देश को आज़ादी दिलाने के लिए आज़ादी के मतवालों ने एक लम्बी लड़ाई लड़ी थी|
इस लड़ाई के परिणाम स्वरुप 15 अगस्त, 1947 को भारत को पूर्ण स्वतंत्रता
मिली| इस लड़ाई की ख़ास बात यह रही कि यह लड़ाई सिर्फ बंदूक ही नहीं बल्कि
कलम के सहारे भी लड़ी गयी|
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के प्रारम्भ में दो घटनाएं ऐसी घटीं, जिनसे देश के आगामी सौ वर्षो का इतिहास तय हो गया| पहली घटना मेरठ में घटी| मंगल पांडे नामक सिपाही ने धर्म की रक्षा में बंदूक तानी नहीं, बल्कि बंदूक न छूने की कसम खाई| सैद्धांतिक मतभेद में, शस्त्रविहीन आग्रह या अवज्ञा का यह अपने ढंग का अनूठा प्रयोग था, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्ष में किया गया विद्रोह था। दूसरी घटना में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ तलवार उठा ली|
विद्रोह किसी भी हुकूमत को पसंद नहीं हो सकता। ब्रिटिश सरकार भी इन दोनों घटनाओं को कुचलने के लिए जो कर सकती थी, वह उसने किया| दमन की इस प्रक्रिया में जो रक्तपात हुआ, वह रक्तबीज बनकर पूरे देश में फैल गया। इस तरह कभी सूर्यास्त न होने वाले ब्रिटिश साम्राज्य पर अंधकार का पसरना शुरू हो गया| विरोध के स्वर जब फूटते हैं तो गूंजने के लिए उन्हें काव्य के धरातल की जरूरत होती है| स्वरों की इस जरूरत को लोककवि, स्थानीय कवि, महाकवि और शायरों ने पूरा किया|
ब्रिटिश साम्राज्य के दुर्भाग्य से यही समय रिकार्डिग कम्पनी और छापाखाने के उद्गम और विकास का था। लोककवियों से लेकर महाकवियों तक के विषय तय थे। मातृभूमि की वंदना, हुकूमत का विरोध, और शहीद-स्तुति| अगर जयशंकर प्रसाद लिखते-
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती।
तो गीतकार, कवि प्रदीप ने लिखा-
आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है।
स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय सुभद्रा कुमारी चौहान की अमर रचना 'खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी' अपने मूल रूप में बुंदेले हरबोलों के बुंदेली लोकगीत में मिलती है| खूबई लड़ी रे मर्दानी खूबई जूझी रे मर्दानी। बा झांसी वारी रानी अपने सिपाहियन को लड्डू खबावें, आपइ पिये ठंडा पानी बा झांसी वारी रानी|
प्रभात फेरियों का चलन जोर पकड़ रहा था| छोटे बड़े सभी शहरों में सुबह प्रयाण गीत गाती टोलियां घूमती थीं| सुबह लोग गाते-
माता के वीर सपूतों की आज कसौटी होना है, देखें कौन निकलता पीतल कौन निकलता सोना है|
इसका जवाब शाम को कोई सरफिरा देता था-
मैं माता का पूत कसौटी का कोई पत्थर ले आए, मुझसे ऐसी रेख खिचेगी जिससे सोना भी शरमाए|
किसी ने लिख दिया-
गले बांधे कफनियां हो-शहीदों की टोली निकली|
वर्ष 1913 में गदर पार्टी नामक क्रांतिकारी संगठन बना। संगठन का मुखपत्र 'गदर' नाम से प्रकाशित होने लगा। इसी समय कलकत्ते में अलीपुर बम कांड में वरिष्ठ नेता वारिंद्र घोष, विचारक और संत अरविंद घोष, नरेन्द्र नाथ बख्शी इत्यादि की गिरफ्तारियां हुईं।
काकोरी रेल डकैती में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी पकड़े गए| बिस्मिल ने फांसी पर चढ़ते हुए कहा-
मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे|
बाकी न मैं रहूं न मेरी आरज़ू रहे|
अशफाक उल्ला ने मरते-मरते लोगों को नसीहत दी-
