महाभारत के युद्ध में क्यों नहीं शामिल हुए बलराम....?



महाभारत वह महाकाव्य है जिसके बारे में जानता तो हर कोई है लेकिन आज भी कुछ ऐसे चीजें हैं जिसे जानने वालों की संख्या कम है| क्या आपको पता है महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम क्यों नहीं शामिल हुए थे? महाभारत युद्ध में देश-विदेश की सेना ने भाग लिया था। माना जाता है कि कौरवों के साथ कृष्ण की सेना सहित कई जगहों के योद्धा शामिल थे, तो पांडवों के साथ सिर्फ कृष्ण और उनके मित्र राजाओं की सेना थी। लेकिन इस युद्ध में दो राजा शामिल नहीं हुए थे इनमें से एक तो बलराम और दूसरे भोजकट के राजा और रुक्मणि के बड़े भाई रुक्मी थे।

तो इसलिए महाभारत युद्ध में कृष्ण को क्यों उठाना पड़ा था चक्र?


भगवान कृष्ण को उनके बड़े भाई बलराम ने कई बार समझाया कि हमें युद्ध में शामिल नहीं होना चाहिए, क्योंकि दुर्योधन और अर्जुन दोनों ही हमारे मित्र हैं। ऐसे धर्मसंकट के समय दोनों का ही पक्ष न लेना उचित होगा। ऐसे में दोनों भाई धर्मसंकट में पड़ गए, लेकिन कृष्ण ने इस समस्या का भी हल निकाल लिया था। उन्होंने दुर्योधन से ही कह दिया था कि तुम मुझे और मेरी सेना दोनों में से किसी एक का चयन कर लो। दुर्योधन ने कृष्ण की सेना का चयन किया।

इस तरह हुआ द्रोणाचार्य का जन्म...?

महाभारत में वर्णित है कि जिस समय युद्ध की तैयारियां हो रही थीं और उधर एक दिन भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम, पांडवों की छावनी में अचानक पहुंचे। दाऊ भैया को आता देख श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर आदि बड़े प्रसन्न हुए। सभी ने उनका आदर किया। सभी को अभिवादन कर बलराम, धर्मराज के पास बैठ गए। उन्होंने कहा कि मैंने कृष्ण को न जाने कितनी बार समझाया हमारे लिए तो पांडव और कौरव दोनों ही एक समान हैं। दोनों को मूर्खता करने की सूझी है। इसमें हमें बीच में पड़ने की आवश्यकता नहीं, पर कृष्ण ने मेरी एक न मानी।

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कृष्ण को अर्जुन के प्रति स्नेह इतना ज्यादा है कि वे कौरवों के विपक्ष में हैं। अब जिस तरफ कृष्ण हों, उसके विपक्ष में कैसे जाऊं? भीम और दुर्योधन दोनों ने ही मुझसे गदा सीखी है। दोनों ही मेरे शिष्य हैं। दोनों पर मेरा एक जैसा स्नेह है। इन दोनों कुरुवंशियों को आपस में लड़ते देखकर मुझे अच्छा नहीं लगता अतः में तीर्थयात्रा पर जा रहा हूं।

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हनुमान जी के विवाह का रहस्य...

 कहते हैं भगवान रामभक्त हनुमान की उपासना से जीवन के सारे कष्ट, संकट मिट जाते है। माना जाता है कि हनुमान एक ऐसे देवता है जो थोड़ी-सी प्रार्थना और पूजा से ही शीघ्र प्रसन्न हो जाते है। इतिहास साक्षी है जब-जब भक्तों पर संकट के बादल मंडराए भगवान ने अपने भक्तो की रक्षा के लिए किसी न किसी रूप में अवतार लेकर उनकी रक्षा की है। हनुमान जी को बाल ब्रह्मचारी माना जाता है इसलिए हनुमान जी लंगोट धारण किए हर मंदिर और तस्वीरों में अकेले दिखते हैं। कभी भी अन्य देवताओं की तरह हनुमान जी को पत्नी के साथ नहीं देखा होगा। लेकिन अगर आप हनुमान के साथ उनकी पत्नी को देखना चाहते हैं तो आपको आंध्र प्रदेश जाना होगा।

