रक्षाबंधन पर भाई को गुर्दा देकर जीवन रक्षा करेगी बहन

भाइयों के लिए बहनों की रक्षा का संकल्प लेने का पर्व है रक्षाबंधन। मगर, मध्य प्रदेश के रतलाम जिले में यह पर्व एक भाई के लिए जीवन रक्षा की सौगात लेकर आ रहा है, क्योंकि राखी पर एक बहन अपना गुर्दा (किडनी) भाई को देने जा रही है। 

रतलाम जिले के ढोढर में रहने वाले नंदकिशोर कुमावत (23 वर्ष) का जीवन संकट के दौर से गुजर रहा है। उनके शरीर में दो की बजाय एक ही गुर्दा है, और वह भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका है। इस स्थिति में उनके जीवन को बचाना आसान नहीं है, जीवन बचाना है तो एक गुर्दे की जरूरत है।

नंदकिशोर इंदौर में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था, तभी अप्रैल 2010 में उसके पेट में दर्द हुआ। इस पर उसने चिकित्सकों को दिखाया, सोनोग्राफी कराई गई तो पता चला कि उसके शरीर में दो नहीं सिर्फ एक ही गुर्दा है और वह भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त है। उसने कई जगह इलाज कराया मगर बात नहीं बनी। चिकित्सकों ने उसे नई किडनी लगवाने की सलाह दी। 

बताते हैं कि नंदकिशोर शादीशुदा है, और इस स्थिति में उसकी पत्नी गंगाबाई, भाई अमृत, भाभी सीमाबाई और चाची कैलाशबाई ने अपनी किडनी देने की पेशकश की मगर उनके टिसू का मिलान नहीं हुआ, लिहाजा इन चारों की किडनी उसके काम नहीं आ सकती थी। 

इस स्थिति में नंदकिशोर की बहन यशोदा (30 वर्ष) ने अपनी किडनी देने की पेशकश की। चिकित्सकीय परीक्षण के बाद पाया गया कि यशोदा की किडनी नंदकिशोर को प्रत्यारोपित की जा सकती है।

चिकित्सक बताते हैं कि हजारों में एक ऐसा प्रकरण होता है, जब किसी व्यक्ति के एक किडनी हो और वह भी क्षतिग्रस्त हो चुकी हो, बहन द्वारा भाई को किडनी दिए जाने के बाद दोनों का जीवन सामान्य रहेगा। 

अहमदाबाद में नंदकिशोर की किडनी का प्रत्यारोपण होगा और ऑपरेशन की तारीख 20 अगस्त रक्षाबंधन के ही आसपास निकल रही है। बहन द्वारा किडनी दिए जाने का जिक्र आते ही नंदकिशोर की आंखें नम हो जाती हैं। वह कहता है कि राखी के पर्व पर भाई बहन की रक्षा का वचन देता है, मेरी बहन अपनी जान की परवाह किए बिना मुझे किडनी देकर जीवन रक्षा करने जा रही है। 

नंदकिशोर की बहन यशोदा के दो बच्चे हैं और पति शांतिलाल ने भी किडनी देने की इजाजत दे दी है। अहमदाबाद के गुर्दा विशेषज्ञ डॉ. मनेाज गुंबज के परामर्श पर नंदकिशोर गुर्दा प्रत्यारोपित करा रहा है। रक्षाबंधन के मौके पर एक बहन द्वारा भाई के जीवन रक्षा की कोशिश सफल हो, हर कोई यही कामना कर रहा है। ताकि भाई-बहन के अटूट रिश्ते का यह पर्व एक मिसाल बन जाए।


पर्दाफाश से साभार

सावन में चढ़ा 'मेहंदी का रंग'


मेहंदी बाजारों में यूं तो महिलाओं का आना पूरे साल लगा रहता है, परंतु सावन में जब प्रकृति स्वयं को हरियाली से संवारती दिखती है तो भारतीय महिलाएं भी अपने साजो-श्रृंगार में हरे रंग की मौजूदगी जरूरी समझती हैं। ऐसे में जब महिलाओं के श्रृंगार की बात हो, तो मेहंदी का जिक्र होना लाजिमी हो जाता है। सावन में मेहंदी का विशेष महत्व है। 

आमतौर पर मान्यता है कि जिसकी मेहंदी जितना रंग लाती है, उसे ससुराल में उतना ही प्यार मिलता है। मेहंदी की सौंधी खुशबू से लड़की का घर-आंगन तो महकता ही है, उसकी सुंदरता में भी चार चांद लग जाते हैं। 

सावन के चलते इन दिनों पटना में मेहंदी बाजारों में विशेष रौनक है। पटना का कोई भी ऐसा मार्केट कांप्लेक्स नहीं है, जहां मेहंदी वाले न हों। 

पटना के डाक बंगला चौराहे के मौर्या लोक कांप्लेक्स में 'अपना मेहंदी वाला' और 'राजा मेहंदी' वाले की दुकानें सजी हुई हैं। बेली रोड के केशव पैलेस में सुरेश मेहंदी वाले और क्लासिक मेहंदी वाले अपनी हुनर से महिलाओं को आकर्षित कर रहे हैं। 