"बुज़दिलों को सदा मौत से डरते देखा।
गो कि सौ बार रोज़ ही उन्हें मरते देखा।।
मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा।
तख्ता-ए-मौत पे भी खेल ही करते देखा।"
फांसी पर चढ़ने से पहले भगतसिंह गा रहे थे-
मेरी हवा में रहेगी ख़्याल की बिजली
ये मुश्ते ख़ाक है फ़ानी रहे, रहे न रहे।।
स्वतंत्रता आंदोलन में, देश के सभी बुद्धिजीवी किसी ने किसी तरह जुड़े थे, अधिकांश उस समय कै़दखानों की शोभा बन गए थे| आगरा जेल, इस तरह के जमावड़े का अच्छा उदाहरण था| शैदा, अहमक, जमररुध, उस्मान, रघुपति सहाय 'फिराक', कृष्णकांत, मालवीय, रामनाथ 'असीर' और महावीर त्यागी जैसे कवि, लेखक और शायर वहां क़ैद थे| देशप्रेम के नियमित मुशायरे आगरा जेल में होने लगे, बाद में तराना-ए-क़फस शीर्षक से इन रचनाओं का संग्रह कृष्णकांत मालवीय के संपादकत्व में प्रकाशित हुआ|
इन सब रचनाओं के बीच 'जन गण मन अधिनायक जय हे' (रविन्द्रनाथ टैगोर), 'वंदे मातरम्' (बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय) और झंडावंदन 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा' (श्यामलाल पार्षद) हमारी आन बान और शान का प्रतीक बन गए| वंदेमातरम का उपयोग बलिदान मंत्र की तरह होने लगा| इसे गाते हुए या कहते हुए फांसी पर चढ़ना, चलन हो गया था, लोकप्रियता की दृष्टि से वंदे मातरम् इन तीनों में विशिष्ट था|
'सन्यासी विद्रोह' पूर्वी बंगाल में हुकूमत के खिलाफ आंदोलन था| सन्यासी विद्रोह, पर आधारित उपन्यास 'आनंद मठ' में बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने वंदे मातरम गीत का उपयोग किया था| बंकिम बाबू ने यह गीत 1876 में लिखा था। उपन्यास प्रकाशन का समय 1880-82 माना गया| संस्कृतनिष्ठ शब्दावली से सजी इस रचना की लोकप्रियता का पहला उदाहरण वर्ष 1902 में सामने आया, जब कवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने इसका संगीत बनाया और सस्वर पाठ किया| फ्रांस की किसी 'पाथे' ग्रामोफोन कम्पनी के तत्वावधान में बना यह रिकॉर्ड प्रसारित किया गया जिसके बाद यह प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया|
एक तरफ अरविन्द घोष जैसे संत का नाम इससे जुड़ा तो दूसरी तरफ विष्णु दिगम्बर पुलुस्कर जैसे महान संगीतज्ञ ने इसकी धुन बनाई। एक ही गीत की इतनी धुनें शायद ही कभी बनी हों| रवीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर ए आर रहमान तक ने इसकी कितनी धुनें बनाई और रवीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर लता मंगेशकर व ए आर रहमान सहित कितने गायक इसे गाकर गौरवान्वित हुए|
कांग्रेस की स्थापना वर्ष 1885 में हो गई थी, इसके अधिवेशनों एवं सम्मेलनों में वंदे मातरम् नियमित रूप से गाया जाने लगा था| कभी इसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गाया तो कभी विष्णु दिगम्बर पुलुस्कर ने| पुरानी 'देवदास' फिल्म के संगीत निर्देशक 'तिमिर बरन भट्टाचार्य' ने इसकी धुन सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज के लिए बनाई थी| इस धुन को ब्रिटिश बैंड ने भी बजाया और आजाद हिन्द फौज की रेडियो सर्विस सिंगापुर से नियमित प्रसारण होता था|
बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में सिने संगीत प्रचार के सशक्त माध्यम की तरह अस्तित्व में आया| वर्ष 1940 में एक फिल्म बनी 'बंधन', जिसमें कवि प्रदीप का लिखा गीत चल-चल रे नौजवान बहुत लोकप्रिय हुआ| स्वतंत्रता से पहले बनी फिल्मों में मात्र यही गीत ऐसा मिलता है, जिससे ब्रिटिश सरकार हैरान हो गई थी| कवि प्रदीप ने इसे बाम्बे टाकीज के अहाते में एक पेड़ की छांव में बैठकर लिखा और इस आग उगलने वाले ओजस्वी गीत को फिल्म की संगीत निर्देशक जोड़ी सरस्वती देवी एवं रामचंद्र पाल को धुन बनाने के लिए दे दिया| दोनों मिलकर कई दिनों तक सिर खपाते रहे पर कोई नतीजा नहीं निकला| एक दिन फिल्म के नायक अशोक कुमार ने स्टूडियो में हारमोनियम उठाया और पहली पंक्ति स्वरबद्ध हो गई|
इसके बाद अशोक कुमार भी लाचार हो गए| अंत में वह अपनी बहन सती देवी मुखर्जी के पास गए, जिन्होंने उसका पूरा संगीत तैयार किया| कड़ी सेंसरशिप की आंखों में धूल झोंककर यह गीत फिल्म में आ गया और सारे देश में धूम मचाने लगा, देश के युवकों ने इसे अपने मन की आवाज माना| पंजाब और सिंध के युवकों ने तो असेंबली में इसे वंदे मातरम् की जगह राष्ट्रगीत बनाए जाने का प्रस्ताव रखवा दिया| गांधीवादी महादेव भाई देसाई ने इस गीत की तुलना उपनिषद् मंत्रों से की| सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेता बलराज साहनी उन दिनों बीबीसी लंदन में कार्यरत थे| उन्होंने इसे वहां से प्रसारित करवाया|
सिने जगत में स्वतंत्रता आंदालन से जुड़ी जो हस्तियां उल्लेखनीय हैं, उनमें कवि प्रदीप के साथ गीतकार इंदीवर (बड़े अरमान से रखा है बलम तेरी कसम-मल्हार) और संगीत निर्देशक अनिल विश्वास (दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है) प्रमुख हैं| क्रांतिकारी विचारधारा अपनाने वाले अनिल दा ने 12 वर्ष की अल्पायु में ही पिस्तौल रखना शुरू कर दिया था| इतना ही नहीं, किशोरावस्था में ही भूमिगत जीवन की आदत हो गई थी|
झांसी के श्यामलाल राय, इंदीवर के नाम से फिल्मों में गीत लिखते रहे| वर्ष 1942 में 'अरे किरायेदार कर दे मकान खाली' सरकारी विरोध में लिखी कविता मानी गई (इसकी सजा किरायेदार ने मकान मालिक को दी) और उन्हें आगरा जेल में एक साल रखा गया| पैत्रिक संपत्ति राष्ट्र को समर्पित कर बम्बई आये इंदीवर ने शेष जीवन फिल्मी गीतकार के रूप में बिताया| निरंतर योगदान के लिए कवि प्रदीप अपने अन्य साथियों की तुलना में विशिष्ट और अलग दिखते हैं| 'चल चल रे नौजवान' (बंधन) गीत धूम तो मचाया लेकिन प्रदीप को फिल्मों में स्थायित्व दिया किस्मत के गीत ने (दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है)| प्रतिष्ठा में थोड़ी बहुत कसर जो बाकी थी, उसे 'ऐ मेरे वतन के लोगों' ने पूरी कर दी|
'ऐ मेरे वतन के लोगों' गीत के साथ थोड़ा बहुत विवाद और इतिहास जुड़ा है| लता जी तब तक सार्वजनिक प्रदर्शन से इंकार करती थीं लेकिन कवि प्रदीप का लिखा और सी रामचंद्र का संगीतबद्ध किया यह गीत चीन आक्रमण के बाद लाल क़िले में नेहरू जी की उपस्थिति में उन्होंने गाया| नेहरू जी गदगद हो गए थे और गीत के भाव उन्हें रुला गए| शुरू में यह गीत आशा भोंसले को गाना था| संगीत निर्देशक सी रामचन्द्र व लता मंगेशकर में अनबन चल रही थी| प्रदीप जी के व्यक्तिगत अनुरोध पर लताजी भी इसमें शामिल होने तैयार हो गईं।|अब आशा एवं लता दोनों की आवाज़ में गाना रिकॉर्ड होना था लेकिन रिकॉर्डिग तारीख पर आशा जी को समय न होने के कारण लता जी ने अकेले यह गीत गाया|
