जब महर्षि पराशर ने बताया कलियुग में इस तरह की होंगी स्त्रियाँ

जिज्ञासा प्रश्न को जन्म देती है, प्रश्न उत्तर की अपेक्षा करता है। जिज्ञासु अपनी शंका के निवारण के लिए समाधान के द्वार पर दस्तक देता है। ज्ञानी और शिष्य का संवाद ज्ञान का अक्षय भंडार बनकर भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित होता है। मैत्रेय और मुनि पराशर के मध्य जीव, जगत और ब्रह्म को लेकर जो संवाद हुआ, वही विष्णु पुराण का संकलित रूप है। मनुष्य संसार मे जन्म लेता है, जीता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। ऐसा क्यों होता है। क्या वह अमर नहीं बन सकता? यह प्रश्न अनादिकाल से अनुत्तरित ही रहा। इसका समाधान पाने को मैत्रेय पराशर मुनि से प्रश्न करते हैं। 

पराशर उत्तर देते हैं, "वत्स मैत्रेय, सृष्टि, स्थिति और लय-क्रमश: जन्म, अस्तित्व और मृत्यु के प्रतीक हैं। इनका आवर्तन अवश्यंभावी है। इस त्रिगुणात्मक रहस्य का ज्ञान प्राप्त करने के पूर्व तुम्हें काल-ज्ञान का परिचय पाना होगा।" उन्होंने कहा, ध्यान से सुनो, "मनुष्य के एक निमष यानी पलक मारने का समय एक मात्र है। पंद्रह निमेष एक काष्ठा कहलाता है। तीस काष्ठा एक कला है। पंद्रह कलाएं एक नाडिका है, दो नाडिकाएं एक मुहूर्त, तीस अहोरात्र एक मास होता है। बारह मास एक वर्ष होता है। मानव समाज का एक वर्ष देवताओं का एक अहोरात्र होता है। तीन सौ आठ वर्ष एक दिव्य वर्ष कहलाता है। बारह हजार दिव्य वर्ष एक चतुर्युगी (कृत त्रेता, द्वापर और कलियुग) होता है। एक हजार चतुर्युग मिलकर ब्रह्मा का एक दिन होता है। इसी को कल्प कहते हैं। एक कल्प में चौदह मनु होते हैं। कल्प में प्रलय होता है। इसको नैमित्तांतक प्रलय कहते हैं। प्रलय तीन प्रकार के होते हैं : नैमित्तिक, प्राकृतिक और आत्यंतिक। इन प्रलयों का वृत्तांत मैं आगे सुनाऊंगा।' "

मैत्रेय ने पूछा, "गुरुदेव, आपने कहा था कि सतयुग में ब्रह्मा सृष्टि रचते हैं और कलियुग में संहार करते हैं। मैं सर्वप्रथम कलियुग का वृत्तांत सुनना चाहता हूं, इसके स्वरूप का विवेचन कीजिए।"

मुनि पराशर थोड़ी देर के लिए विचारमग्न हुए, फिर बोले, "मैत्रेय, कलियुग में वर्णाश्रम धर्मो का याने ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास का पालन न होगा। विधिपूर्वक धर्मबद्ध विवाह न होगे। गुरु और शिष्य का समबंध टूट जाएगा। दाम्पत्य जीवन में दरारें पड़ेंगी। पति-पत्नी के बीच कलह होंगे। यज्ञ-कर्म लुप्त हो जाएंगे। बलवान लोग निर्बलों पर अधिकार करेंगे। अत्याचार और अन्यायों का बोलबाला होगा। धनी वर्ग सभी जातियों वाली कन्याओं से विवाह करेंगे। अपने पापों को धोने के लिए गुरु से दीक्षा लेंगे और प्रायश्चित करवा लेंगे। छद्म वेषधारी गुरुओं के मुंह से जो शब्द निकलेंगे, वे ही शास्त्र माने जाएंगे। क्षुद्र देवताओं की पूजा होगी। आश्रमों के द्वार सब लोगें के लिए खुले रहेंगे। उपवास, तीर्थ-यात्रा, दान-पुण्य, पुराण-पाठ उत्तम धर्म के लक्षण माने जाएंगे।" 

यह कहकर पराशर मुनि पल भर मौन रहे, फिर बोले, "और सुनो, कलियुग की अनंत महिमा। स्त्रियां अपने केश-विन्यास पर अभिमान करेंगी। विविध प्रकार के प्रसाधनों से अपने को अलंकृत करेंगी। रत्न, मणि, मानिक, स्वर्ण और चांदी के बिना अपने बालों को संवारेंगी। दरिद्र पति को त्याग देंगी। अधिक-से-अधिक धन देनेवाले पुरुष को वे अपना पति मानेंगी। वही उनका स्वामी होगा। कुलीनता पर नारी-पुरुष का संबंध नहीं जुड़ेगा। स्त्रियों में स्वेच्छाचारिता बढ़ जाएगी। वे सुंदर पुरुष की कामना करेंगी। भोग-विलास को अपने जीवन का लक्ष्य मानेंगी।"

अब पुरुषों का वृत्तांत सुनो, "पुरुष थोड़ा-सा धन पर अभिमान करेगा। धन जोड़ने की प्रवृत्ति पुरुष वर्ग में बढ़ जाएगी। वे अपना धन सुख भोगने में पानी की तरह बहाएंगे। गृह-निर्माण में सारा धन खर्च करेंगे। अन्यायपूर्वक धन कमाने की चेष्टा करेंगे। उत्तम कार्यो में धन खर्च करने से विमुख होंगे। स्वार्थ की वृत्ति बढ़ेगी और परोपकार की भावना लुप्त हो जाएगी! संक्षेप में समझाना हो तो यही कहना चाहूंगा कि पैसे में परमात्मा के दर्शन करेंगे।"

पराशर के अनुसार, सामाजिक दशा बद से बदतर होती जाएगी। जाति-पांति के भेद-भाव मिट जाएंगे। शूद्र अपने को ब्राह्मण वर्ग के बराबर मानेंगे। दूध देनेवाली गायों का ही संरक्षण होगा। धन-धान्य की स्थिति क्या बताई जाए। समय पर वर्षा न होगी। सर्वत्र अकाल का तांडव होगा। सूखा पड़ने से लोग भूख-प्यास से तड़प-तड़प कर मर जाएंगे। कंद, मूल और फलों से पेट भरने का प्रयास करेंगे। जनता दुख, दरिद्रता और रोगों का शिकार होगी। पौष्टिक आहार के अभाव में लोग अल्पायु में ही बूढ़े हो जाएंगे। पिंडदान न होगा, स्त्रियां अपने पति और बुजुर्गो के आदेशों का पालन नहीं करेंगी। रीति-रिवाज मिट जाएंगे। स्त्रियां झूठ बोलेंगी। दुराचारिणियां होंगी। ब्रह्मचारी यम-नियम का पालन नहीं करेंगी। वानप्रस्थी नगर का भोजन पसंद करेंगे। साधु-संन्यासी अपने स्नेहीजनों के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार करेंगे।"

ऐसी स्थिति में राजा-प्रजा की बात क्या होगी, सुन लो, "कलियुग की अपार महिमा यह है कि राजा कर वसूली के बहाने प्रजा को लूटेंगे। मुसीबत में फंसी प्रजा की रक्षा नहीं करेंगे। गुंडे और चरित्रहीन लोगों का राज्य होगा। जो अपने पास ज्यादा रथ, हाथी और घोड़े रखता है, वही राजा माना जाएगा। विद्वान पुरुष और सज्जन धनहीन होने के कारण सेवक माने जाएंगे। वणिक वर्ग कृषि और वाणिज्य त्याग यकर शिल्पकारी होंगे। वे भी शूद्र वृत्ति से अपना भरण-पोषण करेंगे। पाखंडी लोग साधु-संन्यासी के वेष में भिक्षाटन करेंगे। वे समाज द्वारा सम्मानित होकर सर्वत्र पाखंड फैलाएंगे। राजा के द्वारा कर बढ़ाया जाएगा। कर-भार और अकाल से पीड़ित होकर लोग ऐसे देशों की शरण लेंगे जहां गेहूं और ज्वार ज्यादा पैदा होता है।"

"वत्स! अब तम्हें कलियुगीन धर्म की बात सुनाता हूं, "वैदिक धर्म नष्ट हो जाएगा। पाखंड का साम्राज्य फैलेगा। शास्त्र विरुद्ध तप और राजा के कुशासन से अधिक संख्या में शिशुओं की मृत्यु होगी। प्रजा की आयु घट जाएगी। सात-आठ वर्ष की बालिका और दस-बारह वर्ष आयु के बालक की संतान होगी। बारह वर्ष की उम्र में बाल पकने लग जाएंगे। पूर्णायु बीस वर्ष की होगी। प्रजा की बुद्धि मंद पड़ जाएगी। दृष्टि दोष होगा।"

"गरुदेव, आपने कलियुग के लक्षण बताए, पर कलियुग के आगमन की पहचान कैसे हो? इस पर थोड़ा प्रकाश डालिए।" मैत्रेय ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की।

मुनि पराशर ने मंदहास करके कहा, "संसार में धर्म के लुप्त होने के साथ ही सर्वत्र युद्ध, हिंसा, अत्याचार, दुराचार, पाखंड आदि दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाएंगे। इन लक्षणों को देख बुद्धिमान लोग समझ जाएंगे कि अब कलियुग अपने परे उत्कर्ष पर है। हां, उस हालत में पाखंडी लोग यह प्रश्न जरूर करेंगे कि देवताओं की पूजा और वेदाध्ययन से लाभ ही क्या है। सुनो, कलियुग के उत्तरार्ध में प्रकृति और मानव चरित्र में कैसे-कैसे परिवर्तन लक्षित होते हैं।"

"वर्षा कम होगी। अनाज कम होगा। फलों का रस फीका पड़ जाएगा। लोग सन के कपड़े पहनेंगे। चातुर्वर्णी लोग शूद्रों जैसा आचरण करेंगे। अनाज के दाने छोटे होंगे। गायों के दूध के स्थान पर बकरियोंके दूध का प्रचलन होगा।"