डिजाइनों की मांग के अनुसार अलग-अलग रेट भी हैं। ब्राइडल, बॉम्बे डिजाइन, बैंगल डिजाइन और एरेबिक डिजाइन वाली मेहंदी लगवाने का क्रेज अधिक है। मेहंदी का रंग ज्यादा दिन टिके, इसके लिए काली मेहंदी की मांग हो रही है। 

पटना में तीज त्योहार पर कई ब्यूटी पार्लरों में भी मेहंदी लगाई जाती है। लेकिन वहां अपेक्षाकृत अधिक दाम चुकाने पड़ते हैं। ऐसे में अधिकांश महिलाएं स्थानीय छोटी-छोटी दुकानों का रुख करती हैं। इन दुकानों पर तीन से चार मेहंदी कलाकार बैठे होते हैं, जो सुबह से ही हथेलियों पर अपना हुनर दिखाने में जुट जाते हैं। यह सिलसिला देर शाम तक जारी रहता है। 

क्लासिक मेहंदी वाले बताते हैं कि आमतौर पर सावन में ग्राहकों की संख्या चार गुना बढ़ जाती है। इसे देखते हुए हम भी कारीगरों की संख्या बढ़ा देते हैं। वे बताते हैं कि प्रतिदिन करीब 100 से ज्यादा हाथों पर अपनी कला का नमूना उतारते हैं। आमतौर पर महिलाएं हाथों के दोनों तरफ मेहंदी लगवाती हैं। कई तरह के डिजाइन की भी मांग करती हैं। 

एक अन्य मेहंदी वाले ने बताया कि सिल्वर मेहंदी, गोल्डन मेहंदी, ब्राउन मेहंदी को छोड़कर सारे डिजाइन असली मेहंदी से बनते हैं। इसका रंग भी अपेक्षाकृत अधिक दिन टिकता है। उन्होंने बताया कि सिल्वर, गोल्डन और ब्राउन मेहंदी आमतौर पर शादी समारोह में ही लगवाई जाती है। उनके मुताबिक मारवाड़ी और राजस्थानी मेहंदी की मांग ज्यादा होती है। 

पटना के जगदेवपथ में एक ब्यूटी पार्लर संचालिका तान्या ने आईएएनएस को बताया कि इन दिनों मेहंदी फैशन का हिस्सा बन चुकी है, इसीलिए इसकी मांग भी बढ़ी है। उनका दावा है कि मेहंदी हार्मोन को प्रभावित करती है। ब्लड प्रेशर भी नियंत्रित रखती है। 

इधर, मेहंदी लगवाने पहुंची कॉलेज छात्रा दीप्ति कहती है कि "मुझे मेहंदी लगवाना पसंद है। सावन में तो इसका अपना महत्व है।" दीप्ति ब्राइडल मेहंदी पसंद करती हैं, क्योंकि इसके डिजाइन से हाथ की खूबसूरती बढ़ जाती है। 

दीप्ति कहती हैं कि आखिरकार मेहंदी सजने की वस्तु है तो महिलाएं-युवतियां सावन में इससे दूर कैसे रह सकती हैं?

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बुंदेलखंड में अब नहीं सुनाई देते सावन के गीत

'झूला तो पड़ गयो अमवा की डार मा.' सावन का महीना आते ही बुंदेलखंड के हर बगीचे में झूले पड़ जाया करते थे और बुंदेली महिलाएं 'ढोल-मंजीरे' की थाप में इस तरह के सावन के गीत गाया करती थीं। लेकिन, अब जहां एक ओर बगीचे नहीं बचे, वहीं दूसरी ओर सावन गीत के स्वर दूर-दूर तक नहीं सुनाई दे रहे। 

बुंदेलखंड पुरानी परम्पराओं व रिवाजों का गढ़ रहा है। यहां हर तीज-त्यौहार बड़े ही हर्षोल्लास और भाईचारे के साथ मनाने का रिवाज रहा है। सावन का महीना आते ही बाग-बगीचों में झूले पड़ जाया करते थे और बुंदेली महिलाएं दो गुटों में बंट कर 'ढोल-मंजीरे' की थाप में मोरों की आवाज के बीच सावन गीत गाया करती थीं। 

इन्हीं गीतों के साथ ससुराल से नैहर वापस आईं बेटियां झूलों में 'पींग' भरती थीं। अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है। बुंदेलखंड के लोग अपने हरे-भरे आम के बागों का नामोशिान मिटा रहे हैं। इससे न तो झूले डालने की गुंजाइश बची है और न ही महिलाएं गीत गाती नजर आ रहीं हैं। रही बात राष्ट्रीय पक्षी मोर की तो वह यदा-कदा ही दिखाई दे रहे हैं।

बांदा जिले के तेन्दुरा गांव की बुजुर्ग महिला सुरतिया कहती हैं, "एक दशक पूर्व तक इस गांव के चारों तरफ बस्ती से लगे हुए कई आम के बगीचे थे, जहां सावन मास में झूले लगा करते थे।" 

इसी गांव के एक अन्य बुजुर्ग देउवा माली ने बताया, "पहले हर किसी के मन में बेटियों के प्रति सम्मान हुआ करता था, अब राह चलते छेड़छाड़ की घटनाएं हो रही हैं। साथ ही आपसी सामंजस्य व भाईचारा नहीं रह गया, जिससे बेटियों को दूर-दराज बचे बगीचों में भेजने से डर लगता है।"