हैदराबाद से करीब 220 किलोमीटर दूर तेलंगाना के खम्मन जिले में एक ऐसा मंदिर है जहाँ पवनपुत्र हनुमान अपनी पत्नी सुर्वचला के साथ विराजमान हैं| किंवदंती है कि सुवर्चला सूर्य देव की पुत्री हैं। जिनका विवाह पवनपुत्र हनुमानजी के साथ हुआ था। मान्यता है कि जो भी हनुमानजी और उनकी पत्नी के दर्शन करता है, उन भक्तों के वैवाहिक जीवन की सभी परेशानियां दूर हो जाती हैं और पति-पत्नी के बीच प्रेम बना रहता है।

पाराशर संहिता के अनुसार हनुमानजी अविवाहित नहीं, विवाहित हैं। हनुमानजी ने सूर्य देव को अपना गुरु बनाया था। सूर्य देव के पास 9 दिव्य विद्याएं थीं। इन सभी विद्याओं का ज्ञान बजरंग बली प्राप्त करना चाहते थे। सूर्य देव ने इन 9 में से 5 विद्याओं का ज्ञान तो हनुमानजी को दे दिया, लेकिन शेष 4 विद्याओं के लिए सूर्य के समक्ष एक संकट खड़ा हो गया। शेष 4 दिव्य विद्याओं का ज्ञान सिर्फ उन्हीं शिष्यों को दिया जा सकता था जो विवाहित हों।

हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी थे, इस कारण सूर्य देव उन्हें शेष चार विद्याओं का ज्ञान देने में असमर्थ हो गए। समस्या के निराकरण के लिए सूर्य देव ने हनुमानजी से विवाह करने की बात कही। पहले तो हनुमानजी विवाह के लिए राजी नहीं हुए, लेकिन उन्हें शेष 4 विद्याओं का ज्ञान पाना ही था। तब हनुमानजी ने विवाह के लिए हां कर दी। जब हनुमानजी विवाह के लिए मान गए तब उनके योग्य कन्या के रूप में सूर्य देव की पुत्री सुवर्चला को चुना गया। सूर्य देव ने हनुमानजी से कहा कि सुवर्चला परम तपस्वी और तेजस्वी है और इसका तेज तुम ही सहन कर सकते हो।

सुवर्चला से विवाह के बाद तुम इस योग्य हो जाओगे कि शेष 4 दिव्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर सको। सूर्य देव ने यह भी बताया कि सुवर्चला से विवाह के बाद भी तुम सदैव बाल ब्रह्मचारी ही रहोगे, क्योंकि विवाह के बाद सुवर्चला पुन: तपस्या में लीन हो जाएगी। इस तरह हनुमानजी और सुवर्चला का विवाह सूर्य देव ने करवा दिया। विवाह के बाद सुवर्चला तपस्या में लीन हो गईं और हनुमानजी से अपने गुरु सूर्य देव से शेष 4 विद्याओं का ज्ञान भी प्राप्त कर लिया। इस प्रकार विवाह के बाद भी हनुमानजी ब्रह्मचारी बने हुए हैं। 

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जानिए कैसे हुआ पवनसुत हनुमान का जन्म.....?

कलियुग में बहुत जल्दी प्रसन्न होने वाले देवी-देवताओं में से एक हैं हनुमान जी। आपको बता दें कि जीवन में जब भी कोई अत्यधिक मुश्किल प्रतीत हो रहा हो या लाख कोशिशों के बाद भी वह पूर्ण नहीं हो पा रहा हो या बार-बार बाधाएं उत्पन्न हो रही हों तब हनुमानजी को प्रसन्न कर उन रुकावटों को दूर किया जा सकता है। हनुमान जी को हिन्दू धर्म में कष्ट विनाशक और भय नाशक देवता के रूप में जाना जाता है| हनुमान जी अपनी भक्ति और शक्ति के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं| सारे पापों से मुक्त करने ओर हर तरह से सुख-आनंद एवं शांति प्रदान करने वाले हनुमान जी की उपासना लाभकारी एवं सुगम मानी गयी है। पुराणों के अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी मंगलवार, स्वाति नक्षत्र मेष लग्न में स्वयं भगवान शिवजी ने अंजना के गर्भ से रुद्रावतार लिया। क्या आप जानते हैं कि हनुमान जी का जन्म कैसे हुआ अगर नहीं जानते हैं तो आज हम आपको बताते हैं कि कैसे जन्मे पवनसुत हनुमान- आपको बता दें कि हनुमान के जन्म के संबंध में धर्मग्रंथों में कई कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार-