"वत्स! कलियुग का महत्व कहां तक कहा जाए। परिवार में माता-पिता, भाई-बंधु, गुरुजनों के स्थान पर सास-सुसर, पत्नी और साले का प्रभुत्व होगा। स्वाध्याय समाप्त होगा। धर्म टिमटिमाते दीप के समान अल्प मात्रा में रह जाएगा। एक रहस्यपूर्ण बात सुन लो-इन सारी विकृतियों के बावजूद कलियुग की अपनी विशेष महिमा है। कृत युग में जहां जप, तप, व्रत, उपवास, तीर्थाटन, दान-पुण्य, सदाचरण और सत्यकर्मो से जो पुण्य प्राप्त होता था, वह कलियुग में थोड़े से प्रयत्न से ही संभव होगा।"

मैत्रेय ने विस्मय में आकर पूछा, "सो कैसे? कलियुग तो समस्त दुष्कृत्यों से भरा हुआ है।" महर्षि परासर मंदहास करके बोले, "सुनो, तपस्वियों में एक बार चर्चा चली। अल्प पुण्य के संपादन से महान फल की प्राप्ति कब होती है? और उसका कारक कौन होता है?" परस्पर विचार-विनिमय के उपरांत भी वे किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाए। अंत में यह निर्णय हुआ कि महर्षि व्यास से इस प्रश्न का समाधान प्राप्त करें। जब वे महर्षि के समीप पहुंचे तब व्यासजी गंगाजी में स्नान कर रहे थे। सभी मुनि गंगा के किनारे खड़े रहे। व्यासजी ने गंगाजल में एक बार गोता लगाया, जल से ऊपर उठते हुए बोले, "कलियुग श्रेष्ठ है।" फिर दूसरा गोता लगाया, कहा, "हे शूद्र, तुम्हीं श्रेष्ठ हो।" तीसरी बार डुबकी लगाकर बोले, "स्त्रियां धन्य हैं! साधु। साधु।"

मुनि आश्चर्यचकित हो देखते रह गए। व्यासजी नहा-धोकर किनारे आए, तब मुनियों के आगमन का कारण पूछा, मुनियों ने हाथ जोड़कर प्रणाम करके कहा, "महर्षि। वैसे हम लोग आपसे एक शंका का समाधान करने आए, परंतु इस समय हम आपके इस कथन का आशय जानने को उत्सुक हैं। स्नान करते समय गोते लगाते हुए आपने कलियुग, शूद्र और स्त्रियों को श्रेष्ठ बताया। यह कैसे संभव है?"

व्यासजी ने गंभीर होकर कहा, "कृत युग में दस वर्ष तक जप, तप उपवास आदि करने पर जो फल मिल सकता है वह त्रेतायुग में एक ही वर्ष में प्राप्त होता है। द्वापर युग में एक महीने में और कलियुग में एक ही दिन में प्राप्त होगा। कृतयुग में ध्यान योग से जो पुण्य हो सकता है, वहीं कलियुग में केवल श्रीकृष्ण-विष्णु का नाम-स्मरण मात्र से प्राप्त होता है। इसलिए मैंने कलियुग को श्रेष्ठ बताया। द्विजवर्ग धर्म च्युत होकर अनर्गल वार्तालाप, अनायास भोजन पाकर पतन के मार्ग पर होंगे। उन्हें संयम का पालन करना होगा। अन्न उपजानेवाला वर्ग द्विजों की सेवा करके यानी थोड़े परिश्रम से पुण्य-संपादन करके मोक्ष के अधिकारी हो जाते हैं। इसलिए मैंने शूद्र को श्रेष्ठ कहा।"

"स्त्रियां तो कलियुग में पति की सेवा करके परलोक को प्राप्त कर सकती हैं। इस कारण से मैंने स्त्रियों को श्रेष्ठ और साधु! साधु! कहा। मैं समझता हूं कि अब आप लोगों की शंका का समाधान हो गया होता ।" ये शब्द कहकर महर्षि अपनी कुटी की ओर चल पड़े। मुनि वृंद महर्षि व्यासजी के दर्शन और उनकी वाणी से प्रसन्न हुए। उनकी पूजा करके अपने-अपने निवास को लौट गए।

तो इसलिए काले होते हैं कौवे

मानव सामाजिक प्राणी है और काँव-काँव बोलनेवाला कौवा मानव के सामाजिक जीवन में विशेष स्थान रखता है। कौवों के बारे में कहा जाता है कि जब कभी घर की छत पर वह बोलता है, तो मेहमान आने वाले होते हैं| लेकिन कौवों के बारे में सबसे रोचक जानकारी जो शायद आपको न पता हो वह यह कि कौवों का रंग काला क्यों होता है? क्या आपको पता है यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि कौवों का रंग काला क्यों होता है| 

कौवे के रंग के बारे में एक पुरानी किवदंती है। एक ऋषि ने कौए को अमृत खोजने भेजा, लेकिन उन्होंने यह इतला भी दी कि सिर्फ अमृत की जानकारी ही लेना है, उसे पीना नहीं है। एक वर्ष के परिश्रम के पश्चात सफेद कौए को अमृत की जानकारी मिली, पीने की लालसा कौआ रोक नहीं पाया एवं अमृत पी लिया। ऋषि को आकर सारी जानकारी दी।

इस पर ऋषि आवेश में आ गए और श्राप दिया कि तुमने मेरे वचन को भंग कर अपवित्र चोंच द्वारा पवित्र अमृत को भ्रष्ट किया है। इसलिए प्राणी मात्र में तुम्हें घृणास्पद पक्षी माना जाएगा एवं अशुभ पक्षी की तरह मानव जाति हमेशा तुम्हारी निंदा करेगी, लेकिन तुमने अमृत पान किया है, इसलिए तुम्हारी स्वाभाविक मृत्यु कभी नहीं होगी। कोई बीमारी भी नहीं होगी एवं वृद्धावस्था भी नहीं आएगी। 

भादौ महीने के सोलह दिन तुम्हें पितरों का प्रतीक समझ कर आदर दिया जाएगा एवं तुम्हारी मृत्यु आकस्मिक रूप से ही होगी। इतना बोलकर ऋषि ने अपने कमंडल के काले पानी में उसे डूबो दिया। काले रंग का बनकर कौआ उड़ गया तभी से कौए काले हो गए।

दुर्लभ संयोग: नवरात्रि पर मां के साथ बरसेगी हनुमानजी की कृपा!


हमारे वेद, पुराण व शास्त्र साक्षी हैं कि जब-जब किसी आसुरी शक्तियों ने अत्याचार व प्राकृतिक आपदाओं द्वारा मानव जीवन को तबाह करने की कोशिश की तब-तब किसी न किसी दैवीय शक्तियों का अवतरण हुआ। इसी प्रकार जब महिषासुरादि दैत्यों के अत्याचार से भू व देव लोक व्याकुल हो उठे तो परम पिता परमेश्वर की प्रेरणा से सभी देवगणों ने एक अद्भुत शक्ति का सृजन किया जो आदि शक्ति मां जगदंबा के नाम से सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हुईं। उन्होंने महिषासुरादि दैत्यों का वध कर भू व देव लोक में पुनःप्राण शक्ति व रक्षा शक्ति का संचार कर दिया। शक्ति की परम कृपा प्राप्त करने हेतु संपूर्ण भारत में नवरात्रि का पर्व बड़ी श्रद्धा, भक्ति व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस वर्ष शारदीय नवरात्रि 16 अक्टूबर आश्चिन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से प्रारम्भ होगी| इस दिन स्वाती नक्षत्र, विष्कुम्भ योग होगा| प्रतिपदा तिथि के दिन शारदिय नवरात्रों का पहला नवरात्र होगा| माता पर श्रद्धा व विश्वास रखने वाले व्यक्तियों के लिये यह दिन विशेष रहेगा| इस बार 34 साल बाद नवरात्रों पर अद्भुत संयोग बन रहा है। इसके बाद यह संयोग 27 साल बाद ही बनेगा। इसलिए इस शारदीय नवरात्र में खुशियां ही खुशियां होगी। इस बार शारदीय नवरात्र मंगलवार को शुरू होकर मंगलवार को ही पूरे होंगे। यह संयोग 34 वर्ष पूर्व तीन अक्टूबर 1978 में बना था। भविष्य में 27 साल बाद 18 अक्टूबर 2039 में यह संयोग बनेगा। हालांकि इस बार 9 की जगह 8 दिन ही मां भगवती की आराधना होगी। मंगलवार को नवरात्र के मंगल कलश की स्थापना होगी। 23 अक्टूबर मंगलवार को नवरात्र पूर्ण हो जाएंगे। 

नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की| इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है | जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं। 

नव दुर्गा- 

श्री दुर्गा का प्रथम रूप श्री शैलपुत्री हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के प्रथम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इसके आलावा श्री दुर्गा का द्वितीय रूप श्री ब्रह्मचारिणी का हैं। यहां ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। अतः ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं। नवरात्रि के द्वितीय दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। श्री दुर्गा का तृतीय रूप श्री चंद्रघंटा है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। नवरात्रि के तृतीय दिन इनका पूजन और अर्चना किया जाता है। इनके पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा हैं। अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है। नवरात्रि के चतुर्थ दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। श्री कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं। श्री दुर्गा का पंचम रूप श्री स्कंदमाता हैं। श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। श्री दुर्गा का षष्ठम् रूप श्री कात्यायनी। महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है। श्रीदुर्गा का सप्तम रूप श्री कालरात्रि हैं। ये काल का नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि कहलाती हैं। नवरात्रि के सप्तम दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट) में स्थिर कर साधना करनी चाहिए। श्री दुर्गा का अष्टम रूप श्री महागौरी हैं। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती हैं। नवरात्रि के अष्टम दिन इनका पूजन किया जाता है। इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। श्री दुर्गा का नवम् रूप श्री सिद्धिदात्री हैं। ये सब प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं, इसीलिए ये सिद्धिदात्री कहलाती हैं। नवरात्रि के नवम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।