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के प्रारम्भ में दो घटनाएं ऐसी घटीं, जिनसे देश के आगामी सौ वर्षो का इतिहास तय हो गया| पहली घटना मेरठ में घटी| मंगल पांडे नामक सिपाही ने धर्म की रक्षा में बंदूक तानी नहीं, बल्कि बंदूक न छूने की कसम खाई| सैद्धांतिक मतभेद में, शस्त्रविहीन आग्रह या अवज्ञा का यह अपने ढंग का अनूठा प्रयोग था, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्ष में किया गया विद्रोह था। दूसरी घटना में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ तलवार उठा ली|
विद्रोह किसी भी हुकूमत को पसंद नहीं हो सकता। ब्रिटिश सरकार भी इन दोनों घटनाओं को कुचलने के लिए जो कर सकती थी, वह उसने किया| दमन की इस प्रक्रिया में जो रक्तपात हुआ, वह रक्तबीज बनकर पूरे देश में फैल गया। इस तरह कभी सूर्यास्त न होने वाले ब्रिटिश साम्राज्य पर अंधकार का पसरना शुरू हो गया| विरोध के स्वर जब फूटते हैं तो गूंजने के लिए उन्हें काव्य के धरातल की जरूरत होती है| स्वरों की इस जरूरत को लोककवि, स्थानीय कवि, महाकवि और शायरों ने पूरा किया|
ब्रिटिश साम्राज्य के दुर्भाग्य से यही समय रिकार्डिग कम्पनी और छापाखाने के उद्गम और विकास का था। लोककवियों से लेकर महाकवियों तक के विषय तय थे। मातृभूमि की वंदना, हुकूमत का विरोध, और शहीद-स्तुति| अगर जयशंकर प्रसाद लिखते-
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती।
तो गीतकार, कवि प्रदीप ने लिखा-
आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है।
स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय सुभद्रा कुमारी चौहान की अमर रचना 'खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी' अपने मूल रूप में बुंदेले हरबोलों के बुंदेली लोकगीत में मिलती है| खूबई लड़ी रे मर्दानी खूबई जूझी रे मर्दानी। बा झांसी वारी रानी अपने सिपाहियन को लड्डू खबावें, आपइ पिये ठंडा पानी बा झांसी वारी रानी|
प्रभात फेरियों का चलन जोर पकड़ रहा था| छोटे बड़े सभी शहरों में सुबह प्रयाण गीत गाती टोलियां घूमती थीं| सुबह लोग गाते-
माता के वीर सपूतों की आज कसौटी होना है, देखें कौन निकलता पीतल कौन निकलता सोना है|
इसका जवाब शाम को कोई सरफिरा देता था-
मैं माता का पूत कसौटी का कोई पत्थर ले आए, मुझसे ऐसी रेख खिचेगी जिससे सोना भी शरमाए|
किसी ने लिख दिया-
गले बांधे कफनियां हो-शहीदों की टोली निकली|
वर्ष 1913 में गदर पार्टी नामक क्रांतिकारी संगठन बना। संगठन का मुखपत्र 'गदर' नाम से प्रकाशित होने लगा। इसी समय कलकत्ते में अलीपुर बम कांड में वरिष्ठ नेता वारिंद्र घोष, विचारक और संत अरविंद घोष, नरेन्द्र नाथ बख्शी इत्यादि की गिरफ्तारियां हुईं।
काकोरी रेल डकैती में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी पकड़े गए| बिस्मिल ने फांसी पर चढ़ते हुए कहा-
मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे|
बाकी न मैं रहूं न मेरी आरज़ू रहे|
अशफाक उल्ला ने मरते-मरते लोगों को नसीहत दी-
"बुज़दिलों को सदा मौत से डरते देखा।
गो कि सौ बार रोज़ ही उन्हें मरते देखा।।
मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा।