भगवान विष्णु के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर अपना वीर्यपात कर दिया। सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहित कर वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए। हनुमान जी सब विद्याओं का अध्ययन कर पत्नी वियोग से व्याकुल रहने वाले सुग्रीव के मंत्री बन गए। उन्होंने पत्नीहरण से खिन्न व भटकते रामचंद्रजी की सुग्रीव से मित्रता कराई। सीता की खोज में समुद्र को पार कर लंका गए और वहां उन्होंने अद्भुत पराक्रम दिखाए। हनुमान ने राम-रावण युद्ध ने भी अपना पराक्रम दिखाया और संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण के प्राण बचाए। अहिरावण को मारकर लक्ष्मण व राम को बंधन से मुक्त कराया।

हनुमान जी के विवाह का रहस्य...

वहीँ, दूसरी कथानुसार हनुमान की माता अंजना संतान सुख से वंचित थी। कई जतन करने के बाद भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। इस दुःख से पीड़ित अंजना मतंग ऋषि के पास गईं, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-पप्पा सरोवर के पूर्व में एक नरसिंहा आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है वहां जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करना पड़ेगा तब जाकर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी। अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया था बारह वर्ष तक केवल वायु का ही भक्षण किया तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से खुश होकर उसे वरदान दिया जिसके परिणामस्वरूप चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा को अंजना को पुत्र की प्राप्ति हुई। वायु के द्वारा उत्पन्न इस पुत्र को ऋषियों ने वायु पुत्र नाम दिया।

एक अन्य कथा के अनुसार महाराजा दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ से प्राप्त जो हवि अपनी रानियों में बाँटी थी उसका एक भाग गरुड़ उठाकर ले गया और उसे उस स्थान पर गिरा दिया जहाँ अंजनी पुत्र प्राप्ति के लिए तपस्या कर रही थी। हवि खा लेने से अंजनी गर्भवती हो गई और कालांतर में उसने हनुमानजी को जन्म दिया। वहीँ, हनुमान के जन्म-स्थान के बारे में कुछ भी निश्चित नहीं है। मध्यप्रदेश के आदिवासियों का कहना है कि हनुमानजी का जन्म राँची जिले के गुमला परमंडल के ग्राम अंजन में हुआ था। कर्नाटकवासियों की धारणा है कि हनुमानजी कर्नाटक में पैदा हुए थे। पंपा और किष्किंधा के ध्वंसावशेष अब भी हाम्पी में देखे जा सकते हैं। अपनी रामकथा में फादर कामिल बुल्के ने लिखा है कि कुछ लोगों के अनुसार हनुमानजी वानर-पंथ में पैदा हुए थे।

इस तरह बजरंगबली कहलाये हनुमान-

श्रीराम चरित मानस के अनुसार, हनुमानजी की माता का नाम अंजनी और पिता वानरराज केसरी है। केसरी नंदन जब काफी छोटे थे तब खेलते समय उन्होंने सूर्य को देखा। सूर्य को देखकर अजंनीपुत्र ने सोचा कि यह कोई खिलौना होगा और वे सूर्य की उड़ चले। जन्म से ही मारूति को दैवीय शक्तियां प्राप्त थी अत: वे कुछ ही समय में सूर्य के समीप पहुंच गए और अपना आकार बड़ा करके सूर्य को मुंह में निगल लिया।

पवनपुत्र द्वारा जब सूर्य को निगल लिया गया तब सृष्टि में अंधकार व्याप्त हो गया इससे सभी देवी-देवता चिंतित हो गए। सभी देवी-देवता पवनपुत्र के पास विनति करने पहुंचे कि वे सूर्य को छोड़ दें लेकिन बालक मारूति ने किसी की बात नहीं मानी। इससे क्रोधित होकर इंद्र ने उनके मुंह पर वज्र से प्रहार कर दिया। इस वज्र प्रहार से उनकी ठुड्डी टूट गई। ठुड्डी को हनु भी कहा जाता है। जब मारूति की ठुड्डी टूट गई तब पवन देव ने अपने पुत्र की यह दशा देखकर अति क्रोधित हो गए और सृष्टि से वायु का प्रवाह रोक दिया। इससे और अधिक संकट बढ़ गया। तब भी देवी-देवताओं ने बालक मारूति को अपनी-अपनी शक्तियों उपहार स्वरूप दी। तब पवन देव का क्रोध शांत हुआ। तभी से मारूति की ठुड्डी अर्थात् हनु टूट जाने की वजह से सभी देवी-देवताओं ने इनका नाम हनुमान रखा। 

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जानिए रावण ने क्यों नहीं छुआ था सीता जी को.......?