नवरात्रि का महत्व एवं मनाने का कारण -

नवरात्रि काल में रात्रि का विशेष महत्‍व होता है| देवियों के शक्ति स्वरुप की उपासना का पर्व नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक, निश्चित नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है। सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की । तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा। नवरात्रि के नौ दिनों में आदिशक्ति माता दुर्गा के उन नौ रूपों का भी पूजन किया जाता है जिन्होंने सृष्टि के आरम्भ से लेकर अभी तक इस पृथ्वी लोक पर विभिन्न लीलाएँ की थीं। माता के इन नौ रूपों को नवदुर्गा के नाम से जाना जाता है।

नवरात्रि के समय रात्रि जागरण अवश्‍य करना चाहिये और यथा संभव रात्रिकाल में ही पूजा हवन आदि करना चाहिए। नवदुर्गा में कुमारिका यानि कुमारी पूजन का विशेष अर्थ एवं महत्‍व होता है।कहीं-कहीं इन्हें कन्या पूजन के नाम से भी जाना जाता है| जिसमें कन्‍या पूजन कर उन्‍हें भोज प्रसाद दान उपहार आदि से कुमारी कन्याओं की सेवा की जाती है। 

आश्विन मास के शुक्लपक्ष कि प्रतिपद्रा से लेकर नौं दिन तक विधि पूर्वक व्रत करें। प्रातः काल उठकर स्नान करके, मन्दिर में जाकर या घर पर ही नवरात्रों में दुर्गाजी का ध्यान करके कथा पढ़नी चहिए। यदि दिन भर का व्रत न कर सकें तो एक समय का भोजन करें। इस व्रत में उपवास या फलाहार आदि का कोई विशेष नियम नहीं है। कन्याओं के लिये यह व्रत विशेष फलदायक है। कथा के अन्त में बारम्बार ‘दुर्गा माता तेरी सदा जय हो’ का उच्चारण करें ।

गुप्त नवरात्रि:-

हिंदू धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है। वर्ष के प्रथम मास अर्थात चैत्र में प्रथम नवरात्रि होती है। चौथे माह आषाढ़ में दूसरी नवरात्रि होती है। इसके बाद अश्विन मास में प्रमुख नवरात्रि होती है। इसी प्रकार वर्ष के ग्यारहवें महीने अर्थात माघ में भी गुप्त नवरात्रि मनाने का उल्लेख एवं विधान देवी भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। इनमें अश्विन मास की नवरात्रि सबसे प्रमुख मानी जाती है। इस दौरान पूरे देश में गरबों के माध्यम से माता की आराधना की जाती है। दूसरी प्रमुख नवरात्रि चैत्र मास की होती है। इन दोनों नवरात्रियों को क्रमश: शारदीय व वासंती नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि गुप्त रहती है। इसके बारे में अधिक लोगों को जानकारी नहीं होती, इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि कहते हैं। गुप्त नवरात्रि विशेष तौर पर गुप्त सिद्धियां पाने का समय है। साधक इन दोनों गुप्त नवरात्रि में विशेष साधना करते हैं तथा चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त करते हैं।

नवरात्रि व्रत की कथा-

नवरात्रि व्रत की कथा के बारे प्रचलित है कि पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्रह्मण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर कन्या थी। अनाथ, प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम किया करता था, उस समय सुमति भी नियम से वहाँ उपस्थित होती थी। एक दिन सुमति अपनी साखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मै किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूँगा। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुःख हुआ और पिता से कहने लगी कि ‘मैं आपकी कन्या हूँ। मै सब तरह से आधीन हूँ जैसी आप की इच्छा हो मैं वैसा ही करूंगी। रोगी, कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो। होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है, पर होता है वही है जो भाग्य विधाता ने लिखा है। अपनी कन्या के ऐसे कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राम्हण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ-जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो। सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की।उस गरीब बालिका कि ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी की, हे दीन ब्रम्हणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वरदान माँग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूँ। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्रह्याणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुईं। ऐसा ब्रम्हणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूँ। तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद द्वारा चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ कर जेलखाने में कैद कर दिया था। उन लोगों ने तेरे और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया था। इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल पिया इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया।हे ब्रम्हाणी ! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हे मनोवांछित वस्तु दे रही हूँ। ब्राह्यणी बोली की अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर करो। उसके पति का शरीर भगवती की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया।

इस तरह से किरात बन गए वाल्मीकि

ब्रह्मा के मानस-पुत्रों में प्रचेतस भी एक हैं। एक बार समस्त लोकों का संचार करते हुए सुरपुरी अमरावती की शोभा को निहारते हुए उन्होंने इंद्र सभा में प्रवेश किया। इंद्र ने दिक्पालकों के समेत आगे बढ़कर आदरपूर्वक प्रचेतस का स्वागत किया, 'अघ्र्य' पाद्य आदि से उनका उपचार किया। उनको प्रसन्न करने के लिए रंभा, ऊर्वशी, मेनका इत्यादि अप्सराओं के नृत्य-गान का प्रबंध किया। 

उन अनुपम सुंदरियों को देखते ही युवा प्रचेतस के मन में काम-वासना उद्दीप्त हुई, परिणामस्वरूप उनके वीर्य का स्खलन हुआ। वीर्य नीचे गिरते ही तत्काल एक बालक के रूप में प्रत्यक्ष हुआ। देव सभा के सदस्य इस अद्भुत दृश्य को विस्फारित नयनों से देखते ही रह गए। उसी समय बालक ने प्रचेतस को प्रणाम करके निवेदन किया, "पिताजी, मेरा उद्भव आपके वीर्य के पतन से हुआ है। इस कारण से मेरे पालन-पोषण का दायित्व आप ही का बनता है।"

बालक के वचन सुनकर इंद्रसभा के सभापद परस्पर कानाफूसी करने लगे। देव सभा में बालक द्वारा अपने रहस्य के प्रकट हुए देख प्रचेतस क्रोध में आ गए और उन्होंने कठोर स्वर में बालक को शाप दिया, "किरात बनकर क्रूर कृत्य करते हुए जीवनयापन करोगे। मेरी आंखों के सामने से हट जाओ। मैं तुम्हारा चेहरा तक देखना नहीं चाहता।"

बालक रुदन करते हुए प्रचेतस के चरणों पर गिरकर करुण स्वर में बोला, "पिताश्री, मेरा जन्म सार्थक है, मैं ऐसा ही मानता हूं। परंतु जन्म-धारण के साथ-ही-साथ अपने ही पिता के द्वारा शापित होना मैं अपना दुर्भाग्य ही समझूंगा। धर्मशास्त्र घोषित करते हैं कि शिष्य के अपराध गुरु और पुत्र के अपराध पिता क्षमा कर देते हैं। आप मेरे इस अपराध को क्षमा करके मुझे इस शाप से मुक्त होने का वरदान दीजिए।"

बालक का आक्रंदन सुनकर देवताओं के हृदय द्रवित हुए। सबने समवेत स्वर में उसे शापमुक्त करने का प्रचेतस से अनुरोध किया। इस पर प्रचेतस का क्रोध शांत हो गया। उन्होंने वात्सल्य भाव से प्रेरित होकर कहा, "पुत्र! तुम चिंता न करो। थोड़े दिन तक तुम किरातकर रहकर उसी पेशे में अपना जीवनयापन करोगे। इसके उपरांत तुम्हें कुछ महापुरुषों के अनुग्रह से एक दिव्य मंत्र प्राप्त होगा। उसी मंत्र के बल पर तुम अपनी आखेट-वृत्ति त्यागकर ब्रह्मर्षि बनोगे और तुम्हें शाश्वत यश प्राप्त होगा।"

प्रचेतस का आशीर्वाद पाकर बालक भूलोक में पहुंचा। किरातों की बस्ती में निवास करते हुए आखेट के द्वारा अपना पेट पालने लगा। कालक्रम में उसके कई बच्चे हुए। आखेट-वृत्ति के द्वारा परिवार को पालना जब सम्भव न हुआ तब उसने उस वन से गुजरनेवाले यात्रियों को लूटना आरम्भ किया।

कालचक्र के परिभ्रमण में अनेक वर्ष गुजर गए। एक बार सप्तर्षि तीर्थाटन के लिए निकले। किरात ने हुंकार करके उनका रास्ता रोका। उनको लूटने के लिए अनेक प्रकार से उन्हें यातनाएं देने लगा। ऋषियों ने समझाया, "बेटे, हम तो संन्यासी ठहरे। हम तो मूल्यवान वस्तुएं अपने पास नहीं रखते। दरअसल, हमें उनकी आवश्यकता ही नहीं है, हम सर्वसंग मरित्यागी हैं। हमें अपने रास्ते जाने दो। यह जीवन तो शाश्वत नहीं है। तुम अपना पेट पालने के लिए ऐसे पाप-कृत्य क्यों करते हो?"

