प्रतिवर्ष आश्विन मास में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते
है। इन्हें सोलह श्राद्ध भी कहते हैं। इस वर्ष पितृपक्ष के श्राद्ध 9
सितम्बर से प्रारम्भ होंगे| आखिरी मातामह का श्राद्ध 24 सितम्बर को होगा।
पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह
निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा
पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते
है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। पितृपक्ष
पक्ष को महालय या कनागत भी कहा जाता है| हिन्दू धर्म मान्यता अनुसार सूर्य
के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर कुछ समय के लिए पृथ्वी पर
अपने पुत्र- पौत्रों के यहां आते हैं|
श्राद्ध के महत्व के बारे में कई प्राचीन ग्रंथों तथा पुराणों में वर्णन मिलता है| श्राद्ध का पितरों के साथ बहुत ही घनिष्ठ संबंध है| पितरों को आहार तथा अपनी श्रद्धा पहुँचाने का एकमात्र साधन श्राद्ध है| मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड तथा दान ही श्राद्ध कहा जाता है और जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया-कर्म सम्पन्न हो जाते हैं, उसी को पितर कहा जाता है| शास्त्रों के अनुसार जिन व्यक्तियों का श्राद्ध मनाया जाता है, उनके नाम तथा गोत्र का उच्चारण करके मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि उन्हें दिया समर्पित किया जाता है, वह उन्हें विभिन्न रुपों में प्राप्त होता है| जैसे यदि मृतक व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार देव योनि मिलती है तो श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को खिलाया गया भोजन उन्हें अमृत रुप में प्राप्त होता है| यदि पितर गन्धर्व लोक में है तो उन्हें भोजन की प्राप्ति भोग्य रुप में होती है| पशु योनि में है तो तृण रुप में, सर्प योनि में होने पर वायु रुप में, यक्ष रुप में होने पर पेय रुप में, दानव योनि में होने पर माँस रुप में, प्रेत योनि में होने पर रक्त रुप में तथा मनुष्य योनि होने पर अन्न के रुप में भोजन की प्राप्ति होती है|
अब सबसे बड़ी बात यह कि आपने देखा होगा कि श्राद्ध में लोग पूजा के लिए तांबा अथवा कांसे के बर्तनों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन किसी भी दशा में आपने लोहे के बर्तन को इस्तेमाल होते हुए नहीं देखा होगा| क्या आप जानते हैं कि लोहे के बर्तन का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता है| ज्योतिष के अनुसार, लोहा प्रयोग पूजा या श्राद्घ में इसलिए नहीं होता है क्योंकि लोहा निम्न धातु है इसलिए इसे अशुद्घ माना गया है। जबकि सोना-चांदी, तांबा, पीतल और कांसा इन धातुओं को पवित्र और उत्तम माना गया है। इनके अभाव में केले के पत्ते को छोड़कर बाकि अन्य पत्तल का इस्तेमाल किया जा सकता है।
श्राद्ध के महत्व के बारे में कई प्राचीन ग्रंथों तथा पुराणों में वर्णन मिलता है| श्राद्ध का पितरों के साथ बहुत ही घनिष्ठ संबंध है| पितरों को आहार तथा अपनी श्रद्धा पहुँचाने का एकमात्र साधन श्राद्ध है| मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड तथा दान ही श्राद्ध कहा जाता है और जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया-कर्म सम्पन्न हो जाते हैं, उसी को पितर कहा जाता है| शास्त्रों के अनुसार जिन व्यक्तियों का श्राद्ध मनाया जाता है, उनके नाम तथा गोत्र का उच्चारण करके मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि उन्हें दिया समर्पित किया जाता है, वह उन्हें विभिन्न रुपों में प्राप्त होता है| जैसे यदि मृतक व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार देव योनि मिलती है तो श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को खिलाया गया भोजन उन्हें अमृत रुप में प्राप्त होता है| यदि पितर गन्धर्व लोक में है तो उन्हें भोजन की प्राप्ति भोग्य रुप में होती है| पशु योनि में है तो तृण रुप में, सर्प योनि में होने पर वायु रुप में, यक्ष रुप में होने पर पेय रुप में, दानव योनि में होने पर माँस रुप में, प्रेत योनि में होने पर रक्त रुप में तथा मनुष्य योनि होने पर अन्न के रुप में भोजन की प्राप्ति होती है|
अब सबसे बड़ी बात यह कि आपने देखा होगा कि श्राद्ध में लोग पूजा के लिए तांबा अथवा कांसे के बर्तनों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन किसी भी दशा में आपने लोहे के बर्तन को इस्तेमाल होते हुए नहीं देखा होगा| क्या आप जानते हैं कि लोहे के बर्तन का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता है| ज्योतिष के अनुसार, लोहा प्रयोग पूजा या श्राद्घ में इसलिए नहीं होता है क्योंकि लोहा निम्न धातु है इसलिए इसे अशुद्घ माना गया है। जबकि सोना-चांदी, तांबा, पीतल और कांसा इन धातुओं को पवित्र और उत्तम माना गया है। इनके अभाव में केले के पत्ते को छोड़कर बाकि अन्य पत्तल का इस्तेमाल किया जा सकता है।
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