क्या आप जानते हैं कि वह कौन सा क्या था श्राप जिसकी वजह से सीता की अनुमति के बिना लंकापति रावण उनका स्पर्श नहीं कर पाया? नहीं तो आज हम आपको इसकी जानकारी देते हैं कि आखिर रावण ने क्यों नहीं छुआ था सीता को| रामायण के अनुसार काम के वश में होकर जब रावण सीता को लंका ले गया। सीता जी तप्स्विनी के वेष में वहां ही रहती और तप उपवास किया करती थी। रावण ने सीता की रक्षा के लिए राक्षसियों को नियुक्त कर दिया जो बहुत भयानक दिखाई पड़ती थी। वे बहुत ही कठोर तरीके से उन्हें धमकाती और कहती थीं। आओ हम सब मिलकर इसको काट डालें और तिल जैसे छोटे-छोटे टुकड़े करके खा जाएं। उनकी बातें सुनकर सीता ने कहा-तुम लोग मुझे जल्दी खा जाओ। मुझे अपने जीवन का थोड़ा भी लालच नहीं है। मैं अपने प्राण दे दूंगी लेकिन पति के अलावा कोई परपुरुष मुझे छू भी नहीं सकता। अगर ऐसा हुआ तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगी। सीता की बात सुनकर एक राक्षसी रावण को सूचना देने चली गई।

भगवान श्रीराम की एक बहन भी थी, जानिए कौन थी वो...?

उनके चले जाने पर एक त्रिजटा नाम की राक्षसी वहां रह गई। वह धर्म को जानने वाली और प्रिय वचन बोलने वाली थी। उसने सीता को सांत्वना देते हुए कहा सखी तुम चिमा मत करो। यहां एक श्रेष्ठ राक्षस रहता है जिसका नाम अविंध्य है। उसने तुमसे कहने के लिए यह संदेश दिया है कि तुम्हारे स्वामी भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण के साथ कुशल पूर्वक हैं। वे इंद्र के समान तेजस्वी वनराज सुग्रीव के साथ मित्रता करके तुम्हे छुड़वाने की कोशिश कर रहे हैं। अब रावण से तुम्हें नहीं डरना चाहिए क्योंकि रावण ने नल कूबेर की पत्नी रंभा को छुआ था तो उसे शाप मिला था कि वह किसी पराई स्त्री के साथ उस इच्छा बिना संबंध नहीं बना पाएगा और अगर ऐसा किया तो वह भस्म हो जाएगा।

वहीँ, एक और मान्यता के अनुसार सिर्फ सीता के अपहरण के कारण ही राम के हाथों रावण की मृत्यु हुई थी। यह उस समय की बात है, जब भगवान शिव से वरदान और शक्तिशाली खड्ग पाने के बाद रावण और भी अधिक अहंकार से भर गया था। वह पृथ्वी से भ्रमण करता हुआ हिमालय के घने जंगलों में जा पहुंचा। वहां उसने एक रूपवती कन्या को तपस्या में लीन देखा। कन्या के रूप-रंग के आगे रावण का राक्षसी रूप जाग उठा और उसने उस कन्या की तपस्या भंग करते हुए उसका परिचय जानना चाहा। काम-वासना से भरे रावण के अचंभित करने वाले प्रश्नों को सुनकर उस कन्या ने अपना परिचय देते हुए रावण से कहा कि 'हे राक्षसराज, मेरा नाम वेदवती है। मैं परम तेजस्वी महर्षि कुशध्वज की पुत्री हूं।