महर्षियों के मुंह से हित वचन सुनकर किरात की हिंसा वृत्ति शांत हो गई। उसने विनीत स्वर में उत्तर दिया, "महानुभाव, मैं यह पाप केवल अपना पेट पालने के लिए नहीं कर रहा, अपनी पत्नी और बच्चों की परवरिश करने के लिए मुझे ये कर्म करने पड़ रहे हैं।"

किरात के भोलेपन पर महर्षियों को हंसी आई। उसको अबोध मानकर ऋषियों ने समझाया, "तुम गृहस्थ हो और परिवार का भरण-पोषण करना तुम्हारा कर्तव्य है। यह बात सही है, लेकिन तुम जो कुछ ले जाकर उन्हें दोगे, वही वे लोग खाएंगे, परंतु यह मत भूलो कि तुम्हारी कमाई के वे लोग अवश्य भागीदार होते हैं, तुम्हारे इन पाप-कृत्यों के नहीं।" 

किरात का हृदय दहल उठा। उसने सप्तर्षियों को उसके लौटने तक वहीं प्रतीक्षा करने की प्रार्थना की और लंबे डग भरते अपनी झोंपड़ी को लौट आया। खाली हाथ लौटे किरात को देख उसके परिवार वाले अचंभित थे। किरात ने गम्भीर स्वर में पूछा, "तुम लोग मेरी कमाई पर बंसी की चैन लेते हो। आराम से घर बैठे नाच-गान करते हो। लेकिन तुम लोग नहीं जानते कि मैं कैसे अत्याचार और अन्याय करके तुम लोगों का पेट पालता हूं, जिससे मैं पाप का भागीदार बनता हूं। अब बताओ, मेरे किए-कराए इस पाप में तुम लोग भी अपना हिस्सा बांटने को तैयार हो या नहीं?"

किरात की पत्नी और उसके बच्चों ने एक स्वर में बताया, "अरे! तुम भी कैसी ये अनर्गल बातें करते हो। पत्नी और बच्चों का पेट पालना तुम्हारा कर्तव्य है। तुम हमारे प्रति कौन-सा बड़ा उपकार करते हो। यही बात थी तो तुमने शादी क्यों की? बच्चे क्यों पैदा किए? कोई सुने तो हंसे। जाओ, जल्दी हमारे खाने के लिए कुछ लेते आओ।"

पत्नी और बच्चों की बातें सुनकर किरात का दिल दहल गया। तत्काल वह सप्तर्षियों के पास लौटा, उनके चरणों पर गिरकर विनती करने लगा, "महानुभावों, आज मेरे भाग्यवश आप लोगों के दर्शन हुए। मेरा जीवन धन्य हो गया। आप लोग मुझ पर अनुग्रह करके इस पापपूर्ण पंक से मेरा उद्धार कीजिए।" किरात को अपनी करनी पर पश्चात्ताप करते देख सप्तर्षि प्रसन्न हुए और उसको 'श्रीराम' मंत्र जपने का उपदेश दिया।

किरात के मन में विवेक जागृत हुआ। वह अपने परिवार को त्यागकर कंद-मूल और फलों का सेवन करते हुए, पवित्र नदियों में स्नान करते हुए श्रीराम तारक मंत्र का जाप करने लगा। अन्न-जल का उसे स्मरण तक न रहा। शन:-शनै: उसके चारों ओर वल्मीक बनता गया। उस पर पौधे उग आए। पेड़ बने, सरीसृप आदि जानवरों ने उस वल्मीकि पर अपना आश्रय बनाया, परंतु किरात को इस बात का भान तक न हुआ। वह तपस्या में निमग्न हो गया था।

अनेक वर्ष तीर्थाटन करके जब सप्तर्षि उसी वन से होकर अपने आश्रमों की ओर लौटने लगे, तब उन्हें उस किरात का स्मरण हो आया। उन्होंने किरात का पता लगाया। "सप्तर्षियों! जिस किरात को आप लोग ढूंढ़ रहे हैं, वह एक तपस्वी बनकर आप लोगों के सामने दर्शित होने वाले वल्मीकि में है। वह इस समय ध्यानमग्न हैं।"

यह समाचार पाकर सप्तर्षि अमित आनंदित हुए और उन लोगों ने संपूर्ण हृदय से उस तपस्वी को आशीर्वाद दिया। "वल्मीकि के भीतर तपस्या में मग्न पुण्यात्मा वाल्मीकि महर्षि के नाम से विख्यात होंगे। श्रीमहाविष्णु स्वयं श्रीराम के रूप में प्रत्यक्ष हो इन्हें दर्शन देंगे और अपना चरित लिखने का आदेश देंगे। ये ऋषि कुल तिलक बनकर जगत के कल्याण का सूत्रधार बनेंगे।" इस प्रकार आशीर्वाद देकर सप्तर्षि अपने-अपने आश्रमों को लौट गए। वही तपस्वी कालांतर में महर्षि वाल्मीकि नाम से प्रख्यात हुए और 'रामायण' की रचना करके आदिकवि कहलाए।

गणेश चतुर्थी विशेष: इस तरह से गणेशजी कहलाये विघ्नेश्वर

बहुधा लोग किसी कार्य में प्रवृत्त होने के पूर्व संकल्प करते हैं और उस संकल्प को कार्य रूप देते समय कहते हैं कि हमने अमुक कार्य का श्रीगणेश किया। कुछ लोग कार्य का शुभारंभ करते समय सर्वप्रथम श्रीगणेशाय नम: लिखते हैं। यहां तक कि पत्रादि लिखते समय भी 'ऊँ' या श्रीगणेश का नाम अंकित करते हैं। 

श्रीगणेश को प्रथम पूजन का अधिकारी क्यों मानते हैं? लोगों का विश्वास है कि गणेश के नाम स्मरण मात्र से उनके कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं- इसलिए विनायक के पूजन में 'विनायको विघ्नराजा-द्वैमातुर गणाधिप' स्त्रोत पाठ करने की परिपाटी चल पड़ी है। यहां तक कि उनके नाम से गणेश उपपुराण भी है। पुराण-पुरुष गणेश की महिमा का गुणगान सर्वत्र क्यों किया जाता है? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है।

इस संबंध में एक कहानी प्रचलित है। एक बार सभी देवों में यह प्रश्न उठा कि पृथ्वी पर सर्वप्रथम किस देव की पूजा होनी चाहिए। सभी देव अपने को महान बताने लगे। अंत में इस समस्या को सुलझाने के लिए देवर्षि नारद ने शिव को निणार्यक बनाने की सलाह दी। शिव ने सोच-विचारकर एक प्रतियोगिता आयोजित की- जो अपने वाहन पर सवार हो पृथ्वी की परिक्रमा करके प्रथम लौटेंगे, वे ही पृथ्वी पर प्रथम पूजा के अधिकारी होंगे।

सभी देव अपने वाहनों पर सवार हो चल पड़े। गणेश जी ने अपने पिता शिव और माता पार्वती की सात बार परिक्रमा की और शांत भाव से उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े रहे। कार्तिकेय अपने मयूर वाहन पर आरूढ़ हो पृथ्वी का चक्कर लगाकर लौटे और दर्प से बोले, "मैं इस स्पर्धा में विजयी हुआ, इसलिए पृथ्वी पर प्रथम पूजा पाने का अधिकारी मैं हूं।"

शिव अपने चरणें के पास भक्ति-भाव से खड़े विनायक की ओर प्रसन्न मुद्रा में देख बोले, "पुत्र गणेश तुमसे भी पहले ब्रह्मांड की परिक्रमा कर चुका है, वही प्रथम पूजा का अधिकारी होगा।" 

कार्तिकेय खिन्न होकर बोले, "पिताजी, यह कैसे संभव है? गणेश अपने मूषक वाहन पर बैठकर कई वर्षो में ब्रह्मांड की परिक्रमा कर सकते हैं। आप कहीं तो परिहास नहीं कर रहे हैं?" "नहीं बेटे! गणेश अपने माता-पिता की परिक्रमा करके यह प्रमाणित कर चुका है कि माता-पिता ब्रह्मांड से बढ़कर कुछ और हैं। गणेश ने जगत् को इस बात का ज्ञान कराया है।" इतने में बाकी सब देव आ पहुंचे और सबने एक स्वर में स्वीकार कर लिया कि गणेश जी ही पृथ्वी पर प्रथम पूजन के अधिकारी हैं।

गणेश जी के सम्बंध में भी अनेक कथाएं पुराणों में वर्णित हैं। एक कथा के अनुसार शिव एक बार सृष्टि के सौंदर्य का अवलोकन करने हिमालयों में भूतगणों के साथ विहार करने चले गए। पार्वती जी स्नान करने के लिए तैयार हो गईं। सोचा कि कोई भीतर न आ जाए, इसलिए उन्होंने अपने शरीर के लेपन से एक प्रतिमा बनाई और उसमें प्राणप्रतिष्ठा करके द्वार के सामने पहरे पर बिठाया। उसे आदेश दिया कि किसी को भी अंदर आने से रोक दे। वह बालक द्वार पर पहरा देने लगा।

इतने में शिव जी आ पहुंचे। वह अंदर जाने लगे। बालक ने उनको अंदर जाने से रोका। शिव जी ने क्रोध में आकर उस बालका का सिर काट डाला। स्नान से लौटकर पार्वती ने इस दृश्य को देखा। शिव जी को सारा वृत्तांत सुनाकर कहा, "आपने यह क्या कर डाला? यह तो हमारा पुत्र है।"

शिव जी दुखी हुए। भूतगणों को बुलाकर आदेश दिया कि कोई भी प्राणी उत्तर दिशा में सिर रखकर सोता हो, तो उसका सिर काटकर ले आओ। भूतगण उसका सिर काटकर ले आए। शिव जी ने उस बालक के धड़ पर हाथी का सिर चिपकाकर उसमें प्राण फूंक दिए। तवसे वह बालक 'गजवदन' नाम से लोकप्रिय हुआ। 

दूसरी कथा भी गणेश जी के जन्म के बारे में प्रचलित है। एक बार पार्वती के मन में यह इच्छा पैदा हुई कि उनके एक ऐसा पुत्र हो जो समस्त देवताओं में प्रथम पूजन पाए। इन्होंने अपनी इच्छा शिव जी को बताई। इस पर शिव जी ने उन्हें पुष्पक व्रत मनाने की सलाह दी।

पार्वती ने पुष्पक व्रत का अनुष्ठान करने का संकल्प किया और उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए समस्त देवी-देवताओं को निमंत्रण दिया। निश्चित तिथि पर यज्ञ का शुभारंभ हुआ। यज्ञमंडल सभी देवी-देवताओं के आलोक से जगमगा उठा। शिव जी आगत देवताओं के आदर-सत्कार में संलग्न थे, लेकिन विष्णु भगवान की अनुपस्थिति के कारण उनका मन विकल था। थोड़ी देर बाद विष्णु भगवान अपने वाहन गरुड़ पर आरूढ़ हो आ पहुंचे। सबने उनकी जयकार करके सादर उनका स्वागत किया। उचित आसन पर उनको बिठाया गया।