पति की लंबी उम्र के लिए महिलाएं रखें हरियाली तीज का व्रत

तीज का त्यौहार भारत के भारत भागों में बहुत जोश और उल्लास के साथ मनाया जाता है| यह त्यौहार खासतौर पर महिलाओं का त्यौहार है| तीज का आगमन वर्षा ऋतु के आगमन के साथ ही आरंभ हो जाता है| सावन के महीने के आते ही आसमान काले मेघों से आच्छ्दित हो जाता है और वर्षा की बौछर पड़ते ही हर वस्तु नवरूप को प्राप्त करती है| ऎसे में भारतीय लोक जीवन में हरियाली तीज या कजली तीज महोत्सव मनाया जाता है|

श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन श्रावणी तीज, हरियाली तीज मनायी जाती है इसे मधुस्रवा तृतीय या छोटी तीज भी कहा जाता है| इस बार हरियाली तीज 9 अगस्त दिन शुक्रवार को पड़ रही है| हरियाली तीज में महिलाएं व्रत रखती हैं इस व्रत को अविवाहित कन्याएं योग्य वर को पाने के लिए करती हैं तथा विवाहित महिलाएं अपने सुखी दांपत्य की चाहत के लिए करती हैं|

हरियाली तीज पूजा एवं व्रत-

अपने सुखी दांपत्य जीवन की कामना के लिये स्त्रियां यह व्रत किया करती हैं| इस दिन व्रत रखकर भगवान शंकर-पार्वती की बालू से मूर्ति बनाकर षोडशोपचार पूजन किया जाता है जो रात्रि भर चलता है| सुंदर वस्त्र धारण किये जाते है तथा कदली स्तम्भों से घर को सजाया जाता है| इसके बाद मंगल गीतों से रात्रि जागरण किया जाता है| इस व्रत को करने वालि स्त्रियों को पार्वती के समान सुख प्राप्त होता है|

हरियाली तीज कथा-

हरियाली तीज पर एक धार्मिक किवदंती प्रचलित है जिसके अनुसार पौराणिक काल में देवी पार्वती भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए व्रत रखती हैं| जिस कारण उन्हें भगवान शिव का मिलन प्राप्त हुआ था| इसके अतिरिक्त कहा जात है कि श्रावण शुक्ल तृतीया के दिन देवी पार्वती ने सौ वर्षों की तपस्या साधना पश्चात भगवान शिव को प्राप्त कर पातीं हैं| इसी कारण से विवाहित महिलाएं इस व्रत को अपने सुखी विवाहित जीवन की कामना के लिए करती हैं| इस दिन स्त्रियां माँ पार्वती का पूजन करती हैं अविवाहित और विवाहित स्त्री दोनों ही इस व्रत को कर सकती हैं| समस्त उत्तर भारत में तीज पर्व बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है|

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उप्र में नेताओं की चरण वंदना की परम्परा

उत्तर प्रदेश में आईएएस दुर्गा शक्ति नागपाल जैसे कुछ नौकरशाह अपनी ईमानदारी और कर्तव्य पालन के लिए उदाहरण पेश करते हैं तो कुछ नौकरशाह मंत्रियों की चापलूसी करने के लिए सरेआम उनके पैर छूकर नौकरशाही की गरिमा को ताक पर रख देते हैं। हालिया मामला इटावा जिले का है, जहां अपर पुलिस अधीक्षक ऋषिपाल सिंह और सिटी मजिस्ट्रेट शारदा प्रसाद यादव ने सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान स्थानीय विधायक एवं राज्य सरकार के सबसे कद्दावर मंत्री शिवपाल सिंह यादव के पैर छुए। 

मामले के तूल पकड़ने के बाद जब शिवपाल सिंह यादव से इस बाबत सवाल किया गया तो उन्होंने कहा,"पैर छूना हमारी संस्कृति रही है। वैसे मैं तो सभी को यहां तक की पार्टी कार्यकर्ताओं को भी पैर छूने से मना करता हूं, लेकिन अगर कोई छू लेता है तो मैं क्या करूं।"

इससे पहले बीते साल भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के अधिकारी अजय मोहन शर्मा द्वारा समाजवादी पार्टी के थिंक टैंक कहे जाने वाले सांसद रामगोपाल यादव के पैर छूने का फुटेज समाचार चैनलों पर प्रसारित होने के बाद अधिकारियों द्वारा नेताओं के पैर छूने के बढ़ते चलन पर खूब बहस हुई थी।

वरिष्ठ आईपीएस एवं राज्य के पुलिस महानिरीक्षक (कानून-व्यवस्था) राजकुमार विश्वकर्मा ने इस संबंध में कहा कि अफसर घर में मां-बाप का तो पैर छू सकते हैं, लेकिन आधिकारिक तौर पर किसी के पैर छूने का प्रावधान नहीं है। जानकारों का कहना है कि मंत्रियों की चापलूसी करके निजी स्वार्थ के लिए कुछ अफसर नौकरशाही की गरिमा को ताक पर रखकर पैर छूते हैं। इस तरह से वे संबंधित मंत्री या नेता के प्रति अपनी वफादारी साबित करते हैं, जो अफसरों के निर्धारित आचरण के खिलाफ है।

