए तो वह पहनने को तैयार नहीं हैं।
इसी गांव में दर्जी का काम करने वाले बुजुर्ग बउरा ने बताया, "मुझे याद है कि करीब 12 साल पहले मइयादीन रैदास एक पुराने पैंट का सलूका सिलवाकर ले गया गया था, उसके बाद से अब तक सलूका का कोई नाम ही नहीं ले रहा है।" इसे आधुनिकता का प्रभाव मानें या ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति में सुधार का नतीजा कि अब ग्रामीण क्षेत्र में ठंड के मौसम में कोई भी महिला सलूका पहनना पसंद नहीं करतीं। ऐसे में सलूका शब्द अपना अर्थ खोने लगा है।
बुंदेलखंड में आर्थिक तंगी जूझते भूमिहीन लोगों की आजीविका का साधन लंबरदारों के घर 'बनी-मजूरी' करना था। इस वर्ग को लंबरदार 'जन' कहकर पुकारा करते थे। डेढ़ सेर अनाज की मिली 'बनी' से परिवार के पेट की आग बुझाना उनका एक मात्र उद्देश्य हुआ करता था। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिनको दो वक्त की रोटी का इंतजाम करना भारी पड़ता रहा हो, वह ठंड से बचाव के लिए स्वेटर या गर्म कपड़े का इंतजाम कैसे कर सकता है?
लिहाजा, लंबरदारों के तन के उतरन से खुद के तन को ढकना गरीबों की मजबूरी हुआ करती थी। उतरन में मिले कपड़ों को घर का मुखिया गांव के दर्जी से सलूका सिलवाकर महिलाओं को दिया करते थे। लेकिन अब इस वर्ग की हालत में कुछ सुधार हुआ है। जहां मजदूरी में इजाफा हुआ है, वहीं बाजारों में सस्ते दामों में बिकने वाले रेडीमेड गर्म कपड़े गरीबों को ठंड से बचाने में सहायक हैं।
बांदा जिले के तेंदुरा गांव के बुजुर्ग जगदेउना मेहतर (85) का कहना है कि बड़े लोगों के घर अच्छी मेहनत करने पर डेढ़ सेर अनाज की बनी के साथ बख्शीश में पुराने कपड़े मिल जाया करते थे। गांव के दर्जी इन कपड़ों से महिलाओं के लिए सलूका और पुरुषों के लिए गंजी सिल दिया करते थे।
जगदेउना बताते हैं कि पहले कमाई-धमाई थी नहीं, सो स्वेटर या गर्म कपड़ा बाजार से खरीदने की कूबत ही नहीं थी। ठंड के मौसम में घर की महिलाएं सलूका पहनकर तड़के से चूल्हा-चौका और खेती-किसानी का काम किया करती थीं।
बकौल जगदेउना, अब उनके लड़के बड़े हो गए हैं, वे परदेस में कमाते हैं और इधर मजदूरी भी बढ़ी है, जिससे बाजार में सस्ते दामों में मिलने वाले गर्म कपड़े वे आसानी से खरीद लेते हैं। इसी गांव की बुजुर्ग महिला दसिया बताती हैं कि उन्होंने पूरी उम्र में सलूका पहनकर ही ठंड काटी है, मगर करीब दस साल से उनका नाती बाजार से गर्म कपड़े खरीदकर पहना रहा है। वह यह भी बताती हैं कि अबकी बहुएं सलूका जानती भी नहीं हैं। अगर सिलवाकर दे भी दिया जाए तो वह पहनने को तैयार नहीं हैं।
इसी गांव में दर्जी का काम करने वाले बुजुर्ग बउरा ने बताया, "मुझे याद है कि करीब 12 साल पहले मइयादीन रैदास एक पुराने पैंट का सलूका सिलवाकर ले गया गया था, उसके बाद से अब तक सलूका का कोई नाम ही नहीं ले रहा है।" इसे आधुनिकता का प्रभाव मानें या ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति में सुधार का नतीजा कि अब ग्रामीण क्षेत्र में ठंड के मौसम में कोई भी महिला सलूका पहनना पसंद नहीं करतीं। ऐसे में सलूका शब्द अपना अर्थ खोने लगा है।
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