ब्रह्माजी के पुत्र सनतकुमार यज्ञ का पौरोहित्य कर रहे थे। वेद मंत्रों के साथ यज्ञ प्रारंभ हुआ। यथा समय यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हुआ। विष्णु भगवान ने पार्वती को आशीर्वाद दिया, "पार्वती! आपकी मनोकामना पूर्ण होगी। आपके संकल्प के अनुरूप एक पुत्र का उदय होगा।" 

भगवान विष्णु का आशीर्वाद पाकर पार्वती प्रसन्न हो गई। उसी समय सनतकुमार बोल उठे, "मैं इस यज्ञ का ऋत्विक हूं। यज्ञ सफलतापूर्वक संपन्न हो गया है, परंतु शास्त्र-विधि के अनुसार जब तक पुरोहित को उचित दक्षिणा देकर संतुष्ट नहीं किया जाता, तब तक यज्ञकर्ता को यज्ञ का फल प्राप्त नहीं होगा।"

"कहिए पुरोहित जी, आप कैसी दक्षिणा चाहते हैं?" पार्वती जी ने पूछा।

"भगवती, मैं आपके पतिदेव शिव जी को दक्षिणा स्वरूप चाहता हूं।"

पार्वती तड़पकर बोली, "पुरोहित जी, आप पेरा सौभाग्य मांग रहे हैं। आप जानते ही हैं कि कोई भी नारी अपना सर्वस्व दान कर सकती है, परंतु अपना सौभाग्य कभी नहीं दे सकती। आप कृपया कोई और वस्तु मांगिए।"

परंतु सनतकुमार अपने हठ पर अड़े रहे। उन्होंने साफ कह दिया कि वे शिव जी को ही दक्षिणा में लेंगे, दक्षिणा न देने पर यज्ञ का फल पार्वती जी को प्राप्त न होगा।

देवताओं ने सनतकुमार को अनेक प्रकार से समझाया, पर वे अपनी बात पर डटे रहे। इस पर भगवान विष्णु ने पार्वती जी को समझाया, "पार्वती जी! यदि आप पुरोहित को दक्षिणा न देंगी तो यज्ञ का फल आपको नहीं मिलेगा और आपकी मनोकामना भी पूरी न होगी।"

पार्वती ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, "भगवान! मैं अपने पति से वंचित होकर पुत्र को पाना नहीं चाहती। मुझे केवल मेरे पति ही अभीष्ट हैं।"

शिव जी ने मंदहास करके कहा, "पार्वती, तुम मुझे दक्षिणा में दे दो। तुम्हारा अहित न होगा।" पार्वती दक्षिणा में अपने पति को देने को तैयार हो गई, तभी अंतरिक्ष से एक दिव्य प्रकाश उदित होकर पृथ्वी पर आ उतरा। उसके भीतर से श्रीकृष्ण अपने दिव्य रूप को लेकर प्रकट हुए। उस विश्व स्वरूप के दर्शन करके सनतकुमार आह्रादित हो बोले, "भगवती! अब मैं दक्षिणा नहीं चाहता। मेरा वांछित फल मुझे मिल गया।"

श्रीकृष्ण के जयनादों से सारा यज्ञमंडप प्रतिध्वनित हो उठा। इसके बाद सभी देवता वहां से चले गए। थोड़ी ही देर बाद एक विप्र वेशधारी ने आकर पार्वती जी से कहा, "मां, मैं भूखा हं, अन्न दो।" पार्वती जी ने मिष्टान्न लाकर आगंतुक के समाने रख दिया। चंद मिनटों में ही थाल समाप्त कर द्विज ने फिर पूछा, "मां, मेरी भूख नहीं मिटी, थोड़ा और खाने को दो।" वह ब्राह्मण बराबर मांगता रहा, पार्वती जी कुछ-न-कुछ लाकर खिलाती रहीं, फिर भी वह संतुष्ट न हुआ। कुछ और मांगता रहा।

पार्वती जी की सहनशीलता जाती रही। वह खीझ उठीं, शिव जी के पास जाकर शिकायती स्वर में बोलीं, "देव, न मालूम यह कैसा याचक है। ओह, कितना खिलाया, और मांगता है। कहता है कि उसका पेट नहीं भरा। मैं और कहां से लाकर खिला सकती हूं।" शिव जी को उस याचक पर आश्चर्य हुआ। उस देखने के लिए पहुंचे, पर वहां कोई याचक न था। पार्वती चकित होकर बोली, "अभी तो यहीं था, न मालूम कैसे अदृश्य हो गया"

शिव जी ने मंदहास करते हुए कहा, "देवि, वह कहीं नहीं गया। वह यहीं है, तुम्हारे उदर में। वह कोई पराया नहीं, साक्षात् तुम्हारा ही पुत्र गणेश है। तुम्हारे मनोकामना पूरी हो गई है। तुम्हें पुष्पक यज्ञ का फल प्राप्त हो गया है।" इस प्रकार भगवान शिव के अनुग्रह से गणेश जन्म धारण करके गणाधिपति बन गए। समस्त विश्व के संकट दूर करते हुए विघ्नेश्वर कहलाए।

जाने लक्ष्मी के होते हुए श्रीविष्णु के साथ किस तरह हुआ कलावती का विवाह

धर्मशास्त्र में दशविध विवाहों की चर्चा है। इनमें से प्रमुख हैं गांधर्व विवाह, राक्षस विवाह और माता-पिता द्वारा निर्धारित विवाह। इस विधान के बावजूद कन्या का विवाह प्राचीन काल से ही एक प्रश्नचिह्न् बना रहा है। आज भी यह समस्या प्रासंगिक है। पुराण युग में यह समस्या कितनी जटिल थी, स्कंद पुराण की इस कथा से यह पता चलता है : 

महर्षि अगत्स्य ने तपस्या करने आई कलावती से पूछा, "बेटी, तुम कहां से आ रही हो? इस अल्पायु में तपस्या करने का कारण क्या है?"

महर्षि के इस प्रश्न पर कलावती ने वृत्तांत सुनाया कि प्राचीन काल में कांपिल्य नगर में धर्मसेतु नामक राजा शासन करते थे। उनकी सहधर्मिणी कुमुद्धती के कोई संतान न थी। धर्मसेतु ने संतान प्राप्ति के लिए अनेक दान, धर्म, व्रत और उपवास किए, तीर्थाटन भी किया, परंतु उनकी मनोकामना पूरी नहीं हुई।

एक बार राजमहल में भिक्षा के लिए एक योगिनी आई, परंतु भिक्षा ग्रहण किए बिना लौटने लगी। रानी कुमुद्धती ने योगिनी से पूछा, "आप भिक्षा पाने के लिए आईं, किंतु भिक्षा ग्रहण किए बिना क्यों लौट रही हैं?

योगिनी ने कहा, "आप पुत्रवती नहीं हैं, इसीलिए मैं आपके हाथ की भिक्षा नहीं ग्रहण करूंगी।" इस पर रानी ने योगिनी से विनती की कि वह भोजन ग्रहण करके ही राजमहल से लौटे।

योगिनी ने रानी कुमुद्धती की प्रार्थना सुन ली। बहुविध मिष्ठान्न ग्रहण करके संतुष्ट होकर वरदान दिया, "कुमुद्धती, यह उत्तम फल ग्रहण करो। इमली के वन में इस फल का सेवन करके संतान लाभ करो।"

तपस्विनी ने महर्षि से कहा, "रानी ने योगिनी के आदेशानुसार इमली वन में प्रवेश किया तो एक पेड़ पर फल देखा। उस फल का सेवन करके एक पुत्र तथा एक पुत्री को जन्म दिया। रानी ने अपने पुत्र का नाम इंद्रकीर्ति तथा पुत्री का नाम कलावती रखा। मैं वही कलावती हूं।"

कलावती ने आगे का वृत्तांत सुनाया, "मेरे वयस्क होते ही राजा धर्मसेतु ने मेरा विवाह करने का संकल्प किया। मनीषियों का मानना है कि कन्या के वयस्क होने पर उसका विवाह न करने से उसका दोष माता-पिता को लगता है। अलावा इसके मातृवंश, पितृवंश तथा श्वसुरवंश के उद्धार के लिए कन्या का विवाह अनिवार्य होता है। यह दायित्व कन्या के पिता का बनता है। इसीलिए कन्या माता-पिता के लिए दुख का कारणभूत बन जाती है। मेरे विवाह को लेकर मेरे पिता राजा धर्मसेतु चिंतित थे। आखिर समस्त राजाओं के पास आमंत्रण-पत्र भेजकर मेरे स्वयंवर का प्रबंध किया।"

"उस स्वयंवर में अंग, वंग, कलिंग इत्यादि अनेक देशों के राजा पधारे। मेरे सौंदर्य पर मुग्ध हो सभी राजा मोहजाल में फंस गए। एक राजा ने स्वयंवर मंडप में आगे बढ़कर कहा, "यह राजकन्या मेरी है। मैं इसके साथ विवाह करना चाहता हूं।" दूसरे ने इसका प्रतिवाद करते हुए कहा, "नहीं, इस कन्या को मैं अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं।" तीसरे ने कहा, "मैं तुम दोनों से कहीं अधिक पराक्रमी हूं और मेरा राज्य बड़ा है।" 

"इस तरह प्रत्येक राजा ने अभिमान में आकर परस्पर द्वंद्व युद्ध किया। आखिर स्वयंवर में आए हुए सभी राजा आपस में लड़ मरे। परिणामस्वरूप स्वयंवर भंग हुआ। इसी चिंता में मेरे पिताजी ने प्राण त्याग दिए, मेरी माताजी ने अपने पति का अनुगमन किया। इस पर वृद्ध मंत्रियों ने मंत्रणा करके मेरे भाई इंद्रकीर्ति का राज्याभिषेक किया। मैं माता-पिता से वंचित होकर अनाथ बन गई।"