पूर्व पुलिस महानिरीक्षक एस़ आऱ दारापुरी ने कहा कि इस तरह नेताओं की चरण वंदना करना 'कोड ऑफ कंडक्ट' के खिलाफ है। अगर ड्यूटी के दौरान किसी का अभिवादन करना है तो सैल्यूट ही एक निर्धारित अभिवादन का तरीका है। इस तरह के कृत्य करने वाले पर वैसे तो एक निर्धारित कार्रवाई के तहत दंड का प्रावधान है, लेकिन सत्ताधारी दल के नेता या मंत्री की चरण वंदना करने पर कार्रवाई की बात बेमानी हो जाती है।

दारापुरी के मुताबिक किसी अधिकारी द्वारा इस तरह निर्धारित आचरण के खिलाफ कृत्य करने पर उसकी कंट्रोलिंग अथारिटी द्वारा उसे कारण बताओ नोटिस दिया जाना चाहिए। जवाब संतोषजनक न पाए जाने पर दंड के लिए शासन से संस्तुति की जाए।

उन्होंने कहा कि शासन इस पर संबंधित अधिकारी को या तो लिखित चेतावनी या फिर उसकी चरित्र पंजिका में निंदा प्रविष्टि दर्ज करके दंड दे सकता है। उत्तर प्रदेश में अफसरों द्वारा गरिमा तो ताक पर रखकर चरण वंदना करना नई रवायत नहीं है। एक पुलिस उपाधीक्षक द्वारा पिछली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सरकार के शासनकाल में तत्कालीन मुख्यमंत्री की जूती साफ करने का मामला सामने आया था। इस मामले ने मीडिया में आने के बाद खूब तूल पकड़ा था।

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जब गाँधी ने दिए रबीन्द्रनाथ को 60 हजार रुपये

गुरुदेव के नाम से विख्यात रवींद्रनाथ ठाकुर महान कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और नोबल पुरस्कार से सम्मानित होने वाले एकमात्र भारतीय साहित्यकार हैं। ठाकुर का 7 अगस्त, 1941 को निधन हो गया था। रवींद्रनाथ ठाकुर भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकने वाले युगद्रष्टा कवि थे। साहित्य में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने वाले वे एशिया के प्रथम व्यक्ति हैं। वे एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनकी दो अलग-अलग रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान हैं। भारत का राष्ट्र-गान 'जन गण मन' और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान 'आमार सोनार बांग्ला' गुरुदेव की ही रचनाएं हैं।

रवींद्रनाथ ठाकुर का जन्म देवेन्द्रनाथ टैगोर और शारदा देवी की संतान के रूप में 7 मई, 1861 को कोलकाता के जोड़ासांको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनकी स्कूल की पढ़ाई सेंट जेवियर स्कूल में हुई। उन्होंने बैरिस्टर बनने की चाहत में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटाऊन में पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया, लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही स्वदेश वापस आ गए। सन 1883 में मृणालिनी देवी के साथ उनका विवाह हुआ।

बचपन से ही उनमें कविता, छंद और भाषा में अद्भुत प्रतिभा की झलक मिलने लगी थी। उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी और 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी।

ठाकुर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि शामिल हैं।

टैगोर को बचपन से ही प्रकृति का सान्निध्य बहुत भाता था। वह हमेशा सोचा करते थे कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए। इसी सोच को मूर्तरूप देने के लिए वह 1901 में सियालदह छोड़कर आश्रम की स्थापना करने के लिए शांतिनिकेतन आ गए। प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शांतिनिकेतन की स्थापना की।

टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की। रवींद्र संगीत बांग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग है। टैगोर के संगीत को उनके साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। उनकी अधिकतर रचनाएं तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं के अलग-अलग रंग प्रस्तुत करते हैं।

गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लांति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं।

ठाकुर और महात्मा गांधी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहां गांधी पहले पायदान पर राष्ट्रवाद को रखते थे, वहीं टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे। लेकिन दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। ठाकुर ने गांधीजी को महात्मा का विशेषण दिया था। एक समय था जब शांतिनिकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था और गुरुदेव देश भर में नाटकों का मंचन करके धन संग्रह कर रहे थे। उस वक्त गांधी जी ने टैगोर को 60 हजार रुपये के अनुदान का चेक दिया था।

उनकी काव्यरचना गीतांजलि के लिये उन्हें सन् 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। 

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लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ ने बदल दी जीवनधारा

हिंदी साहित्याकाश में परम नक्षत्र माने जाने वाले महाकवि गोस्वामी तुलसीदास भक्तिकाल की सगुण धारा की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं। तुलसीदास एक साथ कवि, भक्त तथा समाज सुधारक इन तीनो रूपों में मान्य हैं। इनके गुरु बाबा नरहरिदास ने उन्हें दीक्षा दी थी। तुलसीदास का अधिकांश जीवन चित्रकूट, काशी तथा अयोध्या में बीता। तुलसीदासजी का जन्म संवत 1589 को उत्तर प्रदेश में आज के बांदा जिले के राजापुर ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। इनका विवाह दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। अत्याधिक प्रेम के कारण तुलसी को मिली रत्नावली से फटकार "लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ" ने महाकवि की जीवनधारा बदल दी।

