अश्लील और द्विअर्थी होली गीतों से संस्कृति हो रही दूषित

लखनऊ: एक समय था जब वसंत पंचमी के दिन ही होलिका स्थापित करने के बाद जोगीरा और होली गीतों की मदमस्त राग से वातावरण ओत-प्रोत हो जाता था। तब के होली गीतों में राग-विहाग, सुर लय ताल, साहित्य, विनम्रता, सौम्यता एवं संस्कारित संदेश हुआ करते थे, मगर अफसोस कि अब ऐसा नहीं है। 'होली खेले रघुबीरा अवध में..,' 'गौरा संग लिए शिवशंकर खेलत फाग..,' 'आज बिरज में होरी रे रसिया..,' जैसे कर्णप्रिय होली गीतों पर देर रात तक थिरकते लोग प्रेम एवं मस्ती के सागर में विभोर हो जाया करते थे। अब ऐसे मदमस्त गीत सुनाई नहीं देते। इनका स्थान ले लिया है अश्लील और द्विअर्थी गानों ने।

होली आज अश्लीलता का पर्याय बन गई है। बीच में कुछ फिल्मी होली गीत भी आए जो लोगों की जुबान पर चढ़े तो आज तक नहीं उतरे। जैसे- फिल्म 'सिलसिला' का यह गीत 'रंग बरसे भीगे चुनरवाली, रंग बरसे..' फिल्म 'मदर इंडिया' का गाना 'होली आई रे कन्हाई रंग बरसे..' और 'कोहिनूर' का गाना 'तन रंग लो जी, मन रंग लो जी' तथा फिल्म 'कटी पतंग' का गाना 'आज न छोड़ेंगे बस हमजोली, खेलेंगे हम होली'.. लेकिन आज के बदलते परिवेश में संस्कारित होली गीतों के मस्ती के सागर में अश्लीलता एवं फूहड़ता का ऐसा प्रदूषण फैल गया है कि इससे समाज का प्रबुद्ध वर्ग मर्माहत है।

वरिष्ठ नागरिकों के मुताबिक आज की होली का स्वरूप तो आंखों से देखा नहीं जाता, गीत परिवार में सुनने लायक नहीं रहे। अपने पुराने दिनों को याद करते हुए ये लोग कहते हैं कि सभी एक साथ मिलकर होली मनाते थे। बुजुर्गों का कहना है कि एक वक्त था जब वास्तव में होली दुश्मनी भुलाकर गले मिलने का पर्व था, अब तो होली के बहाने लोग दुश्मनी निकालने लगे हैं। पहले होली गीतों में देवर-भाभी संवाद-'अखियां त हउवे जैसे ठाकुर जी बुझालें नकिया सुगनवा के ठोर, अस मन करेला की छर देना छींट देतीं, लेइ लेत बबुआ बटोर' जैसे संवाद हुआ करते थे वहीं आज के परिवेश में 'धीरे से रंगवा डालू रे देवरा भीतरा लगेला पाला रे' तथा 'छोड़ब ना तो के पतरकी, चाहे चली लाठी भाला..' आदि बेसिर-पैर और द्विअर्थी संवादों से युक्त होली गीत संस्कृति को दूषित कर रहे हैं।

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