पुत्र का कर्तव्य तभी सार्थक माना जाता है, जब वह अपने जीवनकाल में
माता-पिता की सेवा करे और उनके मरणोपरांत उनकी मृत्युतिथि (बरसी) तथा
महालया (पितृपक्ष) में विधिवत श्राद्ध करे| इस वर्ष श्राद्ध का पखवाड़ा
(पितृपक्ष) नौ सितंबर से प्रारंभ हो रहा है| श्राद्ध की मूल कल्पना वैदिक
दर्शन के कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद पर आधारित है| कहा गया है कि आत्मा अमर
है, जिसका नाश नहीं होता| श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओं, पितरों और वंश के
प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है|
मान्यता है कि जो लोग अपना शरीर छोड़ जाते हैं, वे किसी भी लोक में या किसी भी रूप में हों, श्राद्ध पखवाड़े में पृथ्वी पर आते हैं और श्राद्ध व तर्पण से तृप्त होते हैं| हिंदू मान्यताओं के अनुसार, पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है| यों तो देश के कई स्थानों में पिंडदान किया जाता है, परंतु बिहार के फल्गु तट पर बसे गया में पिंडदान का बहुत महत्व है| कहा जाता है कि भगवान राम और देवी सीता ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था|
महाभारत में लिखा है कि फल्गु तीर्थ में स्नान करके जो मनुष्य श्राद्धपक्ष में भगवान गदाधर (भगवान विष्णु) के दर्शन करता है, वह पितरों के ऋण से विमुक्त हो जाता है| कहा गया है कि फल्गु श्राद्ध में पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोजन-ये तीन मुख्य कार्य होते हैं| पितृपक्ष में कर्मकांड का विधि व विधान अलग-अलग है| श्रद्धालु एक दिन, तीन दिन, सात दिन, पंद्रह दिन और 17 दिन का कर्मकांड करते हैं|
गया को विष्णु का नगर माना गया है| यह मोक्ष की भूमि कहलाती है| विष्णु पुराण और वायु पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है| विष्णु पुराण के मुताबिक, गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और वे स्वर्ग में वास करते हैं| माना जाता है कि स्वयं विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे 'पितृ तीर्थ' भी कहा जाता है| गया के पंडा देवव्रत ने बताया कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान किए बिना पिंडदान हो ही नहीं सकता| पिंडदान की प्रक्रिया पुनपुन नदी के किनारे से प्रारंभ होती है|
किंवदंतियों के अनुसार, भस्मासुर के वंशज में गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या कर ब्रह्मा से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाएं| उसे यह वरदान तो मिला, लेकिन दुष्परिणाम यह हुआ कि स्वर्ग की जनसंख्या बढ़ने लगी और सब कुछ प्राकृतिक नियम के विपरीत होने लगा, क्योंकि लोग बिना भय के पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से पाप मुक्त होने लगे|
इससे बचने के लिए देवताओं ने यज्ञ के लिए पवित्र स्थल की मांग गयासुर से की| गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिए दे दिया| दैत्य गयासुर जब लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया| यही पांच कोस की जगह आगे चलकर गया कहलाई| गयासुर के मन से मगर लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और उसने देवताओं से फिर वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने वाला बना रहे| जो भी लोग यहां पर पिंडदान करें, उनके पितरों को मुक्ति मिले. यही कारण है कि आज भी लोग अपने पितरों को तारने यानी पिंडदान के लिए गया आते हैं|
विद्वानों के मुताबिक, किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है| प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है| पिंडदान के समय मृतक के निमित्त अर्पित किए जाने वाले पदार्थ, जिसमें जौ या चावल के आंटे को गूंथकर बनाया गया गोलाकृति पिंड कहलाता है| दक्षिणाभिमुख होकर, आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है| जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलकार उस जल से विधिपूर्वक तर्पण किया जाता| मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं| इसके बाद श्राद्ध के बाद ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है|
पंडों के मुताबिक, शास्त्रों में पितरों का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है| पितरों की श्रेणी में मृत माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल हैं| व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों की श्रेणी में आते हैं| कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों की 360 वेदियां थीं जहां पिंडदान किया जाता था| इनमें से अब 48 ही बची हैं| हालांकि कई धार्मिक संस्थाएं उन पुरानी वेदियों की खोज की मांग कर रही हैं| इस समय इन्हीं 48 वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं| यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट के नीचे पिंडदान करना जरूरी माना जाता है|
उल्लेखनीय है कि देश में श्राद्ध के लिए हरिद्वार, गंगासागर, जगन्नाथपुरी, कुरुक्षेत्र, चित्रकूट, पुष्कर, बद्रीनाथ सहित 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है| इनमें गया का स्थान सर्वोपरि कहा गया है| गरुड़ पुराण में कहा गया है कि गया जाने के लिए घर से निकलने पर चलने वाले एक-एक कदम पितरों के स्वर्गारोहण के लिए एक-एक सीढ़ी बनाते हैं| संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवनकाल में ही कर लेते हैं| गरुड़ पुराण और मत्स्य पुराण में वर्णित है कि श्रद्धा से अर्पित वस्तुएं पितरों को उस लोक में प्राप्त होती हैं, जिसमें वे रहते हैं| लोग श्राद्ध के दौरान कौवों, कुत्तों और गायों के लिए भी अंश निकालते हैं| मान्यता है कि कुत्ता और कौवा यम के करीबी हैं और गाय वैतरणी पार कराती है|