"राज्य, धन-संपत्ति, बंधु-बांधव, मित्र, दान-धर्म इत्यादि स्त्री के लिए सुखदायक नहीं हो सकते। दांपत्य जीवन नारी के लिए स्वर्गतुल्य है। इसलिए मैं दांपत्य जीवन प्राप्त करने के लिए व्याकुल रहने लगी। मंत्रियों ने मुझे सांत्वना दी। परंतु समाज मुझे मातृ-पितृ तथा राजहंता कहकर मेरी निंदा करता रहा। आखिर मैं तंग आकर अपने पिता का घर छोड़कर निकल आई। आत्महत्या करने के विचार से प्रयाग क्षेत्र में पहुंची, किंतु आत्महत्या महापाप है, यह पुराणोक्ति सुनकर मैंने अपना विचार बदल लिया।"

"अंत में मुनि भरद्वाज के अनुग्रह से मैं दीक्षित हो गई। भरद्वाज महर्षि ने मुझे बताया कि विंध्याचल के दक्षिण में स्थित विरजा क्षेत्र पापविनाशकारी है। इसलिए मैंने संकल्प किया कि विरजा तीर्थ में घोर तपस्या करके वहीं पर अपना शरीर त्याग दूंगी। मेरी तपस्या का उद्देश्य है- चाहे मुझे अनेक जन्म भले ही धारण करना पड़े, किंतु मैं श्रीमहाविष्णु को ही अपने पति के रूप में प्राप्त करना चाहती हूं। उनके अतिरिक्त मैं किसी अन्य पुरुष को अपने पति के रूप में प्राप्त करने की कामना नहीं रखती।"

महर्षि अगत्स्य ने कलावती से सारा वृत्तांत सुना और सलाह दी, "तुम विरजा तीर्थ में जाकर तप करो।" फिर उन्होंने कंद-मूल, फल देकर उसका अतिथि सत्कार किया। एक रात महर्षि अगत्स्य के आश्रम में बिताकर सुबह होते ही महर्षि की अनुमति लेकर कलावती तपस्या करने निकल पड़ी।

विरजा क्षेत्र में पहुंचकर वैष्णव-मंत्र का जाप करते हुए कलावती ने तप आरंभ किया। शिशिर ऋतु में कटि तक जल में खड़े रहकर तप किया, ग्रीष्म ऋतु और वर्षा काल में खुले मैदान में। हेमंत में गीले वस्त्र धारण कर और वसंत में धूप में खड़े हाकर तप करती रही। जप, तप, उपवास और व्रत के साथ धूप-दीप, पुष्पों से कलावती ने विष्णु की आराधना की। आखिर उसकी तपस्या सफल हुई। 

शंख, चक्र, गदा, वैजयंती एवं पीतांबरधारी विष्णु गरुड़ पर सवार हो लक्ष्मी समेत कलावती के सामने प्रत्यक्ष हुए और वांछित वर मांगने को कहा। कलावती ने जनार्दन को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके निवेदन किया, "भगवन् मैं पति कामिनी हूं। मैं आदि-मध्यांत रहित श्रीमहाविष्णु को अपने पति के रूप में पाना चाहती हूं।"

विष्णु के समीप स्थित लक्ष्मीदेवी ने कुपित होकर कलावती से पूछा, "मेरे रहते तुम मेरे पति को कैसे वरण कर सकती हो? इस जन्म में तुम कभी इनकी पत्नी नहीं हो सकती। अगले जन्म में भी मैं ही श्रीमहाविष्णु की पत्नी बनूंगी।" 

इस पर श्रीमहाविष्णु ने कलावती से कहा, "श्रीमहालक्ष्मी का कथन सत्य होगा। परंतु कलावती सुनो, इस समय कृतयुग चल रहा है। त्रेता युग के पश्चात् द्वापर युग में मैं यदुवंश में जन्म धारण करूंगा। देवकी-वसुदेव पुण्य दंपति हैं। मैं उनके घर में अवतार लूंगा। उस समय लक्ष्मीदेवी भूलोक में रुक्मिणी के नाम से जन्म धारण करेगी। तुम सत्राजित की पुत्री सत्यभामा के रूप में जन्म धारण करोगी। तुम चिंता न करो। द्वापर में तुम मेरे लिए अत्यंत प्रियतमा बनोगी। इस बीच तुम पुण्यलोक प्राप्त करके मेरी पत्नी के रूप में जन्म लोगी।" यह वरदान देकर श्रीमहाविष्णु अंतर्धान हो गए।

कलावती को पुण्यलोक प्राप्त हुआ। द्वापर युग में सत्यभामा के रूम में जन्म धारण करके वह श्रीकृष्ण की पत्नी बनी। इसी प्रकार सती ने कन्या का व्रत करके शंकर को पति के रूप में प्राप्त किया और उनकी अर्धागनी बनी थी।

...इस तरह दो मित्र बन गए पति- पत्नी

प्राचीनकाल में सारस्वत और वरमित्र नामक दो मित्र रहा करते थे। सारस्वत का पुत्र सोमवंत था और वरमित्र का पुत्र सुमेध। उन दोनों के बीच गहरी मैत्री थी। वे एक ही गुरुकुल में पढ़ते थे। दोनों ने कालांतर में समस्त शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया। दोनों मित्र बाद में पति-पत्नी बन गए। कैसे? आइए जानें.. 

सोमवंत और सुमेध जब वयस्क हुए, तब एक दिन उनके माता-पिता ने उन्हें समझाया, "सुनो बेटे! तुम्हारा विवाह करने के लिए हमारे पास पर्याप्त धन नहीं है, इसलिए तुम विदर्भ राज्य में जाओ। वहां के राजा को अपनी विद्या से प्रसन्न करके पुरस्कार और सम्मान प्राप्त करो।"

माता-पिता की सलाह पाकर सोमवंत और सुमेध विदर्भ नरेश की राजसभा में गए। राजा ने उन वटुओं को देख परिहासपूर्वक कहा, "निषध देश की रानी सीमंतिनी सोमवार का व्रत रखती हैं और दंपतियों की पूजा करके उन्हें धन, सुवर्ण, वस्तु और वाहन पुरस्कार रूप में दे रही हैं। इसलिए तुम दोनों में से एक स्त्री का वेष धारण कर लो और दंपति के रूप में उनके दर्शन करो। वह तुम्हें पर्याप्त संपदा दे देंगी।"

"महाराज! हम ऐसे कपट वेष कभी धारण नहीं करेंगे। हमने वेद-शास्त्रों का अध्ययन किया है। ज्योतिषशास्त्र की भी जानकारी रखते हैं। केवल धन-सम्पत्ति पाने के लिए हम ऐसे नीच कार्य नहीं करेंगे।" दोनों युवकों ने उत्तर दिया।

राजा ने क्रोध में आकर कहा, "यह मेरा आदेश है। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे, तो तुम्हें कठिन दंड मिलेगा।"

बेचारे दोनों युवक डर गए। विवश होकर सोमवंत ने नारी का वेष धर लिया और सुमेध पति के रूप में। दोनों निषध देश पहुंचे। वहां पर रानी सीमंतिनी महेश्वर की अर्चना करके उस वक्त आए हुए दंपतियों की पूजा कर रही थीं। सुमेध और सोमवंत भी दंपति के रूप में उस व्रत में सम्मिलित हुए। नारी के वेषधारी सोमवंत को देख रानी सीमंतिनी ने सोचा कि वह सचमुच नारी ही है, इसलिए उसका भी विशेष रूप से सत्कार किया। इसके बाद वे युवक इस आशंका से कि उनका कपट प्रकट न हो जाए, वे उसी रात अपने नगर की ओर चल पड़े।

परंतु आश्चर्य की बात थी कि मध्य मार्ग में सोमवंत सचमुच नारी के रूप में बदल गया। सुमेध के प्रति उसके मन में मोह उत्पन्न हुआ। अंत में वे सुमेध और सोमवती के रूप में अपने घर पहुंचे। अपने एकमात्र पुत्र को नारी के रूप में परिवर्तित देख सारस्वत और उनकी पत्नी अत्यंत दु:खी हुए। सारस्वत ने भांप लिया कि यह अनहोनी घटना विदर्भ नरेश के कारण ही घटित हुई है। वे अत्यंत क्रोधित हुए। तत्काल राजदरबार में प्रवेश करके सारस्वत ने तीव्र शब्दों में राजा से कहा, "राजन्! आप ही के कारण मेरा एकमात्र पुत्र नारी बन गया है। इसका कुफल आपको भोगना ही पड़ेगा।"

विदर्भ राजा यह वृत्तांत सुनकर विस्मित हो गए। उन्हें इस घटना पर अपार दुख और पश्चाताप हुआ। उन्होंने सोमवंत के प्रति न्याय करने के विचार से पार्वती और परमेश्वर की घोर तपस्या की। पार्वती ने प्रत्यक्ष हाकर पूछा, "मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं। कोई वर मांग लो।" राजा ने सोमवती को पुन: पुरुष के रूप में परिवर्तित करने का वर मांगा।

पार्वती ने कहा, "यह कदापि संभव नहीं है। रानी सीमंतिनी को सोमवंत नारी के रूप में दिखा था, इसलिए उसका यही रूप रहेगा। सोमवंत अब सोमवती है, उसका विवाह सुमेध से करवा दो। इस दंपति के एक सुयोग्य पुत्र पैदा होगा।" पार्वती के आदेश को शिरोधार्य कर सारस्वत ने सुमेध के साथ सोमवती का विवाह कर दिया।