मेरे वयस्क होने पर देवता, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, नाग सभी मुझसे विवाह करना चाहते थे, लेकिन मेरे पिता की इच्छा थी कि समस्त देवताओं के स्वामी श्रीविष्णु ही मेरे पति बनें।' मेरे पिता की उस इच्छा से क्रुद्ध होकर शंभू नामक दैत्य ने सोते समय मेरे पिता की हत्या कर दी और मेरी माता ने भी पिता के वियोग में उनकी जलती चिता में कूदकर अपनी जान दे दी। इसी वजह से यहां मैं अपने पिता की इच्छा को पूरा करने के लिए इस तपस्या को कर रही हूं। इतना कहने के बाद उस सुंदरी ने रावण को यह भी कह दिया कि मैं अपने तप के बल पर आपकी गलत इच्छा को जान गई हूं। इतना सुनते ही रावण क्रोध से भर गया और अपने दोनों हाथों से उस कन्या के बाल पकड़कर उसे अपनी ओर खींचने लगा। इससे क्रोधित होकर अपने अपमान की पीड़ा की वजह से वह कन्या दशानन को यह शाप देते हुए अग्नि में समा गई कि मैं तुम्हारे वध के लिए फिर से किसी धर्मात्मा पुरुष की पुत्री के रूप में जन्म लूंगी।

महान ग्रंथों में शामिल दुर्लभ 'रावण संहिता' में उल्लेख मिलता है कि दूसरे जन्म में वही तपस्वी कन्या एक सुंदर कमल से उत्पन्न हुई और जिसकी संपूर्ण काया कमल के समान थी। इस जन्म में भी रावण ने फिर से उस कन्या को अपने बल के दम पर प्राप्त करना चाहा और उस कन्या को लेकर वह अपने महल में जा पहुंचा। जहां ज्योतिषियों ने उस कन्या को देखकर रावण को यह कहा कि यदि यह कन्या इस महल में रही तो अवश्य ही आपकी मौत का कारण बनेगी। यह सुनकर रावण ने उसे समुद्र में फिंकवा दिया। तब वह कन्या पृथ्वी पर पहुंचकर राजा जनक के हल जोते जाने पर उनकी पुत्री बनकर फिर प्रकट हुई। और वहीँ रावण के विनाश का कारण बनी|

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भगवान श्रीराम की एक बहन भी थी, जानिए कौन थी वो...?

अभी तक आप सिर्फ यही जानते आए हैं कि भगवान श्रीराम के तीन भाई लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न थे, लेकिन क्‍या आप जानते हैं, भगवान राम की एक बहन भी थी? इस सवाल को पढ़कर शायद आप चौंक गये होंगे, क्योंकि बचपन से जो रामचरित मानस आपने पढ़ी या टीवी पर रामायण देखा होगा लेकिन उसमें तो कहीं भी भगवान राम की बहन का जिक्र नहीं था| अगर दक्षिण की रामायण की मानें तो भगवान राम को मिलाकर चार भाई थे- राम, भरत, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न और एक बहन, जिनका नाम शान्ता था।

शान्ता चारों भाईयों से बड़ी थीं। दक्षिण में लिखी गई रामायण में ऐसा लिखा गया है कि राजा दशरथ और कौशल्या की पुत्री थीं, लेकिन पैदा होने के थोड़े ही दिन के बाद उन्हें अंगदेश के राजा रोमपद ने गोद ले लिया था। भगवान राम की बड़ी बहन का पालन-पोषण राजा रोमपद और उनकी पत्नी वर्षिणी ने किया, जो महारानी कौशल्या की बहन अर्थात राम की मौसी थीं। शांता के बारे में तीन कथाएं वर्णित हैं| पहली कथा के अनुसार, भगवान श्रीराम की मौसी यानी की कौशिल्या की बहन वर्षिणी नि:संतान थीं तथा एक बार अयोध्या में उन्होंने हंसी-हंसी में ही बच्चे की मांग की। दशरथ भी मान गए। रघुकुल का दिया गया वचन निभाने के लिए शांता अंगदेश की राजकुमारी बन गईं। शांता वेद, कला तथा शिल्प में पारंगत थीं और वे अत्यधिक सुंदर भी थीं।