तुलसी का बचपन बड़े कष्टों में बीता। अल्प वय में ही माता-पिता दोनों चल बसे और उन्हें भीख मांगकर अपना पेट पालना पड़ा था। कहा जाता है कि जन्म लेने के बाद तुलसीदास के मुख से राम का उच्चारण हुआ था।

नरहरि बाबा ने तुलसीदास को तलाशा और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे अयोध्या ले गए और उनका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया। बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मंत्र का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गए। इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पांच संस्कार कर रामबोला को राममंत्र की दीक्षा दी और अयोध्या ही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे।

बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हें वह कंठस्थ हो जाता था। वहां से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुंचे। वहां श्री नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह काशी चले आये। काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पंद्रह वर्ष तक वेद-वेदांग का अध्ययन किया।

इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि को लौट आये। वहां आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार नष्ट हो चुका है। उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का श्राद्ध किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे।

अपने दीर्घकालीन अनुभव और अध्ययन के बल पर तुलसी ने साहित्य को अमूल्य कृतियों से समृद्ध किया, जो तत्कालीन भारतीय समाज के लिए तो उन्नायक सिद्ध हुई ही, आज भी जीवन को मर्यादित करने के लिए उतनी ही उपयोगी हैं। तुलसीदास द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 39 बताई जाती है। इनमें रामचरित मानस, कवितावली, विनयपत्रिका, दोहावली, गीतावली, जानकीमंगल, हनुमान चालीसा, बरवै रामायण आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

गोस्वामीजी श्रीसंप्रदाय के आचार्य रामानंद की शिष्यपरंपरा में थे। इन्होंने समय को देखते हुए लोकभाषा में 'रामायण' लिखा। इसमें वर्णाश्रमधर्म, अवतारवाद, साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का यथोचित सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और वेदमार्ग का महिमामंडन और साथ ही उस समय के विधर्मी अत्याचारों और सामाजिक दोषों की एवं पन्थवाद की आलोचना की गई है।

तुलसीदास कृत रामचरित मानस इतनी लोकप्रिय है कि मूर्ख से लेकर महापंडित तक के हाथों में आदर से स्थान पाती है। उस समय की सारी शंकाओं का रामचरितमानस में समाधान है। अकेले इस ग्रन्थ को लेकर यदि गोस्वामी तुलसीदास चाहते तो अपना अत्यंत विशाल और शक्तिशाली संप्रदाय चला सकते थे। यह एक सौभाग्य की बात है कि आज यही एक ग्रन्थ है, जो सांप्रदायिकता की सीमाओं को लांघकर सारे देश में व्यापक और सभी मत-मतांतरों में पूर्णतया मान्य है।

सबको एक सूत्र में ग्रथित करने का जो काम पहले शंकराचार्य स्वामी ने किया, वही अपने युग में और उसके पीछे आज भी गोस्वामी तुलसीदास ने किया। वैष्णव, शैव, शाक्त आदि सांप्रदायिक भावनाओं और पूजापद्धतियों का समन्वय उनकी रचनाओं में पाया जाता है। वे आदर्श समुच्चयवादी सन्त कवि थे। तुलसीदास का निधन 1623 ईस्वी में हुआ।

अपने जीवनकाल में तुलसीदास जी ने 12 ग्रन्थ लिखे और उन्हें संस्कृत विद्वान होने के साथ ही हिंदी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक माना जाता है। श्रीराम जी को समर्पित ग्रन्थ श्री रामचरितमानस वाल्मीकि रामायण का प्रकारांतर से अवधी भाषांतर था जिसे समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। विनयपत्रिका तुलसीदासकृत एक अन्य काव्य है। 
 
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काजोल के 39वें जन्मदिन पर विशेष.........

बॉलीवुड की खुबसूरत अभिनेत्री काजोल आज अपना 39 वां जन्मदिन मना रही हैं। पांच अगस्त 1975 को मुंबई में जन्मी काजोल अपने अभिनय से लाखों दिलों की धड़कन बन गयीं। काजोल को बचपन से ही फिल्मों में अभिनय का शौक रहा और रहे भी क्यों न काजोल की माँ तनूजा अपने समय की एक जानी मानी अभिनेत्रियों में से एक थीं जबकि पिता सोमु मुखर्जी एक निर्माता रहे|

वर्ष 1992 में निर्देशक राहुल रवैल की फिल्म बेखूदी के साथ काजोल ने अपनी फिल्मी करियर की शुरुआत की। काजोल की पहली फिल्म सफल तो नहीं रही लेकिन सावली सलोनी रूप वाली काजोल को फिल्मे मिलने लगी। वर्ष 1993 में शाहरूख खान के साथ उन्होंने 'बाजीगर' के रूप में अपनी पहली हिट फिल्म दी। इस फिल्म ने कामयाबी के झंडे गाड़ दिए। इसके साथ ही काजोल और शाहरूख की जोड़ी दर्शकों के दिलों पर राज करने लगीं। इस सफल जोड़ी को दर्शक आज तक नहीं भूले। आज भी जब इनकी जोड़ी सिल्वर स्क्रीन पर एक साथ होती है तो उसे दर्शकों का वही प्यार मिलता है जो 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' या फिर 'बाजीगर' को मिली थी। काजोल की फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे को बॉलीवुड के इतिहास की सबसे कामयाब फिल्मों में गिना जाता है। यह फिल्म इस कदर कामयाब हुई कि आज तक चल रही है। 