मान्यता है कि जो लोग अपना शरीर छोड़ जाते हैं, वे किसी भी लोक में या किसी भी रूप में हों, श्राद्ध पखवाड़े में पृथ्वी पर आते हैं और श्राद्ध व तर्पण से तृप्त होते हैं| हिंदू मान्यताओं के अनुसार, पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है| यों तो देश के कई स्थानों में पिंडदान किया जाता है, परंतु बिहार के फल्गु तट पर बसे गया में पिंडदान का बहुत महत्व है| कहा जाता है कि भगवान राम और देवी सीता ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था|
महाभारत में लिखा है कि फल्गु तीर्थ में स्नान करके जो मनुष्य श्राद्धपक्ष में भगवान गदाधर (भगवान विष्णु) के दर्शन करता है, वह पितरों के ऋण से विमुक्त हो जाता है| कहा गया है कि फल्गु श्राद्ध में पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोजन-ये तीन मुख्य कार्य होते हैं| पितृपक्ष में कर्मकांड का विधि व विधान अलग-अलग है| श्रद्धालु एक दिन, तीन दिन, सात दिन, पंद्रह दिन और 17 दिन का कर्मकांड करते हैं|
गया को विष्णु का नगर माना गया है| यह मोक्ष की भूमि कहलाती है| विष्णु पुराण और वायु पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है| विष्णु पुराण के मुताबिक, गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और वे स्वर्ग में वास करते हैं| माना जाता है कि स्वयं विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे 'पितृ तीर्थ' भी कहा जाता है| गया के पंडा देवव्रत ने बताया कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान किए बिना पिंडदान हो ही नहीं सकता| पिंडदान की प्रक्रिया पुनपुन नदी के किनारे से प्रारंभ होती है|
किंवदंतियों के अनुसार, भस्मासुर के वंशज में गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या कर ब्रह्मा से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाएं| उसे यह वरदान तो मिला, लेकिन दुष्परिणाम यह हुआ कि स्वर्ग की जनसंख्या बढ़ने लगी और सब कुछ प्राकृतिक नियम के विपरीत होने लगा, क्योंकि लोग बिना भय के पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से पाप मुक्त होने लगे|
इससे बचने के लिए देवताओं ने यज्ञ के लिए पवित्र स्थल की मांग गयासुर से की| गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिए दे दिया| दैत्य गयासुर जब लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया| यही पांच कोस की जगह आगे चलकर गया कहलाई| गयासुर के मन से मगर लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और उसने देवताओं से फिर वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने वाला बना रहे| जो भी लोग यहां पर पिंडदान करें, उनके पितरों को मुक्ति मिले. यही कारण है कि आज भी लोग अपने पितरों को तारने यानी पिंडदान के लिए गया आते हैं|
विद्वानों के मुताबिक, किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है| प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है| पिंडदान के समय मृतक के निमित्त अर्पित किए जाने वाले पदार्थ, जिसमें जौ या चावल के आंटे को गूंथकर बनाया गया गोलाकृति पिंड कहलाता है| दक्षिणाभिमुख होकर, आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है| जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलकार उस जल से विधिपूर्वक तर्पण किया जाता| मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं| इसके बाद श्राद्ध के बाद ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है|
पंडों के मुताबिक, शास्त्रों में पितरों का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है| पितरों की श्रेणी में मृत माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल हैं| व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों की श्रेणी में आते हैं| कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों की 360 वेदियां थीं जहां पिंडदान किया जाता था| इनमें से अब 48 ही बची हैं| हालांकि कई धार्मिक संस्थाएं उन पुरानी वेदियों की खोज की मांग कर रही हैं| इस समय इन्हीं 48 वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं| यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट के नीचे पिंडदान करना जरूरी माना जाता है|
उल्लेखनीय है कि देश में श्राद्ध के लिए हरिद्वार, गंगासागर, जगन्नाथपुरी, कुरुक्षेत्र, चित्रकूट, पुष्कर, बद्रीनाथ सहित 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है| इनमें गया का स्थान सर्वोपरि कहा गया है| गरुड़ पुराण में कहा गया है कि गया जाने के लिए घर से निकलने पर चलने वाले एक-एक कदम पितरों के स्वर्गारोहण के लिए एक-एक सीढ़ी बनाते हैं| संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवनकाल में ही कर लेते हैं| गरुड़ पुराण और मत्स्य पुराण में वर्णित है कि श्रद्धा से अर्पित वस्तुएं पितरों को उस लोक में प्राप्त होती हैं, जिसमें वे रहते हैं| लोग श्राद्ध के दौरान कौवों, कुत्तों और गायों के लिए भी अंश निकालते हैं| मान्यता है कि कुत्ता और कौवा यम के करीबी हैं और गाय वैतरणी पार कराती है|
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