जानिए भगवान विष्णु के वराह अवतार की कथा

वैकुंठ में श्रीमहाविष्णु का निवास माना जाता है। उनके भवन में कोई अनाधिकार प्रवेश न करे, इसलिए जय और विजय नामक दो द्वारपाल पहरा देते रहते थे। एक बार सनक महामुनि तथा उनके साथ कुछ अन्य मुनि श्रीमहाविष्णु के दर्शन करने उनके निवास पर पहुंचे। जय और विजय ने उन्हें महल के भीतर प्रवेश करने से रोका। इस पर मुनियों ने कुपित होकर द्वारपालों को शाप दिया, "तुम दोनों इसी समय राक्षस बन जाओगे, किंतु महाविष्णु के हाथों तीन बार मृत्यु को प्राप्त करने के बाद तुम्हें स्वर्गवास की प्राप्ति होगी।"

सांयकाल का समय था। महर्षि कश्यप संध्यावंदन अनुष्ठान में निमग्न थे। उस समय महर्षि कश्यप की पत्नी दिति वासना से प्रेरित हो अपने को सब प्रकार से अलंकृत कर अपने पति के समीप पहुंची। कश्यप महर्षि ने दिति को बहुविध समझाया, "देवी! मैं प्रभु की प्रार्थना और संध्यावंदन कार्य में प्रवृत्त हूं, इसलिए काम-वासना की पूर्ति करने का यह समय नहीं है।" किंतु दिति ने हठ किया कि उसकी इच्छा की पूर्ति इसी समय हो जानी चाहिए। 

अंत में विवश होकर कश्यप को उसकी इच्छा पूरी करनी पड़ी। फलत: दिति गर्भवती हुई। मुनि पत्नी दिति ने दो पुत्रों को जन्म दिया। जय ने हिरण्याक्ष के रूप में और विजय ने हिरण्यकशिपु के रूप में जन्म लिया। इन दोनों के जन्म से प्रजा त्रस्त हो गई। दोनों राक्षस भ्राताओं ने समस्त लोक को कंपित कर दिया। उनके अत्याचारों की कोई सीमा न रही। वे समस्त प्रकार के अनर्थो के कारण बने।

कालांतर में हिरण्याक्ष तथा देवताओं के बीच भीषण युद्ध हुआ। युद्ध जब चरम सीमा पर पहुंचा, तब हिरण्याक्ष पृथ्वी की गेंद की तरह वृत्ताकार में लपेटकर समुद्र-तल में पहुंचा। भूमि के अभाव में सर्वत्र केवल जल ही शेष रह गया। इस पर देवताओं ने श्रीमहाविष्णु के दर्शन करके प्रार्थना की कि वे पुन: पृथ्वी को यथास्थान स्थिर रखें। उस वक्त ब्रह्मा के पुत्र स्वायंभुव मनु अपने पिता की सेवा में उपस्थित रहकर उनकी परिचर्या में निरत थे। अपने पुत्र की सेवाओं से प्रमुदित होकर ब्रह्मा ने मनु को सलाह दी, "हे पुत्र! तुम देवी की प्रार्थना करो। उनके आशीर्वाद प्राप्त करो। तुम अवश्य एक दिन प्रजापति बन जाओगे।"

स्वांयभुव ने ब्रह्मा के सुझाव पर जगदंबा देवी के प्रति निश्चल भक्ति एवं अकुंठित भाव से कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या पर प्रसन्न होकर जगदंबा प्रत्यक्ष हुईं और कहा, "पुत्र! मैं तुम्हारी श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा और तपस्या पर प्रसन्न हूं, तुम अपना वांछित वर मांगो। मैं अवश्य तुम्हारा मनोरथ पूरी करूंगी।"

स्वायंभुव ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक जगदंबा से निवेदन किया, "माते! मुझे ऐसा वर प्रदान कीजिए जिससे मैं बिना किसी प्रकार के प्रतिबंध के सृष्टि की रचना कर सकूं।" जगदंबा ने स्वायंभुव मनु पर अनुग्रह करके वर प्रदान किया। 

स्वायंभुव अपने मनोरथ की सिद्धि पर प्रसन्न होकर ब्रह्मा के पास लौट आए और कहा, "पिताजी! मुझे जगदंबा का अनुग्रह प्राप्त हो गया है। आप मुझे आशीर्वाद देकर ऐसा स्थान बताइए, जहां पर मैं सृष्टि रचना का कार्य संपन्न कर सकूं।"

ब्रह्मदेव दुविधा में पड़ गए, क्योंकि हिरण्याक्ष पृथ्वी को ढेले के रूप में लपेटकर अपने साथ जल में ले जाकर छिप गया है। ऐसी हालत में सृष्टि की रचना के लिए कहां पर वे उचित स्थान बता सकते हैं। सोच-विचारकर वे इस निर्णय पर पहुंचे कि महाविष्णु ही इस समस्या का समाधान कर सकते हैं।

फिर क्या था, बह्मदेव ने महाविष्णु का ध्यान किया। ध्यान के समय ब्रह्मा ने दीर्घ निश्वास लिया, तब उनकी नासिका से एक सूअर निकल आया। वह वायु में स्थित हो क्रमश: अपने शरीर का विस्तार करने लगा। देखते-देखते एक विशाल पर्वत के समान परिवर्तित हो गया। सूअर के उस बृहदाकार को देखकर स्वंय ब्रह्मा विस्मय में आ गए। 

सूअर ने विशाल रूप धारण करने के बाद हाथी की भांति भयंकर रूप से चिंघाड़ा। उसकी ध्वनि समस्त लोकों में व्याप्त हो गई। मर्त्यलोक तथा सत्यलोक के निवासी समझ गए कि यह महाविष्णु की माया है। सबने आदि महाविष्णु की लीलाओं का स्मरण किया। उसके बाद सूअर रूप को प्राप्त आदिविष्णु चतुर्दिक प्रसन्न दृष्टि प्रसारित कर पुन: भयंकर गर्जन कर जल में कूद पड़े। उस आघात को जलदेवता वरुण देव सहन नहीं कर पाए। उन्होंने महाविष्णु से प्रार्थना की, "आदि देव! मेरी रक्षा कीजिए।" ये वचन कहकर वरुण देव उनकी शरण में आ गए।

सूअर रूपधारी जल के भीतर पहुंचे। पृथ्वी को अपने लंबे दांतों से कसकर पकड़ लिया और जल के ऊपर ले आए। महाविष्णु को पृथ्वी को उठा ले जाते देखकर हिरण्याक्ष ने उनका सामना किया। महाविष्णु ने क्रुद्ध होकर हिरण्याक्ष का वध किया। (तब जल पर तैरते हुए पृथ्वी को जल के ऊपर अवस्थित किया।) फिर पृथ्वी को सघन बनाकर जल के मध्य उसे स्थिर किया। पृथ्वी इस रूप में अवतरित हुई, जैसे जल के मध्य कमल-पत्र तैर रहा हो।

ब्रह्मदेव ने श्रीमहाविष्णु की अनेक प्रकार से स्तुति की। इसके बाद उन्होंने पृथ्वी पर सृष्टि की रचना के लिए अपने पुत्र स्वायंभुव को उचित स्थान पर जाने का निर्देश किया। इस प्रकार निर्विघ्न सृष्टि रचना संपन्न हुई।

तो इस तरह लौटी महर्षि च्यवन की दृष्टि

पुराणों में महर्षि च्यवन का जन्म-वृत्तांत अत्यंत कौतूहलपूर्ण रीति में वर्णित है। महर्षि च्यवन महर्षि भृगु तथा पुलोमा के पुत्र थे। पुलोमा न केवल असाधारण रूपवती थी, बल्कि परम पतिव्रता भी थी। पुलोमा के अनुपम सौंदर्य पर आसक्त होकर उसके विवाह के पूर्व ही पुलोक नामक राक्षस उसका अपहरण करना चाहता था। 

वह कई बार प्रयत्न करके असफल रहा। पुलोमा के विवाह के बाद एक दिन महर्षि भृगु को आश्रम में न पाकर राक्षस पुलोम ने भृगु पत्नी का अपहरण करना चाहा। उस समय अग्निदेव पुलोमा की रक्षा करने के लिए आश्रम का पहरा दे रहे थे। राक्षस पुलोम ने अग्निदेव के समीप जाकर पूछा, "महाशय! यह बताइए कि क्या महर्षि भृगु और पुलोमा का विवाह वेद-विधि और शास्त्रोक्त पद्धति में संपन्न हुआ है?" 

अग्निदेव ने उत्तर दिया, "नहीं। मैं कभी असत्य वचन नहीं कह सकता।" इस पर राक्षस पुलोम सूअर का रूप धारण कर भृगु की पत्नी को उठा ले गया। उस समय भृगु की पत्नी पुलोमा पूर्ण गर्भवती थी। मध्य मार्ग में उसका प्रसव हुआ और शिशु पुलोमा के गर्भ से फिसलकर जमीन पर गिर पड़ा। इसलिए वह च्यवन नाम से प्रसिद्ध हुआ। 

शिशु के जन्म के समय जो तेज प्रकट हुआ, उस तेज की आंच में राक्षस पुलोम जलकर भस्म हो गया। ऋषि पत्नी पुलोमा विलाप करते हुए आश्रम को लौट आई। पुलोमा के नेत्रों से अविरल जो अश्रुधारा बह निकली, वह नदी के रूप में प्रकट हुई। उस नदी का नाम पड़ा- वधूसर। आश्रम लौटने पर भृगु को पुलोमा के अपहरण का समाचार मिला। अग्निदेव की असावधानी पर रुष्ट होकर भृगु ने उनको सर्वभक्षक बनने का शाप दे डाला।

बालक च्यवन बचपन से ही भक्ति-भाव रखता था। उसने सोचा कि तपस्या करके कोई महान कार्य संपन्न करना है। इस विचार से उसने निश्चल भाव से अन्न-जल भी त्यागकर तप करना आरंभ किया। कालांतर में उसके चारों तरफ वल्मीक यानी बाम्बियां निकल आईं। बाम्बियों के चतुर्दिक पौधे उग आए। लताओं से बाम्बियां ढक गईं। इन बाम्बियों के कटोरों में पक्षियों ने घोंसले बनाए।