वहीँ, दूसरी कथा के अनुसार, शांता जब पैदा हुई, तब अयोध्‍या में अकाल पड़ा और 12 वर्षों तक धरती धूल-धूल हो गई। चिंतित राजा को सलाह दी गई कि उनकी पुत्री शां‍ता ही अकाल का कारण है। राजा दशरथ ने अकाल दूर करने के लिए अपनी पुत्री शांता को वर्षिणी को दान कर दिया। उसके बाद शां‍ता कभी अयोध्‍या नहीं आई। कहते हैं कि दशरथ उसे अयोध्या बुलाने से डरते थे इसलिए कि कहीं फिर से अकाल नहीं पड़ जाए।


जानिए किसके साथ हुआ शांता का विवाह-

शांता का विवाह महर्षि विभाण्डक के पुत्र ऋंग ऋषि से हुआ। एक दिन जब विभाण्डक नदी में स्नान कर रहे थे, तब नदी में ही उनका वीर्यपात हो गया। उस जल को एक हिरणी ने पी लिया था जिसके फलस्वरूप ऋंग ऋषि का जन्म हुआ था। एक बार एक ब्राह्मण अपने क्षेत्र में फसल की पैदावार के लिए मदद करने के लिए राजा रोमपद के पास गया, तो राजा ने उसकी बात पर ध्‍यान नहीं दिया। अपने भक्‍त की बेइज्‍जती पर गुस्‍साए इंद्रदेव ने बारिश नहीं होने दी, जिस वजह से सूखा पड़ गया। तब राजा ने ऋंग ऋषि को यज्ञ करने के लिए बुलाया। यज्ञ के बाद भारी वर्षा हुई। जनता इतनी खुश हुई कि अंगदेश में जश्‍न का माहौल बन गया। तभी वर्षिणी और रोमपद ने अपनी गोद ली हुई बेटी शां‍ता का हाथ ऋंग ऋषि को देने का फैसला किया।

दक्षिण रामायण में कहा गया है कि राजा दशरथ और इनकी तीनों रानियां इस बात को लेकर चिंतित रहती थीं कि पुत्र नहीं होने पर उत्तराधिकारी कौन होगा। इनकी चिंता दूर करने के लिए ऋषि वशिष्ठ सलाह देते हैं कि आप अपने दामाद ऋंग ऋषि से पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाएं। इससे पुत्र की प्राप्ति होगी।

दशरथ ने उनके मंत्री सुमंत की सलाह पर पुत्रकामेष्ठि यज्ञ में महान ऋषियों को बुलाया। इस यज्ञ में दशरथ ने ऋंग ऋषि को भी बुलाया। ऋंग ऋषि एक पुण्य आत्मा थे तथा जहां वे पांव रखते थे वहां यश होता था। सुमंत ने ऋंग को मुख्य ऋत्विक बनने के लिए कहा। दशरथ ने आयोजन करने का आदेश दिया। पहले तो ऋंग ऋषि ने यज्ञ करने से इंकार किया लेकिन बाद में शांता के कहने पर ही ऋंग ऋषि राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ करने के लिए तैयार हुए थे।

दशरथ ने केवल ऋंग ऋषि को ही आमंत्रित किया लेकिन ऋंग ऋषि ने कहा कि मैं अकेला नहीं आ सकता। मेरी भार्या शांता को भी आना पड़ेगा। ऋंग ऋषि की यह बात जानकर राजा दशरथ विचार में पड़ गए, क्योंकि उनके मन में अभी तक दहशत थी कि कहीं शांता के अयोध्या में आने से फिर से अकाल नहीं पड़ जाए। तब पुत्र कामना में आतुर दशरथ ने संदेश भिजवाया कि शांता भी आ जाए। शांता तथा ऋंग ऋषि अयोध्या पहुंचे। शांता के पहुंचते ही अयोध्या में वर्षा होने लगी और फूल बरसने लगे। शांता ने दशरथ के चरण स्पर्श किए।

दशरथ ने आश्चर्यचकित होकर पूछा कि 'हे देवी, आप कौन हैं? आपके पांव रखते ही चारों ओर वसंत छा गया है।' जब माता-पिता (दशरथ और कौशल्या) विस्मित थे कि वो कौन है? तब शांता ने बताया कि 'वो उनकी पुत्री शांता है।' दशरथ और कौशल्या यह जानकर अधिक प्रसन्न हुए। वर्षों बाद दोनों ने अपनी बेटी को देखा था।

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