काजोल ने अपने फ़िल्मी करियर में हर तरह की भूमिकाएं निभायीं और हर भूमिका को बेहद खूबसूरती के साथ निभाया। गुप्त, इश्क, प्यार किया तो डरना क्या, कुछ-कुछ होता है, प्यार तो होना ही था, फना जैसी कामयाब फिल्में दी। फिल्म गुप्त में निभाए गए उनकी नकारात्मक चरित्र के लिए काजोल को सर्वश्रेष्ठ खलनायक के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास का पहला मौका था जब किसी अभिनेत्री को सर्वश्रेष्ठ खलनायक का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया था। 

वर्ष 1999 में उन्होंने अभिनेता अजय देवगन के साथ सात फेरे लिए। अजय देवगन और काजोल की जोड़ी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बेस्ट जोड़ियों में शुमार की जाती है। काजोल ने अजय को अपनी जीवन में उस समय शामिल किया जब उनका कैरियर अपने बुलंदियों पर था। शादी के बाद काजोल ने अपना वक़्त अपने घर परिवार को देना शुरू किया अपने दो बच्चों बेटी न्यासा और बेटे युग को पूरा समय देने लगी।

दो बच्चों न्यासा और युग की मां काजोल ने शादी के बाद भी 'फना', 'माई नेम इज खान' और 'कभी खुशी कभी गम' समेत कई हिट फिल्में दीं। वर्ष 2010 में आई फिल्म माय नेम इज खान काजोल और शाहरुख़ की यह फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर काफी सफल रही। अब काजोल घर के साथ-साथ अपनी फ़िल्मी करियर पर भी ध्यान दे रहीं हैं। काजोल के नाम अपनी सबसे ज्यादा पांच बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्फेयर पुरस्कार पाने का रिकॉर्ड है।

परशुराम ने चलाई थी कांवड़ की परंपरा

भगवान परशुराम ने अपने आराध्य देव शिव के नियमित पूजन के लिए पुरा महादेव में मंदिर की स्थापना कर कांवड़ में गंगाजल से पूजन कर कांवड़ परंपरा की शुरुआत की जो आज भी देशभर में काफी प्रचलित है। यहां के पंडित विनोद पाराशर ने कहा कि कांवड़ की परंपरा चलाने वाले भगवान परशुराम की पूजा भी श्रावण मास में की जानी चाहिए।

उन्होंने बताया कि भगवान परशुराम श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को कांवड़ में जल ले जाकर शिव की पूजा-अर्चना करते थे। शिव को श्रावण का सोमवार विशेष रूप से प्रिय है। श्रावण में भगवान आशुतोष का गंगाजल व पंचामृत से अभिषेक करने से शीतलता मिलती है। 

पंडित विनोद पाराशर ने बताया कि भगवान शिव की हरियाली से पूजा करने से विशेष पुण्य मिलता है। खासतौर से श्रावण मास के सोमवार को शिव का पूजन बेलपत्र, भांग, धतूरे, दूर्वाकुर आक्खे के पुष्प और लाल कनेर के पुष्पों से पूजन करने का प्रावधान है। इसके अलावा पांच तरह के जो अमृत बताए गए हैं उनमें दूध, दही, शहद, घी, शर्करा को मिलाकर बनाए गए पंचामृत से भगवान आशुतोष की पूजा कल्याणकारी होती है।

भगवान शिव को बेलपत्र चढ़ाने के लिए एक दिन पूर्व सायंकाल से पहले तोड़कर रखना चाहिए। पंडित पाराशर ने सोमवार को बेलपत्र तोड़कर भगवान पर चढ़ाने को गलत बताया। उन्होंने भगवान आशुतोष के साथ शिव परिवार, नंदी व भगवान परशुराम की पूजा को भी श्रावण मास में लाभकारी बताया। 

शिव की पूजा से पहले नंदी व परशुराम के पूजन की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि शिव का जलाभिषेक नियमित रूप से करने से वैभव और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है।

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आंवले के पेड़ में प्रकट हुए हनुमान!

आधुनिकता के इस युग में भी अंधविश्वास सिर चढ़कर बोल रहा है। कुछ लोगों ने उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के बिठवल खुर्द गांव में एक आंवले की कटी डाल में उभरी आकृति को 'हनुमान' के अचानक प्रकट होने का सिर्फ ढिंढोरा ही नहीं पीटा, बल्कि पूजा-अर्चना शुरू कर वहां मंदिर निर्माण तक की योजना बना डाली है। 

हुआ यह कि बिठवल खुर्द गांव में बब्बन सिंह के दरवाजे पर एक काफी पुराना आंवले का पेड़ है। उसकी बढ़ी हुई डालों के कारण आम रास्ता प्रभावित हो रहा था, इसलिए बब्बन सिंह ने कुछ दिन पूर्व डालियों की छटनी करा दी। फिर क्या था, कटी डाल के हिस्से से हनुमान के चेहरे जैसी आकृति उभर आई। शनिवार को गांव के ग्रामीणों की नजर पड़ी तो वह इसे एक चमत्कार मान बैठे और उस आकृति में घी-सिंदूर का लेपन कर पूजा-अर्चना शुरू कर दी। 