एक दिन राजा शर्याति अपने परिवार के साथ वन-विहार करने निकल पड़े। राजकुमारी सुकन्या अपनी सखियों के साथ वन-विहार करते उस बाम्बी के समीप पहुंची। उसने देखा, बाम्बी के चारों तरफ एक विचित्र प्रकाश फैला हुआ है। उसका कौतूहल बढ़ गया। वह प्रकाश बाम्बी के भीतर से कैसे फूट रहा था, इस रहस्य का पता लगाने के विचार से सुकन्या एक लकड़ी तोड़कर बाम्बी को खोदने लगी।

बाम्बी के भीतर से उसे ये शब्द सुनाई पड़े "बाम्बी मत खोदो। यहां से चले जाओ।" सुकन्या विस्मय में आ गई। उसकी जिज्ञासा दुगुनी हो गई, लेकिन अगले ही क्षण उसने देखा, नक्षत्रों की भांति दो ज्योतियां दमक रही हैं। उनका परीक्षण करने के ख्याल से सुकन्या ने उन प्रकाश बिंदुओं में पतली छड़ी घुसेड़ दी। तत्काल भीतर से रक्त के छींटे छितरा गए। राजकुमारी भयभीत हो अपनी सखियों के साथ वहां से भाग गई।

वास्तव में, प्रकाश की बिंदुएं तपस्या में रत च्यवन की आंखें थीं। च्यवन को अपार पीड़ा हुई। फिर भी वे क्रुद्ध नहीं हुए। निश्चल भाव से पतस्या में समाधिस्थ रहे। परंतु उधर राजा शर्याति के राज्य में नाना प्रकार के उपद्रव प्रारंभ हुए। जनता में त्राहि-त्राहि मच गई। भयंकर व्याधियों का प्रकोप हुआ। मल-मूत्र तक स्तंभित हो गए। 

मनुष्य, पशु और पक्षी भी व्याधिग्रस्त हुए। राजा का मन व्याकुल हो उठा। इन उत्पातों का कारण राजा की समझ में न आया। अकारण राज्य में हलचल मच गई। राजा ने मंत्री, सलाहकार तथा ज्योतिषों को बुलवाकर इन उत्पातों का कारण जानना चाहा, परंतु कोई भी सही समाधान नहीं दे पाए।

राजकुमारी सुकन्या बड़ी बुद्धिमती थी। उसके मन में संदेह हुआ कि कहीं ये सब उत्पात उसकी करनी का फल हो। उसने राजा को सारा वृत्तांत सुनाकर कहा, "पिताजी, मैं समझती हूं कि इन सारे उपद्रवों का कारण मैं ही हूं।" राजा शर्याति विवेकशील पुरुष थे। उन्होंने तत्काल वल्मीक के पास जाकर बड़ी सावधानी से बाम्बी को तुड़वा दिया। तपस्वी च्यवन के चरणों में प्रणाम करके अपनी पुत्री के इस अकृत्य के लिए राजा ने क्षमायाचना की।

च्यवन ने कहा, "राजन! मेरे साथ जो अत्याचार हुआ है, उसका प्रायश्चित केवल यही होगा कि आप अपनी कन्या का विवाह मेरे साथ करें।" च्यवन का उत्तर सुनकर राजा आपादमस्तक कांप उठे। दरअसल, च्यवन वृद्ध हो गए थे, तिस पर कुरूपी और अंधे थे। जुगुप्सा पैदा करनेवाले ऐसे विकृत पुरुष के साथ लावण्यमयी सुशीला और बुद्धिमती कन्या का विवाह! यह सर्वदा असंभव है। यही विचार करके राजा व्यथित हो राजमहल को लौट आए।

राजकुमारी सुकन्या को जब यह समाचार मालूम हुआ, तो उसने च्यवन के साथ विवाह करने की इच्छा प्रकट की। राजा ने विवश होकर सुकन्या का विवाह च्यवन के साथ कर दिया।

विवाह के बाद सुकन्या च्यवन के साथ चली गई। वह बड़ी श्रद्धा-भक्ति से पति की सेवा में लगी रही। उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देती थी। एक दिन सुकन्या नदी से पानी भरकर अपने निवास को लौट रही थी। रास्ते में अश्विनी देवताओं से उसकी भेंट हुई। अश्विनी देवताओं ने सुकन्या के सौंदर्य की प्रशंसा के साथ च्यवन की अवहेलना की और आग्रह किया कि उन दोनों में से किसी एक के साथ वह विवाह करे। यह प्रलोभन भी दिया कि उनके साथ विवाह करने पर उसे सभी प्रकार के सुख-भोग प्राप्त होंगे। इस पर सुकन्या ने उनके इस व्यवहार की कड़ी निंदा की और उन्हें समझाया कि इस प्रकार का प्रस्ताव रखना उन्हें शोभा नहीं देता।

सुकन्या के मुंह से हित वचन सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और बोले, "हमें अश्विनी देवता कहते हैं और हम देवताओं के वैद्य हैं। आप चाहेंगी तो हम आपके पति को पुन: दृष्टि दिलाकर उनको यौवन प्रदान कर सकते हैं, किंतु हमारी एक शर्त है। आपके पति के यौवन प्राप्त करने के बाद आपके सामने तीन युवक प्रत्यक्ष होंगे। तीनों के रूपरंग, नाक-नक्श एक ही प्रकार के होंगे। उनमें से किसी एक को आपको अपने पति के रूप में चयन करना होगा।"

सुकन्या ने यह वृत्तांत अपने पति को सुनाया। च्यवन ने सुकन्या को सलाह दी कि वह अश्विनी देवताओं की शर्त मान ले। इसके बाद अश्विनी देवता और च्यवन पानी में डुबकी लगाकर एक ही प्रकार के युवकों के रूप में बाहर निकले। सुकन्या ने महादेवी से प्रार्थना की कि उसे अपने पति को पहचानने का विवेक प्रदान करें।

महादेवी का अनुग्रह पाकर सुकन्या ने अपने पति को पहचान लिया। च्यवन ने दृष्टि और यौवन पाकर अश्विनी देवताओं से निवेदन किया, "आपने मुझ पर अनुग्रह किया, इसके लिए मैं आपके प्रति हृदय से आभारी हूं। इसके प्रत्युपकार में मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?"

अश्विनी देवताओं ने यज्ञों में सोम भांड दिलाने का आग्रह किया। तपस्वी च्यवन ने अपने श्वसुर राजा शर्याति के द्वारा यज्ञ करवाकर अश्विनी देवताओं को आमंत्रित किया। उस समय सुरपति इंद्र ने सोमपान पर निषेध किया और आदेश दिया कि यज्ञ के समय अश्विनी देवताओं को सोम भांड नहीं दिया जाए। इस पर च्यवन इंद्र के इस आदेश का विरोध करके उनके साथ युद्ध करने के लिए सन्नद्ध हुए। 

इंद्र ने च्यवन का संहार करने के लिए अपने वज्रायुध का प्रयोग करना चाहा, च्यवन ने रुष्ट होकर हुंकार करके इंद्र को ललकारा। इंद्र एकदम स्तंभित हो गए। उसी समय च्यवन ने होम-कुंड से मधु नामक एक राक्षस की सृष्टि की। उसने देवताओं पर आक्रमण करके यज्ञ-भूमि से उनको भगाया। इंद्र स्तंभित थे, इसलिए वे यज्ञ-भूमि से हिल-डुल नहीं सकते थे। उन्होंने देवगुरु बृहस्पति के प्रति प्रार्थना की। 

बृहस्पति ने इंद्र को सलाह दि कि वे च्यवन के समक्ष पराजय स्वीकार करें। इंद्र ने च्यवन के समक्ष नतमस्तक हो उनकी रक्षा करने की प्रार्थना की। तब च्यवन ने मधु को चार भागों में विभाजित किया और उन चार भागों को जुए, आखेट, मद्य और महिला में निक्षेपित किया। इस प्रकार च्यवन ने समस्या का समाधान कर लिया।

जाने रामचरित मानस के सुन्दरकाण्ड का रहस्य

गोस्वामी तुलसीदास की सबसे कालजयी कृति "रामचरित मानस" को आपने जरुर पढ़ा होगा| क्या कभी आपने यह सोचा है कि रामचरित मानस के कुंदर काण्ड को छोड़कर अन्य सभी कांडों के नाम व्यक्ति या स्थितियों के नाम पर रखा गया है| जैसे बाललीला का बालकाण्ड, अयोध्या की घटनाओं का अयोध्या काण्ड, जंगल के जीवन का अरण्य काण्ड, किष्किंधा राज्य के कारण किष्किंधा काण्ड, लंका के युद्ध की चर्चा लंका काण्ड में और जीवन के प्रश्नों का उत्तर फिलॉसफी के साथ उत्तरकाण्ड में दिया गया है। फिर अचानक सुंदरकाण्ड का नाम सुंदर क्यों रखा गया? 

क्या आपको पता है सुन्दरकाण्ड का नाम सुन्दर क्यों रखा गया है? यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि सुन्दरकाण्ड का नाम सुन्दर क्यों रखा गया है| दरअसल, लंका त्रिकुटाचल पर्वत पर बसी हुई थी। तीन पर्वत थे - पहला सुबैल, जहां के मैदान में युद्ध हुआ था। दूसरा, नील पर्वत, जहां राक्षसों के महल बसे हुए थे और तीसरे पर्वत का नाम है सुंदर पर्वत| सुन्दर पर्वत पर ही अशोक वाटिका थी इसी अशोक वाटिका में ही हनुमान जी और सीताजी का मिलन हुआ था इसीलिए इस काण्ड का नाम सुन्दरकाण्ड रखा गया| 

यहां की घटनाओं में हनुमानजी ने एक विशेष शैली अपनाई थी। वे अपने योग्य प्रबंधक शिष्यों को योगी प्रबंधक बनाते हैं, जिसकी आज जरूरत है। सुंदरकाण्ड में इन्हीं बातों के इशारे हैं।