तख्ता-ए-मौत पे भी खेल ही करते देखा।"
फांसी पर चढ़ने से पहले भगतसिंह गा रहे थे-
मेरी हवा में रहेगी ख़्याल की बिजली
ये मुश्ते ख़ाक है फ़ानी रहे, रहे न रहे।।
स्वतंत्रता आंदोलन में, देश के सभी बुद्धिजीवी किसी ने किसी तरह जुड़े थे, अधिकांश उस समय कै़दखानों की शोभा बन गए थे| आगरा जेल, इस तरह के जमावड़े का अच्छा उदाहरण था| शैदा, अहमक, जमररुध, उस्मान, रघुपति सहाय 'फिराक', कृष्णकांत, मालवीय, रामनाथ 'असीर' और महावीर त्यागी जैसे कवि, लेखक और शायर वहां क़ैद थे| देशप्रेम के नियमित मुशायरे आगरा जेल में होने लगे, बाद में तराना-ए-क़फस शीर्षक से इन रचनाओं का संग्रह कृष्णकांत मालवीय के संपादकत्व में प्रकाशित हुआ|
इन सब रचनाओं के बीच 'जन गण मन अधिनायक जय हे' (रविन्द्रनाथ टैगोर), 'वंदे मातरम्' (बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय) और झंडावंदन 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा' (श्यामलाल पार्षद) हमारी आन बान और शान का प्रतीक बन गए| वंदेमातरम का उपयोग बलिदान मंत्र की तरह होने लगा| इसे गाते हुए या कहते हुए फांसी पर चढ़ना, चलन हो गया था, लोकप्रियता की दृष्टि से वंदे मातरम् इन तीनों में विशिष्ट था|
'सन्यासी विद्रोह' पूर्वी बंगाल में हुकूमत के खिलाफ आंदोलन था| सन्यासी विद्रोह, पर आधारित उपन्यास 'आनंद मठ' में बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने वंदे मातरम गीत का उपयोग किया था| बंकिम बाबू ने यह गीत 1876 में लिखा था। उपन्यास प्रकाशन का समय 1880-82 माना गया| संस्कृतनिष्ठ शब्दावली से सजी इस रचना की लोकप्रियता का पहला उदाहरण वर्ष 1902 में सामने आया, जब कवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने इसका संगीत बनाया और सस्वर पाठ किया| फ्रांस की किसी 'पाथे' ग्रामोफोन कम्पनी के तत्वावधान में बना यह रिकॉर्ड प्रसारित किया गया जिसके बाद यह प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया|
एक तरफ अरविन्द घोष जैसे संत का नाम इससे जुड़ा तो दूसरी तरफ विष्णु दिगम्बर पुलुस्कर जैसे महान संगीतज्ञ ने इसकी धुन बनाई। एक ही गीत की इतनी धुनें शायद ही कभी बनी हों| रवीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर ए आर रहमान तक ने इसकी कितनी धुनें बनाई और रवीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर लता मंगेशकर व ए आर रहमान सहित कितने गायक इसे गाकर गौरवान्वित हुए|
कांग्रेस की स्थापना वर्ष 1885 में हो गई थी, इसके अधिवेशनों एवं सम्मेलनों में वंदे मातरम् नियमित रूप से गाया जाने लगा था| कभी इसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गाया तो कभी विष्णु दिगम्बर पुलुस्कर ने| पुरानी 'देवदास' फिल्म के संगीत निर्देशक 'तिमिर बरन भट्टाचार्य' ने इसकी धुन सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज के लिए बनाई थी| इस धुन को ब्रिटिश बैंड ने भी बजाया और आजाद हिन्द फौज की रेडियो सर्विस सिंगापुर से नियमित प्रसारण होता था|
बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में सिने संगीत प्रचार के सशक्त माध्यम की तरह अस्तित्व में आया| वर्ष 1940 में एक फिल्म बनी 'बंधन', जिसमें कवि प्रदीप का लिखा गीत चल-चल रे नौजवान बहुत लोकप्रिय हुआ| स्वतंत्रता से पहले बनी फिल्मों में मात्र यही गीत ऐसा मिलता है, जिससे ब्रिटिश सरकार हैरान हो गई थी| कवि प्रदीप ने इसे बाम्बे टाकीज के अहाते में एक पेड़ की छांव में बैठकर लिखा और इस आग उगलने वाले ओजस्वी गीत को फिल्म की संगीत निर्देशक जोड़ी सरस्वती देवी एवं रामचंद्र पाल को धुन बनाने के लिए दे दिया| दोनों मिलकर कई दिनों तक सिर खपाते रहे पर कोई नतीजा नहीं निकला| एक दिन फिल्म के नायक अशोक कुमार ने स्टूडियो में हारमोनियम उठाया और पहली पंक्ति स्वरबद्ध हो गई|
इसके बाद अशोक कुमार भी लाचार हो गए| अंत में वह अपनी बहन सती देवी मुखर्जी के पास गए, जिन्होंने उसका पूरा संगीत तैयार किया| कड़ी सेंसरशिप की आंखों में धूल झोंककर यह गीत फिल्म में आ गया और सारे देश में धूम मचाने लगा, देश के युवकों ने इसे अपने मन की आवाज माना| पंजाब और सिंध के युवकों ने तो असेंबली में इसे वंदे मातरम् की जगह राष्ट्रगीत बनाए जाने का प्रस्ताव रखवा दिया| गांधीवादी महादेव भाई देसाई ने इस गीत की तुलना उपनिषद् मंत्रों से की| सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेता बलराज साहनी उन दिनों बीबीसी लंदन में कार्यरत थे| उन्होंने इसे वहां से प्रसारित करवाया|
सिने जगत में स्वतंत्रता आंदालन से जुड़ी जो हस्तियां उल्लेखनीय हैं, उनमें कवि प्रदीप के साथ गीतकार इंदीवर (बड़े अरमान से रखा है बलम तेरी कसम-मल्हार) और संगीत निर्देशक अनिल विश्वास (दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है) प्रमुख हैं| क्रांतिकारी विचारधारा अपनाने वाले अनिल दा ने 12 वर्ष की अल्पायु में ही पिस्तौल रखना शुरू कर दिया था| इतना ही नहीं, किशोरावस्था में ही भूमिगत जीवन की आदत हो गई थी|
झांसी के श्यामलाल राय, इंदीवर के नाम से फिल्मों में गीत लिखते रहे| वर्ष 1942 में 'अरे किरायेदार कर दे मकान खाली' सरकारी विरोध में लिखी कविता मानी गई (इसकी सजा किरायेदार ने मकान मालिक को दी) और उन्हें आगरा जेल में एक साल रखा गया| पैत्रिक संपत्ति राष्ट्र को समर्पित कर बम्बई आये इंदीवर ने शेष जीवन फिल्मी गीतकार के रूप में बिताया| निरंतर योगदान के लिए कवि प्रदीप अपने अन्य साथियों की तुलना में विशिष्ट और अलग दिखते हैं| 'चल चल रे नौजवान' (बंधन) गीत धूम तो मचाया लेकिन प्रदीप को फिल्मों में स्थायित्व दिया किस्मत के गीत ने (दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है)| प्रतिष्ठा में थोड़ी बहुत कसर जो बाकी थी, उसे 'ऐ मेरे वतन के लोगों' ने पूरी कर दी|
'ऐ मेरे वतन के लोगों' गीत के साथ थोड़ा बहुत विवाद और इतिहास जुड़ा है| लता जी तब तक सार्वजनिक प्रदर्शन से इंकार करती थीं लेकिन कवि प्रदीप का लिखा और सी रामचंद्र का संगीतबद्ध किया यह गीत चीन आक्रमण के बाद लाल क़िले में नेहरू जी की उपस्थिति में उन्होंने गाया| नेहरू जी गदगद हो गए थे और गीत के भाव उन्हें रुला गए| शुरू में यह गीत आशा भोंसले को गाना था| संगीत निर्देशक सी रामचन्द्र व लता मंगेशकर में अनबन चल रही थी| प्रदीप जी के व्यक्तिगत अनुरोध पर लताजी भी इसमें शामिल होने तैयार हो गईं।|अब आशा एवं लता दोनों की आवाज़ में गाना रिकॉर्ड होना था लेकिन रिकॉर्डिग तारीख पर आशा जी को समय न होने के कारण लता जी ने अकेले यह गीत गाया|
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