अब रोजाना यहां भक्तों की भीड़ जमा हो रही है। गांव के कुछ अति उत्साही युवकों ने इस स्थान पर अखंड रामचरित मानस का पाठ भी शुरू करवा दिया है। गांव के युवक अरविंद सिंह ने बताया कि इस स्थान पर हनुमान मंदिर निर्माण के लिए एक पांच सदस्यीय टीम गठित की गई है, जो आस-पास के गांवों में घूमकर चंदा इकट्ठा कर रही है। 

अरविंद ने बताया कि शीघ्र ही यहां एक भव्य हनुमान मंदिर का निर्माण कराया जाएगा। एक अन्य युवक मुन्ना सिंह ने बताया कि आंवले के पेड़ में उभरी आकृति हूबहू हनुमान जी जैसी है। आस-पास के गांव के भी सैकड़ों लोग यहां रोजाना दर्शन और पूजन करने आ रहे हैं।

दातापंथी साधु दाता सत्बोध साईं का कहना है कि यह कोई चमत्कार नहीं है। पेड़ की कटी डाल में कोई भी आकृति उभर सकती है। वह कहते हैं कि यह इत्तेफाक ही है कि आकृति हनुमान के चेहरे जैसी है। मगर इसे हनुमान का दर्जा देना किसी अंधविश्वास से कम नहीं है।

जब जागो तभी सवेरा


यह कहानी बाराबंकी के इलियासपुर (लेसवा) गाँव की है। इस गाँव में एक प्राईमरी स्कूल है। शिव अपने परिवार का इकलौता बेटा है। शिव अपने ही गाँव के स्कूल में पांचवी कक्षा का छात्र है। वह सीधा- साधा और मेहनती बालक है। यह दूसरे लड़कों की अपेक्षा पढ़ने में भी बहुत अच्छा है। इस स्कूल में इसका केवल एक ही मित्र है। वह है ऋतुराज। ऋतुराज भी पढ़ने में बहुत अच्छा है। कक्षा में हमेशा प्रथम स्थान लाता है। कक्षा में कुछ शरारती बच्चों का गैंग है। जो आय दिन दादागिरी दिखाते हैं। स्कूल के बाहर निकलते ही लड़को से झगड़ा करते हैं। शिव इन बच्चों से प्रभावित होकर उनसे दोस्ती का हाथ बढ़ाता है। ऋतुराज यह देख तुरन्त शिवा को समझाने की कोशिश करता है। और कहता है - शिवा यह तुम क्या कर रहे हो। यह लोग पढ़ने नही आते हैं। ये लोग रात को चोरी भी करते हैं। तुम इनके साथ रहना चाहते हो। लेकिन शिवा ने ऋतुराज की एक न सुनी और उनसे दोस्ती का हाथ बढ़ा ही लिया। शिवा अब ऋतुराज से दूर रहने लगा। ये शरारती बच्चे स्कूल से निकलकर बाहर बैठकर घंटो सिगरेट पीते। एक दिन सभी ने शिवा से कहा कि लो शिवा तुम भी पियो अलग क्यों खडे हो हम अभी से पीना नहीं सिखेंगे तो कब सिखेंगे। षिवा उनके कहने पर ध्यान नहीं दिया और दूर खड़ा रहा। उसने सिगरेट नहीं पी।

एक दिन गाँव में रामलीला हो रही थी। उस दिन शिवा भी अपने दोस्तों के साथ रामलीला देखने गया। वहां इनके दोस्तों ने बैठने को लेकर एक लड़के से झगड़ा कर लिया। वह लड़का तुरन्त अपने दोस्तों को बुलाकर लाया जो कि शिवा की उम्र से काफी बड़े थे। इन बड़े बच्चों को देखकर शिवा के सभी दोस्त भाग निकले। उन लोगों ने शिवा को पकड़ लिया और उसकी जमकर पिटाई की। मार खाने के बाद शिवा को बहुत पछतावा हुआ कि मुझे तो व्यर्थ में ही मार पड़ गयी। अगर मैं आज ऋतुराज की बात मान लेता तो यह दिन नहीं देखने को मिलता। अगले दिन शिवा स्कूल जाकर ऋतुराज से माफी माँगी। ऋतुराज शिवा को माफ करके उसको गले से लगा लिया और कहने लगा कि जब जागो तभी सवेरा। आज शिवा ने यह ठान लिया कि पढ़ाई के अलावा कोई भी फिजूल कार्य नहीं करेगा।

उप्र में बालू का अवैध खनन फायदे का धंधा क्यों?


उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा ग्रेटर नोएडा की एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन से राजनीतिक एजेंटों, बालू खनन माफिया और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एनसीआर जिले में सक्रिय रीअल इस्टेट कारोबारियों के बीच सांठगांठ उजागर हुआ है। दुर्गा का निलंबन सही काम करने वाले अधिकारी पर हमला है, इसी कारण इसकी व्यापक निंदा हो रही है, मगर यह कोई पहला मामला नहीं है।

पूर्व में एक अनुमंडल दंडाधिकारी (एसडीएम) विशाल सिंह पर कातिलाना हमला हो चुका है। पुलिस में शिकायत दर्ज हुई, लेकिन कुछ नहीं हुआ और विशाल सिंह को नेपथ्य में भेज दिया गया। नोएडा, ग्रेटर नोएडा और गाजियाबाद जिलों में चल रहे निर्माण कार्यो के लिए बालू की मांग में हो रही निरंतर ने वृद्धि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यमुना और हिंडन नदियों से बालू उत्खनन बढ़ावा दिया है।

बिल्डरों के करीबी सूत्रों ने बताया कि सबको सस्ते बालू की तलाश रहती है। यह बालू हिंडन, यमुना और गंगा नदियों में गैरकानूनी तरीके से खुदाई करने वाले माफिया से प्राप्त होता है। एक लाइसेंसधारी आपूर्तिकर्ता राज्य को रायल्टी चुकाने के बाद ऊंची कीमत, करीब 20,000 रुपये प्रति डंपर के हिसाब से बालू बेचता है। इतना ही बालू एक गैरकानूनी आपूर्तिकर्ता 8000 रुपये में ट्रांसपोर्टरों को मुहैया कराता है जो भवन निर्माताओं को 10,000 रुपये में बेचते हैं।

गैरकानूनी खनन के बारे में प्रशासन को कई बार सूचना देने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और पूर्व नेता दुष्यंत नागर ने कहा, "एसडीएम नागपाल के निलंबन के पीछे केवल बालू खनन माफिया ही नहीं हैं, बिल्डरों की लॉबी का भी इस प्रकरण में प्रभावी भूमिका है। असल में उनकी भूमिका बड़ी है।"

उत्तर प्रदेश सरकार ने हालांकि यह दलील दी है कि नागपाल के निलंबन के पीछे बालू खनन नहीं है, बल्कि उनका एक धार्मिक स्थल की दीवार गिराने का आदेश है। भारतीय प्रशासनिक सेवा में उनके साथियों ने निलंबन पर एकजुटता दिखाई है और केंद्र सरकार से मामले में हस्तक्षेप की मांग की है। बिल्डरों की संभावित भूमिका को स्पष्ट करते हुए नागर ने कहा, "गैरकानूनी बालू खनन से सबसे ज्यादा लाभ बिल्डर ही उठाते हैं, क्योंकि माफिया उन्हीं के लिए काम करते हैं।"

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चांद पूरा पर नींद अधूरी


आपकी नींद उड़ाने के लिए कोई और नहीं बल्कि हमारी धरती का एकमात्र उपग्रह चांद ही दोषी है। चांद और चांदनी रात को भले ही अब तक सुकून पहुंचाने वाला माना जाता रहा हो, लेकिन वैज्ञानिकों ने हाल में किए गए एक अध्ययन के आधार पर कहा है कि मनुष्य की नींद चांद की भूभौतिकीय गति से प्रभावित होती है।

शोधकर्ताओं ने एक दिलचस्प तथ्य खोजा कि पूर्ण चांद (पूर्णिमा) के दौरान मनुष्य के मस्तिष्क की गहरी नींद से जुड़ी गतिविधि में 30 प्रतिशत तक की गिरावट आ जाती है। वैज्ञानिकों ने पाया कि पूर्णिमा के दौरान मनुष्यों को नींद आने में पांच मिनट अधिक समय लगता है तथा वे अपने सोने के कुल समय से 20 मिनट कम ही सो पाते हैं। एक वेबसाइट के अनुसार, स्विट्जरलैंड के बासेल विश्वविद्यालय के मनोरोग अस्पताल में क्रोनोबायोलॉजिस्ट और नींद पर शोध करने वाले क्रिस्टियन काओशेन के मन में इसकी आशंका तब उत्पन्न हुई जब उन्होंने देखा कि लोग ज्यादातर पूर्णिमा की रात नींद न आने की शिकायत करते हैं।

काओशेन ने अपने सहयोगियों के साथ कुछ समय पूर्व चार वर्ष तक किए गए शोध के आंकड़ों का पुन: अध्ययन किया। यह शोध पूर्ण रूप से स्वस्थ, खूब नींद लेने वाले और किसी तरह के मादक पदार्थ का सेवन न करने वाले लोगों पर किया गया था। शोध के आंकड़ों का दोबारा अध्ययन करने के बाद काओशेन और उनके सहयोगियों ने पाया, "चांद की गतिविधि का मानव की नींद से गहरा संबंध है, यहां तक कि जब मनुष्य चांद को न देखे तब भी और उसे चांद की अवस्था के बारे में न पता हो तब भी।"

लाइवसाइंस ने काओशेन के हवाले से कहा, "मैं अपने परिणामों को प्रकाशित करवाता इसमें मुझे चार वर्ष लग गए, क्योंकि खुद मुझे ही इस पर विश्वास नहीं हो रहा था।"काओशेन का यह शोधपत्र विज्ञान शोध की पत्रिका 'करेंट बायोलॉजी' में प्रकाशित हुआ। काओशेन तो यहां तक कहते हैं कि हो सकता है कि चांद में हमारे स्वभाव, जैसे हमारी संज्ञानात्मक प्रतिक्रियाएं या हमारे मूड को भी प्रभावित करने वाली शक्ति हो।

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